निसंदेह 'आम आदमी पार्टी ' में अपने पावन उद्देश्य के लिए समर्पित उसके संस्थापक नेता- गिने चुने तकरीबन आधा दर्जन के करीब ही होंगे। किन्तु जब इस पार्टी के उदय से वर्तमान व्यवस्था के गहन अन्धकार को चीरकर आगे बढ़ने की सम्भावनाएं परिलक्षित होने लगीं तो अब उसकी सदस्यता पाने के लिए लाखों लोग उत्सुक हो रहे हैं। 'आप' में शामिल होने वाले नेताओं की आषाढ़ के मेंढ़कों जेसी बाढ़ आ गई है।स्थापित और नवागंतुकों की भीड़ में मुख्य मुद्दे गौड़ होते जा रहे हैं और केवल कोरे नेत्तव के लिए सत्ता की - राष्ट्रीय राजनीति पर अधिकांस घाघ नजरें तेज हो गई हैं।कुछ अतिउत्साही तो दिल्ली के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को भारत के प्रधानमंत्री पद की दौड़ में भी मानकर ज़रा ज्यादा ही तेज चल रहे हैं. तथाकथित पवित्र साध्य को साधने के लिए अपवित्र -स्वार्थी नेताओं का नया जमावड़ा बनने लगा है। ऐंसे हालात में 'आप' की शुचिता पर सवाल खड़े होना लाजिमी है। उसके भ्रष्टाचार विरोधी और आम आदमी वाले स्वरुप को मजबूत आधार देने के लिए समाज के सच्चे और अच्छे लोगों को आगे आकर 'आप' का साथ देना चाहिए। केवल उसकी खामियां गिनाने या उपदेश झाड़ने से क्रांतियां नहीं हुआ करतीं !
कांग्रेस के दिग्गज -दिग्गी राजा, जयराम रमेश,मणिशंकर अय्यर और खुद राहुल गांधी भी 'आप' के मुरीद होते दिख रहे हैं। माकपा नेता प्रकाश कारात ,प्रख्यात नृत्यांगना मल्लिका सारा भाई और जर्नलिस्ट आशुतोष ही नहीं बल्कि 'बड़े-बड़े' लोग भी अब 'आप' को गम्भीरता से ले रहे हैं। संघ प्रमुख मोहन भागवत और वर्तमान नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने भी इशारों-इशारों में भाजपा को 'आप' से सावधान रहने और उसी गम्भीरता से लेने का उपदेश दिया है। किन्तु इस सबके वावजूद शैतानियत भी परवान चढ़ रही है। किरण वेदी जैसी असफल और अस्थिर मानसिकता को 'आप' की यह 'महिमा ' रास नहीं आ रही है। संस्थागत रूप से भाजपा ,संघ परिवार और कांग्रेस पार्टी और उनके स्थापित नेता भी 'आप' और उसके नेता केजरीवाल को जल्दी निपटाने के मंसूबे बना रहे हैं। वे ६ माह के उपरान्त दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगा हुआ देखना चाहते हैं। इस तरह की नकारात्मक सोच के भी उनके पास पर्याप्त कारण भी हैं।
बकौल कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी और अन्य अनेक पूर्वागृही स्वनामधन्य 'विचारकों' के अनुसार 'आप' की तो कोई 'विचारधारा ही नहीं है. इसलिए उसका कोई भविष्य नहीं है । बकौल डॉ हर्षवर्धन दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने भ्रष्टाचार से समझौता कर लिया है वह कांग्रेस की फ्रेंचाइजी बन चुकी है बगैरह बगैरह . . . . . अन्य आलोचकों के भी तर्क हैं कि केवल मुफ्त पानी देने ,मुफ्त बिजली देने या भ्रष्टाचार के खिलाफ 'हेल्प-लाइन' चालु कर देने से या भृष्टाचार की जांच कराने का दम भरने से ही 'आप' एक जिम्मेदार पार्टी नहीं कही जा सकती । राष्ट्रीय पार्टी के रूप में दर्ज होने के लिए यह जरूरी है कि -विचारधारा का खुलासा पहले हो। इसके अलावा 'आप'पार्टी का संविधान ,मेनिफेस्टो और चुनाव आयोग के नियमानुसार कम से कम ४ सांसद भी देश भर से अवश्य चुने जाना चाहिए। अभी तो दिल्ली में आंशिक सफलता ही मिल पाई है उसे भी कांग्रेस के आठ विधायकों का बिना शर्त [?] समर्थन को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए। इन मूल भूत तथ्यों के आधार पर ही 'आप' को अपने