रविवार, 12 अप्रैल 2015

"किसानों को भगवान और सरकार के भरोसे नहीं रहना चाहिए"- गडकरी !


  भाजपा और 'संघ परिवार' के अनन्यतम अनुयाइयों में शुमार ,पूर्व  भाजपा अध्यक्ष और वर्तमान केंद्रीय मंत्री श्री नितिन गडकरी ने  महाराष्ट्र समेत  भारत के  समस्त  ओला-अनावृष्टि पीड़ित किसानों को जो उपदेश दिया उसमें वर्तमान व्यवस्था की क्रूरतम  सच्चाई वयां  हो रही है। एक  महान उटोपियाई तर्कशास्त्री और  दार्शनिक की तर्ज पर उन्होने उद्घोष किया है कि:-

 "किसानों को भगवान और सरकार के  भरोसे नहीं रहना चाहिए"

  प्रथमदृष्टया  यह क्रूरतम आह्वान  ही है। किन्तु  गडकरी जी का यह' कड़वा प्रवचन' [यदि वे अब तक अपने कहे से मुकर न गए हों तो !] न केवल उन किसानों को जो आत्महत्या  की ओर  अग्रसर हैं ,बल्कि उनके लिए भी दिशा निर्देश है जो  अब तक  सरकार या भगवान के भरोसे बैठे हैं । गडकरी जी  की यह 'नास्तिक' किस्म की यथार्थ वयानबाजी सभी को आगाह करती है कि सभी हितग्राही [स्टेकहोल्डर्स] सावधान हो जावें ! अर्थात   वर्तमान  पतित शासक वर्ग और वर्तमान  निर्मम बेहया बाजारू व्यवस्था की असलियत  को जानें और सावधान हो जावें ! गडकरी जी का  यह वयान  न केवल राजनैतिक असफलता बल्कि ईश्वरीय निष्ठुरता पर भी शानदार व्यंग है ।  खेद है कि मीडिया के अधिकांस हिस्से  ने नितिन गडकरी के  इस ताजातरीन - अति माकूल और तार्किक वयान को कोई  खास तवज्जो नहीं दी ! जबकि मीडिया का अधिकांस समय और ताकत न  केवल वैयक्तिक किस्म की बतकहियों में जाया हो रहा है अपितु  अश्लील , फ़ूहड़ ,सेक्सी ,अगम्भीर वेफ़ालतु खबरों को रोचकता से पेश करने में  भी खप  रहा है।  हर किस्म के मीडिया और बौद्धिक आलेखों  में फाँसी पर लटके किसान का फोटो  छापकर या कोई ब्रेकिंग न्यूज देकर उसकी इति श्री  कर दी जाती है। 
                       इस विमर्श पर  देश और दुनिया के तमाम धर्मभीरु -भाववादी चुप क्यों हैं ? वे  बताते क्यों नहीं कि उनके पंथ मजहब या धर्म के अनुसार किसके पापों की सजा देश के किसानों को भुगतनी पड़  रही है ?उनका भगवान ,गॉड ,अल्लाह ,तीर्थंकर,महाबोधि या पंथ संस्थापक -धर्मसंस्थापक अब  केवल पूँजीपतियों या महाभृष्ट किस्म के ताकतवर लोगों का ही  साथ क्यों दे रहा है ?  इन दिनों वह  भारत के  किसानों पर ही  इतना कुपित क्यों है ?  हालाँकि  प्रकारांतर से किसानों की बर्बादी याने देश की बर्बादी भी है। पुरातन पंथियों को याद रखना चाहिए कि उनकी रूढ़िवादी दकियानूसी [!] धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जब 'राजा' याने शासक यदि पापी हो तो 'प्रजा' याने जनता को  उसका परिणाम भुगतना पड़ता है। तो क्या यह माना जाए कि शासक वर्गों के पाप की सजा  ही देश के किसानों को भुगतनी पड़  रही है ? यदि किसानों की  फसलें  बर्बाद हो गईं हैं तो महँगाई  का आलम क्या  होगा  ? क्या उससे देश की गरीब जनता  घोर भुखमरी और कुपोषण का शिकार नहीं  होगी ?
                         यदि भगवान और सरकार दोनों के  भरोसे पर प्रश्नचिन्ह लग रहा हो तो किसानों के समक्ष इस पतनशील व्यवस्था के खिलाफ  एकजुट संघर्ष  तो  लाजमी है ही । बल्कि यह संभावना  भी बनी रहेगी कि  शोषक  शासक वर्ग की नीति  रीति के खिलाफ बल्कि तमाम किस्म की अंधश्रद्धा और [अ]धार्मिक पाखंड के खिलाफ भी एक दिन कोई नया  क्रांतिकारी  संघर्ष  अवश्य छिड़ेगा ।

                                          श्रीराम तिवारी     

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