आज से करीब ५००० वर्ष पूर्व पतंजलि ऋषि ने एक ग्रंथ लिखा था जिसका नाम है योग- दर्शन। जिनमें योग के ८ अंगों की चर्चा है ,जिसे "अष्टाङ्ग-योग" भी कहते हैं।
आज योग के जिन आसन , प्राणायाम आदि क्रियाओं का प्रचलन योग के नाम से हो रहा है , उसका मुख्य स्रोत १५ वीं शताब्दी में घेरण्ड मुनि द्वारा रचित घेरण्ड संहिता , गुरु गोरखनाथ जी द्वारा शिव संहिता तथा स्वामी स्वात्माराम जी द्वारा हठयोग प्रदीपिका है।
इसमें चार अध्याय हैं
प्रथमोपदेशः - इसमें आसनों का वर्णन है।
द्वितीयोपदेशः - इसमें प्राणायाम का वर्णन है
तृतीयोपदेशः - इसमें योग की मुद्राओं का वर्णन है
चतुर्थोपदेशः - इसमें समाधि का वर्णन है।
इन अध्यायों में आसन, प्राणायाम के अतिरिक्त षट- कर्म शुद्धि क्रियाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन है। जिनमें नेति, धौति , बस्ती, नौलि, कपालभाति और त्राटक ये छ: क्रियाएं भी आती हैं । इसके साथ साथ मुद्राओं, बन्ध, चक्र / कुण्डलिनी जागरण क्रिया का भी मार्गदर्शन है।
वास्तविक रूप में आजकल हमलोग जो भी योग आसन करते है अथवा जो भी प्राणायाम की क्रियाएं करते हैं , वे सब इन्ही हठयोग आदि ग्रंथो से ली गई हैं, न कि पतञ्जलि के योगदर्शन से। क्योंकि योगदर्शन में किसी भी आसन व प्राणायाम का विस्तृत वर्णन नहीं है , मात्र संकेत के रूप में सूक्त दिए गए हैं। उदाहरणार्थ आसन के बारे मे पतञ्जलि जी ने लिखा -" स्थिर सुखम असानम "। बस और कुछ नहीं। इसी प्रकार प्राणायाम के बारे मे एक एक पंक्तियां ही लिखी गयी हैं, कैसे करने हैं, उनकी विधि क्या है , हिदायतें क्या है, लाभ हानियां क्या है, कुछ नहीं बताया गया। इन समस्त आसनों व प्राणायाम की गहन चर्चा हठयोग- प्रदीपिका ग्रंथ में ही है।
किन्तु जब भी कभी योग क्रियाओं की चर्चा होती है तो लोग उसे अक्सर पतंजलि के योग से जोड़ते हैं,वास्तव में वे हठयोग से संबंधित हैं। पतंजलि योग एक राज योग है, ध्यान योग है , शारीरिक योग नहीं।
अब एक मुख्य प्रश्न खड़ा होता है - यदि ऐसा है तो फिर लोग हठयोग के नाम से घबराते क्यों हैं ? इसका कारण यह है कि इस हठयोग में कई ऐसी क्रियाएं भी हैं जो बहुत कठिन हैं , दुष्कर हैं। जिसे आम आदमी नहीं कर पाता है । वो किसी कुशल योग गुरु के सानिध्य में करनी चाहिए और उस आसन में सिद्धहस्त होने के लिए बहुत अभ्यास की आवश्यकता होती है। कुछ कठिन आसनों की वजह से हम योग (हठयोग) ही न करें या उसको पूर्ण रूप से त्याग दें , यह कदापि उचित नहीं ।
इन कठिन आसनों को देखते हुए स्वामी दयानंद जी ने हठयोग को त्याज्य बताया था। किंतु उनका यह भाव न था कि समस्त हठयोग को ही छोड़ देवें। बल्कि सिर्फ उन कठिन आसनों को ही छोड़ना उनका उद्देश्य था। क्योंकि वे समझ रहे थे कि आम आदमी बिना विवेक के इन कठिन आसनों को करेगा तो लाभ की जगह हानि न कर बैठेगा
स्वामी जी की जीवनी पढ़ें तो पता चलता है कि उन्होंने अनेक योगी ,साधु , तपस्वियों से हठयोग सीखा और अनुभव प्राप्त किया । अपने लंबे अनुभव के आधार पर ही उन्होंने आम आदमी के लिए हठयोग को मना करके मात्र अष्टांग योग जैसे सरल योग को अपनाने के लिए सोचा होगा।
स्वामी जी ने स्वयं अपने जीवन में इस हठयोग का बहुत अधिक अभ्यास किया था । उनका शरीर, उनका बल हठयोग से प्राप्त की गई शक्ति व ऊर्जा की ओर स्वयं संकेत करता है। बाल ब्रह्मचर्य एवम हठयोग की शक्ति से ही वो खड्डे में फंसे बैलों को बाहर निकाल सके, दो सांडो को लड़ते हुए छुड़ा सके , दो गुंडों को अकेले पानी में डूबा कर रख सके, तलवार के दो टुकड़े कर सके, काफी दिनों तक भूखे प्यासे रह सके, दुर्जनो की लाठियों पत्थरों को सह सके। भयंकर ठंडी में भी वे कोपीनधारी ही रहे ,ये सब हठयोग का ही तो परिणाम था । प्राणायाम की विशेष क्रिया द्वारा वे भीषण सर्दी में भी अपने शरीर से पसीना निकाल लेते थे।
हठयोग की एक खास क्रिया होती है जिसे 'वमन धौति' कहते हैं , जिसमें पेट मे पड़े दूषित पदार्थो को उल्टी की विशेष प्रक्रिया द्वारा बाहर निकाला जाता है। स्वामी जी को उनके जीवन मे 16 बार विष दिया गया। किन्तु जब भी उनको धोखे से भोजन में विष दिया जाता था , वे वमन धौति की क्रिया द्वारा उसको उल्टी करके बाहर निकाल देते थे।नौलि क्रिया द्वारा नाभि तक जल में खड़े होकर गुदा द्वार से १,२ लीटर पानी खींचकर बाहर आकर झाडियों के निकाल देते थे। इस प्रकार वे बार बार बच जाते थे।यह हठयोग का ही वरदान था ।
हठयोग में एक 'कुण्डली - जागरण' की विधा भी होती है , जिसमे साधक आसन , प्राणायाम, मूलाकर्षण आदि क्रियाओं से अपने शक्ति केंद्र को जागृत करता है। इसके जागरण से व्यक्ति में असीम शक्ति का उदय होता है और मूलाधार से उठी यह शक्ति का विस्फोट मनुष्य को अत्यंत शरीरिक व मानसिक ऊर्जा से भर देता है।जिससे वह अनेक विस्मयकारी सामाजिक कार्य करने में सक्ष्म हो जाता है और आध्यात्मिक विकास- पथ पर आरोहण करने लगता है। किंतु कभी कभी इससे विपरीत भी होता है जब कमज़ोर व्यक्ति इसे संभाल नहीं पाते हैं और जो शक्ति का ऊर्ध्वगमन होना चाहिए था वह अधोमुखी हो जाता है , नाभि केंद्र से सहस्रार चक्र की ओर बहने वाली धारा पुनः मूल की ओर आने लगती है और वह व्यक्ति सांसारिक विषय भोगों में कुछ इस तरह फंस जाता है कि शक्ति का दुरुपयोग कर बैठता है ।
वह इस प्रकार यह शालीन योग अश्लीलता की तरफ दौड़ने लगता है । इन्ही बातों को ध्यान में रख कर सामान्य जनों को स्वामी जी ने हठयोग अपनाने के लिए मना किया।
सो आइये,हलके फुलके आसन करने में न हिचकिचाएं । आज हम इस आधुनिक युग में ज़्यादा शारीरिक श्रम नहीं कर पाते जो कि पहले दिनचर्या में ही शामिल होते थे अतः कुछ आसन कर हम अपनी मांसपेशीयो से काम लेकर उनको सुडौल और सही रख सकते है वरना वो शिथिल होने से कई रोगों का कारण बन सकती हैं।
सो हम हठयोग पर पुर्नविचार करें और इसके नाम से फैली हुई भ्रांतियों को दूर करें तथा आज के दौर में जो योग है जो योग्य है उसे विवेकपूर्ण ढंग से अपनाकर लाभ प्राप्त करें।
आज का वेद मंत्र
ओ३म् सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यानेनी यतेऽभीशुभिर्वाजिन इवर। हत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मन :शिवसड्कल्पमस्तु।(यजुर्वेद ३४|६)
अर्थ :- हे सर्वान्तर्यामी ! जो मन रस्सी से घोड़ो के समान अथवा घोड़ो के नियन्ता सारथी के तुल्य लोगों को अत्यंत इधर- उधर ले जाता है, जो ह्रदय में प्रतिष्ठित वृद्धादि अवस्था से रहित और अत्यन्त वेग वाला है , वह मेरा मन सब इन्द्रियों को धर्माचरण से रोक कर धर्म पथ में सदा चलाया करें।
ज्ञान रहित भक्ति अंधविश्वास है
भक्ति रहित ज्ञान नास्तिकता है
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