सोमवार, 6 जनवरी 2014

'झाड़ू ' से उम्मीद सब करने लगे हैं।

     इन दिनों दिल्ली में आम आदमी पार्टी की 'आंशिक' सफलता से  बहुत सारे नर-नारी,पढ़े -लिखे युवा-छात्र नौजवान  अति उत्साहित हैं. कुछ वे लोग भी गदगदायमान हैं जिन्हें जनता के इन्हीं सवालों को लेकर देश में निरंतर  चल रहे  प्रगतिशील आंदोलन,  वामपंथी ट्रेड यूनियन  आन्दोलनों  और विभिन्न सामाजिक-आर्थिक  सांस्कृतिक -साहित्यिक और देशभक्तिपूर्ण  -जनसंघर्षों की जानकरी ही नहीं है. इनके अलावा कुछ वे भारतीय भी 'आप' से ज़रा ज्यादा ही  आशान्वित हैं जो सोचते हैं कि भ्रष्टाचार,महंगाई तथा व्यवस्था परिवर्तन के  शाश्वत सवालों को केवल  अण्णा हजारे नुमा अनगढ़ अनशनों  या 'आप' के विचारधाराविहीन राजनैतिक हस्तक्षेपों के प्रयोग से  ही हल किया जा सकता है। वर्तमान राजनैतिक प्रहसन और तदनुरूप  विडंबनाओं  पर व्यंग  करते हुए  मेरे  मित्र  'प्रेम -पथिक' ने  मोबाइल पर सन्देश भेजा है :-

   फूल भी अब शूल से लगने लगे हैं। …

    हाथ के नाखून भी चुभने लगे हैं। ....


    गंदगी का राज है चारों तरफ  तो ,

   'झाड़ू ' से उम्मीद सब करने लगे हैं।

     अपने अल्पज्ञान और  सामान्य बुद्धि के वावजूद मैनें भी  विगत वर्ष- यूपीए सरकार की विनाशकारी आर्थिक नीतियों , कांग्रेस  के भ्रष्टाचार और उसकी   संगठनात्मक  खामियों ,भाजपा और  नमो  के ढपोरशंखी दिशा - हीन  दुष्प्रचार   तथा  अण्णा  हजारे -स्वामी  रामदेव जैसे अगम्भीर और 'टू इन वन' खंडित  चोंचलेबाजों  के खिलाफ  निरंतर लिखा है। जो मेरे अपने  ब्लॉग- www.janwadi.blogspot.com   पर ,प्रवक्ता . कॉम  पर   , हस्तक्षेप .कॉम पर, फ़ेस बुक और ट्वीटर  पर निरंतर  प्रकाशित भी होता रहा है। अभी भी जस का तस संगृहीत है।  इसका उल्लेख मैं इसलिए  नहीं कर रहा हूँ कि उसमें   मेरा वह अनुमान या आकलन  सही सावित हुआ  है जो ये बताता है कि दिल्ली[राज्य] में न तो कांग्रेस की सरकार होगी और न ही  भाजपा की। बल्कि इसका उल्लेख इस संदर्भ में प्रासंगिक है कि मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा इस  बहुलतावादी देश की जन-आकांक्षाओं को केवल  'दिल्ली मेड '  राजनैतिक घटनाओं  के आधार पर परिभाषित करने पर तुला हुआ है।  कुल  मिलाकर   लब्बो लुआब  वही  सामने  खड़ा है कि नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी बनाम केजरीवाल बाकी सब कंगाल !
                                            वेशक  मीडिया और जन-विमर्श  के केंद्र में  इन दिनों नरेंद्र मोदी ,राहुल गांधी और केजरीवाल  शिद्दत से  विराजे हैं.  देश के राजनैतिक ,आर्थिक ,सामजिक ,जातीय ,भाषायी और व्यवस्थागत ढांचे पर विहंगम दृष्टिपात के उपरान्त  कोई भी सामान्य वुद्धि  का भारतीय नागरिक  भुजा उठाकर घोषणा कर सकता है  कि ये तमाम सूचना तंत्र पथभ्रष्ट और दिग्भ्रमित हो रहा है या जानबूझकर किया जा रहा है। यह  सच  है कि   देश में गैर कांग्रेसवाद और गैर भाजपावाद का दौर  अभी भी जारी  है । किन्तु उससे भी बड़ा सच ये है कि इन दोनों ही बड़ी पार्टियों  के बिना  देश की स्थिरता  और पूंजीवादी  प्रजातांत्रिक  राजनीति  चल भी नहीं सकती।उससे भी बड़ा सच ये है कि ये दोनों ही बड़ी पार्टियां-कांग्रेस और भाजपा  देश की बर्बादी का कारण  हैं। इसलिए जनता इनसे छुटकारा चाहती है। अतः यह स्वयं सिद्ध है कि आगामी लोक सभा चुनाव -२०१४ में  भाजपा ,कांग्रेस भले ही लाख कोशिश कर लें किन्तु उनके घोषित चेहरे मोदी और राहुल  'पी एम् इन वेटिंग' ही रहेंगे। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी होकर जिस तरह दिल्ली विधान सभा में  विपक्ष  में सुशोभित है उसी तरह लोक सभा में भी शोभायमान होगी। कांग्रेस की  सम्भावनाओं पर तो  मनमोहन जी कब का पानी फेर चुके हैं। 
                      अपने  हम सोच मित्रों और आलोचकों को यह एतद द्वारा शिद्दत के साथ सूचित किया जाता है, ताकि वक्त पर [मई-२०१४  के बाद  कभी भी ]काम आवे ,कि आगामी लोकसभा चुनाव-मई-२०१४  में  बनने  जा रही  नई  सरकार का नेतत्व्  न तो नरेद्र मोदी कर सकेंगें और न ही राहुल गांधी ! केजरीवाल  और 'आप' तो कदापि नहीं  ! यह भी  लगभग तय है कि  बड़े-बड़े दलों के नेता शायद ही ये  ये पद हासिल  कर  सकें ! वेशक - केजरीवाल का  ये कहना कि मैं लोक सभा का  चुनाव नहीं  लडूंगा कोई मायने नहीं रखता।  तात्कालिक रूप से भले ही  वे अपने आप को इस लोक सभाई  चुनाव एरिना से  बाहर समझें । किन्तु  जब आगामी लोक सभा चुनाव -२०१४ में परिस्थतियां उन्हें  बाध्य करेंगी तो  अपनी  सम्भावित विराट भूमिका से वे बच नहीं सकेंगे। खुद न सही किसी और बेहतर चहरे को समर्थन देकर वे अपनी राजनीति  जारी रख सकते हैं। सवाल उठता है कि  भारत का  आगामी  प्रधानमंत्री  कौन होगा? आसान सा जबाब है कि  संसद में जिस 'गठबंधन' का बहुमत होगा उसका सर्वाधिक पसंदीदा  उम्मीदवार  भारत का प्रधान मंत्री होगा।  चूँकि एनडीए ,यूपीए  को भाजपा और कांग्रेस लीड कर रहे हैं और देश की जनता इनसे छुटकारा चाहती है इसलिए जो इन दोनों गठबंधनों में नहीं हैं वे  छोटे-छोटे दल ,वाम मोर्चा और 'आप' जैसे नवोदित दल एका कर सकते हैं और देश को बेहतर सरकार  और  एक अच्छा  प्रधानमंत्री दे सकते हैं।  केजरीवाल भी विकल्प हो सकते हैं।  इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे चुनाव लड़ेंगें या नहीं ,उनके पास नीतियां और कार्यक्रम है या नहीं।  
                                     जब बिना चुनाव लड़े ही  विनाशकारी नीतियों और पूँजीवादी कार्यक्रमों  को लागू कर   डॉ  मनमोहनसिंग  १० साल तक लगातार भारत के प्रधान मंत्री रह  सकते हैं , इंद्रकुमार गुजराल  प्रधान मंत्री हो सकते हैं, बिना नीतियों और कार्यक्रमों के चंद्रशेखर प्रधानमंत्री हो सकते हैं , तो'आप'के केजरीवाल,प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव  देश के  प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकते ? वाम मोर्चे बनाम  तीसरे मोर्चे के प्रकाश कारात  , सीताराम येचुरी , ए वी वर्धन , समाजवादी - शरद  यादव  नीतिश कुमार ,मुलायमसिंग  प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकते ?जबकि इनके पास शानदार  नीतियां और बेहतरीन  कार्यक्रम  और राजनैतिक अनुभव भी  है। अपने-अपने क्षेत्र के दिगज -  बीजद के  नवीन पटनायक  , बसपा की माया  , एएआईडीएमके की जयललिथा या कोई  विख्यात हस्ती -ब्यूरोक्रेट  प्रधानमंत्री  क्यों नहीं  बन सकते ?
             वेशक कांग्रेस   के  राहुल गांधी  का प्रधान मंत्री बन पाना अभी  तो सम्भव नहीं है किन्तु सेम पित्रोदा - नंदन  नीलेकणि या मीरा कुमार   को पेश कर कांग्रेस  अपनी प्रासंगिकता बरकरार रख सकती है।  लेकिन   भारतीय  मीडिया की  यह कोई  राष्ट्रीय मजबूरी नहीं है कि केवल मोदी बनाम राहुल की ही नूरा कुस्ती पेश करता रहे या 'आप' के अनुभवहीन  नेताओं -मंत्रियों के पीछे हाथ धोकर पड़ा रहे।  और भी  हैं जमाने में दीदावर  जो खिलने को  तैयार बैठ हैं। वशर्ते  देश की वास्तविक  राजनीतिक -सामाजिक -आर्थिक -क्षेत्रीय -भाषाई और  सांस्कृतिक बहुलतावादी -तस्वीर पर मीडिया की  नजरे-इनायत का जज्वा हो।
                     अण्णा  हजारे के  नेत्तव  में   विगत वर्ष रामलीला मैदान  में सम्पन्न  अनशन कार्यक्रम तक मैं  अरविन्द केजरवाल  को भी 'खलनायक ' श्रेणी में ही गिनता था। किन्तु जब अनशनकारियों को लगभग चिढ़ाने वाले अंदाज में कहा गया कि - "हिम्मत है तो राजनीति  में आओ ! चुनाव लड़कर-जीतकर  दिखाओ ! केवल रामलीला मैदान या जंतर के जंतर -मंतर पर नौटंकी से  जन-लोकपाल नहीं बनने  वाला , केवल  'इंकलाब -जिंदाबाद' या 'भारत माता की जय'  के नारे लगाने से क्रांति सम्पन्न  नहीं होने वाली। आदर्श की बातें करना और राज-काज चलाना दोनों में  जमीन -आसमान का फर्क है " . . . .  !   वगेरह  वगेरह।
                      वेशक यह तंज करने वाले अल्फाज अण्णा  जैसे  कम पढ़े लिखे और मट्ठर व्यक्ति को भले ही समझ में न आये हों किन्तु ये व्यंगवाण रूपी शब्द  ही थे जो अरविन्द केजरीवाल को आम आदमी से खास नेता बंनाने में मददगार सावित हुए  ।  अरविन्द  केजरीवाल आज दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं।  भले ही उनके सर पर  काँटों का ताज रखा गया है किन्तु इतना तय है कि  स्थापित राजनैतिक दलों और नेताओं और अण्णा  जैसे नकली शूरवीरों  को वे निराश नहीं  करेंगे।   विधान सभा चुनाव से कुछ दिन  पूर्व फ़ॉलो -अप पत्रिका में और लाइव इंडिया पत्रिका में मेरा तत्संबंधी  आलेख  छपा था। जिसमें मैनें  घोषणा की थी कि 'आप' को सत्ता सोंपने की तैयारी मैं है दिल्ली की जनता।एक शुभ चिंतक आलोचक महोदय ने तब मुझे नसीहत  देते हुए कहा था -दो सीटें भी नहीं मिलेंगी -"आप'को !  उनका ये भी  मशविरा था कि  " यदि  नारे लगाने से सड़कों पर धरना -प्रदर्शन से  क्रांति  सम्भव होती  तो वामपंथ के नेत्तव में  यह कब की हो गई होती ! ये  'आप' के  केजरीवाल जैसे विचारधाराविहीन  -आंदोलनकारी राजनीति  की जमीनी सच्चाइयों से नावाकिफ हैं  ये  अन्ना और केजरीवाल तो केवल कोरा धरना -प्रदर्शन ही करना जानते हैं जबकि साम्यवादियों   - वामपंथियों  के पास तो  इन धरना -प्रदर्शनों  के माध्यम से व्यवस्था परिवर्तन उपरान्त वेहतरीन सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावादी - सामाजिक  , आर्थिक और राजनैतिक  विकल्प  भी उपलब्ध है" उनके इस बक्तव्य के बाद  -दिल्ली में केजरीवाल की ताज-पोशी 'के बाद मुझसे रहा नहीं गया सो  उनकों - जो  'आप' की  आंशिक सफलता से अभी भी  सदमें हैं , वे जो  मोदी को प्रधान मंत्री  देखना चाहते हैं, वे जो राहुल को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं और वे जो समझते हैं कि देश का कार्पोरेट जगत ही तय करेगा कि कौन बनेगा-  प्रधानमंत्री -भारत सरकार ,नई -दिल्ली तो में उन्हें पहले से ही ये  बता दूँ कि  राहुल,  मोदी या  केजरीवाल नहीं - बल्कि कोई और ही बनेगा भारत का प्रधान मंत्री !

         श्रीराम तिवारी 

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