गुरुवार, 1 अगस्त 2013

न्यायिक सक्रियता बनाम न्यायिक अधिनायकवाद......

     भारत में लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा का  दायित्व  यदि न्यायपालिका का है तो नीतियाँ  बनाने का  उत्तरदायित्व 'संसद' को ही है और संसद का  चुनाव देश की जनता करती है . यदि कोई कहीं खामी है  या सुधार की जरुरत है  तो यह देश की संसद  की जिम्मेदारी है .  संसद में कौन होगा कौन नहीं होगा  यह जनता तय करेगी . संसद में बेहतरीन ,ईमानदार ,देशभक्त और उर्जावान नेता हों यह जनता की जिम्मेदारी है .  राजनीति में वैचारिक बदलाव जनता की ओर से ही आना चाहिए . कोई  भी वेतन भोगी या स्वयम्भू सामाजिक कार्यकर्ता या धर्मध्वज - फिर  चाहे वो राष्ट्रपति हो या सुप्रीम कोर्ट का मुख्य नयायाधीश  हो या देश का प्रधानमंत्री हो या अन्ना हजारे बाबा रामदेव जैसे स्वनामधन्य  हों चाहे कोई खास समाज या समूह हो  - स्वयम के बलबूते नीतिगत निर्णय कोई भी  नहीं ले सकता . ये काम देश की जनता का है और वह 'संसद '  के मार्फ़त कर सकती है . हाँ  उल्लेखित विभूतियों  में से कोई भी पृथक-पृथक या सामूहिक रूप से , यदि कोई सन्देश या सुझाव देश की जनता को देते  हैं तो उसका  स्वागत किया जाना चाहिए .
                                   हम भारतीयों की वैसे तो ढेरों खूबियाँ हैं जिन्हें  देख -सुनकर बाहरी  दुनिया दांतों  तले अंगुलियाँ   दबा  लेती  है ,कि देखो  कितना  विचित्र देश है भारत .   दुनिया के अन्य देशों की जनता तो  लोकतंत्र के लिए संघर्ष कर रही है जब  की  भारत  की जनता   फिर किसी महापुरुष के अवतार  का इंतज़ार कर रही है. कि सातवें आसमान से कोई आयेगा और उनके दुखों-कष्टों का शमन करेगा . हालांकि   भारतीय प्रजातंत्र की खामियों को उजागर करने में न  केवल देश का मीडिया , न केवल  बाबा रामदेव ,न केवल  अन्ना हजारे ,  न केवल पूंजीवादी दक्षिणपंथी विपक्ष या  वामपंथ   बल्कि देश की न्याय पालिका भी  परोक्षत: आंशिक रूप से   निरंतर सक्रिय है.लेकिन  जनता के हिस्से का काम जनता को भी करना होगा। केवल तमाशबीन होना लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण नहीं हैं .    
                                पंडित  नेहरु के नेतत्व में जब भारत ने दुनिया को गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत दिया तो न केवल तत्कालीन दोनों  महाशक्तियों -सोवियत  यूनियन और अमेरिका अपितु तीसरी दुनिया के अधिकांस राष्ट्रों में भारत को  सम्मान की नजर से देखा जाता था . भारत  की  न्यायपालिका का तब भी दुनिया में  डंका  बजा करता था .  इंदिरा जी जैसी ताकतवर नेता का भी चुनाव रद्द कर सकने की क्षमता उस दौर   की  न्याय पालिका में विद्द्य्मान थी .   हालाँकि तब भारत घोर दरिद्रता और भुखमरी  से जूझ रहा था . आपातकाल में इंदिरा जी की डिक्टेटर शिप में  भारत ने भले ही   कुछ सामरिक बढ़त हासिल  की हो ,एटम बम बना लिया हो ,  या हरित-श्वेत क्रांति के बीज -वपन कर लिए हों, कुछ तात्कालिक अनुशाशन भी  सीख लिया हो   किन्तु  'भारतीय संविधान ' को  ताक पर  रख दिए  जाने से,न्याय पालिका  समेत लोकतंत्र  चारों स्तंभों  को पंगु बना देने से  ये तमाम खूबियाँ गर्त में चली गईं और इसके उलटे   दुनिया  भर के प्रजातंत्र वादियों ने हमें 'दूसरी गुलामी' की हालत में  देखकर  हिकारत से   नाक भौं   सिकोडी थी .   इससे पुर्व भारत के अलावा  हमारे सभी पड़ोसी -पाकिस्तान,बांग्ला देश, नेपाल ,श्रीलंका और म्यांमार  में तानाशाही का ही   बोलबाला   था .  दुनिया ने कहा - भारत भी तानाशाही  की  मांद में धस गया .   अंग्रेजों के जुमले उछलने लगे थे कि  ये भारत-पाकिस्तान  जैसे बर्बर और नालायक देश  तो गुलामी के ही लायक है. ये प्रजातंत्र का मतलब क्या जाने . इन देशों की आवाम को कोड़े खाना ही पसंद है . इन्हें तो अंग्रेज ही काबू कर सकते हैं . बगैरह ।बगैरह …. !
                                        तब देश की जागरूक जनता और विपक्ष ने  इस  नकारात्मक  प्रतिक्रिया से प्रेरित होकर जय प्रकश नारायणके नेतत्व में नारा दिया  था "सिंहासन  खाली  करो … कि जनता आती   है …  और अनेकों  कुर्बानियों के परिणाम स्वरूप भारत में प्रजातंत्र की पुन : वापिसी हुई थी . १ ९ ७ ७  में 'जनता पार्टी ' की सरकार बनी थी  .  भले ही वो 'दोहरी सदस्यता ' का शिकार हो गई या खंड-खंड होकर बिखर गई किन्तु इसमें कोई शक नहीं  कि इस 'मिनी क्रांति  के बाद भारत की  जनता को प्रजातंत्र की आदत  सी  हो गई थी .   गुमान हो चला था कि अब भारत में कोई भी तुर्रम खां प्रधानमंत्री या राष्ट्र पति बन जाए  किन्तु वो संविधान के मूल सिद्धांतों से छेड़ -छाड़ करने की हिमाकत नहीं करेगा .  लेकिन संविधान से छेड़छाड़  का ख़तरा  यदि विधि-निषेध के साथ   राजनीतिज्ञों  के अलावा  उसके रक्षकों से ही हो तो  मामला गंभीर हो  जाता  है . इस सन्दर्भ में सार्थक जन-हस्तक्षेप बहुत जरुरी है .
                                                               भारत में  इन दिनों 'न्यायिक सक्रियतावाद ' की बहुत चर्चा हो रही है  . आये दिन इस या उस बहाने कभी कार्य पालिका  ,कभी व्यवस्थापिका और कभी -कभी तो  विधायिका पर भी विभिन्न न्यायालयों के आक्षेपपूर्ण  'फैसले ' दनादन    आते  जा रहे हैं .  कुछ  प्रबुद्ध जन के अलावा अधिकांस    मीडिया - विशेषग्य  इन प्रतिगामी  निर्णयों पर खुश होकर  तालियाँ पीट रहे हैं.   यह  देश का दुर्भाग्य है कि जिस मुद्दे पर गम्भीर बहस या चिंतन-मनन की जरुरत है ,  संविधान  के स्थापित मूल्यों  को  ध्वस्त होने  से बचाने की जरुरत है , उस मुद्दे पर  अपनी संवैधानिक राय  प्रकट करने के बजाय  केवल  अज्ञानता या  हर्ष प्रकट करते रहते हैं . लोग समझते हैं कि इन फैसलों से भ्रष्ट्र  राजनीतिज्ञों पर लगाम  लगेगी !  यह एक मृगमारीचिका के सिवाय कुछ नहीं है .  वे यह   भूल जाते हैं  कि  पूँजीवादी प्रजातंत्र में  यह आम बीमारी है .  इस  व्यवस्था में  न्याय की प्रवृत्ति यदि आद्र्शोंमुखी है तो  उसके पास यह विकल्प है कि पहले वो अपना' घर '  ठीक करके दिखाए .  भारतीय न्याय पालिका को  विधायिका में अतिक्रमण के बजाय पहले   देश  के' न्याय मंदिरों' में हो रहे अनाचार पर सख्ती  से रोक लगाना चाहिए .
                     मुंबई के 'डांसबार ' प्रकरण पर महाराष्ट्र सरकार और नयायपालिका के मध्य उत्पन्न गतिरोध पर   मान मुख्य न्याधीश[निवृतमान ] अल्तमस कबीर  महोदय की ये स्थापना की 'लोगों  के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना न्यायपालिका का काम है …. यदि कोई अपना कार्य ठीक ढंग से नहीं कर रहा है  तो हमारे [न्यायपालिका के पास ]  पास  विशेषाधिकार है कि हम उसे उसका काम करने को कहें '' …  इत्यादि में  न्यायिक क्षेत्र की   सदिच्छा भले ही निहित हो  किन्तु यह स्मरण रखना चहिये की किसी व्यक्ति विशेष या खास समूह के हितों की हिफाहत में देश की गर्दन तो नहीं  कटने जा रही है  ! संविधान के प्रदत्त प्रावधानों में तो देश की संसद ही सर्वोच्च है और उसे ही यह देखना है कि देश में कौन ठीक से काम नहीं कर रहा . संसद को ये अधिकार भी  है कि  न्याय पालिका के काम काज पर भी  नजर रखे  . संसद  ही जनता के  प्रति  उत्तरदायी है  क्योंकि उसे जनता चुनती है . न्याय पालिका को संसद का  ,विधायिका    का  अतिक्रमण करना और जनता द्वारा यह सब  करते हुए देखना और तालियाँ बजाकर खुश होना विशुद्ध नादानी है . यह  प्रजातान्त्रिक चेतना के  अभाव में नितांत 'न्यायिक -अधिनायकवादी ' प्रवृत्ति है
                            विगत दिनों इलाहाबाद  हाई  कोर्ट ने भी एक दूरगामी परिणाम मूलक फैसला दिया है .  राजनैतिक उद्देश्य से  जातीय सम्मेलन बुलाने ,रैली करने और मीटिंग करने पर पाबंदी  लगा ने का हुक्म ही दे दिया .   क्या यह उसके क्षेत्राधिकार में   आता हैं ?  यदि  हाँ  तो ६ ५ साल से इस पर  प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाया  गया . जब काशीराम ,मायावती ,लालू ,मुलायम नीतीश , कर्पूरी ठाकुर,किरोडीलाल वैसला जैसे नेता   आजीवन जातिवाद की राजनीती  करते रहे तब क्यों नहीं रोक गया ?  अकाली दल ,शिवसेना ,रिपब्लिकन पार्टी खोब्रागडे और गवई या दुर्मुक ,अन्ना द्रुमुक  इत्यादि  का तो आधार ही जाति है . मुसलिम ईसाई जमातों के विभिन्न सम्मेलनों  में क्या जातिवाद नहीं होता ? उन पर कभी अंगुली क्यों नहीं उठाई गई . अब जब  ब्राह्मण- ठाकुरों- बनियों के सम्मलेन होने लगे तो इतराज क्यों ?   इलाहाबाद हाई कोर्ट के  इस  फैसले  को यदि मानते हैं तो  देश में कोहराम नहीं मच जाएगा ? यदि नहीं मानते तो 'अवमानना' नहीं  होगी क्या  ?     इसी तरह   सुप्रीम कोर्ट ने भी  अदालत से सजा पाए सांसदों -विधायकों  की संसदीय पात्रता से   सम्बंधित संविधान की  धारा  ८ {४}  को निरस्त कर, पुनर्परिभाषित कर , न केवल  अपीलीय  समयावधि को संशयात्मक बना दिया  अपितु  संविधान में उल्लेखित और विधि निर्मात्री शक्तियों  की अधिष्ठात्री सर्वोच्च विधि निर्मात्री संस्था  याने 'संसद'  को दुनिया के सामने लगभग  'अपराधियों का गढ़ ' ही  सिद्ध  कर दिया  है . मानाकि संसद में एक-तिहाई  खालिस अपराधी ही हैं.  अब यदि माननीय उच्चतम न्यायालय का फैसला मानते हैं तो ये गठबंधन  सरकार ही चली जायेगी . विपक्ष में भी दूध के धुले नहीं हैं  अतएव लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गई कोई 'लोकप्रिय सरकार' का गठन संभव ही नहीं है . तब क्या देश में अराजकता नहीं फ़ैल जायेगी ? क्या फासीवाद के खतरों को दरवाजा खोलने जैसा प्रयास नहीं है ये ? और यदि न्यायालय के फैसले का सम्मान नहीं करते तो वो 'अवमानना' भी तो  राष्ट्रीय संकट के रूप में त्रासद हो सकती है .
                                   निसंदेह  न्यायधीशों  की  मंशा  और उद्देश्य देशभक्तिपूर्ण और पवित्र हो सकते हैं किन्तु यह  'अंग्रेजों के ज़माने के जेलर ' वाली  आदेशात्मक  प्रवृत्ति न केवल लोकतंत्र के लिए बल्कि उसके अन्य स्तंभों के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकती है .  क्योंकि  संविधान में तथाकथित  छेड़-छाड़ यहाँ पर वही कर रहे हैं जिन पर उसकी सुरक्षा का दारोमदार है .  माननीय न्याय् धीशों  की    सदिच्क्षा से किसी को इनकार नहीं है   यह सच  है  कि राजनीती में अपराधीकरण की अब इन्तहा हो चुकी है , इस पर  अंकुश    लगना    ही    चाहिए  किन्तु'' संविधान के रक्षक याने '' याने  सर्वोच्च न्यायालय को इस  सन्दर्भ में अपने  संवैधानिक "परामर्श क्षेत्राधिकार " का प्रयोग करते हुए संसद और विधायिका से तत्सम्बन्धी  विधेयक लाने को कहना चाहिए था .जन प्रतिनिधत्व क़ानून में खामी खोजने के बजाय या अपने क्षेत्राधिकार से इतर अतिक्रमण करने से  सभी को बचना  चाहिए   था  .  