शतेन पाशैरभि धेहि वरुणैनं मा ते मोच्यनृतवाङ् नृचक्षः ।
आस्तां जाल्म उदरं श्रंसयित्वा कोश इवाबन्ध: परिकृत्यमानः ॥
(अथर्ववेद ४.१६.७)
अर्थात् - “हे वरुण ! आप इस शत्रु को पाश (रस्सी) से पूरी तरह भली प्रकार से बाँध लें (अभिधेयार्थ = एक सौ रस्सियों से भली प्रकार बाँध ले । यह आपके सुदृढ़ बन्धन से नहीं छूटे । असत्य बोलने वाला यह जुल्मी (निष्ठुर, कुकर्मी, घृणित कर्म करनेवाला) अँधे मनुष्य की भाँति नहीं देखता हुआ अपने पेट को सिकोड़कर अर्थात् बाहरी सम्बन्धों से कटा रहकर कारागार में निरुद्ध हुआ सा अपने द्वारा किये जाने वाले कर्मों से विमुख होकर पड़ा रहे ॥”
इस प्रकार वेदवाणी धर्मपथ (आचरण के नियम और दण्डविधान) से जनमानस को अवगत करने का दायित्व धर्माचार्यों के माध्यम से शासन-व्यवस्था पर सौंपती है । अपराधवृत्ति के नियन्त्रण हेतु अपराध के प्रति असहिष्णुता को अपनाने का विधान करती है तथा धर्मपथ का ज्ञान होने एवं आत्मसुधार का अवसर प्रदान करने के उपरान्त भी अपराधी द्वारा आत्मसुधार नहीं करने पर श्रुति उसे ‘कठोर दण्ड’ द्वारा दण्डित करने का उपबन्ध करती है कि- ‘इन्द्र ऐसे अपराधी को बाँधकर अपने वज्र द्वारा उनका शिरच्छेदन कर देवे’- ‘अथैषामिन्द्रो वज्रेणापि शीर्षाणि वृश्चतु ।’ (अथर्ववेद १.७.७)
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