शनिवार, 25 जनवरी 2014

खुशी की बात है कि तमाम खामियों के वावजूद इस देश में 'फासिज्म' को कोई स्थान नहीं।



  हर साल कि तरह  भारत के इस  ६५  वें गणतंत्र दिवस पर भी  तमाम नेता ,राजनैतिक -वक्ता ,अफसर ,मंत्री  साहित्यकार ,कवि  कलाकार , तथाकथित   समाजसेवी और मीडिया वाग्मी   - देश की जनता को न केवल शुभकामनाएँ  दें रहे है अपितु  शानदार क्रांतिकारी  पैगाम भी  दे रहे हैं। मुझे लगा कि मैं भी  इस मौके पर देश का , देश के  नेताओं का और जनता का  वह पक्ष भी  रखूं जो हम सभी जानते हैं किन्तु इस अवसर पर उसे याद  कर राष्ट्रीय त्यौहार  की   उमंग को कम नहीं करना चाहते। इस आशय और  मंतव्य के   साथ ही   निम्नांकित पंक्तिओं  के माध्यम से इस अवसर पर   मैं  भी अपने मित्रों,शुभचिंतकों, समकालिक सहचरों और अपने हम वतन  साथियों   को   गणतंत्र  दिवस की शुभकामनायें  प्रेषित  करता हूँ।  
                   वैसे तो तमाम  राजनैतिक  पार्टियां ,उनके आनुषांगिक  संगठन-उनके प्रवक्तागण  ,कार्पोरेट लॉबी , बाबा  - स्वामी  , शंकराचार्य  और  मीडिया  - हर वक्त एक  -दूसरे  पर  कीचड़  उछालने तथा  कभी सही -कभी गलत आरोप  - प्रत्यारोप जड़ने की फिराक  में  रहते  हैं. किन्तु ज्यों-ज्यों आगामी लोक सभा के चुनाव नजदीक आते  जा रहे हैं ,त्यों-त्यों कुछ खास नेता अपनी लक्ष्मण -रेखा लांघने पर उतारू  हो  रहे हैं। अपनी लाइन बढ़ाने के लिए सामने वाले की लाइन मिटाने पर आमादा हैं। अधिकांस हितग्राहियों के तेवर  बेहद आक्रामक ,नकारात्मक और अपनी-अपनी औकात प्रदर्शित करने योग्य हैं।
                                      जनता के सवालों पर , बढ़ती जाती आर्थिक असमानता पर ,जनसंख्या विस्फोट पर , नदियों के पर्दूषण पर ,नारी उत्पीड़न या कन्या संरक्षण पर ,साम्प्रदायिकता या  जातीय संघर्षों पर ,राष्ट्र नव-निर्माण   या सकल राष्ट्रीय उत्पादन पर,  विदेश नीति बनाम  सैन्य अभ्यास पर , अटॉमिक इनर्जी बनाम सम्प्रभुता के संकट  पर , नकली करेंसी  या उसके विमुद्रीकरण पर , संयुक्त राष्ट्र में भारत की दोयम  दर्जे की हैसियत पर या भारत को अंतर्राष्ट्रीय विरादरी में ससम्मान स्थापित किये  जाने  जैसे अनेक महत्वपूर्ण  सवालों पर  बात करने के बजाय अधिकांस  पूंजीवादी दक्षिणपंथी  पार्टियाँ और उनके घोषित -अघोषित 'पी एम् इन वेटिंग '  नितांत वैयक्तिक आरोप याने  टुच्ची राजनैतिक वयानबाजी  में लिप्त हैं।  वे  अपने समकक्षों या प्रतिद्वन्दियों  की  नकारात्मक आलोचना  कर  जनता को  गुमराह या बेबकूफ  बनाने पर आमादा हैं।