संविधान के प्रावधानों  के अनुरूप   आचरण के लिए  राष्ट्रपति को, संसद को और कार्यपालिका को सलाह देने का काम अवश्य ही सुप्रीम कोर्ट  का ही  है और यह  काम बखूबी हो भी  रहा है किन्तु तात्कालिक रिजल्ट के लिए उकताहट में संविधान रुपी  मुर्गी को   हलाल करने की कोई जरुरत नहीं है .इस संदर्भ में यह भी स्मरणीय हैं  की न्याय के मंदिरों  को भी भ्रष्टाचार के  अपावन आचरण से मुक्ति दिलाने का पुनीत कार्य  स्वयम  न्यायपालिका को भी  साथ-साथ करना  चाहिए। लोकतंत्र  के चारों स्तम्भ एक साथ मजबूत होंगे तो ही देश और देश की जनता का कल्याण संभव होगा । अकेले कार्यपालिका या विधायिका को डपटने से क्या होगा?  देश की जनता का मार्गदर्शन  किया जाएगा तो वह स्वागतयोग्य है .
                                                                          देश की  सवा सौ करोड़ आबादी के भाग्य का   फैसला  दो-चार  वेतन भोगी लोग  नहीं कर सकते  भले ही वे कितने ही ईमानदार और विद्द्वान न्यायधीश ही  क्यों न  हों . लोकतंत्र में तो  देश की जनता ही प्रकारांतर से 'संसद' के रूप में  अपने हित संरक्षण के लिए उत्तरदायी है . संसद का  चुनाव लिखत-पढ़त  में तो  जनता ही  करती है और जब किसी के पाप का घड़ा ज्यादा भर जाता है तो उसे भी जागरूक जनता  निपटा भी देती है. देश के सामने सबसे महत्वपूर्ण कार्य  आज यही है कि  लोगों को जाति ,धर्म और क्षेत्रीयता से परे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में शोषण विहीन भारत के निर्माण की ताकतों को एकजुट किया जाए . लोग केवल अद्धिकारों के  लिए ही  नहीं बल्कि अपने हिस्से की जिम्मेदारी को भी  जापानियों चीनियों  के बराबर न सही कम से कम पाकिस्तानियों के समकक्ष तो स्थापित करने के लिए जागरूक हों  !     प्राय : देखा गया है कि  भारतीय  जनता   के कुछ   असंतुष्ट   हिस्से-  कभी नक्सलवाद के बहाने , कभी साम्प्रदायिक नजरिये के बहाने , कभी अपने काल्पनिक स्वर्णिम सामन्ती अतीत के बहाने ' कभी आरक्षण के बहाने, कभी अलग राज्य की मांग के बहाने और कभी देश की संपदा में लूट की हिस्सेदारी के बहाने -भारत के संविधान '  पर  हल्ला बोलते रहते हैं  ऐसें  तत्व  स्वयम तो लोकतंत्र की मुख्य  धारा से दूर  हैं ही  किन्तु जब संविधान पर आक्रमण होता है तो ये बड़े खुश होते हैं .  जैसे कोई मंदबुद्धि अपने ही घर को जलता  हुआ देखकर खुश होता है .  प्राय : देखा गया है कि सुप्रीम कोर्ट ,हाई कोर्ट या कोई भी कोर्ट  जब  कभी  कोई ऐंसा जजमेंट  देता  है  जो मुख्य धारा के  राजनीतिज्ञों ,राजनैतिक दलों  या लोकतंत्र के किसी गैर न्यायिक स्तम्भ को  खास तौर से सरकार  या  कार्यपालिका को परेशानी में डालने वाला हो तो यह 'असामाजिक वर्ग' वैसे ही उमंग में  आकर ख़ुशी  मनाता  है जैसे किसी  फ़िल्मी हीरो द्वारा खलनायक की पिटाई से कोई  दर्शक खुश होता है … ! वे व्यवस्था परिवर्तन के लिए किसी भगतसिंह के जन्म लेने का इंतज़ार करते हैं और चाहते  हैं की वो पैदा तो हो किन्तु  उनके घर में नहीं पड़ोसी के घर में जन्म ले ….


           श्रीराम तिवारी

                                     
                                           
                                           
 

1 टिप्पणी:

  1. jab-jab sarsfat par sararat bhari pari, nyayik prakriya ne apana uttardayitv ka nirvhan kiya aur ise न्यायिक अधिनायकवाद kaha gaya.

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