संघ परिवार को उम्मीद थी कि केंद्र में अपनी सरकार आएगी तो धारा -३७० , यूनिफार्म सिविल कोड,राम - लला मंदिर , स्वदेशी -स्वाभिमान संधारण तथा काला धन वापिसी इत्यादि के संदर्भ में कुछ नया काम होगा। चूँकि मोदी सरकार अपने प्रथम चार महीनों में तो इन मुद्दों पर कुछ खास प्रगति निसंदेह नहीं कर पाई है, जिसका असर विधान सभाई उपचुनावों में भी दिखाई दे गया है । इसलिए 'संघ परिवार' के बौद्धिक चिंतकों में अब बेचैनी व्याप्त होने लगी है। स्वयं संघ प्रमुख मोहनराव भागवत को भी कहना पड़ा है कि सरकार का कामकाज संतोषजनक तो नहीं है. किन्तु वे चाहते हैं कि 'मोदी सरकार ' को एक साल तक न 'छेड़ा' जाए । मोदी सरकार के आलोचकों[ जिसमे सुप्रीम कोर्ट भी शामिल है ] का कहना है कि महज गंगा सफाई अभियान का नारा लगाने,काशी का कायाकल्प करने तथा विदेशी सैर-सपाटों से सारा सिस्टम बदल जाएगा यह बात लोगों के गले नहीं उतर रहीं । चाहे धड़ाधड़ खाते खुलवाने की बात हो या आधार को सर्व समावेशी बंनाने की बात हो यह कोई नयी योजना नहीं है। मनमोहन के राज में नंदन निलेकणि जैसे विद्वान भी यही सब करने जा रहे थे । जापान से बुलेट रेल लाने की बात हो या अमेरिका से सामरिक भागीदारी की बात हो सभी मुद्दे पूर्ववर्ती सरकारों ने पहले ही अंजाम तक पहुंचा दिए थे। जो अंधाधुंध विदेशी पूँजी निवेश और विदेशी पूँजी की निर्भरता की बात मोदी जी अमेरिका और जापान में जाकर कर आये हैं वो तो नरसिम्हाराव के जमाने से ही चल रही है। अब यदि ऍफ़ डी आई को १००% बढ़ाया जा रहा है तो यह तो अधोगामी कदम है। इसमें गर्व या उपलब्धि की बात क्या है ? क्या इससे देश का विकाश हो जाएगा ? क्या मँहगाई ,अशिक्षा,हिंसा -आतंक का तांडव रुक जाएगा?
जहाँ तक 'गुड-गवर्नेस ' की बात है तो अभी तो न केवल यूपी-बिहार -एमपी बल्कि सारा देश ही हत्या ,रेप,साम्प्रदायिक उन्माद और भृष्टाचार से खदबदा रहा है। उधर सीमाओं पर पाकिस्तानी फौजें पहले से ज्यादा आग उगल रहीं हैं । कश्मीर अशांत है। महँगाई की चर्चा करना तो अब बेमानी है। केवल कुछ राजपालों को बदलने , सार्वजनिक उपक्रमों में१००% ऍफ़ डी आई बढ़ाने,लव-जेहाद पर सामजिक सौहाद्र मिटाने तथा पडोसी राष्ट्रों की चिरौरी करने से राष्ट्रीय गौरव और राष्ट्र - स्वाभिमान कहाँ प्रदर्शित होता है। देश में मोदी सरकार के आगमन उपरान्त तो महिलाओं ,दलितों, कमजोरों ,अल्पसंख्यकों और मजदूरों पर अत्याचार तेजी से बढे हैं। सरकार के रिपोर्ट कार्ड में ये सब तो कोई बताने वाला नहीं है। क्या अमेरिका में प्रायोजित तालियों और भारत में मीडिया को साध लेने मात्र से सुशासन या गुड गवर्नेस आ सकता है ?
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी द्वारा सम्पन्न भूटान ,नेपाल , जापान और अमेरिका की यात्राओं से देश का कितना कल्याण होगा ? कब होगा ? इसकी भविश्यवाणी अभी से करना तो मुनासिब नहीं। किन्तु यदि उनके प्रारम्भिक चार माह के कार्यकाल में इन्हे समाहित करने की चेष्टा करें तो सार्थक कार्यों में इन यात्राओं को शुमार किये जाने लायक तो कदापि कुछ भी नहीं है । क्या लुटेरे राष्ट्रों से निवेश रुपी भीख माँगना कोई राष्ट्र गौरव की बात है ? इधर ये दक्षेश के निर्धन पड़ोसी मुल्क - भारत को कुछ देने के बजाय ज्यादा खींचने की फिराक में रहते हैं। भूटान और नेपाल से भारत को कब क्या मिला ? नेपाल से बाढ़ , तस्करी मिला करती है। चीन -पाकिस्तान का परोक्ष आक्रमण ही भारत को मिलता रहा है। ये छुद्र पडोसी ब्लेकमेलिंग भी करते रहते हैं। जापान -अमेरिका को पटाकर -चीन को चमकाने के फेर में हमें इन नंगे-भूंखे पड़ोसियों को देना ही ज्यादा पड़ता है। जहाँ तक जापान का प्रश्न है तो उसका भारी भरकम निवेश पहले से ही भारत में दशकों से जारी है। मारुती -सुजुकी से भी दशकों -पहले जापान की पूँजी ने भारतीय बाजार को केप्चर कर लिया था। अब यदि अगस्त -२०१४ में मोदी जी ने जापान अमेरिका जाकर निवेश के लिए पुनः लाल-कारपेट बिछाने की दुहाई दी है तो इसमें गौरवान्वित होने जैसा क्या है ?
वेशक उन्होंने २१ वीं सदी के असल नायक 'भारत -जापान' बताये हैं. वो सब तो फिर भी ठीक है ,किन्तु इन यात्राओं में वे भारत को जरा ज्यादा ही कंगाल निरूपित कर आये हैं। उन्होंने भूटान,नेपाल ,जापान और अमेरिका में बार-बार कपडे बदल कर- वैयक्तिक तेवर बदलकर -भारत को 'कमतर' दिखाकर तथा सम्पन्न राष्ट्रों को 'माई-बाप' बताकर - याचक वाला अंदाज दिखाकर -देश को रुसवा ही किया है। यह आचरण कदापि स्वीकार्य नहीं किया जा सकता। नमो की यह सांस्कृतिक,कूटनीतिक और राजनैतिक - चूक समझ से परे है। भारत जैसे महान और विराट -शक्तिशाली लोकतान्त्रिक राष्ट्र के प्रधानमंत्री का - जापान और अमेरिका -जैसे मुनाफाखोर और सरमायेदार देशों के सामने झोली फैलाना गरिमामय नहीं कहा जा सकता। इससे हमे क्या फायदा होगा ? केवल यही की दुश्मन का दुश्मन हमारा दोस्त कहने मात्र को हो जाएगा ! ये नकारात्मक विदेश नीति का तुच्छ विचार है। यह भारत के गौरव पूर्ण स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
जापान ,अमेरिका या चीन यदि भारत में आगामी ५ सालों में १० लाख करोड़ का निवेश करते हैं तो इसमें गर्व की क्या बात है ? इससे किसका भला होने जा रहा है ? अतीत में भी दान खाता लेकर न तो जापान भारत आया , न अमेरिका आया , न ही इंग्लैंड । ये सूदखोर पूँजीवादी सरमायेदार राष्ट्र -केवल उदारीकरण - भूमंडलीकरण के बहाने, अपनी पुरानी हो चुकी टेक्नॉलॉजी को भारत में खपाने,उनके घरेलू आर्थिक संकट को भारत जैसे विकाशशील राष्ट्र के कन्धों पर लादने तथा पुनः कुछ कमाने - धमाने ही भारत या विश्व के किसी अन्य विकाशशील देश में डेरा डालने पहुँच जाते हैं।जबकि प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर सम्पन्न भारत को - वैश्विक आवारा पूँजी के निवेश की कोई जरुरत ही नहीं है।
अभी कुछ दिनों पहले ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की मैनेजिंग डायरेक्टर ने भी अपनी सालाना रिपोर्ट में भी यही दर्शाया था कि 'भारत दुनिया का वह अमीर मुल्क है जहाँ संसार के सर्वाधिक गरीब रहते हैं । आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के कारण ही भारत में अमीर और ज्यादा अमीर हो रहे हैं , गरीब और ज्यादा गरीब हो रहे हैं। भारत के तमाम खरबपति -अरबपति - पूँजीपति चाहें तो अपने देश के गऱीबों की गरीबी दर्जनों बार दूर कर सकते हैं। "इसे न तो मनमोहनसिंह ने समझा और न मोदीजी समझना चाहते हैं ,वे तो अडानी,अम्बानी , भारती ,बिड़ला और टाटा के मुरीद हैं ,वे जापान के मुरीद हैं ,वे पैसे वालों के मुरीद हैं। गरीब को वे मात्र वोटर समझते हैं.इसमें किस उपलब्धि का बखान किया जा सकता है ?
हालाँकि मनमोहन सिंह की नीतियों के मद्देनजर मोदीजी की नीतियों का आकलन किया जाए तो दोनों का डीएनए भी एक ही है। यूपीए -२ के सापेक्ष -'मोदी सरकार' प्रत्येक क्षेत्र में भले ही आक्रामक दिख रही है , किन्तु फिर भी वह यूपीए-१ से बेहतर परफार्मेंस नहीं दे पा रही है । यूपीए-१ के दौर में देश की जनता को जो राहत दी गई उस मनरेगा ,आरटीआई , आंशिक खाद्द्य सुरक्षा तथा संचार क्रांति के लिए कौन भुला सकता है ? तब जो इन्फर्स्ट्र्क्चरल डवलपमेन्ट शुरू हुआथा उसी की बदौलत तो यूपीए को २००९ में भी दुवारा मौका मिला ! यूपीए-२ फिसड्डी रही इसलिए २०१४ के चुनाव में कांग्रेस और उनके गठबंधन साथियों की दुर्गति हुई। मोदी सरकार अपने प्रथम सौ दिनीं- कार्यकाल में 'यूपीए-३ जैसा आचरण करती रही है। अभी तक वह किसी भी क्षेत्र में मनमोहनी नीतियों से अलग नहीं हो पाई है।मात्र मोदी जी के मुखर होने या हिंदी में बतियाने के अलावा और कोई फर्क इन दोनों में कहाँ है ?
वित्त मंत्री श्री जेटली जी के अनुसार आर्थिक बृद्धि दर विगत तिमाही में ५.७ की दर्ज हुई है। जबकि मई-२०१४ में यह ५ के आसपास थी। पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम जी का कहना है की हमने जो बोया वही तो 'मोदी सरकार' के दौर में काटा जा रहा है। ये तो हमारी उपलब्धियां है। मोदी सरकार को तो अभी बक्त चाहिए। उनकी बात में कुछ वजन तो जरूर है। क्योंकि कुछ अन्य मुद्दों पर खुद भाजपा प्रवक्ता भी कहते आ रहे हैं कि 'इतनी जल्दी आउट -पुट नहीं आ सकता। परिणाम आने में बक्त लगता है। अभी तो हनीमून भी शुरू नहीं हुआ ! बच्चा पैदा होने में समय लगता है। बगैरह बगैरह …!
फिर भी माना जा सकता है कि - भारत की जनता के लिए न सही किन्तु सत्ता रूढ़ राजनैतिक परिवार के लिए और खास तौर से देश के उद्द्यमी वर्ग के लिए तो यह एक शुभ और सुखद अनुभूति ही है कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी जी की चीन से वार्ता ठीक- ठाक रही है। वाणिज्यिक दॄष्टि से तो जापान,अमेरिका यात्रायें भी कमोवेश सफल रही है । चूँकि विश्व आतंकवाद या भारतीय उपमहादीप के हिंसक मजहबी उन्माद के लिए स्वयं अमेरिका ही जिम्मेदार है। अमरीका या चीन से ये उम्मीद करना कि वो पाकिस्तान को आर्थिक मदद बंद कर देगा पूर्णतः खंख़्याली ही है।
ठीक उस बक्त जब 'मोदी सरकार ' के १०० दिन पूरे भी हुए। जब श्री नरेंद्र भाई मोदी जापान स्थित ' तोजी मंदिर ' में भगवान बुद्ध को प्रणाम कर रहे थे। 'वन्दे मातरम' और 'भारत माता की जय के नारों के बीच जापान के प्रधानमंत्री श्री आबे के सानिध्य में - यूनेस्को द्वारा संरक्षित इस 'तोजी मंदिर' प्रांगण में श्री नरेंद्र मोदी ने तभी अपने प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल का सिंहावलोकन भी किया हो तो अति उत्तम । उन्होंने जापान की जनता,वहाँ के नेता और मीडिया को तो अवश्य ही प्रभावित किया है। शायद मोदी सरकार अपने सौ दिवसीय कार्यकाल का लेखा -जोखा तैयार कर जनता के बीच लाने की मशक्क़त कर रही है। किन्तु जहाँ तक देश की जनता -जनार्दन की ओर से रिपोर्ट कार्ड प्रस्तुत किये जाने का सवाल है तो अभी-अभी सम्पन्न विधान सभा उपचुनावों में वह उजागर हो चुका है। क्या भाजपा नेतत्व इन हालात से परिचित है?
भले ही प्रधानमंत्री ने अपने सांसदों, मंत्रियों और पार्टी पदाधिकारियों को हिदायत दे रखी है कि "वे महत्वपूर्ण और नीतिगत मामलों में प्रेस से बातचीत न करें , यदि जरूरी हो तो होमवर्क कर लें ,मीडिया वालों से हलकी-फुलकी बातचीत से बचें,अपने नाते-रिश्ते वालों को उपकृत करने या लाभ के पद पर बिठाने से बचें ". लेकिन फिर भी अधिकांस उसका पालन नहीं कर रहे हैं। पीएमओ को बार-बार फटकार लगाने की नौबत आ रही है। स्वयं प्रधानमंत्री जी भी अपने सहयात्रियों को संदेह की नजर से देखते हैं य़े सभी तथ्य बता रहे हैं कि 'मोदी सरकार' के अंदर भी सब कुछ ठीकठाक नहीं है। जहाँ तक बाहर की बात है तो इन १०० दिनों के कामकाज पर जनता और मीडिया की मिश्रित प्रतिक्रिया की बात है तो वह बहुत स्पष्ट जाहिर हो चुकी है। इन ताजा विधान सभा के उपचुनावों और उनके परिणामों से सब को सब कुछ साफ़ -साफ दिख रहा है। बिहार में लालू नीतिश गठबंधन पुनः हरा-भरा होने लगा है। उत्तराखंड , कर्नाटक , पंजाब , मध्यप्रदेश ,महाराष्ट्र छग - इत्यादि प्रांतों में कांग्रेस को आशातीत सफलता मिली है। ऐंसा कोई राज्य नहीं बचा जहाँ पर कांग्रेस को पुनः विजय -संजीवनी न मिली हो ।
विगत लोक सभा चुनाव में कांग्रेस नीत यूपीए के १० वर्षीय कुशासन से तंग आकर ही देश की आवाम ने भाजपा या 'नमो' के नेतत्व में एनडीए को प्रचंड बहुमत प्रदान किया था। लेकिन १०० दिनों में ही 'संघ' का और जनता का भी मोह भंग होने लगा है। मोदी सरकार के लिए यह खतरे की घंटी हो सकती है। अब 'मोदी सरकार ' का तलवार की धार पर चलने का वक्त आ चुका है। आम तौर पर विश्लेषकों की राय है कि चूँकि 'नमो' रुपी बरगद के पेड़ के नीचे अन्य नेता -कार्यकर्ता रुपी पेड़- पौधों को अपना रूप -आकार विकसित करने का वांछित अवसर ही नहीं मिला तो परिणाम आशाजनक कैसे सम्भव हैं। अभी तो हर चीज 'नमो' के कब्जे में है, यहाँ तक कि कोई केंद्रीय मंत्री तो क्या भारत का गृह मंत्री भी 'नमो' की इच्छा के बिना अपना मनपसंद पीए भी नहीं रख सकता। अतः यह सम्भव हो सकता है की व्यक्तिगत रूप से तो 'नमो' अपना 'आउट- पुट ' देने में सफल रहे हैं , किन्तु विभिन्न राज्यों के भाजपाई नेता , केंद्रीय मंत्री तथा पार्टी के नए पदाधिकारी - समष्टिगत रूप से अपने रण - कौशल का इजहार करने में अभी असमर्थ हो रहे हैं। इसी लिए मोदी सरकार के १०० दिन सफल होने में सभी को संदेह है । भारत के कार्पोरेट घरानों , पूँजीपतियों ,मंदिरों ,मठों, गिरजों, गुरुद्वारों और वक्फ बोर्डों के पास इतना धन है कि जापान को १० बार खरीदा जा सकता है। अमेरिका को बाजार में टक्कर दी जा सकती है। भारत के मध्यम वर्ग के पास इतना सोना है कि अमेरिका का स्वर्ण भण्डार भी शर्मा जाए ! चीन ,जापान ,अमेरिका और यूरोप के आगे सर झुकाने से कुछ नहीं होगा प्रधान मंत्री जी ! देश के अंदर झाँक कर देखिये नरेंद्र भाई मोदी जी । कस्तूरी कुण्डल वसे… याद कीजिये मान्यवर ! विनाशकारी पूँजीवादी नीतियाँ बदलिए श्रीमान ! यदि उठा सको तो - दुनिया के सामने भारत का 'सर उठा कर अपना '५६' इंच का सीना तानकर दिखाओ ! तब शायद कोई बात बने' !