पाँव पसारना चाहिए। वगैरह वगैरह। इन तथ्यों के आधार पर यह अत्यावश्यक है कि राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में गम्भीर मुद्दों पर 'आप' के नेताओं को सोच -समझकर ही वयान देना चाहिए। वयान देने से पूर्व आपस में सलाह मशविरा तथा तथ्यों की जांच परख भी कर लेनी चाहिए। कुमार विश्वाश ,प्रशांत भूषण और अन्य 'आप' नेता भले ही सच वयानी कर रहे हों किन्तु उनके सच को जनता के गले उतारना जिस मीडिया का काम है उसको भी प्रॉपर ब्रीफ़िंग किया जाना चाहिए। सब्सिडी बांटने या मुफ्त सेवाओं के लिए धन कहाँ से आयेगा,'आप' की आर्थिक नीति क्या है ? इन बातों पर ध्यान नहीं देंगें तो 'आप' पार्टी सर्वाइव कैसे कर सकेगी ? केवल लोकलुभावन घोषणाओं और 'मुफत के चन्दन -घिस रघुनंदन ' से काम नहीं चलेगा ! इस तरह तो 'आप' के नेता किसी गम्भीर और बड़ी भयंकर कठिनाई में भी फंस सकते हैं। उनकी किसी मामूली सी गफलत से देश की उस आकांक्षा को भी धक्का लग सकता है जिसमें यह निहित है कि 'आप' से आम आदमी का उद्धार तो होगा ही , बल्कि भृष्टाचार,महंगाई कुशाशन का खात्मा हो भी सकेगा।
निसंदेह वर्तमान 'भारत-दुर्दशा' के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों ही बराबर के जिम्मेदार हैं। चूँकि तीसरा मोर्चा खण्डित पड़ा है ,वाम मोर्चा अभी अपने जन -संघर्षों को 'वोट बैंक ' में नहीं बदल पाया हैं. पूँजीपतियों का दलाल मीडिया 'नमों नाम केवलम ' जप रहा है । स्थापित नेता और पार्टियां श्रीहीन हो चुकी हैं। ऐंसे में भ्रष्टाचार - कदाचार और बेईमानी का खातमा कर देश में वास्तविक आदर्श लोकतंत्रात्मक - व्यवस्था कायम हो इसके लिए जरूरी है कि कांग्रेस और भाजपा जैसे बड़े दलों को सत्ता से बाहर रखा जाए. न केवल दिल्ली राज्य में बल्कि पूरे देश में 'आप' को शासन करने का निरापद एक अवसर अवश्य प्रदान किया जाए। 'आप' के नेताओं को भी चाहिए की पूंजीवादी भ्रष्टतम् अधोपतन से बचने की कोशिश करे।जरूरी नहीं की वो 'इंकलाब जिन्दावाद ' के नारे लगाए। अन्ना हजारे की तरह 'आप' को 'वंदे मातरम'का नारा लगाकर अपनी देशभक्ति सावित करने की कोई जरुरत नहीं। 'आप' काम कीजिये। 'आप' का काम बोलेगा कि 'आप' क्या चीज हैं ?
अन्ना हजारे की यह सलाह वाजिब भी हो सकती थी कि 'आप' को और केजरीवाल को अभी दिल्ली पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए। लेकिन अण्णा के मन में खोट है। वे संघ से संचालित हैं और उसके खिलाफ जाने का माद्दा उनमें नहीं है । जबकि 'आप' के प्रशांत भूषण ,योगेन्द्र यादव और केजरीवाल जैसे चतुर नेताओं ने संघ परिवार की चालों को ठीक पहचाना है। उन्होंने संघ की पहचान एक नकारात्मक -संवैधानेतर सत्ता व शक्ति केंद्र के रूप में कर ली है। प्रशांत का यह आरोप कि 'नरेंद्र मोदी को तो अम्बानी जैसे पूँजीपति हांकते हैं' क्या यह सावित नहीं करता कि मोदी न केवल असहिष्णुता के प्रतीक हैं ,न केवल घोर व्यक्तिवाद और साम्प्रदायिकता के प्रतीक हैं बल्कि वे निर्मम पूँजीवाद के अलम्वरदार भी हैं। निसंदेह प्रशांत भूषण या 'आप' का निर्मम विरोध अभी तक केवल भाजपा और कांग्रेस तथा भ्रष्ट व्यवस्था से था. किन्तु जब से हिंदुत्ववादियों ने 'आप' के कार्यालय पर हिंसक हमला किया है, तबसे 'आप' के समर्थकों में संघ परिवार के खिलाफ माहौल बनता जा रहा है । हिंदुतव्वादियों द्वारा दिल्ली में 'आप' पार्टी के कार्यालय पर हिंसक आक्रमण से संघ परिवार बनाम आम आदमी पार्टी की लड़ाई में मोदी का पी एम् बन पाना और कठिन होता जा रहा है। बड़े महनगरों में मध्यम वर्गीय पढ़ा लिखा हिन्दू युवा वर्ग 'आप' की ओर खीच रहा है। संघ परिवार को सब कुछ मालूम है।
