विचारों और भावों को प्रकट करने वाले मानवीय ध्वनि संकेतों को 'भाषा ' कहते हैं . दूसरे शब्दों में भाषा की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है कि "जिस साधन या माध्यम के द्वारा मानव जाति अपने भावों और विचारों को बोलकर-लिखकर प्रकट करती है उसे भाषा कहते हैं "मानव -समाज जब प्रारम्भिक अवस्था में था तब वह इशारों से या अपनी आदिम और अनगढ़ भाषा से काम चला लेता था . किन्तु मानवीय सभ्यताओं के परवान चढने पर विभिन्न भाषाओँ ने भी अपने मौखिक स्तर को लिखित रूप प्रदान किया . मौखिक ध्वनियों को लिखकर प्रकट करने के लिए जो चिन्ह या प्रतीक सुनिश्चित किये गए ,उन्हें ही लिपि कहते हैं .
संसार में अनेक भाषाओँ का उदय अस्त हुआ ,उनकी लिपियाँ तक खो चुकी हैं . किन्तु जो भाषाएँ अभी भी विद्यमान हैं उनमें 'हिन्दी 'भी एक महत्वपूर्ण भाषा है . प्रत्येक भाषा की अपनी-अपनी एक लिपि होती है 'हिन्दी और संस्कृत ' भाषाएँ जिस लिपि में लिखी जाती हैं उसे 'देवनागरी' लिपि कहते हैं . इसी तरह पंजाबी भाषा गुरुमुखी लिपि में ,उर्दू भाषा अरबी- फ़ारसी लिपि में और अंग्रेजी भाषा रोमन लिपि में लिखी जाती है . भारतीय -यूरोपीय भाषा परिवार विश्व में विशालतम भाषा परिवार है . भारत की महान भाषा संस्कृत ,जिसे देववाणी भी कहा जाता है ,का सम्बन्ध इसी 'भारोपीय'[इन्डोयुरोपियन ]भाषा परिवार से है . हिन्दी की 'जननी' भी संस्कृत ही है . इस प्रकार हिन्दी का सम्बन्ध भी प्रकारांतर से 'भारोपीय' या भारत-यूरोपीय भाषा परिवार से है . हिंदी के अतिरिक्त सिन्धी ,पंजाबी ,कश्मीरी ,गुजराती ,मराठी ,उड़िया, असमियाँ , बँगला,आदि क्षेत्रीय भाषायें भी इसी भारोपीय परिवार की सदस्य हैं .
'भारोपीय भाषा परिवार' की भारतीय शाखा को" भारतीय आर्य -भाषा -शाखा " भी कहा जाता है . इस शाखा का प्राचीनतम रूप 'वैदिक संस्कृत' है . इससे ही हिन्दी भाषा का जन्म हुआ है . इस वैदिक संस्कृत से सर्वप्रथम
लौकिक संस्कृत का जन्म हुआ था . लौकिक संस्कृत में रामायण महाभारत जैसी 'महाकाव्य' रचे गए . पाणिनि ने व्याकरण शास्त्र का सृजन किया था . बाल्मीकि ,वेद -व्यास ,वशिष्ठ ,भृगु और कालिदास जैसे प्रभ्रत कवियों ने परिनिष्ठित संस्कृत में विराट साहित्य सृजन किया है . कालांतर में इसी से पाली-प्राकृत भाषाओँ का जन्म हुआ और लगभग एक हजार साल पहले से प्राकृत भाषा का अपभ्रंस में रूपान्तरण होने लगा था इस विकाश क्रम में दक्षिण की द्रविड़ परिवार की -तमिल ,तेलगु,मलयालम तथा कन्नड़ को छोड़कर शेष सभी भारतीय भाषाओँ का विकाश अपभ्रंश से ही हुआ है . हिन्दी का अपना एक विशाल अनुशीलन क्षेत्र है ,यह उत्तर भारत के विशाल भूभाग के अलावा मारिशस ,सूरीनाम ,फ़िजी ,गुयाना और नेपाल में भी बोली -लिखी जाती है . चौदह सितम्बर -1949 को भारत की संविधान सभा ने हिन्दी भाषा को भारत संघ की 'राजभाषा ' के रूप में मान्यता प्रदान की है .संविधान के अनुच्छेद -343 के अनुसार भारत संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी है .
इसके अलावा हिन्दी इन राज्यों की भी राजभाषा है :-उत्तर प्रदेश ,बिहार ,मध्यप्रदेश ,राजस्थान, हरियाणा हिमांचल, ,उत्तराखंड,झारखंड ,दिल्ली और सभी केन्द्र्शाषित प्रदेशों में हिन्दी राजभाषा है . पंजाब,गुजरात ,महाराष्ट्र और असम ने द्वतीय भाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता दी हैं . दुनिया में हाली वुड के बाद सबसे बड़ा फिल्म संसार हिन्दी का ही है. भाषा व्याकरण ,संगीत ,साहित्य से समृद्ध हिन्दी भाषा -वर्तमान दौर के भूमंडलीकरण में सार्थक अभिव्यक्ति के लिए दुनिया में बेजोड़ है .हिन्दी अब केवल राजनीती ,धर्म -अध्यात्म या काव्य सृजन का माध्यम ही नहीं बल्कि बाज़ार का सबसे शसक्त माध्यम भी बन चुकी है . चूँकि दुनिया के बहुराष्ट्रीय निगमों या कम्पनियों के उत्पादों को खपाने के लिए भारत एक विशाल बाज़ार हैऔर उस विशाल बाज़ार की भाषा चलताऊ हिन्दी है इसलिए वतमान दौर के हिन्दी लेखक , कवि ,साहित्यकार अब हिन्दी के शुद्ध स्वरूप को बचाने के लिए चिंतित हैं . कुछ लोग वर्तमान दौर की मुम्बैया या 'मुन्ना भाई एम् बी बी एस ' वाली हिदी से नाखुश हैं . किन्तु जमीनी हकीकत यही है कि जिस तरह नदियाँ अपनाअपना अनगढ़ रास्ता तो खुद बनाती हैं किन्तु 'जनकल्याण' के अनुरूप यदि उसका रास्ता मोड़ना ही है तो कोई 'भागीरथ' तो होना ही चाहिए . वैसे तो हिन्दी भाषा का वेग सतत प्रवाहमान है किन्तु वैश्विक चुनौतियों से देश की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आम आदमी को मुख्य धारा से जोड़ना लाजिमी है और इसके लिए सर्व सुलभ -सर्व संगेय हिन्दी के विस्तार का पुरजोर प्रयास किया जाना चाहिए .
आम तौर पर विश्व में किसी भी भाषाई लेखक के लिए अपनी स्वयम की मातृभाषा के विमर्श पर कुछ भी लिखना गर्व की बात है , बिलकुल देशभक्तिपूर्ण काव्य सृजन की तरह . किन्तु भारत में किसी भी भाषा के उत्थान-पतन या उसके राष्ट्रीय सरोकारों के बरक्स लिखना , बिलकुल तलवार की धार पर चलने जैसा है .राष्ट्रभाषा हिन्दी के सम्बन्ध में तो इस पर कोई दो राय भी नहीं हो सकती . कोई भी हिन्दी भाषी लेखक अपने लेखन में यदि समसामयिक भाषाई दुर्गति पर अरण्यरोदन करते हुए सच का सामना करता है तो क्षेत्रीय भाषा- भाषियों और समकालीन प्रगतिशील स्वभाषियों का भी कोपभाजन बन जाता है और यदि भाषा के अनुशाशन को ताक पर रखकर कोई कवि -लेखक या रचनाकार भाषाई और साहित्यिक उदारता से ओत-प्रोत-आधुनिकतावादी हिन्दी साहित्य का सृजन करता है तो परम्परावादियों की नज़र में पथभ्रष्ट माना जाता है. वस्तुतः हिन्दी को भी हिन्दुस्तान की तरह अन्दर बाहर से खतरा है और इसी वजह से वर्तमान युग में राष्ट्रीय चिंताओं के केंद्र में हिन्दी भी समाहित है .जब दुनिया के तमाम देश अपनी-अपनी भाषाई शुद्धता के आग्रह के वावजूद 'आधुनिक वैश्वीकरण ' के हमराह हैं तो भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्र को भी इस भूमंडलीकरण के दौर से भाषाई समझौता करने या सरेंडर होने की जरुरत नहीं है .
बर्षों बीत गए जब तत्कालीन विदेशमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने 'संयुक राष्ट्र संघ ' के मंच से हिंदी में भाषण दिया था . तब न केवल हिन्दी भाषी भारतीयों को बल्कि उर्दू समेत तमाम क्षेत्रीय भाषा भाषियों को अपनी 'राष्ट्रभाषा' के गौरव का अहसास हुआ था . यह अत्यंत कारुणिक [उर्दू में दर्दनाक] स्थति है कि हिन्दी को संयुक राष्ट्र संघ की भाषाओँ में अभी तक स्थान नहीं मिला . न केवल संयुक राष्ट्र संघ में न केवल भारतीय प्रशाशनिक सेवाओं में ,न केवल एलीट क्लास याने सभ्रांत वर्ग के लिए स्थापित किये जा रहे नए-नए अधुनातन शिक्षा संस्थानों में , न केवल न्याय पालिका और लोकतांत्रिक संस्थाओं में बल्कि साइंस- टेक्नालोजी और अन्तरिक्ष अनुसंधान क्षेत्र में हिन्दी आज केवल "नामपट्ट' की वैकल्पिक भाषा मात्र बन चुकी है . ईसाई मिशनरीज द्वारा संचालित या शोषक शासक वर्ग के निमित्त स्थापित अत्यंत वैभवशाली शिक्षा संस्थानों में 'हिन्दी में बात करना मना है '.आजादी के ६६ साल बाद भी देश के समस्त महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज और भारतीय संविधान का 'अंग्रेजी' वर्जन ही मान्य किया जाता है . इन तमाम विसंगतियों के वावजूद हिन्दी दुनिया के सर चढ़कर बोल रही है तो उसके लिए ठीक हिन्दुस्तान की तरह लिया जाना चाहिए कि -;
कुछ बात है ऐंसी कि हस्ती मिटती नहीं हमारी , सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा … !
खुदा 'अल्लामा इकबाल साब ' को नेमत और जन्नत दोनों प्रदान करे . उन्होंने ही पहली बार फारसी लिपि और उर्दू जुबान में फरमाया था -;
हिन्दी हैं हम ,वतन हैं हम , ये हिन्दोस्ताँ हमारा …
आज की बोलचाल की भाषा में बच्चे पैरोडी यों किया करते हैं -:
" हिन्दी को मिटा सके ये जमाने में दम नहीं , ज़माना हिन्दी से है ,हिंदी जमाने से नहीं "….
ये गलत नहीं है . अभी पिछले महीने की बात है चीनी सैनिक भारतीय सीमा के अन्दर घुस आये थे . उनके हाथों में बड़े -बड़े लाल-लाल बैनर थे जिन पर शुद्ध हिन्दी और देवनागरी लिपि में लिखा था " आप चीन की सीमा में हैं , कृपया यहाँ से चले जाएँ ,धन्यवाद " भारतीय फौजियों को तब और ज्यादा अचरज हुआ जब उन चीनी सेनिकों ने बाकायदा" शुद्ध हिन्दी " में न केवल भारतीय सेनिकों को गालियाँ दीं बल्कि खून-खराबे की चेतावनी भी उन्होंने हिन्दी में ही दी . ऐंसा तो हो नहीं सकता कि चीनी सैनिक अपनी स्वयम की चीनी भाषा न जानते हों . ये भी नहीं हो सकता कि अंग्रेजी न जानते हों. क्योंकि सीमाओं पर जब दोनों पक्षों में सुलह सफाई की बात आती है तो 'अंतर्राष्ट्रीय संपर्क भाषा 'के रूप में अंग्रेजी का ही प्रयोग अधिकांस्त : किया जाता है .तात्पर्य ये कि पूरा चीन याने डेड़ अरब नर-नारी चीनी भाषा तो जानते ही हैं किन्तु जिन्हें भारत की सीमा पर तैनात करते हैं उन्हें हिन्दी जरुर सिखाते हैं . जिन्हें जापान की सीमा पर भेजते हैं उन्हें जापानी जरुर सिखाते हैं और जिन्हें रूस की सीमा पर भेजते हैं उन्हें रूसी जरुर आती होगी . अंग्रेजी का जानना तो दुनिया भर में आवश्यक है ही . भारत की भाषाई स्थति 'तदर्थवाद' से प्रेरित है . जब आग लगी तो कुआँ खोदना शुरू कर दिया . सीमाओं पर जो हमारे प्रहरी हैं उनके भाषाई ज्ञान के बारे में कुछ भी कहना उचित नहीं होगा . किन्तु देश की सीमाओं के अन्दर भी तो भाषाई चेतना अत्यंत सोचनीय है . न केवल गैर हिन्दी भाषी प्रान्तों में बल्कि 'हिन्दी बेल्ट' में भी भाषाई उपेक्षा की सबसे ज्यादा शिकार कोई है तो वो है भारत की राष्ट्रभाषा याने हिन्दी।
अपनी सरकारी नौकरी के दरम्यान मेरा स्थानान्तरण होता रहता था . एक बार विशुद्ध हिन्दी भाषी क्षेत्र-बुंदेलखंड -सागर से अर्ध हिन्दी भाषी क्षेत्र मालवा -इंदौर स्थानांतरित होकर आना हुआ. जिस आफिस में ज्वाइन किया वहाँ का सबसे बड़ा अफसर सरदार था और आधी हिन्दी आधी पंजाबी बोलता था . उसके बाद वाला अफसर बंगाली था वो अस्सी प्रतिशत बँगला और दस-दस प्रतिशत हिन्दी-अंग्रेजी की खिचड़ी में बात करता था ,अधीनस्थ बाबू वर्ग का बहुमत था और वे सब आपस में शुद्ध मराठी बोलते थे . मेरे जैसे हिन्दी भाषी से वे या तो बात ही नहीं करते थे या फिर बिगड़ी हुई हिन्दी में बात करते थे . वे दूध को 'दूध' जीवन को जिवन और शुभ को सूभ लिखते थे .मेरी संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली को सुनकर वे मेरे सभी सहकर्मी व्यंग से मुस्कराकर शीश नवाते थे. "कहते थे जय हो पंडित जी की "… ! और इसी भाषाई विद्वत्ता की गफलत में मैं उनका नेता बन बैठा . लगभग पचास के स्टाफ में , मैं अकेला हिन्दी भाषी था. मात्र एक अदद सफाई कर्मचारीथा जो मालवी बोलता था औरएक गेट मेनथा जो नेपाली बोलता था . ये सभी लोग हालाँकि हिन्दी अच्छी तरह से जानते थे किन्तु आपस में अपनी क्षेत्रीय भाषा का ही इस्तेमाल किया करते थे. चूँकि विभाग का सारा काम अंग्रेजी में हुआ करता था .अतएव कार्य के दौरान तो कोई परेशानी मुझे नहीं हुई किन्तु अपने उद्गारों की अभिव्यक्ति के लिए मैं लगभग तरस जाया करता था मैं हिन्दी और टूटी फूटी अंग्रेजी के अलावा और कोई भाषा नहीं जानता था किन्तु 'राष्ट्रभाषा ' के प्रति मेरे विनम्र आग्रह और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ के साहित्यिक विमर्श में रूचि लेने से उन सभी को न केवल हिन्दी बोलने अपितु लिखने-पढने के लिए भी विवश कर दिया। राष्ट्रीय और सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का बेहतरीन सिलसिला चल पड़ा . जो अब भी अबाध रूप से जारी है . तात्पर्य ये कि यदि हम हिन्दी भाषी लोग अपने देश की अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में रूचि लें ,बढ़ावा दें तो इन अल्पसंख्यक क्षेत्रीय भाषा-भाषियों का 'हिन्दी -भय' समाप्त हो सकता है और हिन्दी को उसका उचित राष्ट्रीय - राजभाषा या राष्ट्रभाषा का सम्मान अवश्य मिले पायेगा . सरकारी हिन्दी नीति और उसके कार्यान्वन तो भृष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं . हांडी के एक चावल के रूप में प्रस्तुत है एक निजी अनुभव-;
मुझे विशुद्ध हिन्दी भाषी शहर के एक केन्द्रीय कार्यालय का पूर्ण रूपेण[?] हिन्दी करण करने के सरकारी प्रयाशों की विसंगति देखने का अवसर मिला . एक विचित्र विडम्बना देखने को मिली . सरकार की ओर से एक हिन्दी अधिकारी महोदया नियुक्त थीं . यद्द्य्पि उनकी मातृभाषा सिन्धी थी ,उनके कोई रिश्तेदार दिल्ली में बड़े अफसर थे सो 'जेक' लगवाकर वे भी हिन्दी अधिकारीबन गईं , वे कभी-कभार ग्यारह बजे आफिस आती थी और लंच के बाद घर चली जातीं थी. साल में रक बार १४-सितम्बर को हिन्दी दिवस का आयोजन अवश्य हुआ करता था . उनके पुर्व और पश्चात् भी पदस्थ कर्मचारियों का यही हाल रहा था . मैं अपनी ३७ साल की सर्विस लाइफ़ में ये नहीं समझ पाया कि ये हिन्दी अधिकारी जो लगभग एक लाख रुपया महिना वेतन लेते हैं वो हिन्दी विकाश के लिए काम क्या करते हैं ? देश के तमाम केन्द्रीय कार्यालयों ,सार्वजनिक उपक्रमों ,शिक्षा संस्थानों , अकादमिक संस्थानों और एनजीओ के मार्फ़त हिन्दी भाषा प्रसार के नाम पर , हर साल सरकारी कोष से अरबों-खरबों रुपया बर्बाद किया जाता है , जबकि देश की अधिसंख्य जनता की आजीविका और बाज़ार की आवश्यकता ने हिन्दी को आज मजबूत स्थति में स्व्यम्वेव खड़ा कर दिया है . जरुरत सिर्फ इतनी ही है कि हिन्दी भाषा के 'सौन्दर्य और मूल्यों ' को सुरक्षित बनाए रखा जाए . देश की सुरक्षा को हिन्दी भाषा की सुरक्षा के साथ समेकित किया जाये .
श्रीराम तिवारी
संसार में अनेक भाषाओँ का उदय अस्त हुआ ,उनकी लिपियाँ तक खो चुकी हैं . किन्तु जो भाषाएँ अभी भी विद्यमान हैं उनमें 'हिन्दी 'भी एक महत्वपूर्ण भाषा है . प्रत्येक भाषा की अपनी-अपनी एक लिपि होती है 'हिन्दी और संस्कृत ' भाषाएँ जिस लिपि में लिखी जाती हैं उसे 'देवनागरी' लिपि कहते हैं . इसी तरह पंजाबी भाषा गुरुमुखी लिपि में ,उर्दू भाषा अरबी- फ़ारसी लिपि में और अंग्रेजी भाषा रोमन लिपि में लिखी जाती है . भारतीय -यूरोपीय भाषा परिवार विश्व में विशालतम भाषा परिवार है . भारत की महान भाषा संस्कृत ,जिसे देववाणी भी कहा जाता है ,का सम्बन्ध इसी 'भारोपीय'[इन्डोयुरोपियन ]भाषा परिवार से है . हिन्दी की 'जननी' भी संस्कृत ही है . इस प्रकार हिन्दी का सम्बन्ध भी प्रकारांतर से 'भारोपीय' या भारत-यूरोपीय भाषा परिवार से है . हिंदी के अतिरिक्त सिन्धी ,पंजाबी ,कश्मीरी ,गुजराती ,मराठी ,उड़िया, असमियाँ , बँगला,आदि क्षेत्रीय भाषायें भी इसी भारोपीय परिवार की सदस्य हैं .
'भारोपीय भाषा परिवार' की भारतीय शाखा को" भारतीय आर्य -भाषा -शाखा " भी कहा जाता है . इस शाखा का प्राचीनतम रूप 'वैदिक संस्कृत' है . इससे ही हिन्दी भाषा का जन्म हुआ है . इस वैदिक संस्कृत से सर्वप्रथम
लौकिक संस्कृत का जन्म हुआ था . लौकिक संस्कृत में रामायण महाभारत जैसी 'महाकाव्य' रचे गए . पाणिनि ने व्याकरण शास्त्र का सृजन किया था . बाल्मीकि ,वेद -व्यास ,वशिष्ठ ,भृगु और कालिदास जैसे प्रभ्रत कवियों ने परिनिष्ठित संस्कृत में विराट साहित्य सृजन किया है . कालांतर में इसी से पाली-प्राकृत भाषाओँ का जन्म हुआ और लगभग एक हजार साल पहले से प्राकृत भाषा का अपभ्रंस में रूपान्तरण होने लगा था इस विकाश क्रम में दक्षिण की द्रविड़ परिवार की -तमिल ,तेलगु,मलयालम तथा कन्नड़ को छोड़कर शेष सभी भारतीय भाषाओँ का विकाश अपभ्रंश से ही हुआ है . हिन्दी का अपना एक विशाल अनुशीलन क्षेत्र है ,यह उत्तर भारत के विशाल भूभाग के अलावा मारिशस ,सूरीनाम ,फ़िजी ,गुयाना और नेपाल में भी बोली -लिखी जाती है . चौदह सितम्बर -1949 को भारत की संविधान सभा ने हिन्दी भाषा को भारत संघ की 'राजभाषा ' के रूप में मान्यता प्रदान की है .संविधान के अनुच्छेद -343 के अनुसार भारत संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी है .
इसके अलावा हिन्दी इन राज्यों की भी राजभाषा है :-उत्तर प्रदेश ,बिहार ,मध्यप्रदेश ,राजस्थान, हरियाणा हिमांचल, ,उत्तराखंड,झारखंड ,दिल्ली और सभी केन्द्र्शाषित प्रदेशों में हिन्दी राजभाषा है . पंजाब,गुजरात ,महाराष्ट्र और असम ने द्वतीय भाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता दी हैं . दुनिया में हाली वुड के बाद सबसे बड़ा फिल्म संसार हिन्दी का ही है. भाषा व्याकरण ,संगीत ,साहित्य से समृद्ध हिन्दी भाषा -वर्तमान दौर के भूमंडलीकरण में सार्थक अभिव्यक्ति के लिए दुनिया में बेजोड़ है .हिन्दी अब केवल राजनीती ,धर्म -अध्यात्म या काव्य सृजन का माध्यम ही नहीं बल्कि बाज़ार का सबसे शसक्त माध्यम भी बन चुकी है . चूँकि दुनिया के बहुराष्ट्रीय निगमों या कम्पनियों के उत्पादों को खपाने के लिए भारत एक विशाल बाज़ार हैऔर उस विशाल बाज़ार की भाषा चलताऊ हिन्दी है इसलिए वतमान दौर के हिन्दी लेखक , कवि ,साहित्यकार अब हिन्दी के शुद्ध स्वरूप को बचाने के लिए चिंतित हैं . कुछ लोग वर्तमान दौर की मुम्बैया या 'मुन्ना भाई एम् बी बी एस ' वाली हिदी से नाखुश हैं . किन्तु जमीनी हकीकत यही है कि जिस तरह नदियाँ अपनाअपना अनगढ़ रास्ता तो खुद बनाती हैं किन्तु 'जनकल्याण' के अनुरूप यदि उसका रास्ता मोड़ना ही है तो कोई 'भागीरथ' तो होना ही चाहिए . वैसे तो हिन्दी भाषा का वेग सतत प्रवाहमान है किन्तु वैश्विक चुनौतियों से देश की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आम आदमी को मुख्य धारा से जोड़ना लाजिमी है और इसके लिए सर्व सुलभ -सर्व संगेय हिन्दी के विस्तार का पुरजोर प्रयास किया जाना चाहिए .
आम तौर पर विश्व में किसी भी भाषाई लेखक के लिए अपनी स्वयम की मातृभाषा के विमर्श पर कुछ भी लिखना गर्व की बात है , बिलकुल देशभक्तिपूर्ण काव्य सृजन की तरह . किन्तु भारत में किसी भी भाषा के उत्थान-पतन या उसके राष्ट्रीय सरोकारों के बरक्स लिखना , बिलकुल तलवार की धार पर चलने जैसा है .राष्ट्रभाषा हिन्दी के सम्बन्ध में तो इस पर कोई दो राय भी नहीं हो सकती . कोई भी हिन्दी भाषी लेखक अपने लेखन में यदि समसामयिक भाषाई दुर्गति पर अरण्यरोदन करते हुए सच का सामना करता है तो क्षेत्रीय भाषा- भाषियों और समकालीन प्रगतिशील स्वभाषियों का भी कोपभाजन बन जाता है और यदि भाषा के अनुशाशन को ताक पर रखकर कोई कवि -लेखक या रचनाकार भाषाई और साहित्यिक उदारता से ओत-प्रोत-आधुनिकतावादी हिन्दी साहित्य का सृजन करता है तो परम्परावादियों की नज़र में पथभ्रष्ट माना जाता है. वस्तुतः हिन्दी को भी हिन्दुस्तान की तरह अन्दर बाहर से खतरा है और इसी वजह से वर्तमान युग में राष्ट्रीय चिंताओं के केंद्र में हिन्दी भी समाहित है .जब दुनिया के तमाम देश अपनी-अपनी भाषाई शुद्धता के आग्रह के वावजूद 'आधुनिक वैश्वीकरण ' के हमराह हैं तो भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्र को भी इस भूमंडलीकरण के दौर से भाषाई समझौता करने या सरेंडर होने की जरुरत नहीं है .
बर्षों बीत गए जब तत्कालीन विदेशमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने 'संयुक राष्ट्र संघ ' के मंच से हिंदी में भाषण दिया था . तब न केवल हिन्दी भाषी भारतीयों को बल्कि उर्दू समेत तमाम क्षेत्रीय भाषा भाषियों को अपनी 'राष्ट्रभाषा' के गौरव का अहसास हुआ था . यह अत्यंत कारुणिक [उर्दू में दर्दनाक] स्थति है कि हिन्दी को संयुक राष्ट्र संघ की भाषाओँ में अभी तक स्थान नहीं मिला . न केवल संयुक राष्ट्र संघ में न केवल भारतीय प्रशाशनिक सेवाओं में ,न केवल एलीट क्लास याने सभ्रांत वर्ग के लिए स्थापित किये जा रहे नए-नए अधुनातन शिक्षा संस्थानों में , न केवल न्याय पालिका और लोकतांत्रिक संस्थाओं में बल्कि साइंस- टेक्नालोजी और अन्तरिक्ष अनुसंधान क्षेत्र में हिन्दी आज केवल "नामपट्ट' की वैकल्पिक भाषा मात्र बन चुकी है . ईसाई मिशनरीज द्वारा संचालित या शोषक शासक वर्ग के निमित्त स्थापित अत्यंत वैभवशाली शिक्षा संस्थानों में 'हिन्दी में बात करना मना है '.आजादी के ६६ साल बाद भी देश के समस्त महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज और भारतीय संविधान का 'अंग्रेजी' वर्जन ही मान्य किया जाता है . इन तमाम विसंगतियों के वावजूद हिन्दी दुनिया के सर चढ़कर बोल रही है तो उसके लिए ठीक हिन्दुस्तान की तरह लिया जाना चाहिए कि -;
कुछ बात है ऐंसी कि हस्ती मिटती नहीं हमारी , सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा … !
खुदा 'अल्लामा इकबाल साब ' को नेमत और जन्नत दोनों प्रदान करे . उन्होंने ही पहली बार फारसी लिपि और उर्दू जुबान में फरमाया था -;
हिन्दी हैं हम ,वतन हैं हम , ये हिन्दोस्ताँ हमारा …
आज की बोलचाल की भाषा में बच्चे पैरोडी यों किया करते हैं -:
" हिन्दी को मिटा सके ये जमाने में दम नहीं , ज़माना हिन्दी से है ,हिंदी जमाने से नहीं "….
ये गलत नहीं है . अभी पिछले महीने की बात है चीनी सैनिक भारतीय सीमा के अन्दर घुस आये थे . उनके हाथों में बड़े -बड़े लाल-लाल बैनर थे जिन पर शुद्ध हिन्दी और देवनागरी लिपि में लिखा था " आप चीन की सीमा में हैं , कृपया यहाँ से चले जाएँ ,धन्यवाद " भारतीय फौजियों को तब और ज्यादा अचरज हुआ जब उन चीनी सेनिकों ने बाकायदा" शुद्ध हिन्दी " में न केवल भारतीय सेनिकों को गालियाँ दीं बल्कि खून-खराबे की चेतावनी भी उन्होंने हिन्दी में ही दी . ऐंसा तो हो नहीं सकता कि चीनी सैनिक अपनी स्वयम की चीनी भाषा न जानते हों . ये भी नहीं हो सकता कि अंग्रेजी न जानते हों. क्योंकि सीमाओं पर जब दोनों पक्षों में सुलह सफाई की बात आती है तो 'अंतर्राष्ट्रीय संपर्क भाषा 'के रूप में अंग्रेजी का ही प्रयोग अधिकांस्त : किया जाता है .तात्पर्य ये कि पूरा चीन याने डेड़ अरब नर-नारी चीनी भाषा तो जानते ही हैं किन्तु जिन्हें भारत की सीमा पर तैनात करते हैं उन्हें हिन्दी जरुर सिखाते हैं . जिन्हें जापान की सीमा पर भेजते हैं उन्हें जापानी जरुर सिखाते हैं और जिन्हें रूस की सीमा पर भेजते हैं उन्हें रूसी जरुर आती होगी . अंग्रेजी का जानना तो दुनिया भर में आवश्यक है ही . भारत की भाषाई स्थति 'तदर्थवाद' से प्रेरित है . जब आग लगी तो कुआँ खोदना शुरू कर दिया . सीमाओं पर जो हमारे प्रहरी हैं उनके भाषाई ज्ञान के बारे में कुछ भी कहना उचित नहीं होगा . किन्तु देश की सीमाओं के अन्दर भी तो भाषाई चेतना अत्यंत सोचनीय है . न केवल गैर हिन्दी भाषी प्रान्तों में बल्कि 'हिन्दी बेल्ट' में भी भाषाई उपेक्षा की सबसे ज्यादा शिकार कोई है तो वो है भारत की राष्ट्रभाषा याने हिन्दी।
अपनी सरकारी नौकरी के दरम्यान मेरा स्थानान्तरण होता रहता था . एक बार विशुद्ध हिन्दी भाषी क्षेत्र-बुंदेलखंड -सागर से अर्ध हिन्दी भाषी क्षेत्र मालवा -इंदौर स्थानांतरित होकर आना हुआ. जिस आफिस में ज्वाइन किया वहाँ का सबसे बड़ा अफसर सरदार था और आधी हिन्दी आधी पंजाबी बोलता था . उसके बाद वाला अफसर बंगाली था वो अस्सी प्रतिशत बँगला और दस-दस प्रतिशत हिन्दी-अंग्रेजी की खिचड़ी में बात करता था ,अधीनस्थ बाबू वर्ग का बहुमत था और वे सब आपस में शुद्ध मराठी बोलते थे . मेरे जैसे हिन्दी भाषी से वे या तो बात ही नहीं करते थे या फिर बिगड़ी हुई हिन्दी में बात करते थे . वे दूध को 'दूध' जीवन को जिवन और शुभ को सूभ लिखते थे .