एक ज़माना था जब हर तरक्की पसंद शायर की एक नज़्म उसका ट्रेडमार्क बन जाती थी जैसे 'मजाज़' का ट्रेडमार्क उनकी नज़्म 'आवारा' थी। उसी तरह उनके समकालीन मोइन एहसान 'जज़्बी' की नज़्म 'मौत' उनका ट्रेडमार्क थी।
अलीगढ़ में जज़्बी साहब से मिलने जुलने का थोड़ा बहुत मौका मिला था। उस जमाने में वो अलीगढ़ के ही नहीं बल्कि उर्दू के बहुत सीनियर शायरों में शुमार किए जाते थे।
जज़्बी साहब ने एक वाक्य बताया था। रोजगार और काम की तलाश में वो मुंबई पहुंचे थे लेकिन न कोई काम मिला और न कोई नौकरी।
तीन दिन से खाने को कुछ नहीं मिला था। चौपाटी में समंदर के किनारे रेत पर लेटे हुए थे और दिमाग में यह ख्याल आ रहा था के इस तबाह हाली में मौत तक हो सकती है। बस यह ख्याल आते ही एक मिसरा कानों में गूंजने लगा था। शेर हुआ था। फिल्म ग़ज़ल भी हुई थी।
इलाही मौत न आए तबाह हाली में
ये नाम होगा ग़में रोज़गार सह न सका
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लेकिन वक्त बदला उनकी एक ग़ज़ल फिल्म में ले ली गई। उनका बड़ा नाम हुआ !
नीचे दी गयी उनकी ग़ज़ल गायक किशोर कुमार का पहला एकल गीत फिल्मी ज़िद्दी (1948) में थी। यह फ़िल्म इस्मत चुगताई की एक कहानी पर आधारित थी। इसमें मुख्य नायक के रूप में देव आनंद ने कैरियर की शुरुआत की थी।
बाद में जज़्बी साहब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में जीवन भर पढ़ाते रहे।
मरने की दुआएँ क्यूँ माँगूँ जीने की तमन्ना कौन करे !
ये दुनिया हो या वो दुनिया ख़्वाहिश-ए-दुनिया कौन करे !!
कश्ती साबित-ओ-सालिम साहिल की तमन्ना किसको थी,
अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर साहिलकी तमन्ना कौन करे !
जो आग लगाई थी तुम ने उस को तो बुझाया अश्कों ने!
जो अश्कों ने भड़काई है उस आग को ठंडा कौन करे !!
दुनियाने हमको छोड़ा 'जज़्बी' हम छोड़ न दें क्यूँ दुनिया को?
दुनिया को समझ कर बैठे हैं अब दुनिया दुनिया कौन करे ?
उनकी ट्रेडमार्क नज़्म
मौत
मुईन अहसन जज़्बी
अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूँ तो चलूँ
अपने ग़म-ख़ाने में इक धूम मचा लूँ तो चलूँ
और इक जाम-ए-मय-ए-तल्ख़ चढ़ा लूँ तो चलूँ
अभी चलता हूँ ज़रा ख़ुद को सँभालूँ तो चलूँ
जाने कब पी थी अभी तक है मय-ए-ग़म का ख़ुमार
धुँदला धुँदला नज़र आता है जहान-ए-बेदार
आँधियाँ चलती हैं दुनिया हुई जाती है ग़ुबार
आँख तो मल लूँ ज़रा होश में आ लूँ तो चलूँ
वो मिरा सेहर वो एजाज़ कहाँ है लाना
मेरी खोई हुई आवाज़ कहाँ है लाना
मिरा टूटा हुआ वो साज़ कहाँ है लाना
इक ज़रा गीत भी इस साज़ पे गा लूँ तो चलूँ
मैं थका हारा था इतने में जो आए बादल
किसी मतवाले ने चुपके से बढ़ा दी बोतल
उफ़ वो रंगीन पुर-असरार ख़यालों के महल
ऐसे दो चार महल और बना लूँ तो चलूँ
मुझ से कुछ कहने को आई है मिरे दिल की जलन
क्या किया मैं ने ज़माने में नहीं जिस का चलन
आँसुओ तुम ने तो बेकार भिगोया दामन
अपने भीगे हुए दामन को सुखा लूँ तो चलूँ
मेरी आँखों में अभी तक है मोहब्बत का ग़ुरूर
मेरे होंटों को अभी तक है सदाक़त का ग़ुरूर
मेरे माथे पे अभी तक है शराफ़त का ग़ुरूर
ऐसे वहमों से ज़रा ख़ुद को निकालूँ तो चलूँ
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