मोहन राव भागवत,राम माधव,राजनाथ सिंह और भैयाजी जोशी इस मामले में डेमेज कंट्रोल की कोशिश में लगे हैं। किरण वेदी का मोदी शरणम गच्छामि हो जाना कोई आकस्मिक घटना नहीं है। यह एक राजनैतिक और घोर बेइमानीपूर्ण सौदेवाजी है कि जो किरण वेदी कल तक राजनीति को पाप का घड़ा बताया करते थी , अण्णा को राजनीति से दूर रहने की वकालत करती थीं अब वे खुद राजनीति के पीकदान में कूंद पडी हैं। यह तो 'थूक लो छांट लो' वाली बात हो गई । एक साल पहले किरण वेदी और 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' के लोगों ने ही सबसे पहले ''आप' के गठन का विरोध किया था। जब केजरीवाल और अन्य साथियों ने 'आप' का गठन किया ,दिल्ली में चुनाव लड़ा और बेहतरीन जन- समर्थन हासिल किया तो जिन लोगों के अहम् को ठेस पहुंची उनमें किरण मोदी और अन्ना हजारे टॉप पर थे। 'आप' को मिल रहे देश व्यापी समर्थन से जिनके अहंकार को ठेस लगी है , वे लोग अब भाजपा और संघ के दडवे में घुसने को बैचेन हैं । किरण मोदी अब खुलकर 'आप' के खिलाफ आ गईं हैं। उनके जैसे नापाक तत्वों ने 'आप' को गुमराह करने के लिए पहले भी बिन मांगे सुझाव दिया था कि केजरीवाल को सरकार नहीं बनाना चाहिए ! डॉ हर्षवर्धन के नेत्तव में भाजपा की सरकार बनने दी जाए। भाजपा सरकार को 'आप' बाहर से समर्थन दे। किन्तु कांग्रेस की 'चाल' से -उसके बिना शर्त समर्थन से जब 'आप' की सरकार बन ही गई तो अब 'आप' के निशाने पर भाजपा और मोदी आ चुके हैं. किरण वेदी जैसी बिन पैंदी की लुटिया अब भाजपा की गटर गंगा मेंडूबने जा रही है।
लगता है कि अन्ना हजारे भी प्रकारांतर से राष्ट्रीय राजनीती में नरेंद्र मोदी को 'कवरिंग फायर' दे रहे हैं। आरोप लगाए जा रहे हैं कि अण्णा हजारे ने ऐंसा इसलिए निर्देशित किया है, क्योंकि उन्हें लगता है कि नरेंद्र मोदी के नेत्तव को,उनके प्रधान मंत्री बनने के अभियान को अरविन्द केजरीवाल से खतरा है। अरविन्द केजरीवाल का उज्जवल -धवल चरित्र और आम आदमी वाले व्यक्तित्व से नरेंद्र मोदी जैसे विवादास्पद नेता और भाजपा जैसी पूंजीवादी दक्षिणपंथी पार्टी को गंभीर खतरा हो सकता है। इस घटनाक्रम से 'आप' अपने आप ही एक ऐंसे नवीन 'विचार' याने प्रति दक्षिणपंथ को धारण करती हुई प्रतीत होती है ।, जिसकी धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी प्रजातांत्रिकता अभी सिद्ध होना बाकी है. इसलिए 'आप' को अभी दिल्ली राज्य की सरकार पर पूरा ध्यान देना चाहिए। दिल्ली को भ्रष्टचार मुक्त कर देश को आशाजनक सन्देश देना चाहिए ताकि सम्पूर्ण भारत को भय-भूंख -भ्रष्टाचार से मुक्त करने लायक हैसियत 'आप' की हो सके।
आप के कुछ निस्वार्थी समर्थकों का ख्याल है कि अभी तो दिल्ली में 'आप' रुपी बिल्ली के भाग से कांग्रेस की सत्ता का सींका ही टूटा है , उनका ये भी कहना है कि दिल्ली विधान सभा चुनाव में भाजपा की आशा रुपी दही कि हाँडी फूटने से देश में मोदी का विभ्रमजाल भी टूट गया है । मीडिया द्वारा लगातार भरमाये जा रहे और क्षेत्रीय पार्टी से राष्ट्रीय विराट दल बनने के लिए उतावले हो रहे 'आप' के नेता चौतरफा औचक चकरघिन्नी खाने को बे करार हो रहे हैं। प्रशांत भूषण ने कश्मीर रुपी बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है ,कुमार विश्वाश तो अमेठी से चुनाव लड़ने को बेताव हो रहे हैं। वे कभी