हिगेल के दर्शन के अधिकार की समालोचना"
( 1843-44) की" भूमिका" में मार्क्स ने कहा कि धर्म की समालोचना अंततोगत्वा उन सामाजिक आधारों की समालोचना है, जो धर्म को अपनी विचारधारा के रूप में प्रस्तुत करते हैं! #लोगों के भ्रमात्मक सुख के रूप में धर्म का खात्मा ही उनका वास्तविक सुख की चाह है।लोगों से यह कहना कि अपनी स्थिति के बारे में भ्रमों को समाप्त करें, उनसे यह कहना है कि वे अपनी उस स्थिति को समाप्त कर दें जिसे भ्रमों की आवश्यकता है।धर्म की समालोचना ही, इसलिये, भ्रम में उन आंसुओं की घाटी की समालोचना है, जिसका धर्म ही प्रभामंडल है।इसप्रकार स्वर्ग की आलोचना घूम-फिर कर पृथ्वी की आलोचना हो उठती है।धर्म की आलोचना, कानून की आलोचना और धर्म-दर्शन की आलोचना, राजनीति की आलोचना में बदल जाती है#( कार्ल मार्क्स, अर्ली राइटिंग्स, पेग्विन बुक्स, हरमंडवर्थ, 1975, पृष्ठ 244-45)!..यह आलोचनात्मक बोध, बुर्जुवा विचारकों, जैसे मेकियावेली, बेकन, हाब्स आदि से होता हुआ कार्ल मार्क्स में अपनी तार्किक परिणति में पहुंचता है!
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