बूंदों पर तो छंद लिखे हैं ग़ज़ल लिखी बौछारों पर
तारीफों के बंद लिखे हैं गीत लिखे त्योहारों पर
किंतु लेखनी सूखी रह्ती निर्धन की कठिनाई पर ,
चिंता है किंतु न चिंतन बढ़ती हुई महंगाई पर
एक बार तो लिख कर देखो ठग वायदा बाज़ारों पर
तारीफों के बंद लिखे हैं गीत लिखे त्योहारों पर
खंड हुए अभिलेख पुराने नहीं लगाम महंगाई पर,
हर्षित नेता श्रेष्ठी हैं सब करते मौज कमाई पर
एक बार अब हटा के फेंको ऐसी ठग सरकारों को
बूंदों पर तो छंद लिखे हैं ग़ज़ल लिखी बौछारों पर
तारीफों के बंद लिखे हैं गीत लिखे त्योहारों पर
तपे जेठ की घोर दुपहरी , बे-घर रह मैदानों में ,
लथपथ रहे पसीना तन पर , करते काम खदानों में
एक बार तो छूकर देखो उन दिल की दीवारों पर
बूंदों पर तो छंद लिखे हैं ग़ज़ल लिखी बौछारों पर
तारीफों के बंद लिखे हैं गीत लिखे त्योहारों पर
जाडों में तन रहे ठिठुरता अधनंगे रह सड़कों पर ,
छोटी कथरी खींच तान कर डाल रहा जो लड़कों पर
एक बार तो हाथ रखो अब इन मजबूरी के तारों पर
बूंदों पर तो छंद लिखे हैं ग़ज़ल लिखी बौछारों पर
तारीफों के बंद लिखे हैं गीत लिखे त्योहारों पर
निर्धन की कुटिया छप्पर की टपक रही बरसातों में ,
बर्तन सारे बिछा फर्श पर जाग रहा जो रातों में
एक बार तो लिख कर देखो इनकी करुण पुकारों पर
बूंदों पर तो छंद लिखे हैं ग़ज़ल लिखी बौछारों पर
तारीफों के बंद लिखे हैं गीत लिखे त्योहारों पर
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