मोदी को ललकारते हैं ,कभी राहुल को चिढ़ाते हैं कभी अपने समर्थक विधायक को ही रुसवा करते दिख रहे हैं। राखी बिड़ला जब से मंत्री बनी हैं उन्हें 'सब कुछ लागे नया-नया ' याने अब तो क्रिकेट की गेंद भी उन्हें दुश्मनों का आक्रमण नज़र आने लगी है। ये शुभ संकेत नहीं हैं। वेचारे केजरीवाल अकेले पड़ते जा रहे हैं। योगेन्द्र यादव ने जो राष्ट्रीय छितिज पर नजर दौड़ाई है वो शायद बेहतर कदम हो किन्तु उन्हें चाहिए कि दिल्ली में 'आप' की सरकार की इज्जत पहले संभालें . केजरीवाल की परशानी ये है कि भाजपा ,कांग्रेस उन्हें कुछ सोचने या करने का अवसर ही नहीं देना चाहते । मीडिया और 'आप' के समर्थकों का कहना है कि केजरीवाल हम तुझे चेन से सोने नहीं देंगे !ऐंसे विषम हालात में योगेन्द्र यादव का यह एलान सुनने में आया है कि हम राष्ट्र व्यापी संगठन खड़ा करने जा रहे हैं । वेशक ऐंसा करने का उनका अधिकार और कर्त्तव्य दोनों हो सकते हैं किन्तु दिल कहता है कि कहींये बहुत जल्दवा- जी और अतिउत्साह में लिया गया फैसला सावित न हो जाए।
आम आदमी पार्टी की दिल्ली में आंशिक सफलता के उपरान्त अखिल भारतीय स्तर पर उनका समर्थन करने वालों की तादाद रोज-रोज बढ़ती जा रहे है। सभी वर्गों के लोगों का सपोर्ट उन्हें अवश्य मिलता हुआ नजर अवश्य आ रहा है. अनगिनत वेरोजगार युवा और राजनीति में असफल हो चुके फुरसतिए हजारों की संख्या में 'आप' के बाड़े में घुसने को बेताब हैं। इसकी कोई गारंटी नहीं कि ये सभी केजरीवाल या 'आप' के उस दृष्टिकोण से सहमत हैं जो तथाकथित भ्रष्टाचार ,मॅंहगाई और कुशासन के खिलाफ जंग छेड़ने के जूनून से ताल्लुक रखता है 'आप' की और पलायन करने वालों में शिक्षित,माध्यम वर्गीय युवक-युवतियाँ , आधुनिक सूचना संचार क्रान्ति से सुसज्जित छात्र -नौजवान सहित सभी वर्गों के प्रोफेशनल्स तथा कार्पोरेट लाबी भी आकर्षित होती जा रही है। ये वर्ग भाजपा का अधिकांस और बाकी कांग्रेस व अन्य दलों का न्यूनाधिक हो सकता है। यह जन सैलाब कभी इन्ही स्थापित बड़े दलों का मजबूत आधार स्तम्भ हुआ करता था अब उनको लगता है कि कांग्रेस और भाजपा का ज़माना गया सो अब वे 'आप' की और शनेः शनेः होता जा रहा है। इनमें वे असफल नेता और कार्यकर्ता भी हैं जो कांग्रेस ,भाजपा और अन्य स्थापित पार्टियों द्वारा अतीत में लतियाये जा चुके हैं।
कुछ अपवादों को छोड़ दें , वामपंथ के अलावा अधिकांस राजनैतिक पार्टियों में भ्रष्ट और बेईमान भरे पड़े हैं वे ही अब 'आप' के बाड़े में खिचे चल जा रहे हैं । इंडिया अग्नेस्ट करप्शन ,अण्णा हजारे और संघ परिवार के अधिकांस विचारक अब एक हो गए हैं ये सब मिलकर 'आप' को रोकने के लिए जुट गए हैं। उधर 'आप' के भीतर घुसने को भ्रष्ट तत्व भी बेताब हैं। भाजपा के लोग जानते हैं कि मोदी को ताज पहनाने के लिए 'आप ' का असफल होना जरूरी है। राहुल गांधी या कांग्रेस अभी कोई चुनौती नहीं हैं। इसलिए मोदी समर्थक 'आप' के खिलाफ लाम बद्ध हो चुके हैं . भारतीय राजनीति में अधिकांस भ्रष्ट तत्व् ही काबिज हैं अब यदि कोई इधर से उधर जाता है,कांग्रेस ,भाजपा या किसी अन्य पूंजीवादी पार्टी से 'आप' में जाता है तो उसके दल -बदलने का मतलब ह्रदय परिवर्तन तो नहीं कहा जा सकता। इस तरह भ्रष्टाचार ,मंहगाई और कुशासन से छुटकारा पाना आसान नहीं है। सभी क्रांतिकारियों और प्रगतिशील -धर्मनिरपेक्ष तत्वों की यह ऐतिहासिक जिम्मेदारी है कि 'आप' का साथ दें !
श्रीराम तिवारी
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