शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

क्या हम भी ईश्वर हैं ?

वेशक ! क्योंकि यदि हमने इस बात पर रत्तीभर भी शक किया तो इसका मतलब ये है कि हम खुद को सृष्टि से अलग कर रहे हैं या सृष्टि का कोई अज्ञात स्रोत या संचालक मान रहे हैं... अब रही बात ये कि हम खुद को ईश्वर कहने में हिचकते या डरते क्यों हैं?

इसका कारण बस इतना है कि हमने ईश्वर को एक वैभवशाली सत्ता और अपार शक्ति के स्रोत के रूप में ही जाना और समझा है... सारा धार्मिक साहित्य हमें यही बताता आया है कि हम ईश्वर की बराबरी नहीं कर सकते... वो जब चाहे हमें बना और बिगाड़ सकता है...
आज हम इसी बात को लेकर आगे बढ़ते हैं कि क्या हम सदियों से कुछ बनने के लालच और कुछ बिगड़ने के डर से ही किसी अज्ञात शक्ति को अलग अलग रूप के ईश्वर मानने को मजबूर हैं... या हम वाकई एक निष्पक्ष और शांत मन के द्वारा सृष्टि की सम्पूर्ण व्यवस्था को संचालित करने वाली एक सहज चेतना के साथ अपने मूलभूत जुड़ाव को निरन्तर महसूस करने के लिए तत्पर हैं...अगर हम डर और लालच के आधार पर ईश्वर की कल्पना करते रहेंगे तो हमें हमारे अलावा हर चीज में ईश्वर दिख सकता है और वो चीज हमें अद्वितीय लगेगी... दूसरी तरफ यदि हम एक सहज चेतना के रूप में ईश्वर को महसूस करते हैं तो ईश्वर हमें अपने अलावा कहीं नहीं मिलेगा लेकिन उसकी व्याप्ति हर चीज में दिखाई देगी... इसलिए सारी चीजें सामान्य और सहज होंगी... ऐसे में किसी चमत्कार या रहस्य की गुंजाइश नहीं रहती क्योंकि रहस्य और चमत्कार सिर्फ अज्ञात स्रोत से ही आ सकते हैं... जब आप खुद ही ईश्वरीय चेतना के स्रोत हों तो अज्ञात जैसा कुछ बचता नहीं ...खुद को ईश्वर महसूस करने के लिए करना क्या है?
...सिर्फ दिमाग की कंडीशनिंग करनी है... उसे समझाना है कि आपके पास ऐसा कुछ नहीं है जो बनाया या बिगाड़ा जा सके...आपकी शारीरिक और भौतिक संरचना में सब कुछ सृष्टि की जरुरत के अनुसार बन और बिगड़ रहा है... अगर आप किसी तिकड़म से कुछ ज्यादा बना भी रहे हैं या किसी दूसरे का ज्यादा बिगाड़ भी रहे हैं तो भी एक निश्चित अवधि में सृष्टि की सहज व्यवस्था उस अतिरिक्त प्रयास या उपलब्धि को संतुलित कर देगी...अगर आप पदार्थ कण के साथ हद से ज्यादा छेड़छाड़ करेंगे तो पदार्थ कण भी आपके जैविक और रासायनिक तंत्र के साथ खिलवाड़ करना शुरू कर देंगे... यहाँ वैज्ञानिक, धार्मिक या आध्यात्मिक प्रक्रिया या तरीका जैसी कोई चीज नहीं है... सिर्फ सहज लेन-देन का खेल है... जो हर जीव पर लागू होता है... इसी संतुलन के आधार पर अच्छाई और बुराई जैसी धारणाएं पैदा होती हैं जो ईश्वर से जुड़ने के बाद हमारे नैतिक तंत्र का हिस्सा बन जाती हैं.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें