श्रीरामजन्मभूमि मामले में सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इसमें समस्त वाद-संवाद और तर्क-वितर्क वर्ष 1990 तक पूर्ण हो चुका था। उसमें कुछ नया जोड़ने की गुंजाइश नहीं रह गई थी। किंतु समाधान की राह में मनोवैज्ञानिक बाधाएं थीं। इस मसले के राजनीतिकरण से इसके निराकरण में विलम्ब ही हुआ। रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण मुख्यतया विश्व हिन्दू परिषद का एजेंडा था, जिस पर वह वर्ष 1966 से ही निरंतर काम कर रही थी। वर्ष 1989 में जाकर भारतीय जनता पार्टी ने इसे अपना चुनावी एजेंडा स्वीकारा। रथयात्रा, कारसेवा, बाबरी विध्वंस और उसके बाद हुए साम्प्रदायिक दंगों से हालात जटिल हो गए। सर्वोच्च न्यायालय जैसी निष्पक्ष एजेंसी ही इसका समाधान कर सकती थी।
आज जब श्रीरामजन्मभूमि विवाद पर ऐतिहासिक निर्णय सुनाया गया है तो सभी को यह मालूम होना चाहिए कि जब मोदी-शाह तो दूर, अटल-आडवाणी भी तस्वीर में नहीं थे, तब दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों का एक समूह इस मसले पर अथक परिश्रम करके संघर्ष कर रहा था। यह सर्वथा अनुचित होगा कि आज के दिन उन्हें याद न किया जाए। मैं सुबह से खोज रहा हूं कि कोई तो इस निर्णय के परिप्रेक्ष्य में अरुण शौरी का नाम ले, लेकिन मुझको तो देखने में नहीं आया। कम ही लोगों को अनुमान होगा कि वर्ष 1986 से 1990 तक, यानी भारतीय जनता पार्टी द्वारा एक राष्ट्रव्यापी जनान्दोलन में परिवर्तित कर दिए जाने तक, श्रीरामजन्मभूमि विवाद पर वामपंथी और मुस्लिम बुद्धिजीवियों से संघर्ष में दक्षिणपंथियों की ओर से जो बौद्धिक उनका प्रतिकार कर रहे थे, उनका नेतृत्व अरुण शौरी कर रहे थे। शौरी उस समय इंडियन एक्सप्रेस के एडिटर-इन-चीफ़ थे, और वे इस विवाद को राष्ट्रीय-विमर्श की मुख्यधारा में ले आए थे। यह स्वातंत्र्योत्तर भारत के बौद्धिक जगत की अभूतपूर्व घटना थी। मुख्यधारा के अंग्रेज़ी मीडिया ने इससे पहले कभी हिंदुओं के पक्ष को इस तरह से देश के सामने नहीं रखा था।
इस बौद्धिक संघर्ष में एक तरफ़ थे सैयद शहाबुद्दीन, रोमिला थापर, बिपन चंद्र और एस. गोपाल तो दूसरी तरफ़ थे अरुण शौरी, राम स्वरूप, सीता राम गोयल, हर्ष नारायण, आभास कुमार चटर्जी और एक बेल्जियम बुद्धिजीवी कोएनराड एल्ष्ट। श्रीरामजन्मभूमि विवाद पर होने वाला कोई भी निर्णय इन व्यक्तियों के नामोल्लेख के बिना पूर्णता अर्जित नहीं कर सकता।
इस मामले में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व कर रहे सैयद शहाबुद्दीन का तर्क स्पष्ट था। शहाबुद्दीन के मतानुसार इस बात में किसी को विवाद नहीं है कि श्रीराम का जन्म अयोध्या में हुआ और यह उनकी नगरी थी। प्रश्न केवल इस बात का है कि क्या उनका जन्म ठीक उसी जगह पर हुआ था, जहां बाबरी मस्जिद खड़ी है। और अगर हां, तो इसके ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत किए जाएं। यह एक कठिन चुनौती थी। वर्ष 1528 में मीर बाकी ने बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया था। वही स्थान रामजन्मभूमि था, यह लोकभावना में न्यस्त था। किंतु इसका ऐतिहासिक प्रमाण जुटाना दूभर था। अरुण शौरी एंड कम्पनी ने इसी दुष्कर कार्य को करने का बीड़ा उठाया और शोधपरक लेखों की एक शृंखला "इंडियन एक्सप्रेस" में प्रकाशित करवाई। बाद में वे सारे लेख "हिन्दू टेम्पल्स : वॉट हैप्पण्ड टु देम : अ प्रीलिमनरी सर्वे" शीर्षक से एक पुस्तक के रूप में अप्रैल, 1990 में प्रकाशित हुए। दूसरे शब्दों में, जब 6 दिसम्बर 1992 का बाबरी विध्वंस अभी पूरे ढाई साल दूर था, तभी इस विवाद में सभी वैध तथ्य और तर्क सिलसिलेवार प्रस्तुत किए जा चुके थे।
वाम-दक्षिण के इस अभूतपूर्व बौद्धिक संग्राम का आरम्भ वर्ष 1986 में तब हुआ, जब रोमिला थापर के नेतृत्व में वामपंथी बौद्धिकों द्वारा "द टाइम्स ऑफ़ इंडिया" में एक पत्र प्रकाशित करवाकर आरोप लगाया गया कि अख़बार द्वारा ऐतिहासिक तथ्यों को साम्प्रदायिक रंग दिया जा रहा है। तब अरुण शौरी "टाइम्स ऑफ़ इंडिया" के प्रधान सम्पादक थे। रोमिला थापर के प्रतिकार में सीता राम गोयल ने एक पत्र लिखा, जिसका प्रकाशन टाइम्स ऑफ़ इंडिया के द्वारा नहीं किया गया। तदुपरान्त अरुण शौरी के स्थान पर दिलीप पडगांवकर प्रधान सम्पादक बना दिए गए। अरुण शौरी ने "इंडियन एक्सप्रेस" के एडिटर-इन-चीफ़ का पदभार सम्भाला और वामपंथी बुद्धिजीवियों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया।
5 फ़रवरी 1989 को अरुण शौरी ने इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने इस बात का उल्लेख किया कि लखनऊ के "नदवातुल-उलामा" के कुलाधिसचिव द्वारा अरबी में लिखी गई एक पुस्तक में यह कहा गया है कि भारत में ऐसी अनेक मस्जिदें हैं, जिनका निर्माण पूर्व में उस स्थान पर मौजूद हिंदू मंदिरों का ध्वंस करके किया गया था। उस समय सीता राम गोयल इसी विषय पर शोध कर रहे थे। उन्होंने अरुण शौरी से इंडियन एक्सप्रेस में लिखने का आग्रह किया और शौरी ने इसे सहर्ष स्वीकार किया। तब 19 फ़रवरी, 16 अप्रैल और 21 मई को सीता राम गोयल के लेखों की एक शृंखला इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुई।
दक्षिणपंथी बौद्धिकों के द्वारा उस समय तक श्रीरामजन्मभूमि के सम्बंध में जो सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत किया जाता था, वह ब्रिटिश राज के द्वारा प्रकाशित किया गया "डिस्ट्रिक्ट गैज़ेटियर फ़ैज़ाबाद" था। यह गैज़ेटियर स्पष्ट शब्दों में कहता था कि आज जिस स्थान पर बाबरी मस्जिद खड़ी है, वहां इससे पूर्व एक रामजन्मस्थान मंदिर था। सैयद शहाबुद्दीन ने इस गैज़ेटियर के तथ्यों को यह कहकर निरस्त कर दिया कि यह अंग्रेज़ों के द्वारा फैलाया गया झूठ था, क्योंकि वे अवध के नवाब और हिंदू प्रजा के बीच वैमनस्य पैदा करना चाहते थे।
तब, 26 फ़रवरी 1990 को इंडियन एक्सप्रेस में हर्ष नारायण का एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने तीन अधिकृत मुस्लिम स्रोतों का उल्लेख किया, जिसमें यह कहा गया था कि रामजन्मभूमि पर ही बाबरी मस्जिद बनाई गई थी। हर्ष नारायण ने अपने लेख में 30 नवम्बर 1858 को बाबरी मस्जिद के मुअज़्ज़िन मुहम्मद असग़र के द्वारा लिखे गए एक प्रार्थना पत्र का उल्लेख किया, जिसमें स्वयं असग़र ने बाबरी मस्जिद को "मस्जिद-ए-जन्मस्थान" कहकर सम्बोधित किया था।
रामजन्मभूमि के पक्ष में तीसरा महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य आभास कुमार चटर्जी ने प्रस्तुत किया। 27 मार्च 1990 को "इंडियन एक्सप्रेस" में प्रकाशित अपने लेख में उन्होंने जोसेफ़ टीफ़ेनथेलर नामक एक ऑस्ट्रियन जेसुइट प्रीस्ट की एक रिपोर्ट का ब्योरा दिया। यह रिपोर्ट वर्ष 1766 से 1771 के दौरान लिखी गई थी और वर्ष 1786 में फ्रांसीसी इतिहासकार जोसेफ़ बेर्नोउल्ली की पुस्तक में प्रकाशित हुई थी। इसमें वर्णन था कि मुग़लों ने अयोध्या के रामकोट नामक दुर्ग का विध्वंस करके वहां बाबरी मस्जिद बनवाई थी और मस्जिद के निर्माण में मंदिर के ध्वंस से प्राप्त सामग्री का ही इस्तेमाल किया गया था, जिनमें से कुछ स्तम्भों को आज भी देखा जा सकता है।
सैयद शहाबुद्दीन ने इससे पूर्व कहा था कि इस्लाम में किसी मस्जिद का निर्माण दूसरों के उपासनास्थल पर करना हराम माना गया है और अगर किसी पूर्व-ब्रिटिश ऐतिहासिक स्रोत से यह सिद्ध कर दिया जाए कि बाबरी मस्जिद का निर्माण रामजन्मभूमि पर किया गया था तो वे स्वयं अपने हाथों से उस मस्जिद को ढहा देंगे। तब आभास कुमार चटर्जी ने कटाक्ष करते हुए सैयद शहाबुद्दीन से कहा कि जोसेफ़ टीफ़ेनथेलर की रिपोर्ट पर उनका क्या कहना है। इसके बाद चटर्जी और शहाबुद्दीन के बीच तीखी बहस पत्रों के एक लम्बे सिलसिले के रूप में हुई, जिसे इंडियन एक्सप्रेस ने धारावाहिक रूप से प्रकाशित किया।
आभास कुमार चटर्जी का मत था कि अयोध्या में रामजन्मस्थान मंदिर का निर्माण ग्यारहवीं सदी में किया गया था। 12 मई 1990 को इसका प्रतिकार करते हुए सैयद शहाबुद्दीन एक ऐसी बात कह बैठे, जिसे "आत्मघाती गोल" की संज्ञा दी जा सकती है। शहाबुद्दीन ने कहा- अगर अयोध्या में मंदिर ग्यारहवीं सदी में बनाया गया था तो वह 1528 तक सुरक्षित कैसे रहा? वर्ष 1194 में अयोध्या पर अफ़गानों ने धावा बोल दिया था। उसे तभी क्यों नहीं गिरा दिया गया? इसके प्रत्युत्तर में आभास कुमार चटर्जी ने चुटकी ली कि सैयद साहब, यह तो आप भी मान रहे हैं कि मुस्लिम आक्रांता तत्परतापूर्वक हिंदू मंदिरों का विध्वंस करते थे और आपको आश्चर्य हो रहा है कि रामजन्मभूमि मंदिर 350 वर्षों तक सुरक्षित कैसे रहा?