-; श्रीराम तिवारी ;-
जहाँ तक 'गुड-गवर्नेस ' की बात है तो अभी तो न केवल यूपी-बिहार -एमपी बल्कि सारा देश ही हत्या ,रेप,साम्प्रदायिक उन्माद और भृष्टाचार से खदबदा रहा है। उधर सीमाओं पर पाकिस्तानी फौजें पहले से ज्यादा आग उगल रहीं हैं । कश्मीर अशांत है। महँगाई की चर्चा करना तो अब बेमानी है। केवल कुछ राजपालों को बदलने , सार्वजनिक उपक्रमों में१००% ऍफ़ डी आई बढ़ाने,लव-जेहाद पर सामजिक सौहाद्र मिटाने तथा पडोसी राष्ट्रों की चिरौरी करने से राष्ट्रीय गौरव और राष्ट्र - स्वाभिमान कहाँ प्रदर्शित होता है। देश में मोदी सरकार के आगमन उपरान्त तो महिलाओं ,दलितों, कमजोरों ,अल्पसंख्यकों और मजदूरों पर अत्याचार तेजी से बढे हैं। सरकार के रिपोर्ट कार्ड में ये सब तो कोई बताने वाला नहीं है। क्या अमेरिका में प्रायोजित तालियों और भारत में मीडिया को साध लेने मात्र से सुशासन या गुड गवर्नेस आ सकता है ?
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी द्वारा सम्पन्न भूटान ,नेपाल , जापान और अमेरिका की यात्राओं से देश का कितना कल्याण होगा ? कब होगा ? इसकी भविश्यवाणी अभी से करना तो मुनासिब नहीं। किन्तु यदि उनके प्रारम्भिक चार माह के कार्यकाल में इन्हे समाहित करने की चेष्टा करें तो सार्थक कार्यों में इन यात्राओं को शुमार किये जाने लायक तो कदापि कुछ भी नहीं है । क्या लुटेरे राष्ट्रों से निवेश रुपी भीख माँगना कोई राष्ट्र गौरव की बात है ? इधर ये दक्षेश के निर्धन पड़ोसी मुल्क - भारत को कुछ देने के बजाय ज्यादा खींचने की फिराक में रहते हैं। भूटान और नेपाल से भारत को कब क्या मिला ? नेपाल से बाढ़ , तस्करी मिला करती है। चीन -पाकिस्तान का परोक्ष आक्रमण ही भारत को मिलता रहा है। ये छुद्र पडोसी ब्लेकमेलिंग भी करते रहते हैं। जापान -अमेरिका को पटाकर -चीन को चमकाने के फेर में हमें इन नंगे-भूंखे पड़ोसियों को देना ही ज्यादा पड़ता है। जहाँ तक जापान का प्रश्न है तो उसका भारी भरकम निवेश पहले से ही भारत में दशकों से जारी है। मारुती -सुजुकी से भी दशकों -पहले जापान की पूँजी ने भारतीय बाजार को केप्चर कर लिया था। अब यदि अगस्त -२०१४ में मोदी जी ने जापान अमेरिका जाकर निवेश के लिए पुनः लाल-कारपेट बिछाने की दुहाई दी है तो इसमें गौरवान्वित होने जैसा क्या है ?
वेशक उन्होंने २१ वीं सदी के असल नायक 'भारत -जापान' बताये हैं. वो सब तो फिर भी ठीक है ,किन्तु इन यात्राओं में वे भारत को जरा ज्यादा ही कंगाल निरूपित कर आये हैं। उन्होंने भूटान,नेपाल ,जापान और अमेरिका में बार-बार कपडे बदल कर- वैयक्तिक तेवर बदलकर -भारत को 'कमतर' दिखाकर तथा सम्पन्न राष्ट्रों को 'माई-बाप' बताकर - याचक वाला अंदाज दिखाकर -देश को रुसवा ही किया है। यह आचरण कदापि स्वीकार्य नहीं किया जा सकता। नमो की यह सांस्कृतिक,कूटनीतिक और राजनैतिक - चूक समझ से परे है। भारत जैसे महान और विराट -शक्तिशाली लोकतान्त्रिक राष्ट्र के प्रधानमंत्री का - जापान और अमेरिका -जैसे मुनाफाखोर और सरमायेदार देशों के सामने झोली फैलाना गरिमामय नहीं कहा जा सकता। इससे हमे क्या फायदा होगा ? केवल यही की दुश्मन का दुश्मन हमारा दोस्त कहने मात्र को हो जाएगा ! ये नकारात्मक विदेश नीति का तुच्छ विचार है। यह भारत के गौरव पूर्ण स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
जापान ,अमेरिका या चीन यदि भारत में आगामी ५ सालों में १० लाख करोड़ का निवेश करते हैं तो इसमें गर्व की क्या बात है ? इससे किसका भला होने जा रहा है ? अतीत में भी दान खाता लेकर न तो जापान भारत आया , न अमेरिका आया , न ही इंग्लैंड । ये सूदखोर पूँजीवादी सरमायेदार राष्ट्र -केवल उदारीकरण - भूमंडलीकरण के बहाने, अपनी पुरानी हो चुकी टेक्नॉलॉजी को भारत में खपाने,उनके घरेलू आर्थिक संकट को भारत जैसे विकाशशील राष्ट्र के कन्धों पर लादने तथा पुनः कुछ कमाने - धमाने ही भारत या विश्व के किसी अन्य विकाशशील देश में डेरा डालने पहुँच जाते हैं।जबकि प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर सम्पन्न भारत को - वैश्विक आवारा पूँजी के निवेश की कोई जरुरत ही नहीं है।
अभी कुछ दिनों पहले ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की मैनेजिंग डायरेक्टर ने भी अपनी सालाना रिपोर्ट में भी यही दर्शाया था कि 'भारत दुनिया का वह अमीर मुल्क है जहाँ संसार के सर्वाधिक गरीब रहते हैं । आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के कारण ही भारत में अमीर और ज्यादा अमीर हो रहे हैं , गरीब और ज्यादा गरीब हो रहे हैं। भारत के तमाम खरबपति -अरबपति - पूँजीपति चाहें तो अपने देश के गऱीबों की गरीबी दर्जनों बार दूर कर सकते हैं। "इसे न तो मनमोहनसिंह ने समझा और न मोदीजी समझना चाहते हैं ,वे तो अडानी,अम्बानी , भारती ,बिड़ला और टाटा के मुरीद हैं ,वे जापान के मुरीद हैं ,वे पैसे वालों के मुरीद हैं। गरीब को वे मात्र वोटर समझते हैं.इसमें किस उपलब्धि का बखान किया जा सकता है ?
हालाँकि मनमोहन सिंह की नीतियों के मद्देनजर मोदीजी की नीतियों का आकलन किया जाए तो दोनों का डीएनए भी एक ही है। यूपीए -२ के सापेक्ष -'मोदी सरकार' प्रत्येक क्षेत्र में भले ही आक्रामक दिख रही है , किन्तु फिर भी वह यूपीए-१ से बेहतर परफार्मेंस नहीं दे पा रही है । यूपीए-१ के दौर में देश की जनता को जो राहत दी गई उस मनरेगा ,आरटीआई , आंशिक खाद्द्य सुरक्षा तथा संचार क्रांति के लिए कौन भुला सकता है ? तब जो इन्फर्स्ट्र्क्चरल डवलपमेन्ट शुरू हुआथा उसी की बदौलत तो यूपीए को २००९ में भी दुवारा मौका मिला ! यूपीए-२ फिसड्डी रही इसलिए २०१४ के चुनाव में कांग्रेस और उनके गठबंधन साथियों की दुर्गति हुई। मोदी सरकार अपने प्रथम सौ दिनीं- कार्यकाल में 'यूपीए-३ जैसा आचरण करती रही है। अभी तक वह किसी भी क्षेत्र में मनमोहनी नीतियों से अलग नहीं हो पाई है।मात्र मोदी जी के मुखर होने या हिंदी में बतियाने के अलावा और कोई फर्क इन दोनों में कहाँ है ?
वित्त मंत्री श्री जेटली जी के अनुसार आर्थिक बृद्धि दर विगत तिमाही में ५.७ की दर्ज हुई है। जबकि मई-२०१४ में यह ५ के आसपास थी। पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम जी का कहना है की हमने जो बोया वही तो 'मोदी सरकार' के दौर में काटा जा रहा है। ये तो हमारी उपलब्धियां है। मोदी सरकार को तो अभी बक्त चाहिए। उनकी बात में कुछ वजन तो जरूर है। क्योंकि कुछ अन्य मुद्दों पर खुद भाजपा प्रवक्ता भी कहते आ रहे हैं कि 'इतनी जल्दी आउट -पुट नहीं आ सकता। परिणाम आने में बक्त लगता है। अभी तो हनीमून भी शुरू नहीं हुआ ! बच्चा पैदा होने में समय लगता है। बगैरह बगैरह …!
फिर भी माना जा सकता है कि - भारत की जनता के लिए न सही किन्तु सत्ता रूढ़ राजनैतिक परिवार के लिए और खास तौर से देश के उद्द्यमी वर्ग के लिए तो यह एक शुभ और सुखद अनुभूति ही है कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी जी की चीन से वार्ता ठीक- ठाक रही है। वाणिज्यिक दॄष्टि से तो जापान,अमेरिका यात्रायें भी कमोवेश सफल रही है । चूँकि विश्व आतंकवाद या भारतीय उपमहादीप के हिंसक मजहबी उन्माद के लिए स्वयं अमेरिका ही जिम्मेदार है। अमरीका या चीन से ये उम्मीद करना कि वो पाकिस्तान को आर्थिक मदद बंद कर देगा पूर्णतः खंख़्याली ही है।
ठीक उस बक्त जब 'मोदी सरकार ' के १०० दिन पूरे भी हुए। जब श्री नरेंद्र भाई मोदी जापान स्थित ' तोजी मंदिर ' में भगवान बुद्ध को प्रणाम कर रहे थे। 'वन्दे मातरम' और 'भारत माता की जय के नारों के बीच जापान के प्रधानमंत्री श्री आबे के सानिध्य में - यूनेस्को द्वारा संरक्षित इस 'तोजी मंदिर' प्रांगण में श्री नरेंद्र मोदी ने तभी अपने प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल का सिंहावलोकन भी किया हो तो अति उत्तम । उन्होंने जापान की जनता,वहाँ के नेता और मीडिया को तो अवश्य ही प्रभावित किया है। शायद मोदी सरकार अपने सौ दिवसीय कार्यकाल का लेखा -जोखा तैयार कर जनता के बीच लाने की मशक्क़त कर रही है। किन्तु जहाँ तक देश की जनता -जनार्दन की ओर से रिपोर्ट कार्ड प्रस्तुत किये जाने का सवाल है तो अभी-अभी सम्पन्न विधान सभा उपचुनावों में वह उजागर हो चुका है। क्या भाजपा नेतत्व इन हालात से परिचित है?
भले ही प्रधानमंत्री ने अपने सांसदों, मंत्रियों और पार्टी पदाधिकारियों को हिदायत दे रखी है कि "वे महत्वपूर्ण और नीतिगत मामलों में प्रेस से बातचीत न करें , यदि जरूरी हो तो होमवर्क कर लें ,मीडिया वालों से हलकी-फुलकी बातचीत से बचें,अपने नाते-रिश्ते वालों को उपकृत करने या लाभ के पद पर बिठाने से बचें ". लेकिन फिर भी अधिकांस उसका पालन नहीं कर रहे हैं। पीएमओ को बार-बार फटकार लगाने की नौबत आ रही है। स्वयं प्रधानमंत्री जी भी अपने सहयात्रियों को संदेह की नजर से देखते हैं य़े सभी तथ्य बता रहे हैं कि 'मोदी सरकार' के अंदर भी सब कुछ ठीकठाक नहीं है। जहाँ तक बाहर की बात है तो इन १०० दिनों के कामकाज पर जनता और मीडिया की मिश्रित प्रतिक्रिया की बात है तो वह बहुत स्पष्ट जाहिर हो चुकी है। इन ताजा विधान सभा के उपचुनावों और उनके परिणामों से सब को सब कुछ साफ़ -साफ दिख रहा है। बिहार में लालू नीतिश गठबंधन पुनः हरा-भरा होने लगा है। उत्तराखंड , कर्नाटक , पंजाब , मध्यप्रदेश ,महाराष्ट्र छग - इत्यादि प्रांतों में कांग्रेस को आशातीत सफलता मिली है। ऐंसा कोई राज्य नहीं बचा जहाँ पर कांग्रेस को पुनः विजय -संजीवनी न मिली हो ।
जनता के अच्छे दिन आये हैं या नहीं ये तय होना तो अभी बाकी है.लेकिन मोदी सरकार के प्रथम १०० दिनों का देश की जनता पर असर परिलक्षित होने लगा है। कांग्रेस सहित सम्पूर्ण विपक्ष ,मय -तीसरा मोर्चा -वाकई फीलगुड महसूस कर रहे हैं । लोक सभा की तीन सीटों में से एक - टीआरएस ,एक भाजपा और एक सपा को मिली है। क्या बाकई यह किसी तरह के 'संघनिष्ठ प्रभाव' या 'मोदी लहर ' का असर है ? कांग्रेस को तो नेतत्व विहीन होने ,आपस में लड़ने -भिड़ने के वावजूद ,इतनी ज्यादा बदनामी होने के वावजूद, बिना कुछ किये धरे ही प्रत्येक राज्य में अप्रत्याशित समर्थन मिल रहा है। गुजरात राजस्थान के विधान सभा उपचुनाव में कांग्रेस को बिन मांगे ही जनता ने तीन सीटें जिताकर लोकतंत्र में उसके प्रति अपनी आस्था दुहराई है। यहाँ तक की कुछ जगह तो कांग्रेस ने भाजपा की ही सीट छीन ली है। हालाँकि जब तक कोई अन्य सार्थक विकल्प नहीं मिलता -जनता भी कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा को ही बारी बारी से चुनने को अभिसप्त है। यूपी में सपा की बम्फर जीत और बंगाल में भाजपा का खाता खुलना -एक ध्रुवीकृत राजनैतिक रुझान का प्रमाण है। यूपी में मायावती की वसपा का मैदान से हटना और मुस्लिम +पिछड़ा +दलित का एकजुट होकर सपा को वोट करना। बिहार के लालू-नीतीश सिद्धांत का ही सफल संस्करण है।निसंदेह -भूटान ,नेपाल ,जापान यात्राओं में मोदी जी ने वैश्विक मीडिया का ध्यान -आकर्षण किया है किन्तु घरेलु मोर्चे पर हर चीज जस की तस है.पूर्ववर्ती यूपीए और वर्तमान मोदी सरकार के क्रिया-कलापों में केवल वित्तण्डावाद और अम्लीकरण की तीव्रता का फर्क है। कश्मीर में बाढ़ प्रभावितों के प्रति मोदी जी ने सही संवेग और राजधर्म का परिचय दिया है। शायद इसीलिये उनके कटु आलोचक भी बहरहाल तो प्रशंसा ही कर रहे हैं। किन्तु जनता का रुझान अब तेजी से भाजपा और मोदी सरकार के प्रति कम होने लगा है।
विगत लोक सभा चुनाव में कांग्रेस नीत यूपीए के १० वर्षीय कुशासन से तंग आकर ही देश की आवाम ने भाजपा या 'नमो' के नेतत्व में एनडीए को प्रचंड बहुमत प्रदान किया था। लेकिन १०० दिनों में ही 'संघ' का और जनता का भी मोह भंग होने लगा है। मोदी सरकार के लिए यह खतरे की घंटी हो सकती है। अब 'मोदी सरकार ' का तलवार की धार पर चलने का वक्त आ चुका है। आम तौर पर विश्लेषकों की राय है कि चूँकि 'नमो' रुपी बरगद के पेड़ के नीचे अन्य नेता -कार्यकर्ता रुपी पेड़- पौधों को अपना रूप -आकार विकसित करने का वांछित अवसर ही नहीं मिला तो परिणाम आशाजनक कैसे सम्भव हैं। अभी तो हर चीज 'नमो' के कब्जे में है, यहाँ तक कि कोई केंद्रीय मंत्री तो क्या भारत का गृह मंत्री भी 'नमो' की इच्छा के बिना अपना मनपसंद पीए भी नहीं रख सकता। अतः यह सम्भव हो सकता है की व्यक्तिगत रूप से तो 'नमो' अपना 'आउट- पुट ' देने में सफल रहे हैं , किन्तु विभिन्न राज्यों के भाजपाई नेता , केंद्रीय मंत्री तथा पार्टी के नए पदाधिकारी - समष्टिगत रूप से अपने रण - कौशल का इजहार करने में अभी असमर्थ हो रहे हैं। इसी लिए मोदी सरकार के १०० दिन सफल होने में सभी को संदेह है । भारत के कार्पोरेट घरानों , पूँजीपतियों ,मंदिरों ,मठों, गिरजों, गुरुद्वारों और वक्फ बोर्डों के पास इतना धन है कि जापान को १० बार खरीदा जा सकता है। अमेरिका को बाजार में टक्कर दी जा सकती है। भारत के मध्यम वर्ग के पास इतना सोना है कि अमेरिका का स्वर्ण भण्डार भी शर्मा जाए ! चीन ,जापान ,अमेरिका और यूरोप के आगे सर झुकाने से कुछ नहीं होगा प्रधान मंत्री जी ! देश के अंदर झाँक कर देखिये नरेंद्र भाई मोदी जी । कस्तूरी कुण्डल वसे… याद कीजिये मान्यवर ! विनाशकारी पूँजीवादी नीतियाँ बदलिए श्रीमान ! यदि उठा सको तो - दुनिया के सामने भारत का 'सर उठा कर अपना '५६' इंच का सीना तानकर दिखाओ ! तब शायद कोई बात बने' !
-; श्रीराम तिवारी ;-
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