न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र महा सभा को सम्बोधित करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी से जो हिमालयी चुकें हुई हैं -उनकी भरपाई उन्होंने 'मेडिसन इस्कवॉयर ' के अपने अगले - सम्बोधन में दुरुस्त करने की पुरजोर कोशिश की है।लेकिन मेडिसन स्क्वॉयर के सम्बोधन में उनसे जो गंभीर भूल-चूक हुई है उसे वे कहाँ -कब दुरस्त करेंगे ? यदि अपनी -ओबामा मुलाकत में भी कुछ खास करते तो उनकी अमेरिका यह यात्रा किंचित ऐतिहासिक रूप से सार्थक होती।
वैसे तो कोई भी वतन परस्त नहीं चाहेगा कि उसके देश की या प्रधानमंत्री की खिल्ली उड़े। कोई भी देश भक्त नहीं चाहेगा कि उसके देश को दुनिया में रुसवा होना पड़े। किन्तु हतभाग्य !मोदी जी ने तो अपने देश की कमजोरियाँ का - निर्धनता का- गंदगी का ढिंढोरा - शुद्ध हिंदी में वहां जमकर परोसा। जब देश का प्रधान- मंत्री ही सारे संसार के सामने बार-बार अपनी दयनीयता का डंका पीट रहा हो और उनके अंध समर्थक भी तालियाँ पीट रहे हों तो जग हँसाई को कौन रोक सकता है ? नितांत अनभव- हीनता या अज्ञानतावश- मोदी जी ने अमेरिका यात्रा के दौरान अति उत्साह में अपने ही देश की जमकर बारह बजाई है। मानो उन्होंने आत्मघाती गोल ही कर डाला हो ! उन पर कम-से -कम निम्नांकित पांच गंभीर आरोप लगना तो स्वाभाविक है।
आरोप -एक; - भारत को - उसकी गंगा को,उसकी अन्य नदियों को और उसके सम्पूर्ण विस्तार को - गंदगी में आकंठ डूबा मक्कारों से भरा हुआ देश बताकर अच्छा नहीं किया मोदी जी ने । जिसके निमित्त वे अमेरिकी प्रवासियों और निवेशकों का- भारत की सफाई के लिए आह्वान करते हैं। उसके लिए यदि जापान,चीन या किसी भी अन्य मुल्क का राष्ट्राध्यक्ष होता तो कदापि यह नहीं करता । मोदी के दींन बचन सुनकर- स्वामी विवेकानद की आत्मा भी न्यूयार्क में नहीं तो स्वर्ग में जरूर सोचती होगी कि मैंने ऐसा तो नहीं कहा था ! स्वामीजी कहते होंगे कि बच्चा -क्यों अपने वतन की 'जांघ उघार रहा है '? क्यों दुनिया में ढिंढोरा पीट रहा है कि हमसे [भारतीयों से ] तो कुछ होता-जाता नहीं - अब आप ही आ जाइए और संभालिये मेरे उस मुल्क को जिसे पहले भी आप विलायतियों के पूर्वजों ने सदियों तक गुलाम बनाकर लूटा है !
आरोप -दो ;- मेडिसन स्क्वायर में मोदी जी बार -बार दुहरा रहे थे कि 'गांधी जी ने हमे आजादी दिलाई हमने गांधी जी को क्या दिया ? उन्होंने खुद ही पूंछा -कभी स्वर्ग में मुलाकात होगी तो क्या जबाब दोगे ? गांधी जी तो सफाई पसंद थे -खुद झाड़ू लगाते थे। हमने भारत को कितना गंदा कर दिया ?" गांधी जी को हमने क्या दिया ? इसका जबाब तो मोदी जी के आराध्य प्रातःस्मरणीय नाथूराम गोडसे ही दे सकते हैं ! वेशक भारत में गंदगी है ! गंगा -जमुना ,गोदावरी इत्यादि सभी नदियां दूषित हो चुकीं हैं।जल-जंगल -जमीन सब पर ताकतवर लोगों का कब्ज़ा है। इसलिए गंदगी के लिए जिम्मेदार भी वे ही हैं। उस से भी ज्यादा गंदगी सत्ता के गलियारों में भी है ,ठेकेदारों के नजरानों में है ,र्रिश्वत के ठिकानों में है और बाजारीकरण के बियावानों में खदबदा रही है। आप इसे ही तो बढ़ावा दे रहे हैं न मोदी जी ! सर्वाधिक सड़ांध तो जब -तब सत्ता में रहे -कांग्रेस -भाजपा जैसे पूँजीवादी राजनैतिक दलों में ही व्याप्त हो रही है न! इसमें अमेरिका या वहाँ के प्रवासी भारतीय आपकी क्या मदद कर सकते हैं ?
आरोप -तीन ;-मोदी जी ने अपने भाषण के रौ में बहकर यह जता दिया है कि वे क़ानून का राज कतई पसंद नहीं करते ! उन्ही के शब्दों में "मेरे से पहले वाले नेता - सरकारें चुनाव के दरम्यान केवल क़ानून बंनाने की दुहाई दिया करते थे मैं तो कानून खत्म करने में विश्वाश रखता हूँ। एक एक्पर्ट कमिटी बनाई है जो रोज क़ानून खत्म करने की सिफारिश करती है। और मैं- [मोदी जी] धड़ाधड़ क़ानून खत्म करने में जुटा हूँ " वाह क्या अदा है ? क्या यह फासिज्म के तेवर नहीं हैं ? वेशक इन अल्फाजों पर दो राय हो सकती है। किन्तु एक बात तो स्पष्ट है कि सारे क़ानून जो भी भारतीय संविधान में निहित हैं वे या तो संविधान सभा द्वारा आहूत हैं ,या डॉ बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर द्वारा सम्पादित हैं ,या फिर भारतीय संसद के मार्फ़त अपने ६७ साल के कार्यकाल में पारित किये गए हैं. यह एक लोकतांत्रिक परम्परा और राजनैतिक विकाश का अनवरत सिलसिला है। कुछ शानदार क़ानून तो देश की जनता ने ,मजदूरों-किसानों ने अपने हितों की रक्षा के लिए - अनवरत संघर्ष और बलिदान की कीमत पर - पारित कराये हैं।यह बहुत कष्टदायक है कि विदेशी धरती पर भारतीय प्रधानमंत्री श्री मोदी जी ने अनजाने में सही भारतीय संसद का बार - बार अपमान किया है। संसद के द्वारा पारित कानूनों को पुराना या बकवास बताना क्या साबित करता है ? क्या यह भारतीय आवाम का अपमान नहीं है ? क्या यह एकचालुकानुवर्तित्त्व वाला आचरण नहीं है ?
आरोप-चार ;- मोदी जी का आह्वान है कि "दुनिया के सेठ साहूकारों सुनों ! अप्रवासी भारतीयों सुनों -भारत में लेबर सस्ता ,जमीन सस्ती ,खदाने सस्तीं ,क़ानून सस्ता, खून सस्ता ! सब कुछ सस्ता है ! आइये - एफडीआई कीजिये ! हमने लाल कालीन बिछा रखी है। आप तशरीफ़ लाइए ! विकाश कीजिये ! [किसका विकाश ?]आइये -आपके पूर्वज भी पहले आये थे।बहुत कुछ लूटकर ले गए ! आप भी कुछ तो लीजिये !
आरोप -पांच ;- मोदी जी ने अमेरिका में फरमाया कि जितना खर्च अहमदाबाद में एक ऑटो सवारी वाला महज एक किलोमीटर के लिए खर्च करता है -याने [१० रूपये] लगभग । उतने से कम खर्च में याने ७ रूपये प्रति किलोमीटर से - भारत ने बहुत ही कम खर्च में- 'मार्श आर्बिटर यान ' को मंगल की कक्षा में स्थापित कर दिखाया है। मोदी जी के अनुसार हम भारतीय कितने मितव्ययी और अक्लमंद हैं ?सम्भव है कि यही सच हो !सवाल यह है कि इस मितव्ययता के वावजूद देश को घाटे का बजट क्यों बनाना पड़ रहा है ? क्या यह सफल 'मंगल अभियान ' मोदीजी की देंन है ? क्या इसरो को जो विगत ४० सालों में सीमित बजट आवंटित होता रहा है - इसमें मोदी जी का भी कुछ योगदान है ? मोदीजी जिनको रात दिन कोसते रहते हैं उन नेहरूजी , इंदिराजी , राजीव जी ,मनमोहनसिंह जी या उन्ही के परम आदर्श -अटलजी का कोई योगदान नहीं है क्या ? अपने पूर्ववर्तियों का अवदान या उनकी नीति को अपनी जुबान पर क्यों नहीं लाना चाहते मोदी जी ? यदि इतनी उदारता और दिखा देते तो क्या घट जाता ? जिनकी नेतत्व क्षमता से भारत ने- न केवल हरित क्रांति, न केवल श्वेत क्रांति बल्कि संचार क्रांति के भी विश्व कीर्तिमान बना डाले -उन महान नीति निर्माताओं -मंत्रियों ,नेताओं, वैज्ञानिकों और अमूल्य तकनीकी देने वाले देशी - विदेशी -मित्रों के नाम भी मोदी जी की जुबाँ पर नहीं आये। क्या यह राष्ट्रीय कृतघ्नता नहीं है ? एलीट क्लाश के जो लोग ,मेडिसन स्क्वायर पर 'मोदी-मोदी'कर रहे थे , क्या वे जानते हैं कि इसरो की स्थापना,संचार उपग्रह या मंगल मिशन की शुरुआत और सफलता के पीछे किस -किस के सपनों का सफर है ?
जब सत्यजित रे की फिल्मे दुनिया को भारत की केवल दुर्दशा ही दिखातीं हैं ,जब 'स्लिम डॉग मिलयेनर' जैसी फिल्मे दुनिया में भारत की बदतर तस्वीर दिखातीं हैं ,जब अरुंधति राय , प्रभा खेतान पी साईराम या कोई प्रगतिशील लेखक -भारतीय समाज को उधेड़ता हैं ,जब वामपंथी आंदोलन देश में मेहनतकशों की -किसानों की - नारकीय जिंदगी पर संघर्ष का ऐलान करता है ,तो भारत का सारा मध्य-दक्षिणपंथी मीडिया और राजनीतिक समूह आरोप लगाने लगता है कि देश को नाहक ही बढ़ा -चढ़ाकर बदनाम किया जा है। इतनी बुरी हालत तो नहीं है देश की ? अब यही काम जब मोदी जी बहुत शिद्द्त से कर रहे हैं तो सबकी बोलती क्यों बंद है ?
मोदीजी की जापान ,चीन,अमेरिका से हुई तमाम वार्ताओं और बक्तब्यों का सार यही है कि भारत के अभी तक के सारे नेता और प्रधानमंत्री तो निठल्ले थे। मूर्ख और निकम्मे थे ! पूर्वर्ती प्रधानमंत्रियों ने भारत को बर्बाद कर दिया । जिसे मोदी जी ठीक करना चाहते हैं ! क्या मेंहगाई ,आतंकवाद ,पाकिस्तान से कश्मीर पर वैमनस्य ,चीन से सीमा विवाद इत्यादि के लिए उन्हें देशी-विदेशी पूँजीपतियों के सहयोग की दरकार है ? फिर तो उनका कथन सही है जो कहते हैं कि मोदी एक- चुनौतियाँ अनेक ! क्या यह अवतारवाद की मानसिकता नहीं है ? क्या फ्यूहरर ऐंसे ही निर्मित नहीं होते ?
राजनीति के अद्ध्येताओं के एक खास वर्ग को भी भरम होने लगा है कि शायद नरेंद्र भाई मोदी भी जाने-अनजाने नेहरूवाद की ओर ही अग्रसर हो रहे हैं। दूसरा वर्ग है जो मोदी जी के उत्साह और सक्रियता में पूर्ववर्ती सभी प्रधानमंत्रियों से बेहतरी की उम्मीद रखता है। हालाँकि हर जिम्मेदार भारतीय चाहता है कि भारत में सुशासन आये,विकाश हो और विश्व के सभी राष्ट्रों से सौहाद्रपूर्ण संबंध हों ! यह काम कांग्रेस तो निश्चय ही नहीं कर पाई अब यदि भाजपा की मोदी सरकार यह महानतम कार्य करती है, तो खुशामदीद !इंदिरा जी ने यदि पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए या खालिस्तान आंदोलन को अपनी शाहदत देकर ठंडा किया तो यह मोदी जी की नजर में कोई सम्मान या गर्व की बात नहीं ! चुनाव में तो सुशासन,विकाश ,विदेशी धन का खूब बखान हुआ अब उसकी चर्चा से भी तोबा क्यों ?अब तो केवल विश्व नेता बनने की तमन्ना ही मोदी जी के दिल में है।
लेकिन जिस रास्ते पर मोदी जी चल रहे हैं, वो केवल यश कामना से प्रेरित 'अधिनायकवाद की ओर ही जा सकता है। वैदेशिक मामलों में भले ही वे नेहरूवादी जैसे ही हो ,किन्तु आर्थिक मामलों वे रीगन वादी या थैचरवादी जैसे होने को उतावले हो रहे हैं। वे भूल रहे हैं कि अमरीका का उत्खनन एवं कृषि इतिहास केवल ५०० साल पुराना है जबकि भारत का यही इतिहास १० हजार साल पुराना है। ब्रिटेन ने भारत समेत सारी दुनिया पर राज किया है जबकि भारत ने केवल हजारों साल की गुलामी ही भुगती है। इसलिए मोदी न तो रीगन हो सकते हैं न थेचर। इसी तरह भारत न तो अमेरिका हो सकता है और ने इंग्लैंड। शायद इंदिराजी यह जान चुकी थीं। इसलिए उन्होंने अपनी एक अमेरिकी यात्रा के दौरान कहा था कि " हम न तो दक्षिण पंथी हैं और न वामपंथी ,हम तो सीधे खड़े होना चाहते हैं अपने बलबूते पर "व्यवहार में उन्होंने जहां देश में निजी क्षेत्र को पनपने का पर्याप्त अवसर दिया वहीं देश के सार्वजनिक उपक्रमों को भी पर्याप्त तरर्जीह दी। उनके उत्तराधिकारियों -नरसिम्हाराव ,मनमोहन सिंह ने विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का अनुसरण कर देश में निवेश और विकाश के नाम पर असमानता की खाईंयां उतपन्न करने का जो इंतजाम किया था -मोदीजी उसी डरावनी नीतियों को तेजी से अमली जामा पहना रहे हैं। वे श्रम कानूनों को मालिकों का पक्षधर बना रहे है मोदी सरकार ने अपने चार माह के प्रारंभिक कार्यकाल में एक भी ऐंसा काम नहीं किया जो गरीबों,मजूरों या आत्महत्या की नौबत झेलने वाले निर्धनतम किसानों को जीने की कोई आशा नजर आई हो !
एक तरफ देश के करोड़ों अभावग्रस्त वतनपरस्तों की बदहाली है , और दूसरी ओर सम्पन्नता के हिमालयी टापू हैं। इनके बीच जो खाई है उसे पाटने की कोई नीति तो क्या उस संदर्भ में मोदी सरकार या 'नमो' के पास एक अल्फाज भी नहीं है। इस संदर्भ में वे अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री डॉ मनमोहनसिंग से भी गए गुजरे हैं। मनमोहनसिंह ने वामपंथ के दवाव में ही सही मनरेगा ,खाद्य सुरक्षा और आरटीआई क़ानून जैसे लोकहितकारी कुछ काम तो अवश्य ही किये हैं। उनकी 'आधार' योजना चल ही रही थी की सत्ता का पाटिया उलाल हो गया और अब 'सब कुछ बदल डालूँगा 'की तर्ज पर योजना आयोग ,ज्ञान आयोग ,श्रम कानून और नंदन नीलेकणि का ' आधार' वगेरह सब कूड़े दान में समाते जा रहे हैं। लगता है केवल वैश्विक ख्याति की कामना से प्रेरित होकर ही मोदी जी हर कदम बढ़ा रहे हैं।आनन फानन -भूटान,नेपाल,जापान,की यात्राओं के बाद शी -जिन-पिंग से पयार की पेगें और अब अमेरिका से यारी- यह सब केवल अपने आपको अंतर राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करवाने की जद्दोजहद है। लेकिन उन्हें यह याद रखना होगा की ये इश्क नहीं आसान इतना तो समझ लीजे -मोदी जी !
भारतीय दार्शनिक परम्परा में ईषना का सर्वत्र निषेध है। मनुष्य को अपने लोकोत्तर निर्वाण पद की प्राप्ति में -वित्तैषणा ,कामेषणा और यशेषणा को सबसे बड़ी बाधाएं माना गया है। न केवल योगियों बल्कि राजर्षियों और बेहतरीन शासकों को भी इन अपमूल्यों से बचने की सलाह दी गई है। दुनिया में - व्यक्तिगत जीवन में लाखों -करोड़ों श्रेष्ठतम मनुष्य होंगे जो "प्रभुता पाहि काहि मद नाहीं " के अपवाद होंगे ,लेकिन दुर्भाग्य से सार्वजनिक जीवन में जहां इन मूल्यों की अत्यंत शख्त आवश्यक्यता है वहां यशेषणा सर चढ़कर बोलने लगती है। नेता का विराट व्यक्तित्व और अपने साथियों के आवाज को अनसुना करने की प्रवृत्ति केवल ऑटोक्रेसी या तानाशाही में ही अभिव्यक्त नहीं होती। वह डेमोक्रेटिक अधिनायकवाद में भी परिलक्षित हुआ करती है। जिस तरह वैयक्तिक आत्म मुग्धता में पंडित नेहरू देश के गरीबों लिए कुछ खास नहीं कर पाये और पाकिस्तान ,चीन या अमेरिका को नहीं साध पाये ,कश्मीर तथा मैकमोहन समेत अनेक सुलगते सवाल छोड़ गए उसी तरह श्री नरेंद्र भाई मोदी भी यशेषणा के वशीभूत होकर देश के मेहनतकशों या गरीब वर्ग की तो कुछ खास मदद नहीं कर पाएंगे। उधर विदेश नीति पर भी वे नेहरू की राह चलकर इतिहास की भूलों को भी ठीक नहीं कर पाएंगे।
पंडित जवाहरलाल नेहरू की उनके आरम्भिक जीवन में कोई भी अपनी पृथक पहचान नहीं थी सिवाय इसके कि वे कांग्रेस के हमदर्द और एक विख्यात कद्दावर वकील पंडित मोतीलाल नेहरू के बेटे थे। दक्षिण अफ्रीका से महिमा मंडित होकर लौटे मोहनदास करमचंद गांधी को भारतीय स्वाधीनता संग्राम के नेतत्व के लिए ऊर्जावान युवाओं की शख्त जरुरत थी। ऐंसे जुझारू निष्ठावान युवा उन्हें हजारों -लाखों की तादाद में मिले भी। नेहरू,सुभाष ,पटेल ,बिनोबा,सरोजनी ,मौलाना आजाद,लाल बहादुर शाश्त्री ,जयप्रकाश नारायण ,लोहिया ,नम्बूदिरीपाद ,राजगोपालचारि और अब्दुल गफ्फार खान जैसे सैकड़ों -हजारों युवाओं ने गांधी को अपना हीरों माना और गांधी ने सभी को बखूबी निखारा और उनसे स्वाधीनता संग्राम में काम लया। किन्तु उन्होंने नेहरू को ही आजादी की घोषणा के दरम्यान अहम जिम्मेदारी क्यों सौंपी यह कुछ लोगों को अभी तक समझ नहीं आया है। शायद उनके पिता मोतीलाल जी का वर्चस रहा हो !शायद जवाहरलाल चूँकि विलायत में पढ़े लिखे थे और भारतीय इतिहास ,दर्शन तथा राजनीति का उन्हें बहुत कुछ ज्ञान था इसलिए उन्हें शीर्ष नेतत्व मिला। हालाँकि वे बेहतरीन अंग्रेजी के अलावा उर्दू ,फ़ारसी और काम चलाऊ हिंदी में भी सिद्धहस्त थे। उनकी सबसे बड़ी खासियत यह भी थी की वे कांग्रेस के गरम दल तथा नरम दल की विभाजन रेखा पर खड़े थे.गरम और नरम को नियंत्रित करने के लिए शायद तत्कालीन भारतीय इतिहास के पास नेहरू से बेहतर कोई विकल्प नहीं था इसलिए वे आजाद भारत के प्रधानमंत्री बनाये गए। घरेलू मोर्चे पर उन्होंने पूँजीवादी और समाजवादी दोनों ही नीतियों का समिश्रण तैयार किया और उन्हें लागू करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। चूँकि उन्होंने भृष्टाचार से कोई संघर्ष नहीं किया और पूंजीपतियों को लूट की खुली छूट दी इसलिए वे घरेलू असफल रहे।
विदेश नीति तो उनकी संतुलित थी किन्तु चीन अमेरिका इंग्लैंड फ़्रांस और जर्मनी के साम्राज्य्वादी और प्रतिश्पर्धी चक्रव्यूह में फंसकर पूँजी निवेश की ललक में देश को भूस्वामियों -सामंतों -जमींदारों और देशी पूँजीपतियों के रहमो करम पर छोड़ दिया। नेहरू जी की पंच वर्षीय योजनाएं तो फिर भी ठीक थीं ,सार्वजनिक क्षेत्र ,बैंक ,बीमा और टेलीकॉम का तना -बाना भी उन्होंने ठीक ही बुना। किन्तु मुनाफाखोरों पर कोई लगाम उन्होंने नहीं लगाईं ,भृष्ट अफसरों और बेईमान नेताओं पर उनका कोई जोर नहीं था। इसलिए वे हले वे कांग्रेस के नेता हुआ करते थे देश आजाद हुआ तो वे देश के नेता बन गए. वे जल्दी ही इंग्लैंड ,सोवियत संघ ,चीन,जापान और अमेरिका के नेताओं की बराबरी करने लगे। जब शीतयुद्ध चरम पर था और दुनिया साम्यवादी या पूँजीवादी दो खेमों में बट चुकी थी,तब डोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति -सुकर्णो ,चेकोस्लोवाकिया के मार्शल टीटो, मिश्र के … क्यूबा के फीदेल कास्टों और भारत के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने ' गुट निरपेक्ष राष्ट्रों का संघ' बनाया था। नेहरू इस सूची में अव्वल थे। उन्होंने चीन के साथ पंचशील और अमेरिकी राष्ट्रपति केनेडी के साथ ततकालीन महत्वपूर्ण राजनयिक और व्यापारिक सन्धियां कीं थीं। इस रास्ते पर निशन्देह नेहरू जी को असफलता ही हाथ लगी। १९६४ की चीन से झड़प के बाद तो वे इतने मायूस हुए की संभल भी न सके।
नरेंद्र भाई मोदी को भी 'संघ' ने उनके अनेक सीनियर समकालिकों से अधिक वरीयता देकर पहले गुजरात का नेता बनाया ,फिर भाजपा का राष्ट्रीय नेता बनाया ,फिर देश का परधान मंत्री बनाया। अब वे सयम वैश्विक फिराक में हैं। चूँकि उनकी घरेलु नीतियां वही हैं जो मनमोहनसिंह की हैं अर्थात कांग्रेस की हैं। याने नेहरू की हैं इसलिए नमो का इस राह पर असफल होना तय है। अंतर्राष्ट्रीय मंच पर चाहे पाकिस्तान हो ,नेपाल हो या चीन कोई भी 'नमो' की विनम्र प्रार्थना सुनने को तैयार नहीं है।चाहे कश्मीर समस्या हो ,चाहे चीन -भारत सीमा समस्या हो , चाहे बांग्ला देश -नेपाल या श्री लंका से सीमा विवाद हो और चाहे अमेरिका के साथ व्यापार घाटा हो - हर जगह मोदी को मात दी जा रही है। चीन ,जापान , इंग्लैंड ,अमेरिक ,यूरोप तथा दक्षेश के लिए तो भारत एक चरागाह ही है खुद मोदी जी के शब्दों में एक बिग बाजार ही है. तब नमो' की इस नीति से भारत को कोई उम्मीद क्यों रखनी चाहिए ?
श्रीराम तिवारी
वैसे तो कोई भी वतन परस्त नहीं चाहेगा कि उसके देश की या प्रधानमंत्री की खिल्ली उड़े। कोई भी देश भक्त नहीं चाहेगा कि उसके देश को दुनिया में रुसवा होना पड़े। किन्तु हतभाग्य !मोदी जी ने तो अपने देश की कमजोरियाँ का - निर्धनता का- गंदगी का ढिंढोरा - शुद्ध हिंदी में वहां जमकर परोसा। जब देश का प्रधान- मंत्री ही सारे संसार के सामने बार-बार अपनी दयनीयता का डंका पीट रहा हो और उनके अंध समर्थक भी तालियाँ पीट रहे हों तो जग हँसाई को कौन रोक सकता है ? नितांत अनभव- हीनता या अज्ञानतावश- मोदी जी ने अमेरिका यात्रा के दौरान अति उत्साह में अपने ही देश की जमकर बारह बजाई है। मानो उन्होंने आत्मघाती गोल ही कर डाला हो ! उन पर कम-से -कम निम्नांकित पांच गंभीर आरोप लगना तो स्वाभाविक है।
आरोप -एक; - भारत को - उसकी गंगा को,उसकी अन्य नदियों को और उसके सम्पूर्ण विस्तार को - गंदगी में आकंठ डूबा मक्कारों से भरा हुआ देश बताकर अच्छा नहीं किया मोदी जी ने । जिसके निमित्त वे अमेरिकी प्रवासियों और निवेशकों का- भारत की सफाई के लिए आह्वान करते हैं। उसके लिए यदि जापान,चीन या किसी भी अन्य मुल्क का राष्ट्राध्यक्ष होता तो कदापि यह नहीं करता । मोदी के दींन बचन सुनकर- स्वामी विवेकानद की आत्मा भी न्यूयार्क में नहीं तो स्वर्ग में जरूर सोचती होगी कि मैंने ऐसा तो नहीं कहा था ! स्वामीजी कहते होंगे कि बच्चा -क्यों अपने वतन की 'जांघ उघार रहा है '? क्यों दुनिया में ढिंढोरा पीट रहा है कि हमसे [भारतीयों से ] तो कुछ होता-जाता नहीं - अब आप ही आ जाइए और संभालिये मेरे उस मुल्क को जिसे पहले भी आप विलायतियों के पूर्वजों ने सदियों तक गुलाम बनाकर लूटा है !
आरोप -दो ;- मेडिसन स्क्वायर में मोदी जी बार -बार दुहरा रहे थे कि 'गांधी जी ने हमे आजादी दिलाई हमने गांधी जी को क्या दिया ? उन्होंने खुद ही पूंछा -कभी स्वर्ग में मुलाकात होगी तो क्या जबाब दोगे ? गांधी जी तो सफाई पसंद थे -खुद झाड़ू लगाते थे। हमने भारत को कितना गंदा कर दिया ?" गांधी जी को हमने क्या दिया ? इसका जबाब तो मोदी जी के आराध्य प्रातःस्मरणीय नाथूराम गोडसे ही दे सकते हैं ! वेशक भारत में गंदगी है ! गंगा -जमुना ,गोदावरी इत्यादि सभी नदियां दूषित हो चुकीं हैं।जल-जंगल -जमीन सब पर ताकतवर लोगों का कब्ज़ा है। इसलिए गंदगी के लिए जिम्मेदार भी वे ही हैं। उस से भी ज्यादा गंदगी सत्ता के गलियारों में भी है ,ठेकेदारों के नजरानों में है ,र्रिश्वत के ठिकानों में है और बाजारीकरण के बियावानों में खदबदा रही है। आप इसे ही तो बढ़ावा दे रहे हैं न मोदी जी ! सर्वाधिक सड़ांध तो जब -तब सत्ता में रहे -कांग्रेस -भाजपा जैसे पूँजीवादी राजनैतिक दलों में ही व्याप्त हो रही है न! इसमें अमेरिका या वहाँ के प्रवासी भारतीय आपकी क्या मदद कर सकते हैं ?
आरोप -तीन ;-मोदी जी ने अपने भाषण के रौ में बहकर यह जता दिया है कि वे क़ानून का राज कतई पसंद नहीं करते ! उन्ही के शब्दों में "मेरे से पहले वाले नेता - सरकारें चुनाव के दरम्यान केवल क़ानून बंनाने की दुहाई दिया करते थे मैं तो कानून खत्म करने में विश्वाश रखता हूँ। एक एक्पर्ट कमिटी बनाई है जो रोज क़ानून खत्म करने की सिफारिश करती है। और मैं- [मोदी जी] धड़ाधड़ क़ानून खत्म करने में जुटा हूँ " वाह क्या अदा है ? क्या यह फासिज्म के तेवर नहीं हैं ? वेशक इन अल्फाजों पर दो राय हो सकती है। किन्तु एक बात तो स्पष्ट है कि सारे क़ानून जो भी भारतीय संविधान में निहित हैं वे या तो संविधान सभा द्वारा आहूत हैं ,या डॉ बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर द्वारा सम्पादित हैं ,या फिर भारतीय संसद के मार्फ़त अपने ६७ साल के कार्यकाल में पारित किये गए हैं. यह एक लोकतांत्रिक परम्परा और राजनैतिक विकाश का अनवरत सिलसिला है। कुछ शानदार क़ानून तो देश की जनता ने ,मजदूरों-किसानों ने अपने हितों की रक्षा के लिए - अनवरत संघर्ष और बलिदान की कीमत पर - पारित कराये हैं।यह बहुत कष्टदायक है कि विदेशी धरती पर भारतीय प्रधानमंत्री श्री मोदी जी ने अनजाने में सही भारतीय संसद का बार - बार अपमान किया है। संसद के द्वारा पारित कानूनों को पुराना या बकवास बताना क्या साबित करता है ? क्या यह भारतीय आवाम का अपमान नहीं है ? क्या यह एकचालुकानुवर्तित्त्व वाला आचरण नहीं है ?
आरोप-चार ;- मोदी जी का आह्वान है कि "दुनिया के सेठ साहूकारों सुनों ! अप्रवासी भारतीयों सुनों -भारत में लेबर सस्ता ,जमीन सस्ती ,खदाने सस्तीं ,क़ानून सस्ता, खून सस्ता ! सब कुछ सस्ता है ! आइये - एफडीआई कीजिये ! हमने लाल कालीन बिछा रखी है। आप तशरीफ़ लाइए ! विकाश कीजिये ! [किसका विकाश ?]आइये -आपके पूर्वज भी पहले आये थे।बहुत कुछ लूटकर ले गए ! आप भी कुछ तो लीजिये !
आरोप -पांच ;- मोदी जी ने अमेरिका में फरमाया कि जितना खर्च अहमदाबाद में एक ऑटो सवारी वाला महज एक किलोमीटर के लिए खर्च करता है -याने [१० रूपये] लगभग । उतने से कम खर्च में याने ७ रूपये प्रति किलोमीटर से - भारत ने बहुत ही कम खर्च में- 'मार्श आर्बिटर यान ' को मंगल की कक्षा में स्थापित कर दिखाया है। मोदी जी के अनुसार हम भारतीय कितने मितव्ययी और अक्लमंद हैं ?सम्भव है कि यही सच हो !सवाल यह है कि इस मितव्ययता के वावजूद देश को घाटे का बजट क्यों बनाना पड़ रहा है ? क्या यह सफल 'मंगल अभियान ' मोदीजी की देंन है ? क्या इसरो को जो विगत ४० सालों में सीमित बजट आवंटित होता रहा है - इसमें मोदी जी का भी कुछ योगदान है ? मोदीजी जिनको रात दिन कोसते रहते हैं उन नेहरूजी , इंदिराजी , राजीव जी ,मनमोहनसिंह जी या उन्ही के परम आदर्श -अटलजी का कोई योगदान नहीं है क्या ? अपने पूर्ववर्तियों का अवदान या उनकी नीति को अपनी जुबान पर क्यों नहीं लाना चाहते मोदी जी ? यदि इतनी उदारता और दिखा देते तो क्या घट जाता ? जिनकी नेतत्व क्षमता से भारत ने- न केवल हरित क्रांति, न केवल श्वेत क्रांति बल्कि संचार क्रांति के भी विश्व कीर्तिमान बना डाले -उन महान नीति निर्माताओं -मंत्रियों ,नेताओं, वैज्ञानिकों और अमूल्य तकनीकी देने वाले देशी - विदेशी -मित्रों के नाम भी मोदी जी की जुबाँ पर नहीं आये। क्या यह राष्ट्रीय कृतघ्नता नहीं है ? एलीट क्लाश के जो लोग ,मेडिसन स्क्वायर पर 'मोदी-मोदी'कर रहे थे , क्या वे जानते हैं कि इसरो की स्थापना,संचार उपग्रह या मंगल मिशन की शुरुआत और सफलता के पीछे किस -किस के सपनों का सफर है ?
जब सत्यजित रे की फिल्मे दुनिया को भारत की केवल दुर्दशा ही दिखातीं हैं ,जब 'स्लिम डॉग मिलयेनर' जैसी फिल्मे दुनिया में भारत की बदतर तस्वीर दिखातीं हैं ,जब अरुंधति राय , प्रभा खेतान पी साईराम या कोई प्रगतिशील लेखक -भारतीय समाज को उधेड़ता हैं ,जब वामपंथी आंदोलन देश में मेहनतकशों की -किसानों की - नारकीय जिंदगी पर संघर्ष का ऐलान करता है ,तो भारत का सारा मध्य-दक्षिणपंथी मीडिया और राजनीतिक समूह आरोप लगाने लगता है कि देश को नाहक ही बढ़ा -चढ़ाकर बदनाम किया जा है। इतनी बुरी हालत तो नहीं है देश की ? अब यही काम जब मोदी जी बहुत शिद्द्त से कर रहे हैं तो सबकी बोलती क्यों बंद है ?
मोदीजी की जापान ,चीन,अमेरिका से हुई तमाम वार्ताओं और बक्तब्यों का सार यही है कि भारत के अभी तक के सारे नेता और प्रधानमंत्री तो निठल्ले थे। मूर्ख और निकम्मे थे ! पूर्वर्ती प्रधानमंत्रियों ने भारत को बर्बाद कर दिया । जिसे मोदी जी ठीक करना चाहते हैं ! क्या मेंहगाई ,आतंकवाद ,पाकिस्तान से कश्मीर पर वैमनस्य ,चीन से सीमा विवाद इत्यादि के लिए उन्हें देशी-विदेशी पूँजीपतियों के सहयोग की दरकार है ? फिर तो उनका कथन सही है जो कहते हैं कि मोदी एक- चुनौतियाँ अनेक ! क्या यह अवतारवाद की मानसिकता नहीं है ? क्या फ्यूहरर ऐंसे ही निर्मित नहीं होते ?
राजनीति के अद्ध्येताओं के एक खास वर्ग को भी भरम होने लगा है कि शायद नरेंद्र भाई मोदी भी जाने-अनजाने नेहरूवाद की ओर ही अग्रसर हो रहे हैं। दूसरा वर्ग है जो मोदी जी के उत्साह और सक्रियता में पूर्ववर्ती सभी प्रधानमंत्रियों से बेहतरी की उम्मीद रखता है। हालाँकि हर जिम्मेदार भारतीय चाहता है कि भारत में सुशासन आये,विकाश हो और विश्व के सभी राष्ट्रों से सौहाद्रपूर्ण संबंध हों ! यह काम कांग्रेस तो निश्चय ही नहीं कर पाई अब यदि भाजपा की मोदी सरकार यह महानतम कार्य करती है, तो खुशामदीद !इंदिरा जी ने यदि पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए या खालिस्तान आंदोलन को अपनी शाहदत देकर ठंडा किया तो यह मोदी जी की नजर में कोई सम्मान या गर्व की बात नहीं ! चुनाव में तो सुशासन,विकाश ,विदेशी धन का खूब बखान हुआ अब उसकी चर्चा से भी तोबा क्यों ?अब तो केवल विश्व नेता बनने की तमन्ना ही मोदी जी के दिल में है।
लेकिन जिस रास्ते पर मोदी जी चल रहे हैं, वो केवल यश कामना से प्रेरित 'अधिनायकवाद की ओर ही जा सकता है। वैदेशिक मामलों में भले ही वे नेहरूवादी जैसे ही हो ,किन्तु आर्थिक मामलों वे रीगन वादी या थैचरवादी जैसे होने को उतावले हो रहे हैं। वे भूल रहे हैं कि अमरीका का उत्खनन एवं कृषि इतिहास केवल ५०० साल पुराना है जबकि भारत का यही इतिहास १० हजार साल पुराना है। ब्रिटेन ने भारत समेत सारी दुनिया पर राज किया है जबकि भारत ने केवल हजारों साल की गुलामी ही भुगती है। इसलिए मोदी न तो रीगन हो सकते हैं न थेचर। इसी तरह भारत न तो अमेरिका हो सकता है और ने इंग्लैंड। शायद इंदिराजी यह जान चुकी थीं। इसलिए उन्होंने अपनी एक अमेरिकी यात्रा के दौरान कहा था कि " हम न तो दक्षिण पंथी हैं और न वामपंथी ,हम तो सीधे खड़े होना चाहते हैं अपने बलबूते पर "व्यवहार में उन्होंने जहां देश में निजी क्षेत्र को पनपने का पर्याप्त अवसर दिया वहीं देश के सार्वजनिक उपक्रमों को भी पर्याप्त तरर्जीह दी। उनके उत्तराधिकारियों -नरसिम्हाराव ,मनमोहन सिंह ने विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का अनुसरण कर देश में निवेश और विकाश के नाम पर असमानता की खाईंयां उतपन्न करने का जो इंतजाम किया था -मोदीजी उसी डरावनी नीतियों को तेजी से अमली जामा पहना रहे हैं। वे श्रम कानूनों को मालिकों का पक्षधर बना रहे है मोदी सरकार ने अपने चार माह के प्रारंभिक कार्यकाल में एक भी ऐंसा काम नहीं किया जो गरीबों,मजूरों या आत्महत्या की नौबत झेलने वाले निर्धनतम किसानों को जीने की कोई आशा नजर आई हो !
एक तरफ देश के करोड़ों अभावग्रस्त वतनपरस्तों की बदहाली है , और दूसरी ओर सम्पन्नता के हिमालयी टापू हैं। इनके बीच जो खाई है उसे पाटने की कोई नीति तो क्या उस संदर्भ में मोदी सरकार या 'नमो' के पास एक अल्फाज भी नहीं है। इस संदर्भ में वे अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री डॉ मनमोहनसिंग से भी गए गुजरे हैं। मनमोहनसिंह ने वामपंथ के दवाव में ही सही मनरेगा ,खाद्य सुरक्षा और आरटीआई क़ानून जैसे लोकहितकारी कुछ काम तो अवश्य ही किये हैं। उनकी 'आधार' योजना चल ही रही थी की सत्ता का पाटिया उलाल हो गया और अब 'सब कुछ बदल डालूँगा 'की तर्ज पर योजना आयोग ,ज्ञान आयोग ,श्रम कानून और नंदन नीलेकणि का ' आधार' वगेरह सब कूड़े दान में समाते जा रहे हैं। लगता है केवल वैश्विक ख्याति की कामना से प्रेरित होकर ही मोदी जी हर कदम बढ़ा रहे हैं।आनन फानन -भूटान,नेपाल,जापान,की यात्राओं के बाद शी -जिन-पिंग से पयार की पेगें और अब अमेरिका से यारी- यह सब केवल अपने आपको अंतर राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करवाने की जद्दोजहद है। लेकिन उन्हें यह याद रखना होगा की ये इश्क नहीं आसान इतना तो समझ लीजे -मोदी जी !
भारतीय दार्शनिक परम्परा में ईषना का सर्वत्र निषेध है। मनुष्य को अपने लोकोत्तर निर्वाण पद की प्राप्ति में -वित्तैषणा ,कामेषणा और यशेषणा को सबसे बड़ी बाधाएं माना गया है। न केवल योगियों बल्कि राजर्षियों और बेहतरीन शासकों को भी इन अपमूल्यों से बचने की सलाह दी गई है। दुनिया में - व्यक्तिगत जीवन में लाखों -करोड़ों श्रेष्ठतम मनुष्य होंगे जो "प्रभुता पाहि काहि मद नाहीं " के अपवाद होंगे ,लेकिन दुर्भाग्य से सार्वजनिक जीवन में जहां इन मूल्यों की अत्यंत शख्त आवश्यक्यता है वहां यशेषणा सर चढ़कर बोलने लगती है। नेता का विराट व्यक्तित्व और अपने साथियों के आवाज को अनसुना करने की प्रवृत्ति केवल ऑटोक्रेसी या तानाशाही में ही अभिव्यक्त नहीं होती। वह डेमोक्रेटिक अधिनायकवाद में भी परिलक्षित हुआ करती है। जिस तरह वैयक्तिक आत्म मुग्धता में पंडित नेहरू देश के गरीबों लिए कुछ खास नहीं कर पाये और पाकिस्तान ,चीन या अमेरिका को नहीं साध पाये ,कश्मीर तथा मैकमोहन समेत अनेक सुलगते सवाल छोड़ गए उसी तरह श्री नरेंद्र भाई मोदी भी यशेषणा के वशीभूत होकर देश के मेहनतकशों या गरीब वर्ग की तो कुछ खास मदद नहीं कर पाएंगे। उधर विदेश नीति पर भी वे नेहरू की राह चलकर इतिहास की भूलों को भी ठीक नहीं कर पाएंगे।
पंडित जवाहरलाल नेहरू की उनके आरम्भिक जीवन में कोई भी अपनी पृथक पहचान नहीं थी सिवाय इसके कि वे कांग्रेस के हमदर्द और एक विख्यात कद्दावर वकील पंडित मोतीलाल नेहरू के बेटे थे। दक्षिण अफ्रीका से महिमा मंडित होकर लौटे मोहनदास करमचंद गांधी को भारतीय स्वाधीनता संग्राम के नेतत्व के लिए ऊर्जावान युवाओं की शख्त जरुरत थी। ऐंसे जुझारू निष्ठावान युवा उन्हें हजारों -लाखों की तादाद में मिले भी। नेहरू,सुभाष ,पटेल ,बिनोबा,सरोजनी ,मौलाना आजाद,लाल बहादुर शाश्त्री ,जयप्रकाश नारायण ,लोहिया ,नम्बूदिरीपाद ,राजगोपालचारि और अब्दुल गफ्फार खान जैसे सैकड़ों -हजारों युवाओं ने गांधी को अपना हीरों माना और गांधी ने सभी को बखूबी निखारा और उनसे स्वाधीनता संग्राम में काम लया। किन्तु उन्होंने नेहरू को ही आजादी की घोषणा के दरम्यान अहम जिम्मेदारी क्यों सौंपी यह कुछ लोगों को अभी तक समझ नहीं आया है। शायद उनके पिता मोतीलाल जी का वर्चस रहा हो !शायद जवाहरलाल चूँकि विलायत में पढ़े लिखे थे और भारतीय इतिहास ,दर्शन तथा राजनीति का उन्हें बहुत कुछ ज्ञान था इसलिए उन्हें शीर्ष नेतत्व मिला। हालाँकि वे बेहतरीन अंग्रेजी के अलावा उर्दू ,फ़ारसी और काम चलाऊ हिंदी में भी सिद्धहस्त थे। उनकी सबसे बड़ी खासियत यह भी थी की वे कांग्रेस के गरम दल तथा नरम दल की विभाजन रेखा पर खड़े थे.गरम और नरम को नियंत्रित करने के लिए शायद तत्कालीन भारतीय इतिहास के पास नेहरू से बेहतर कोई विकल्प नहीं था इसलिए वे आजाद भारत के प्रधानमंत्री बनाये गए। घरेलू मोर्चे पर उन्होंने पूँजीवादी और समाजवादी दोनों ही नीतियों का समिश्रण तैयार किया और उन्हें लागू करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। चूँकि उन्होंने भृष्टाचार से कोई संघर्ष नहीं किया और पूंजीपतियों को लूट की खुली छूट दी इसलिए वे घरेलू असफल रहे।
विदेश नीति तो उनकी संतुलित थी किन्तु चीन अमेरिका इंग्लैंड फ़्रांस और जर्मनी के साम्राज्य्वादी और प्रतिश्पर्धी चक्रव्यूह में फंसकर पूँजी निवेश की ललक में देश को भूस्वामियों -सामंतों -जमींदारों और देशी पूँजीपतियों के रहमो करम पर छोड़ दिया। नेहरू जी की पंच वर्षीय योजनाएं तो फिर भी ठीक थीं ,सार्वजनिक क्षेत्र ,बैंक ,बीमा और टेलीकॉम का तना -बाना भी उन्होंने ठीक ही बुना। किन्तु मुनाफाखोरों पर कोई लगाम उन्होंने नहीं लगाईं ,भृष्ट अफसरों और बेईमान नेताओं पर उनका कोई जोर नहीं था। इसलिए वे हले वे कांग्रेस के नेता हुआ करते थे देश आजाद हुआ तो वे देश के नेता बन गए. वे जल्दी ही इंग्लैंड ,सोवियत संघ ,चीन,जापान और अमेरिका के नेताओं की बराबरी करने लगे। जब शीतयुद्ध चरम पर था और दुनिया साम्यवादी या पूँजीवादी दो खेमों में बट चुकी थी,तब डोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति -सुकर्णो ,चेकोस्लोवाकिया के मार्शल टीटो, मिश्र के … क्यूबा के फीदेल कास्टों और भारत के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने ' गुट निरपेक्ष राष्ट्रों का संघ' बनाया था। नेहरू इस सूची में अव्वल थे। उन्होंने चीन के साथ पंचशील और अमेरिकी राष्ट्रपति केनेडी के साथ ततकालीन महत्वपूर्ण राजनयिक और व्यापारिक सन्धियां कीं थीं। इस रास्ते पर निशन्देह नेहरू जी को असफलता ही हाथ लगी। १९६४ की चीन से झड़प के बाद तो वे इतने मायूस हुए की संभल भी न सके।
नरेंद्र भाई मोदी को भी 'संघ' ने उनके अनेक सीनियर समकालिकों से अधिक वरीयता देकर पहले गुजरात का नेता बनाया ,फिर भाजपा का राष्ट्रीय नेता बनाया ,फिर देश का परधान मंत्री बनाया। अब वे सयम वैश्विक फिराक में हैं। चूँकि उनकी घरेलु नीतियां वही हैं जो मनमोहनसिंह की हैं अर्थात कांग्रेस की हैं। याने नेहरू की हैं इसलिए नमो का इस राह पर असफल होना तय है। अंतर्राष्ट्रीय मंच पर चाहे पाकिस्तान हो ,नेपाल हो या चीन कोई भी 'नमो' की विनम्र प्रार्थना सुनने को तैयार नहीं है।चाहे कश्मीर समस्या हो ,चाहे चीन -भारत सीमा समस्या हो , चाहे बांग्ला देश -नेपाल या श्री लंका से सीमा विवाद हो और चाहे अमेरिका के साथ व्यापार घाटा हो - हर जगह मोदी को मात दी जा रही है। चीन ,जापान , इंग्लैंड ,अमेरिक ,यूरोप तथा दक्षेश के लिए तो भारत एक चरागाह ही है खुद मोदी जी के शब्दों में एक बिग बाजार ही है. तब नमो' की इस नीति से भारत को कोई उम्मीद क्यों रखनी चाहिए ?
श्रीराम तिवारी
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