मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

भले-बुरे सब एक से ,जब लों बोलत नाहिं।

कौन आस्तिक है ?कौन नास्तिक है ?यह व्यक्तिगत सोच और आचरण का विषय है। कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति ,समाज ,राष्ट्र या विचारधारा के बारे में यह निर्णय नहीं कर सकता कि अमुक व्यक्ति,अमुक समाज या अमुक विचारधारा वाले लोग नास्तिक होते हैं ! और यह सर्टिफिकेट भी नही बांट सकते कि अमुक व्यक्ति और अमुक विचाधारा के लोग 100% आस्तिक हैं।
इस संदर्भ में संस्कृत सुभाषित बहुत प्रसिद्ध है :-
काक : कृष्ण पिक : कृष्ण,को भेद पिक काकयो :!
वसन्त समय शब्दै : , काक: काक: पिक: पिक: ! !
इसका सुंदर अनुवाद स्वयम बिहारी कवि ने किया है :-
भले-बुरे सब एक से ,जब लों बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक -पिक ,ऋतु वसन्त के माँहिं ।।
अर्थ :- अच्छा-बुरा ,आस्तिक -नास्तिक सब बराबर होते हैं ,जब तक वे अपने बचन और कर्म का सत् और असत् प्रदर्शन नहीं करते। वसन्त के आगमन पर ही मालूम पड़ता है कि कोयल और कौआ में क्या फर्क है ?
यदि कोई कहे कि मैं 'नास्तिक' हूँ तो मान लो कि वो नास्तिक है,इसमें किसी का क्या जाता है ? और यदि कोई कहे कि मैं तो सौ फीसदी 'आस्तिक' हूँ तो मान लो कि वो है!इससे तुम्हे क्या फर्क पड़ता है ? वैसे भी जो अपने आपको आस्तिक मानते हैं वे सोचें कि आसाराम,राम रहीम,नित्यानंद और तमाम बाबा-बाबियां किस तरह के आस्तिक हैं और यह सारा जगत जानता है।
जबकि गैरी बाल्डी,सिकंदर,जूलियस सीजर ,गेलिलियो ,अल्फ़्रेड नोबल ,आइजक न्यूटन डार्विन ,रूसो,बाल्टेयर एडिसन, नेल्सन मंडेला ,मार्टिन लूथर किंग ,पेरियार, न्याम्चोमस्की और स्टीफन हॉकिंस जैसे लाखों हैं जो अपने जिंदगीभर अपने आपको नास्तिक मानते रहे!
भारतीय हिन्दू दर्शन के अनुसार इस जीव जगत में ऐंसा कोई चेतन प्राणी नहीं जिसमें ईश्वर न हो !यह स्वयम भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है !
ईश्वरः सर्वभूतानाम ह्रदयेशे अर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन सर्वभूतानि ,यन्त्रारूढानि मायया।। ,,[गीता-अध्याय १८ -श्लोक ६१ ]
अर्थ :-हे अर्जुन ! शरीररूप यन्त्रमें आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी मायासे उनके कर्मानुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों में स्थित है। अर्थात ईश्वर सब में है। जो यह मान लेताहै वह आस्तिक है,जो न माने वो नास्तिक है। लेकिन नहीं मानने वाला जरुरी नहीं कि बुरा आदमी हो और मान लेने वाला जरुरी नहीं कि वह अच्छा आदमी ही होगा !वह रिश्वतखोर भी हो सकता है ,वह बदमाश -आसाराम जैसा लुच्चा भी हो सकता है !
जब कोई व्यक्ति कहे कि ''मैं नास्तिक हूँ '' तो उसे यह श्लोक पढ़ना होगा, यदि वह कुतर्क करे और कहे कि मुझे गीता और श्रीकृष्ण पर ही विश्वाश नहीं ,तो उसे याद रखना होगा कि श्रीकृष्ण ही दुनिया के सर्वप्रथम नास्तिक थे। उन्होंने ही 'वेद'विरुद्ध यज्ञ ठुकराकर सर्वप्रथम इंद्र की ऐंसी -तैसी की थी। गोवर्धन पर्वत उठाने की कथा भले ही रूपक हो ,किन्तु उसी रूपक का कथन यह है कि श्रीकृष्ण ने ही सबसे पहले धर्म के आडम्बर-पाखण्ड को त्यागकर -गायों ,नदियों और पर्वतों को इज्जत दी थी। यदि कोई कम्युनिस्ट भी श्रीकृष्ण की तरह का 'नास्तिक ' है तो क्या बुराई है ?
मैं स्वयम न तो नास्तिक हूँ और न आस्तिक ,मुझे श्रीकृष्ण का गीता सन्देश कहीं से भी अवैज्ञानिक और असत्य नहीं लगा। लेकिन बुद्ध का वह बचन जल्दी समझ में गयाकि 'अप्प दीपो भव'' । बुद्ध कहा करते थे ईश्वर है या नहीं इस झमेले में मत पड़ो ''! कार्ल मार्क्स ने भी सिर्फ 'रिलिजन' को अफीम कहा है ,उन्होंने भी बुद्ध की तरह ईश्वर और आत्मा के बारे में कुछ नहीं कहा। मार्क्सने भारतीय दर्शन के खिलाफ भी कभी कुछ नहीं लिखा। बल्कि मार्क्सने वेदों की जमकर तारीफ की है। उन्होंने ऋग्वेद में आदिम साम्यवाद का दर्शन की खोज की है । उन्होंने ही सर्वप्रथम दुनिए को बताया था कि 'वैदिककाल में आदिम साम्यवादी व्यवस्था थी और उसमें वर्णभेद,आर्थिक असमानता नहीं थी '' तथाकथित आस्तिक हिन्दू [ब्राम्हण पुत्र भी ] वेदों के दो चार सूत्र और मन्त्र पढ़कर साम्प्रदायिकता की राजनीति करने लगते हैं। वे यदि आस्तिक वेदपाठी प्रकांड पण्डित न भी हो किन्तु इस श्लोक को तो याद कर ही ले।
''अन्यनयाश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषाम नित्याभियुक्तानां योगक्षेम वहाम्यहम।। '' [गीता अध्याय ९ श्लोक-२२]
श्रीराम तिवारी

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