यह पूरी सिलसिलेवार बहस अप्रैल 1990 में प्रकाशित पुस्तक "हिन्दू टेम्पल्स : वॉट हैप्पण्ड टु देम : अ प्रीलिमनरी सर्वे" में सुरक्षित है। यह पुस्तक उपलब्ध है और पढ़ी जा सकती है। आप मान सकते हैं कि अगर यह मामला उसी साल अदालत में चला गया होता तो इस पर वही निर्णय लिया जाता, जो आज लिया गया है। निर्णय में अगर 30 वर्षों की देरी हुई तो इसके पीछे इस मामले का राजनीतिकरण है। जब कोई मामला जनभावना से जुड़कर राजनीतिक पूंजी बन जाता है और अत्यंत विस्फोटक और संवेदनशील रुख़ अख़्तियार कर लेता है तो उसके सम्बंध में लिए जाने वाले निर्णय में अनिवार्यत: विलम्ब होता ही है।
इन अर्थों में 9 नवम्बर 2019 के सर्वोच्च अदालत के ऐतिहासिक निर्णय की नज़ीर यह है कि मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक महत्व के मसलों, जिनके पीछे हठ, विद्वेष और आक्रोश की भावना हो, का निराकरण राजनीतिक दलों के बजाय न्यायपालिका जैसी तटस्थ एजेंसियों के द्वारा अगर सटीक ऐतिहासिक तथ्यों और उनसे निर्मित सुसंगत तर्कों के आधार पर किया जाए तो यह समाधान का सबसे श्रेयस्कर उपाय है। भावनात्मक मुद्दों का राजनीतिकरण करने का अर्थ है, उन्हें एक असमाप्त विवाद बना देना, और उनके निराकरण की आशा को तिलांजलि दे देना।
इसमें संदेह नहीं है कि भारत के बहुसंख्यक हिंदुओं में एक लम्बे समय से आक्रोश की यह भावना न्यस्त रही है कि उनके साथ न्याय नहीं किया गया और वे अपने ही देश में छले गए। इसका मूल धार्मिक आधार पर हुए भारत-विभाजन में था। हिंदुओं का मत था कि भारत-विभाजन और पाकिस्तान-निर्माण के बाद भारतीय मुस्लिमों को कश्मीर और अयोध्या जैसे मसलों पर हठ का त्याग कर देना चाहिए था। कहना न होगा कि मुख्यधारा की बौद्धिकता ने इस आक्रोश के कारणों को समझने का उतना सदाशय प्रयास नहीं किया, जितना कि किया जाना चाहिए था। इसके परिणामस्वरूप ही हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति का उदय हुआ, जो केंद्र में लगातार दो बार बहुमत से चुनाव जीतकर अब यथास्थिति बन चुकी है। सोशल मीडिया पर व्यक्त होने वाला वैमनस्य भी इसी का परिणाम है।
आशा की जानी चाहिए कि सर्वोच्च अदालत ने आज जो निर्णय सुनाया है, वह हिंदू मानस में व्याप्त आक्रोश और विद्वेष को शांत और तुष्ट करने में सफल रहेगा। इसके बाद बहुसंख्यकों का भी यह दायित्व है कि अपने कार्य-व्यवहार और वाणी-आचरण से सदाशयता, करुणा, सौहार्द और विनम्रता का परिचय देवें और भविष्य के प्रति एक सकारात्मक दृष्टि रखें। साथ ही वे इस बात को स्वीकार करें कि तमाम वैध निर्णय निष्पक्षता के साथ ऐतिहासिक तथ्यों के विवेचन से ही लिए जा सकते हैं, राजनीतिक आक्रोश और विद्वेष की शब्दावली के माध्यम से नहीं।
पहले 5 अगस्त को धारा 370 और फिर 9 नवम्बर को सुप्रीमकोर्ट द्वारा अयोध्या पर लिए सर्वसम्मत से लिये गए ऐतिहासिक निर्णयों के बाद अब भारत-देशके बहुसंख्यक वर्ग के लिए बड़प्पन दिखाने का समय आ गया है। अयोध्या में रामलला का भव्य मंदिर बने और दुनिया की बेमिसाल मस्जिद भी! यह संकल्प न केवल अयोध्या के लिये,न केवल गंगा-जमुनी तहजीब के लिये और भारत की ही नही बल्कि भगवान श्रीराम के आदर्शोंपर चलने के लिये जनकल्याणकारी मार्ग प्रसस्त करेगा!
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