                                       नरेंद्र मोदी को शिकायत है कि देश की  आजादी के  ६७  साल बाद भी कांग्रेस जिन्दा क्यों है ? न केवल जिन्दा है बल्कि यूपीए के नाम से आज भी देश पर राज  कैसे  कर  सकती  है ? राहुल का सरनेम 'गांधी' क्यों है ? राहुल को उनकी माता  श्रीमती सोनिया गांधी  ने  मोदी की तरह  चुनाव से पूर्व  'पी एम् इन वेटिंग '  घोषित क्यों  नहीं किया ? उन्हें तो  यह  शिकायत  भी है कि  कांग्रेस ने सरदार पटेल के साथ अन्याय किया उन  को देश का प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनाया? मानों सरदार पटेल उनके सपने में आये थे और नेहरू की शिकायत के लिए उन्हें केवल मोदी ही मिले।  मोदी को यह  शिकायत भी  है कि  राहुल गाँधी सहज    जन्मजात  सभ्रांत और जन्मजात नेता  क्यों हैं ?  उन्हें यह शिकायत भी है कि राहुल ने कभी मेरी तरह  चाय क्यों नहीं बेची ?  इसी तरह  कुछ लोगों को मोदी से भी  शिकायत है कि उन्होंने  खेतों में हल क्यों नहीं चलाया ?गेंती फावड़ा लेकर सड़कों या भवन निर्माण मजदूरों  की तरह काम क्यों नहीं किया ?  नरेंद्र मोदी ने निदाई-गुड़ाई क्यों नहीं की ?घास क्यों नहीं छीली ? २००२ में गुजरात के साम्प्रदायिक दंगों में 'राजधर्म' क्यों नहीं  निभाया ?  कुछ लोग तो ये भी कह सकते हैं कि गाँधी -नेहरू या मोदी  जैसे  सरनेम के लोगों ने  गरीबी -भुखमरी -बेकारी क्यों नहीं  देखी ?इत्यादि  !  इत्यादि ! ! आलोचनाओं और अपेक्षाओं का  तो कोई पारावार नहीं !
                                                राहुल गांधी और कांग्रेस को शिकायत है कि मोदी फेंकू  हैं !उन्होंने राहुल को युवराज और पप्पू क्यों कहा ?  मोदी किसी महिला की जासूसी में लिप्त क्यों रहे ? वे शादी शुदा होने  के वावजूद  अपने-आप को कुआँरा  क्यों बताते  हैं ?  किसी जमाने में  रेलवे  स्टेशन पर  चाय बेचने वाले  इस मामूली हिंदुतव्वादी  की  इतनी हिम्मत  कैसे   हुई कि  एडोल्फ हिटलर की तरह  राज्यसत्ता पर काबिज होने के लिए भाजपा की ओर  से   पी एम् इन वेटिंग ही  बन  बैठा  ? जो नरेंद्र मोदी -आडवाणी जैसे  अपने ही वरिष्ठों का मान मर्दन कर  सकता है,  जो अपने ही समकक्षों को ठिकाने लगा सकता है   वह शख्स - उससे असहमत  देश की करोड़ों आवाम के साथ  'गेस्टापो' वाला इतिहास क्यों नहीं दुहरा सकता ? जो  कांग्रेस को  ,अल्पसंख्यकों को और यूपीए समेत  तमाम 'गैर संघ परिवार'  के राजनैतिक भारत  को  घृणा की नजर से  देखता है ,उसे  जड़मूल से खत्म  करने का सपना  रात-दिन देखता है,  ऐंसा असहिष्णु और  कट्टर साम्प्रदायिक व्यक्ति - 'पञ्च शील' के सिद्धांतों वाले , अहिंसा के सिद्धांतों वाले,सहिष्णुता के सिद्धन्तों वाले- महान धर्मनिरपेक्ष   भारत का प्रधान मंत्री कैसे हो सकता है ?
             भाजपा और कांग्रेस से दूरी बनाकर चलने वाले  तीसरे मोर्चे को ,वाम मोर्चे को और नवोदित 'आप'  को  तथा 'आप' पार्टी के नेता  अरविन्द केजरीवाल  को शिकायत है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही मीडिया के विमर्श में कार्पोरेट जगत के ,देशी-विदेशी पूँजी के  पसंदीदा  राजनैतिक  एजेंट क्यों  हैं ? भ्रष्टाचार ,मॅंहगाई  और कुशाशन से लड़ने के लिए आम आदमी पार्टी  को  कुछ वक्त क्यों नहीं दिया जा रहा है? केजरीवाल  और 'आप' की असफलता के लिए कांग्रेसी और भाजपाई दोनों ही  शैतान के गढ़ में घी के दिए क्यों जला रहे हैं ?
                                           वैश्विक संपर्क - सूचना संचार क्रांति तथा  लूट की  खुली  छूट वाली  आर्थिक  - राजनैतिक   व्यवस्था  के वैश्वीकरण  से   भारत  अछूता कैसे रह सकता है ? नव-उपनिवेशवादी  विश्व व्यापरियों को भारत एक चरागाह  मात्र है ,उनके घटिया उत्पादों के लिए बेहतरीन सर्वकालिक बाजार मात्र   है ।  इसलिए  इसका  सामाजिक , साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र भी अधोगामी हो चला है। चूँकि सत्ता पक्ष  ,विपक्ष और  संचार माध्यम  सभी दिग्भ्रमित हो रहे हैं ,  इसीलिए राजनीति  के क्षेत्र में  घटिया  किस्म  की नकारात्मक और पूर्वागृही  आलोचनाओं का दौर जारी है। स्वस्थ और रचनात्मक आलोचना को प्रजातंत्र में  अनिवार्य फेक्टर  माना जाता है ,किन्तु जब राष्ट्र निष्ठां से  ऊपर   निहित  स्वार्थ  शुमार होने लग जाएँ तो सत्ता में बने रहने के लिए झूंठ ,फरेब और ओछे चारित्रिक  आरोप-प्रत्यारोप  रुपी जुमलों  की अनुगूंज स्वाभाविक है।  निहित स्वार्थों की राजनीति  है तो  प्रजातांत्रिक गरिमा खंडित होना स्वाभाविक है। इस विमर्श को जन-चेतना के अभाव  में  क्रांतिकारी विचारधाराओं के अस्तित्व को खतरे के रूप में लिया जाना चाहिए। इस  दौर  की मांग  है कि राजनैतिक आलोचना   का  स्वरुप   सकारात्मक और रचनात्मक  हो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
                                    सार्वजनिक जीवन में सक्रिय अथवा मानवता के लिए कुछ खास बेहतर काम करने वाला कोई  भी  ऐंसा व्यक्ति या समूह  इस धरती पर  कभी  नहीं हुआ जिसकी  निंदा या आलोचना उसके समकालीन प्रतिस्पर्धियों ने  न की हो। व्यक्ति  या समाज ही नहीं बल्कि मानवता के  हित में श्रेष्ठतम महामानवों की विराट परम्परा  द्वारा सृजित सुसंस्कारित  कला -साहित्य और संगीत   भी उसके समकालीनों की  ईर्षा वश  नितांत निदनीय आलोचना से नहीं बच सका। यह सुविदित है कि  संसार  की अन्य सभ्यताओं और उनके शानदार मूल्यों की ही भाँति  भारत  में  भी इंसानियत के बेहतरीन प्रमाण युग-युग में देखने को मिलते हैं। हरिश्चंद्र ,शिवि  ,दधीचि ,अगस्त , नल-दमयंती और भीष्म -कर्ण   जैसे  पौराणिक पात्रों  ने जो बलिदान दिए उससे ही कालांतर में भारतीय मूल्यों की  स्थापना हुई ,उन्ही से  आधुनिक परम्पराओं और  सामाजिक  संस्कारों का जन्म हुआ।  किन्तु प्रत्येक दौर के नकारात्मक  लोगों  ने  तो  उन वेदों को भी नहीं बक्सा -जो  उपनिषदों आरण्यकों, श्रुतियों,संहिताओं ,पुराणों , रामायण ,गीता और महाभारत जैसे सदगर्न्थों के प्रेरणा स्त्रोत कहे जाते हैं।  तुच्छ लोगों ने हमेशा  श्रेष्ठ की आलोचना कर अपने लिए इतिहास में जगह  बनाई।  इन्ही भयंकर भूलों और गलत परम्पराओं के कारण आज भी मानव  समाज  किसी बेहतर क्रांति के लिए नहीं बल्कि अपने-पंथ -मजहब -जात -वर्ण , सत्ता  और अपनी कबीलाई मानसिकता के कारण  एक-दूसरे  के  चरित्र हनन   पर आमादा  हो रहा है।अपनी लकीर बढ़ाने के बजाय औरों की लकीर मिटाने का दौर जारी है।
                        कुछ  पुरातन निषेधों और असहमतियों को  वर्तमान दौर में  प्रतिगामी घोषित किये जाने  का  भी परिणाम है कि  जो अच्छा है वो खतरे में है। जो नकारात्मक और विनाशक है वो  परवान  चढ़  रहा है। जो   पुरातन  कूड़ा  -धार्मिक आडम्बर , साम्प्रदायिकता,जात-पाँत -  अतीत में सामंत शाही को मजबूत बनाने में इस्तेमाल  हुआ  करते थे, वे तो   इन दिनों  पूँजीवाद  को और भृष्ट राजनीति के पोषक तत्व बन चुके हैं। शोषण की कुल्हाड़ी के बेंट बन उसे मजबूत करने के  काम आ रहे हैं।सकारात्म्क  पुरातन मानवीय और वास्तविक   मूल्य  -सत्य ,अहिंसा ,अस्तेय  ,अपरिग्रह अब जमीदोज हो चुके हैं।  संघ परिवार ,स्वामी रामदेव, स्वरूपानंद   ,आसाराम  जैसे लोग इन मूल्यों को एक  बाजारी  उत्पाद के रूप में  गली-गली बेचते रहे  हैं। अब  'नमो' भी इसके मुख्य  सेल्स में  बन गए हैं।  इन सभी ढपोरशंखियों की  अतार्किक और  आधारहीन वैयक्तिक   आलोचनाओं   के कारण राज्यसत्ता के खिलाफ सही आंदोलन सफल  नहीं हो पा रहा है।  वैज्ञानिक और प्रगतिगामी  आलोचना करने वालों को जन-समर्थन नहीं मिला पा  रहा है।उन्हें  नास्तिक ,नक्सलवादी ,विदेशी विचारधारा का या  अराजकतावादी  संज्ञाओं से विभूषित किया जारहा  है। भले ही  उनमें से कुछ ऐंसे भी हों जो कि  विश्व की सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी -श्रेष्ठतम  -भौतिकवादी द्वन्दात्मक  याने  युगानुकूल वैज्ञानिक चिंतनधारा  के  समर्थक ही क्यों न हों!
                            शोषण की व्यवस्थाओं में भी सन्निहित  सभ्यताओं की ,संस्कृतियों और मानवीय  कलात्मक सृजनशीलता की,समष्टिगत  या वस्तुगत आलोचना के बरक्स वैयक्तिक आलोचना भी सारे संसार की ही तरह भारत में भी सदैव शसक्त रही है। वैश्विक प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं में जनाधिकार के र्रूप में सर्व मान्य - सर्व   स्वीकृत आलोचना का अधिकार जब किसी राष्ट्र की  सुरक्षा को खतरे में डालने  की स्थति में होता है तो  उसे   प्रतिबंधात्मक निषेध का सामना करना ही  पड़ता है।
                       जिस तरह  रामायणकाल में श्रीराम,लक्ष्मण , सीता , वशिष्ठ ,दशरथ या कैकई जैसे राजसी पात्र   ही नहीं बल्कि  विश्वामित्र  ,परशुराम,विभीषण और सुग्रीव तथा हनुमान जैसे  समाज को दिशा देने वाले  बौद्धिक और मानवता के दिग्दर्शक - महानतम नायक   भी तत्कालीन समाज में ही आलोचना के पात्र बन चुके थे,उसी भाँति कालांतर में कृष्ण,बलराम ,राधा ,रुक्मणि एवं द्वारका का समस्त 'यादव' समाज भी  तत्कालीन ऋषियों-महर्षियों की आलोचना का पात्र बन  चुका था। केवल कौरव ही नहीं ,केवल धृतराष्ट्र ही नहीं ,केवल भीष्म पितामह  ही नहीं ,केवल अस्वत्थामा ही नहीं बल्कि बल्कि धर्मराज युधिष्ठिर,अर्जुन, भीम,नकुल एवं सहदेव   सहित समस्त पांडव  वंश भी तत्कालीन समाज में ही घोर आलोचना का केंद्र बन चूका था।जनमेजय के नागयज्ञ तक की परिचर्चा  में केवल प्रतिहिंसा  और आलोचना का ही  सिंहावलोकन  होता  है।   अब हजारों साल बाद यदि  हम  में से कुछ लोग  उन्ही प्राचीन पात्रों को पूजते रहें ,उनके द्वारा स्थापित मूल्यों या सिद्धांतों  का स्तुति या मन्त्र के रूप में केवल जाप करते रहें तो  यह 'दूर के ढोल सुहावने ' जैसी मिथकीय अवधारणा ही कही जा सकती है। स्थापित   परम्पराओं ,मूल्यों ,आदर्शों और चरित्रों के अनुप्रयोग से  वर्ग विशेष के लाभान्वित होने और किसीवर्ग विशेष के शोषित होने की कसौटी ही तय कर सकती है कि 'आलोचना' के निहतार्थ  क्या  हैं ?
                     अतीत के नायकों के प्रति  इस तरह के व्यामोह से  ' सनातन आलोचना' की सेहत पर कोई असर नहीं पढ़ने वाला। ईश्वर अवतार   , पीर ,पैगम्बर या देवदूत  के रूप में पूजकर किसी भी इंसान को चाहे जितना दैवीय  स्वरुप प्रदान क्यों न कर दिया जाए उसके सामने सदैव 'प्रतिनायकवाद ' का तथाकथित शैतानियत का  या नकारात्मकता का   भूत अवश्य ही खड़ा हुआ दिखाई  देगा।सुकरात ,ईसा ,बुद्ध  , कार्ल मार्क्स  ,विवेकानन्द , लेनिन ,गांधी ,अरविन्द  के बरक्स नेपोलियन , चर्चिल, हिटलर ,जिन्ना,रीगन,येल्तसिन,लेक बालेशा , जिया - उल-हक ,परवेज  मुशर्रफ  और ईदी -अमीन  के समर्थकों की  तादाद दुनिया में हमेशा अधिक क्यों रही है ?
                   आम धारणा है कि आलोचना तभी होती है जब कुछ किया जाता है। कुछ मत करो तो आलोचना का कोई खतरा नहीं। हो सकता हो इसमें आंशिक सच्चाई हो किन्तु राजनीति  के क्षेत्र में तो  अधिकांशतः  आलोचना के निहतार्थ - केवल सत्ता प्राप्ति की अभीष्ट अभिलाषा और प्रतिपक्षी के सर्वनाश की कामना ही प्रकट हुआ  करती है।
                 मेरे इस कथन पर यकीन न हो तो  भाजपा के 'पी एम् -इन वेटिंग 'श्री नरेंद्र  मोदी  के उस वक्तब्य पर गौर   करें जिसमें वे कहते पाये गए हैं कि 'भारत को कांग्रेस मुक्त  बनाना  है ' वेशक कांग्रेस के नेता ,नीतियां और कार्यक्रम शायद अब देश के अनुकूल न रही हों। किन्तु यह सदैव याद रखा जाना चाहिए कि पाकिस्तान की  फौजी तख्ता पलट  की तरह कांग्रेस  सत्ता में  कभी  नहीं आई।  जनता ने बार-बार चुना  ,यह जनादेश का अपमान ही  होगा कि चुनी हुई सरकारों को सिर्फ इसलिए गाली दी जाए कि 'काश हम सत्ता में क्यों न  हुए '? वेशक यदि आपके पास बेहतर नीतियां -कार्यक्रम और ईमानदार नेत्त्व क्षमता है तो अपना 'विजन' घोषणा पत्र   प्रस्तुत कीजिये। वेशक  कांग्रेस को जनता ने पहले भी हराया था और  अब भी हारेगी। किन्तु उसे समूल खत्म करने की बात  करना प्रजातान्त्रिक भावना नहीं है। यह कदाचार - हिटलर ,जिया उल हक़ या ईदी अमीन या रावर्ट मुगाबे - जैसा तो हो सकता है किन्तु गांधी ,सरदार पटेल या नेहरू जैसे नेताओं का   सदाचार कदापि नहीं हो सकता। भले ही उनकी एक नहीं सैकड़ों मूर्तियां हिमालय से ऊंची बनाते रहो  - त्याग ,बलिदान और निजी स्वार्थ  को होम किये  बिना   भगतसिंह जैसे, आजाद जैसे,  और अस्फाक उल्लाह खां  जैसे   शहीदों के सपनों का सच्चा लोकतान्त्रिक -गणतांत्रिक  भारत  न तो मोदी बना सकते हैं ,न राहुल बना सकते हैं और न 'आप' के केजरीवाल !  यह स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों को आदर्श मानकर  सामूहिक प्रयासों से  ही सम्भव है।  भारतीय संविधान की प्रस्तावना में निहित संकल्प  को  पूरा करने से ही  सम्भव है। वरना वर्तमान बदनाम  बनाना गणतन्त्र  तो धनतंत्र या लूटतंत्र से ज्यादा कुछ नहीं है।   खुशी की बात है कि  तमाम खामियों के वावजूद इस देश में 'फासिज्म' को कोई स्थान नहीं। 
         
     सभी को गणतंत्र दिवस  की पूर्व संध्या पर अग्रिम शुभकामनाएं !
                
                              क्रांतिकारी अभिवादन सहित   ! !
                   
                                       श्रीराम तिवारी 

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