मेरी संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली को सुनकर वे मेरे सभी सहकर्मी व्यंग से मुस्कराकर शीश नवाते थे. "कहते थे जय हो पंडित जी की "… ! और इसी भाषाई विद्वत्ता की गफलत में मैं उनका नेता बन बैठा . लगभग पचास के स्टाफ में , मैं अकेला हिन्दी भाषी था. मात्र एक अदद सफाई कर्मचारीथा जो मालवी बोलता था औरएक गेट मेनथा जो नेपाली बोलता था . ये सभी लोग हालाँकि हिन्दी अच्छी तरह से जानते थे किन्तु आपस में अपनी क्षेत्रीय भाषा का ही इस्तेमाल किया करते थे. चूँकि विभाग का सारा काम अंग्रेजी में हुआ करता था .अतएव कार्य के दौरान तो कोई परेशानी मुझे नहीं हुई किन्तु अपने उद्गारों की अभिव्यक्ति के लिए मैं लगभग तरस जाया करता था मैं हिन्दी और टूटी फूटी अंग्रेजी के अलावा और कोई भाषा नहीं जानता था किन्तु 'राष्ट्रभाषा ' के प्रति मेरे विनम्र आग्रह और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ के साहित्यिक विमर्श में रूचि लेने से उन सभी को न केवल हिन्दी बोलने अपितु लिखने-पढने के लिए भी विवश कर दिया। राष्ट्रीय और सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का बेहतरीन सिलसिला चल पड़ा . जो अब भी अबाध रूप से जारी है . तात्पर्य ये कि यदि हम हिन्दी भाषी लोग अपने देश की अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में रूचि लें ,बढ़ावा दें तो इन अल्पसंख्यक क्षेत्रीय भाषा-भाषियों का 'हिन्दी -भय' समाप्त हो सकता है और हिन्दी को उसका उचित राष्ट्रीय - राजभाषा या राष्ट्रभाषा का सम्मान अवश्य मिले पायेगा . सरकारी हिन्दी नीति और उसके कार्यान्वन तो भृष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं . हांडी के एक चावल के रूप में प्रस्तुत है एक निजी अनुभव-;
मुझे विशुद्ध हिन्दी भाषी शहर के एक केन्द्रीय कार्यालय का पूर्ण रूपेण[?] हिन्दी करण करने के सरकारी प्रयाशों की विसंगति देखने का अवसर मिला . एक विचित्र विडम्बना देखने को मिली . सरकार की ओर से एक हिन्दी अधिकारी महोदया नियुक्त थीं . यद्द्य्पि उनकी मातृभाषा सिन्धी थी ,उनके कोई रिश्तेदार दिल्ली में बड़े अफसर थे सो 'जेक' लगवाकर वे भी हिन्दी अधिकारीबन गईं , वे कभी-कभार ग्यारह बजे आफिस आती थी और लंच के बाद घर चली जातीं थी. साल में रक बार १४-सितम्बर को हिन्दी दिवस का आयोजन अवश्य हुआ करता था . उनके पुर्व और पश्चात् भी पदस्थ कर्मचारियों का यही हाल रहा था . मैं अपनी ३७ साल की सर्विस लाइफ़ में ये नहीं समझ पाया कि ये हिन्दी अधिकारी जो लगभग एक लाख रुपया महिना वेतन लेते हैं वो हिन्दी विकाश के लिए काम क्या करते हैं ? देश के तमाम केन्द्रीय कार्यालयों ,सार्वजनिक उपक्रमों ,शिक्षा संस्थानों , अकादमिक संस्थानों और एनजीओ के मार्फ़त हिन्दी भाषा प्रसार के नाम पर , हर साल सरकारी कोष से अरबों-खरबों रुपया बर्बाद किया जाता है , जबकि देश की अधिसंख्य जनता की आजीविका और बाज़ार की आवश्यकता ने हिन्दी को आज मजबूत स्थति में स्व्यम्वेव खड़ा कर दिया है . जरुरत सिर्फ इतनी ही है कि हिन्दी भाषा के 'सौन्दर्य और मूल्यों ' को सुरक्षित बनाए रखा जाए . देश की सुरक्षा को हिन्दी भाषा की सुरक्षा के साथ समेकित किया जाये .
श्रीराम तिवारी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें