मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

ओला-अनावृष्टि पीड़ित किसानों की आत्महत्याओं पर निष्ठुर नसीबवाले चुप क्यों हैं ?

 केंद्र में जबसे  'नसीबवालों' की सरकार सत्ता में आई है तबसे शैतान के हौसलें बुलंद हैं। अमीरों और कार्पोरेट घरानों पर तो उसकी कृपादृष्टि बनी हुई है किन्तु निर्धन -गरीब और असहाय किसानों पर वज्रपात  बढ़ता गया है। जबसे 'नसीबवाले' देश के 'भाग्यविधाता ' बने हैं तभी से बार-बार वेमौसम -बरसात ,प्रलयंकर ओलावृष्टि और किसान हन्ता  अनावृष्टि का सैलाब  सा उमड़ पड़ा है। हालाँकि  इस देश का गरीब  किसान तो सदियों से ही आत्महत्या के लिए मजबूर होता रहा है किन्तु 'नसीबवालों' के राज में तो गजब हो गया। हर  संवेदनशील इंसान को  देश के कोने-कोने से, प्रकृति की मार से पीड़ित किसानों की बिधवाओं का चीत्कार ही सुनायी दे रहा है। ओला-अनावृष्टि पीड़ित किसानों  की आत्महत्याओं पर निष्ठुर नसीबवाले चुप क्यों हैं ? न केवल वामपंथी किसान संगठन बल्कि सत्तारूढ़ पार्टी के भी  कुछ किसान 'संघ' अब संघर्ष और  आंदोलन की राह पर हैं।  वे खुलकर कहने लगे हैं कि  इन 'नसीबवालों' से तो बद्नसीबों  की सरकार ही ठीक थी !एक साल पूरा हुआ नहीं कि भाजपा नीत  केंद्र और राज्यों की सरकारों द्वारा  अपनी कपोल्कल्पत उपलब्धियों को सीबीएसई के नए करिकुलम में शामिल किये जाने के सिलेबस  तैयार किये जा रहे  हैं। विकास -सुशासन -वैज्ञानिक परिलब्धियों के काल्पनिक झंडे बच्चों के मनोमस्तिष्क में गाड़े जा रहे हैं। 
                                             सामाजिक प्रतिबद्धता,पारदर्शिता,लोकतांत्रिकता,सुशासन ,सुचिता ,बचनबद्धता और विश्वश्नीयता में सत्ता पक्ष और मोदी सरकार भले ही फिसड्डी सावित् हो रहे हों। किन्तु कार्पोरेट प्रतिबद्धता ,किसान आत्महत्याओं, मीडिया मैनेजमेंट और पार्टी में बोगस सदस्यों  की भर्ती में आज  भाजपा वाकई दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी है। उसकी इस कृत्रिम और व्यवसायिक चकाचौंध से सिर्फ वही  गदगदायमान  हो सकते हैं जो या तो सत्ता सुख भोग रहे हैं या जिनमें सत्ताधीशों के डीएनए  का समावेश है।यह मेरे जैसे किसी एक असहमत नागरिक का ही अभिमत नहीं है बल्कि भाजपा के अंदर ही अंदर  जो  मंदाग्नि धधक रही  है उसका भी प्रमाण  है।

                             पार्टी की ३५ वीं सालगिरह पर देश के बुजुर्ग  भाजपा नेताओं की आँखों के आंसू छिपाने पर भी नहीं छिप रहे हैं।  इन तथाकथित सत्तू बांधकर दीपक जलाने वाले  'पुरातन पुरुषों'  का दर्द उनके चेहरे पर छिपाए नहीं छिप रहा  है। केंद्र में  सत्तारूढ़ पार्टी  भाजपा की ३५ वीं सालगिरह पर मोदी जी और शाह जी तो खुद की पीठ  ही बार-बार ठोक  रहे हैं। किन्तु  सफलता  की जिस विषवेल  को निहार- निहार  कर वे  फूले नहीं समा रहे हैं ,उसका पौधारोपण  करने  वालों  को  भी शायद यही सजा माकूल  थी।  इन बेगैरतों को  पूँजीवादी  आर्थिक नीतियों और फासिस्ट संगठन को आजीवन संवारते रहने का  यही दण्ड  उचित  है।  नियति का कानून भी यही  कहता है कि  वे ही लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की मानिंद रुसवा  होते रहें ! महानतम  दार्शनिक   कार्ल मार्क्स का कथन  है कि" हर एक दौर में   इतिहास अपने आपको दुहराता है"। अतः यह तय है कि जो आज सत्ता के मद चूर होकर अपने वरिष्ठों को लतिया  रहे हैं कल उनके अवसान का हश्र भी कुछ इसी अंदाज में होगा।  बल्कि कुछ इससे भी  ज्यादा  बुरा  सम्भव है। आज के हँसनेवाले  कल अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाने लायक भी नहीं  रहेंगे। हाथ कंगन को आरसी क्या  कि  सत्ता की  नसीबी ने वैसे भी  इस  पूरे मुल्क को ही   'बदनसीब' बना डाला है। जिनके सत्ता में रहते खेत और किसान दोनों ही श्मशान की ओर  अग्रसर  हों उनको  'नसीबवाला' पता नहीं किस ने बना  कह दिया ?

                                                                                    श्रीराम तिवारी    

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें