हमारे आदिवासी भाइयों को भड़काया जाता है कि देखो तुम जंगल में भटकते रहते हो, तुम वनोपज पर निर्भर हो और तुम्हारे पिछड़े होने,गरीबी के लिये सवर्ण लोग जिम्मेदार हैं! शायद इसीलिये मध्यप्रदेश में आइंदा 73% आरक्षण दिया जाएगा!
हमारे बुंदेलखंड (एम.पी.) में इसका उल्टा है! दरसल यहां अधिकांश दलित आदिवासी भाई या तो बिड़ी बनाते हैं या कारीगर हैं या शहरों में मजदूरी करते हैं! जबकि सवर्ण गरीब जंगलों से जाकर महुआ बीनते थे! शहरों में कुछ लोग महुआ के फूल को फल समझते हैं! जबकि दरसल महुए के फूल को बीनकर सुखाते हैं और उसके कई उपयोग होते हैं!
सुखाये गये महुए के फूल से ज्यादातर तो शराब ही बनाई जाति है! जबकि महुए के फल को गुली कहते हैं! इससे महुए का तेल बनाया जाता है! गुली धपरा पिराई से तेल के साथ खली भी प्राप्त होती है जो भूसे की सानी में मिलाकर दुधारू गायों भैंसों,बैलों और अन्य पाल्य पशुओं को खिलाई जाती है!
हमारे गाँव में 5 साल की उम्र से लेकर 80 साल की उम्र तक महुआ बीनने वाले,तेंदू पत्ता संग्रह करने वाले अधिकांस सवर्ण आदिवासी हैं! अहिरवार समाज के लोग बीड़ी बनाते हैं, कुछ सरकारी नौकरी में लग गये हैं! मैने स्वयं किशोरवय में गुली धपरा और चारोली (अचार) भी जंगल से बीने हैं! मुझे गर्व है कि किशोर अवस्था समाप्त होते होते, पढ़ाई के साथ साथ मैने ये बनोपज संबंधी और खेत खलिहान मेहनत के सारे काम शिद्दत से किये हैं !
जबकि पढ़ाई में भी मेरा स्थान अक्सर अव्वल ही हुआ करता था! किंतु जो सुख सुविधाएं पिछड़े वर्ग या sc-st को थीं, जैसे कि वे लोग सरकारी छात्रवास में पका पकाया भोजन पाते थे,जबकि मैं या मेरे अन्य सवर्ण बंधुओं के पास ऐंसी कोई सुविधा नही थीं! हम अपने हाथ से गेंह्ू बीनते ,पिसवाते और भोजन के नाम पर दो टिक्कड़ बनाया करते थे!
एक बार हमारे ही इलाके के एक सज्जन जो कि अहिरवार थे, मुझे हरिजन छात्रावास ले गये !वहां मैने देखा कि छात्रावास के कमरों के बाहर एक कोने में पके हुऐ सफेद चावलों का ढेर लगा है! मैने अपने मित्र श्री अहिरवार जी से पूछा कि ये चावल जमीन पर क्यों रखे हैं? वे बोले कि ये तो हम छात्रों की बची हुई जूँठन है!!!
मैने मन ही मन सोचा कि यदि सरकार और सिस्टम ठीक ठाक होते तो विश्वविद्यालय के हरिजन छ्त्रावास का ये आलम नही होता! उन्हें उतना दिया जाता जितना कि वे खा सकें,पचा सकें,और बाकी का उनको देते जो बदकिस्मती से सवर्ण गरीब हैं! किंतु इस देश में आजादी के बाद से अब तक एक ही ढर्रा चलता आ रहा है कि जिनकी फीस माफ,उन्हें ही भोजन फ्री ,पुस्तकें फ्री और अन्न का नुकसान करने का अधिकार अलग!
उधर शहर में हम किराये के कच्चे मकान में रहते थे,हर महिने फीस जुटानी पड़ती थी, उन दिनों गांव में ज्वार मक्का ज्यादा होती थी, किंतु हमें ज्वार की रोटी बनाने में बहुत दिक्कत होती थी,इसलिये गेहूँ जुटाने के लिये ट्यूशन पढ़ाते थे! हमें जिंदा रहने के लिये दो टिक्कड़ मिल जाएं यही बहुत था ! महिनों गुजर जाते थे,जब कभी गांव घर जाते तब कभी तीज त्यौहार पर चावल और दूध के दर्शन हो पाते थे !
मन की इस वेदना को हम कभी उजागर नही करते, किंतु गरीबों की वकालत करने वालों को खरबपति अखिलेश यादव और अरबों की स्वामिनी बहिन मायावती का समर्थन करते देखा,तो मन चीत्कार कर उठा कि क्या यही समाजवाद है? क्या यही आजाद भारत का लोकतंत्र है? यदि हाँ तो इस लोकतंत्र की उम्र ज्यादा नही है !
आजादी के 75 साल बाद भारत में करोड़ों दबंग लोग,जातीय दीदागिरी की ताकत दिखाकर सत्ता के मजे ले रहे हैं! आर्थिक रूप से सम्रद्ध लोगों को आरक्षण और देश के लिये कुर्बानी देने वाली झांसी की रानी तात्या टोपे,चाफेकर बंधु, शहीद चंद्रशेखर आजाद,लोकमान्य तिलक,पंडित रामप्रसाद बिस्मिल और मंगल पांडे जैसे शहीदों को जन्म देने वाली ब्राह्मण जाति के गरीबों को सरकार की ओर से कोई नौकरी नही, कोई आपात्कालीन राहत नही!
चंद मुठ्ठी भर ब्राह्मण भले ही अमेरिका,यूके आस्ट्रेलिया और यूरोप में धूम मचा रहे हों, किंतु बाकी इधर भारत में अधिकांस सवर्ण कंगाल! करोड़ों बेरोजगार,फटेहाल! जो द्वापर में दीन हीन सुदामा थे, वे विप्रजन अब और बदतर हालात में हैं! जय हिंद.जय संविधान! आरक्षण की बलिहारी है...इस मुल्क की बीमारी है!
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