मंगलवार, 19 जुलाई 2016

भारत में 'राष्ट्रवाद' अभी भी शैशव अवस्था में ही है। -Part 11



अधिकांश विद्वानों का मानना है कि 'भारत-राष्ट्र' का उदय १५ अगस्त-१९४७ को  हुआ है .और भारतीय गणतंत्र का जन्म २६ जनवरी -१९५० को हुआ है। यह सच है कि आजादी से पूर्व इस तरह का विधि सम्मत शासन और भौगोलिक  भारत पहले कभी नहीं रहा। चन्द्रगुप्त-चाणक्य ,अशोक, अकबर या अन्य कोई सम्राट या बादशाह इस सकल भारत भूमि और तथाकथित 'अखण्ड भारत' को एकसूत्र में बाँध पाने में कभी  सफल नहीं  हो पाया। उत्तर वैदिक काल के बहुत पहले से ही भारत पर पश्चिम की ओर से संगठित हमले होते रहे हैं। इस भारतीय उपमहाद्वीप पर उन विनाशकारी हमलों का परोक्ष सिलसिला मजहबी आतंकवाद के रूप में अब भी जारी है।  जो लोग एक हजार  साल में भारत को 'दारुल हरब 'नहीं बना पाए ,वे अब मजहबी आतंकवाद के बहाने भारत को अंदर-बाहर से लहूलुहान करने में जुटे  हैं। इस भयावह चुनौती की अनदेखी करके, किसी और मोर्चे पर देश की आवाम और सरकार आगे  बढ़ ही नहीं सकती। इन हालात में वर्किंग क्लास की बाजिब लड़ाई भी कारगर नहीं हो पाती है।

भारत में हर किस्म की मजहबी कट्टरता और आतंकी फितरत से निपटने के लिए,तात्कालिक तौर पर न केवल मजहबी आतंकवाद के हमलों को बल्कि देश के अंदर पल रहे हर किस्म के भृष्टाचार को भारत का दुश्मन नंबर -एक माना जाए। आर्थिक शोषण ,सामाजिक उत्पीड़न को भारतीय 'राष्ट्रवाद' पर हमला माना जाए। इसके साथ-साथ प्रत्येक भारतीय को 'धर्मनिरपेक्ष  भारत' की छवि केअनुरूप 'राष्ट्रवाद' की चेतना से लेस किया जाए । यह महान कार्य  कुछ हद तक भारत का सर्वोच्च न्यायालय और भारत का हिन्दी मीडिया कुशलतापूर्वक कर भी रहा है। जिन्हे बाकई मुल्क की चिंता है वे भी अपने-अपने हिस्से की आहुति प्रदान करेंगे तो भारत का राष्ट्रीय गौरव अवश्य अक्षुण हो सकता है। लेकिन यह तभी सम्भव है जब कुछ समय के लिए संसद में सामूहिक-सर्वसम्मत निर्णयों का दीदार हो और पक्ष-विपक्ष का कटुतापूर्ण वार्तालाप बंद हो ! भारतीय धर्मनिपेक्ष -लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद की चेतना का वास्तविक संचार हो !

भारत में राष्ट्रवाद की  चेतना की पहली शर्त है -देश में भृष्टाचार मुक्त राजनीति और समानता पर आधारित पक्षपातविहींन सुशासन तंत्र हो !जनता केवल वोटर मात्र नहीं हो ! वर्तमान धनतंत्र की जगह , शासन-प्रशासन में जन-भागीदारी का व्यवहारिक लोकतंत्र हो। इसके बिना  भारत में राष्ट्रवाद की स्थापना संभव नहीं ! 'राष्ट्रवादी' चेतना के बगैर  न तो पूँजीवादी लोकतंत्र की बुराइयाँ  खत्म होगीं,और न ही किसी तरह की आर्थिक-सामाजिक असमानता का खात्मा संभव है। मौजूदा दौर के निजाम और उसकी नीतियों से किसी तरह की मानवीय या समाजवादी क्रांति के सफल होने की  भी कोई उम्मीद नहीं  है। इतिहास बताता है कि दुनिया के तमाम असभ्य यायावर आक्रमण कारी और मजहबी -बर्बर लुटेरे भारत को जीतने  में सफल ही इसलिए हुए, क्योंकि यहाँ यूरोप की तर्ज का 'राष्ट्रवाद' नहीं था और उसकी रक्षा के लिए या तो 'भगवान' का भरोसा था या भगवान के प्रतिनिधि के रूप में  इस धरती पर  राजा -महाराजा जनता के तरणतारण थे ! किसान-मजूर -कारीगर के रूप में जनता की भूमिका केवल 'राज्य की सेवा'करना था। जिन्हे यह कामधाम पसंद नहीं थी वे ''अजगर करे न चाकरी ,पंछी करे न काम। दास मलूका कह गए सबके दाता राम।। ''गा -गा कर विदेशी आक्रांताओं के जुल्म -सितम को आमंत्रित करते रहे !राष्ट्रवाद ,समाजवाद,धर्मनिरपेक्षता और क्रांति जैसे शब्दों का महत्व  उस देश की जनता उस सामन्ती दौर में कैसे जान सकती थी ?जिस देश की अत्याधुनिक तकनीकी दक्ष ,एंड्रॉयड फोनधारी आधुनिक  युवा पीढ़ी 'गूगल सर्च 'का सहारा लेकर भी इन शब्दों की सटीक परिभाषा  ठीक से नहीं लिख सकती। 

 वेशक सिकंदर,फिलिपस,कासिम,गजनी,गौरी,अरब,तुर्क,खिलजी,लोधी,अफगान,मुगल और  अंग्रेज कौम भी अखण्ड - भारत भूमि पर  कभी विजय  हासिल नहीं कर सके । इतिहास साक्षी है कि अकबर के समय पूरा दक्षिण भारत मुगलों के अधीन कभी नहीं हो पाया । राजपूताने को भी वह पूरा फतह कभी नहीं कर सके. महाराणा प्रताप जैसे राजपूत सदा अजेय ही रहे।  ओरंगजेब के हाथ दक्षिण भारत कभी नहीं आया। शिवाजी और उनके उत्तराधिकारी पेशवा -मराठे हमेशा मुगलों पर हावी रहे। अंग्रेजों के दौर में भी 'भारत राष्ट्र' एक सूत्र में नहीं बांधा जा सका। ५५० देशी रियासतों का स्वतंत्र अस्तित्व था। नेपाल जैसे कई राजा पूर्णतः स्वतंत्र थे।  पांडिचेरी पर फ़्रांस का कब्ज़ा था।  गोवा पर पुर्तगाल का कब्जा था । अंग्रेजों से विशेष संधि के तहत निजाम हैदरावाद,नबाब भोपाल ,कश्मीर के राजा, पूना के पेशवा, मैसूर -जयपुर -जोधपुर-बीकानेर -मेवाड़ के राजपूत राजा और बहुत से देशी राजा-रजवाड़े अपने सिक्के अवश्य चलाते रहे। लेकिन 'अखण्ड भारत 'की फ़िक्र इन सामन्तों-राजाओं को कभी नहीं रही।

आधुनिक भारत में वास्तविक  'राष्ट्रवाद' का बीजांकुरण भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की असफल क्रांति के दौर में  हुआ था। अंग्रेजों और उनकी नजर से इस क्रांति को देखने वालों के लिए यह एक 'गदर' था ,जो देशी राजे-रजवाड़ों का और मुगल इतिहास के सूर्यास्त का  प्रतीक था। जबकि वास्तव में यह १८५७ की यह असफल क्रांति ही भारत में 'राष्ट्रवाद' की संस्थापक कही जानी चाहिए।  क्योंकि भारतीय  इतिहास में वह पहला अवसर था जब अधिकांश रजवाडों ने और स्वयं दिल्ली के अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने अपनी 'प्रजा' को  'हिंदुस्तान की आवाम' के नाम से पुकारा था। और यह पहला मौका था जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी केहाथों  लूटी-पिटी  रक्तरंजित धरती को, ब्रिटिश साम्राज्ञी महारानी विक्टोरिया ने 'इण्डिया' अर्थात हिन्दुस्तान के रूप  'टेक ओवर' किया था। महारानी विक्टोरिया का गुलाम होते हुए भी यह ब्रिटिश  'उपनिवेश' हिन्दुस्तान की बौद्धिक प्रतिभाओं के जेहन में 'अखण्ड भारत 'के रूप में राष्ट्रवाद'की उद्दाम भावना निरंतर  हिलोरें लेती रही है । जिस तरह अतीत मेंआचार्य चाणक्य, स्वामी समर्थ रामदास ने  इस धरा को 'राष्ट्र' राज्य के रूप में देखा था, उसी तरह १८५७ की क्रांति के उपरान्त बंकिमचंद चट्टोपाध्याय ,रवींद्रनाथ टैगोर ,महाकवि- सुब्र्मण्यम भारती और अनेक राष्ट्रवादी कवियों के अंतस में के मानस में भी राष्ट्रवादकी महती चेतना निरंतर  दमकती  रही है ।

स्वातांत्रोत्तर भारत के प्रगतिशील साहित्य कारों ,कवियों और राष्ट्रवादियों के साहित्य सृजन में तो 'भारतीय राष्ट्रवाद' हमेशा शिद्द्त से मौजूद रहा है ,किन्तु जातिवादी -आरक्षणवादी नेताओं ,मजहबी धर्म गुरुओं ,कट्टरपंथी अल्पसंख्यकों ,भृष्ट नेताओं ,अफसरों -मुनाफाखोर व्यापारियों ,बड़े जमीनदारों और भूतपूर्व ;राजवंशों के जेहन में 'भारत का राष्ट्रवाद' सिरे से नदारद है। विचित्र बिडंबना है कि यह भृष्ट 'बुर्जुवा वर्ग ही भारत राष्ट्र का भाग्य विधाता बन बैठा है। स्वाधीनता संग्राम के दरम्यान और आजादी के बाद के दो दशक बाद तक अधिकांश हिंदी कवियों ने ,फ़िल्मी गीतकारों ने  राष्ट्रवादी चेतना के निमित्त ,देशभक्तिपूर्ण कविता ,गजल ,शायरी और गीतों का सृजन किया था। कुछ अब भी कर रहे हैं और कुछ ने हिन्दी फिल्मों में 'राष्ट्रीय चेतना - राष्ट्रवाद के निमित्त बहुत कुछ सकारात्मक फिल्माया है।

'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,झंडा ऊंचा रहे हमारा।' मेरे देश की धरती सोना उगले ,वन्दे मातरम ,आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की ,,,, ए  मेरे वतन के लोगो ,,,,,,झंडा ऊँचा रहे हमारा ,,,,,इत्यादि सैकड़ों गीत आज भी लोगों की जुबान पर  हैं। किन्तु जिन लोगों का स्वाधीनता संग्राम में रत्ती भर योगदान नहीं रहा,जो अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली बने रहे वे साम्प्रदायिक संगठन  अब  आजादी के बाद भी 'भारत राष्ट्र' के लिए नहीं बल्कि अपने-अपने धर्म-मजहब के खूंटों के लिए हलकान हो रहे हैं । कोई कहता है ,,'कौन बड़ी सी बात ,,धरम पर मिट जाना' ,,,तो दूसरे को उसके मजहब से बढ़कर  दुनिया में कुछ  भी नहीं है। सम्भवतः भारत में  'राष्ट्रवाद' का ठेका केवल भारतीय फ़ौज ने या कलम के सिपाहियों ने ले रखा है ?

भारत विभाजन का खूनी मंजर नयी पीढ़ियों ने भले ही न देखा हो किन्तु उस दरिंदगी के जीवित अवशेष अभी भी मजहबी आतंकवाद के रूप में विदयमान हैं। उनके मजहबी -उन्माद और 'भारत विरोधी 'तेवर देखकर सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि इनको 'राष्ट्रवाद' की नहीं बल्कि अपने धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की,अपने जेहाद की ज्यादा फ़िक्र है । चूँकि इस लक्ष्य के लिए अनेक-मत-पंथ और दर्शन हैं , सांस्कृतिक-भाषाई ठिकाने हैं किन्तु 'राष्ट' की अखंडता बाबत उनकी सोच क्या है ? भारत के अतीत में भी इसी तरह का दुखद मंजर था जब सांस्कृतिक -सामाजिक -क्षेत्रीय -भाषाई अनेकता ने 'राष्ट्रवाद' की संभावनाओं को बहुत पीछे छोड़ दिया था । विभिन्न मत-दर्शन और सम्प्रदायों की टकराहट ने और देशी राजे-रजवाड़ों की ऐयासी ने विदेशी आक्रमणकारियों की गुलामी के द्वार अवश्य खोल दिए थे । न केवल अतीत  के देशी हिन्दू रजवाड़ोंने  बल्कि बाद के मुस्लिम नबाबों- शहंशाहों में  ऐंसा  कोई नहीं था ,जिसे 'अखण्ड भारत' का किंचित भी मोह रहा हो। इसके अलावा उस दौर के गुलाम भारत के बनियों और जागीरदारों को 'राष्ट्र राज्य' की अवधारणा से कोई मतलब नहीं था। जाति -धर्मऔर भाषा में खण्ड-खण्ड  बटी इस उपमहाद्वीपीय आवाम को 'अखण्ड भारत ' जैसी चीज का अल्प ज्ञान भी सम्भव नहीं नहीं था।

कुल जमा कहने का तात्पर्य यह है कि भौगोलिक,राजनैतिक और संवैधानिक रूप से मौजूदा भारत ही बेमिसाल राष्ट्र है !क्योंकि अतीत में यह  सांस्कृतिक,आधात्मिक रूप से भले ही 'अखण्ड भारत' जैसा प्रतीत होता रहा हो, किन्तु इतना एकजुट- ताकतवर-जनकल्याणकारी   भारत राष्ट्र यह कभी नहीं रहा। कुछ लोगों की धारणा है कि भारत तो  सनातन से एक विशाल और महान 'राष्ट्र ' है। लेकिन उनके इस भावनात्मक विश्वाश का कोई तार्किक आधार नहीं है । केवल अपनी सांस्कृतिक पहचान और अपने धार्मिक विश्वास के बलबूते पर यह 'अखण्ड भारत' ही उनके मष्तिष्क में मौजूद है। यदि  उनका  यह तर्क मान्य किया जाता है कि अतीत में हजारों साल से भारतीय उपमहाद्वीप की चारों दिशाओं में स्थित चार धाम,द्वादश ज्योतर्लिंग लिंग ,अनगिनत शक्तिपीठ ,मंदिर, मठ 'भारत राष्ट्र 'की भौगोलिक सीमाओं का रेखांकन करते हैं ,तब  तो तिब्ब्त,मैकमोहन लाइन,और पाकिस्तान का भारत से बाहर होना स्वाभाविक है। क्योंकि आदिशंकराचार्य द्वारा सीमांकित -धरती तो मौजूदा भारत में पूर्णतः विदयमान है। वेशक  पौराणिक गाथाओं के फिक्शन और मिथक बतलाते हैं कि अंगकोरवाट ,से लेकर मध्य एसिया तक और सुदूर मंगोलिया से लेकर जावा -सुमात्रा  तक के विशाल भूभाग में 'अखण्ड भारत' का इतिहास मौजूद है। लेकिन शायद यह तब की बात है जब  दुनियामें 'वसुधैव कुटुम्बकम', 'अहिंसा परमोधर्म :' और 'धम्मम शरणम गच्छामि' का उद्घोष हुआ करता था। नयी 'सभ्यताओं 'के उदय और मजहबों के कारण अब भूमंडल पर सवा दो सौ देश बन चुके हैं। अतः अभी जो भारत राष्ट ' शहीदों की कुर्बानी से मिला है,उसे ही सुरक्षित,संवर्धित, निष्कंटक और गौरवशाली  बनाया जाए यही अंतिम समाधान उचित है।

 जन श्रुति और संस्कृत साहित्य में यह बार-बार दुहराया गया है कि 'अमुक'चक्रवर्ती सम्राट ने 'अश्वमेध 'यज्ञ किया ,अमुक ने 'राजसूय 'यज्ञ किया। किस राजवंश ने 'अखण्ड भारत' पर कितने हजार वर्ष तक शासन किया ! आदिकवि  बाल्मीकि ,कविकुलगुरु कालिदास ,भवभूति,वररुचि,अश्वघोष ,आचार्य चाणक्य ,गुरुदेव रवींद्रनाथ टेगोर, बंकिमचंद और महाकवि सुब्रमण्यम भारती ने भी अपने-अपने रचना साहित्य में इस 'अखण्ड भारत' को कभी 'जननी-जन्मभूमश्च स्वर्गादपि गरीयसी', कभी आर्यवर्त,कभी भरतखण्ड ,कभी जम्बूद्वीप ,कभी 'हिन्द',कभी भारत और कभी उसे भारतवर्ष नाम से सम्बोधित किया है। 'बन्दे मातरम '.जय हिन्द,जय भारत जैसे राष्ट्रवादी नारों का जन्म -स्वाधीनता संग्राम और इन्ही कवियों-साहित्यकारों की देंन है।लेकिन शहीदों के सपनों के  भारत राष्ट्र में भृष्टाचार के परनाले बहते देखकर तो नहीं लगता कि हमने अपने शहीदों की शहादत का सही सम्मान किया है ! 

'अखण्ड भारत' का नक्सा कभी आर्य समाज वालों ने ,कभी आरएसएस वालों ने और कभी आजाद हिन्द फ़ौज वालों ने भी बनवाया था। लेकिन उनके इस  मासूम और बचकाने  विचार में सभ्यताओं के सनातन संघर्ष की अनदेखी की गई है। चाहे स्वामी सत्यमित्रांनद द्वारा स्थापित हरिद्वार के 'भारत माता मंदिर' की झांकी हो ,चाहे संघ वालों की सोच का  'अखण्ड भारत'  हो ,उसकी सीमायें पूर्व में इंडोनेशिया तक ,पश्चिम में तेहरान तक दक्षिण में श्रीलंका तक और उत्तर में उसकी सीमा काबुल -कंधार ,ताशकंद ,अजरबेजान ,उज्वेगिस्तान ,कश्यप सागर[केस्पियन सागर] तक फैली हुई हैं । उनके अनुसार यह विराट सीमांकन उनके पूर्वज ऋषि, कवि और सम्राट तस्दीक कर गए हैं। जब पूर्वज और 'अवतारी' लोग यह सीमा तय आकर गए हैं तो अब हमारी क्या औकात कि उनका खंडन कर सकें ? और वैसे भी 'अखण्ड भारत' सदा से था ,यह मान लेने में बुराई क्या है ? दरसल जब दुनिया में 'राज्य' या स्टेट का विचार ही नहीं था तब उस कबीलाई समाज में 'राष्ट्र' या राष्ट्रवाद का नामोनिशान भी नहीं था। अर्थात सारी  धरती 'वसुधैव कुटुम्बकम 'ही थी।  अब यदि वामपंथी साथी भी 'अन्तर्राष्टीयतावाद' की बात करते हैं तो क्या गलत कहते हैं ?  यदि अखण्ड भारत का 'संघी' आकलन  काल्पनिक भी है तो भी इसमें एतराज की क्या बात है ?  थोड़ी देर के लिए हम मान लें  कि  'विभाजन' के बाद बचे-खुचे  लुंज-पुँज  भारत में अचानक कम्युनिस्ट क्रांति  सफल हो गई है ,लाल किले पर तिरंगे के साथ -साथ हंसिया -हथौड़ा वाला लाल झंडा भी लहरा रहा है,पोलित व्यूरो के साथी संसद में 'भारत राष्ट्र की सीमाओं की चर्चा कर  रहे हैं ,तब  क्या होगा ? तब 'अखण्ड भारत 'का नाक-नक्श क्या होगा ? इसका उत्तर मेरे पास है ! जिस तरह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने दक्षिण चीन सागर से लेकर पश्चिम में -वाया 'पीओके' -पाकिस्तानके कराची बंदरगाह तक ,उत्तर में मंगोलिया से लेकर दक्षिण में नेपाल तक अपना लाल झंडा गाड़ रखाहै ,इसी तरह यदि भारत में भी कभी कम्युनिस्ट क्रांति सफल हो  गई तो भारतीय वामपंथ  द्वारा जो 'नए भारत' का मानचित्र  जारी होगा ,उसमें ताशकंद से लेकर अंगकोरवाट  तक  और मॉरीशस से लेकर मंगोलिया तक 'अखण्ड भारत' किया जाना सुनिश्चित है।

 इसलिए जब तक कोई क्रांति नहीं हो जाती ,भारत के सभी नागरिकों का यह उत्तरदायित्व है कि शहीदों ने  अपनी कुर्बानी के बलबूते पर जितना भी छोटा-बड़ा मुल्क 'भारत राष्ट्र'  के रूप में दिया है , उसकी  जी जान से हिफाजत करें। यदि कुछ लोग इसे अपना वतन नहीं मानते  तो उन्हें  लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अंदर ही अवसर दिया जाए कि वे अपनी 'देशभक्ति' प्रमाणित कर सकें ! किन्तु उससे पहले वे स्वयम्भू राष्ट्रवादी खुद सुधर जाएँ ,  जिनके शब्दों में तो  'राष्ट्रवाद' दरपेश है ,किन्तु व्यवहार में उनका चरित्र घोर 'अराष्ट्रवादी 'है। जो लोग रिश्वत लिए बिना फाइल आगे नहीं बढ़ाते,जो लोग चुनाव में भारी  चन्दा लेकर बाद में  चंदादेने वालों को उपकृत करते हैं ,जो लोग  स्विश बैंकों में कालाधन जमा करते हैं ,जो लोग हवाला-घोटाला करते हैं ,जो लोग खाद्यान्न में भी सट्टाखोरी करते हैं ,जो लोग किसानों की फसल सस्ते में खरीदकर उपभोक्ताओं को महँगा बेचते हैं ,जो निकृष्ट लालची लोग भारतीय फौज के साजो-सामान में भी हेर-फेर करते हैं, जो लोग अपनी  फौज को नकली माल -असलाह,नकली बुलेट प्रूफ जैकेट बेचते हैं ,जो लोग सीमाओं पर शहीद होने वाले बहादुरों के ताबूत में भी कमीशन खोरी करते हैं ,यदि ऐसे लोग अपने आपको राष्टवादी कहेंगे तो वतन का 'गद्दार 'किसे कहते हैं ?     श्रीराम तिवारी

सोमवार, 18 जुलाई 2016

भारत में 'राष्ट्रवाद' अभी भी शैशव अवस्था में ही है। -Part 1

प्रायः मानवीय  दुस्साहसवाद के वशीभूत  हिंसक प्रवृत्ति के मनुष्य ही  आतंकवाद -अलगाववाद  की बीमारी से ग्रस्त हुआ करते हैं। यह  महामारी  कमोवेश सारी दुनिया में व्याप्त है। भारत में सम्भवतः यह सबसे ज्यादा है। क्षेत्रीय अलगाववाद, मजहबी आतंकवाद दोनों ही 'राष्ट्रवाद' के जुड़वा शत्रु हैं। अमेरिकी क्रांति, फ्रांसीसी क्रान्ति और सोवियत क्रांति के असर से सारी दुनिया ने  बहुत कुछ सीखा है । और इन्ही क्रांतियों की प्रेरणा से बीसवीं शताव्दी में दुनिया के सर्वहारा वर्ग ने 'सरमायेदारों से  शोषण मुक्ति', श्रमिक वर्ग के 'काम के घंटे आठ' सुनिश्चित किये जाने को ह्र्दयगम्य किया है । इन्ही क्रांतियों ने  भारत,दक्षिण अफ्रीका जैसे  सैकड़ों गुलाम राष्ट्रों को राष्ट्रवाद और  'स्वतंत्रता'  का अर्थ सिखाया है । इन्ही क्रांतियों की बदौलत सारी दुनिया में धर्मनिरपेक्षता,अंतरराष्टीयतावाद और लोकतंत्र की धूम मच रही है। भारत के दुर्भाग्य से ,कुटिल पड़ोसियों की अनैतिक हरकतों से और महाभ्रुष्ट व्यवस्था के परिणाम स्वरूप,आजादी के ७० साल बाद  भी  भारत के जन-मानस में , 'राष्ट्रवाद' केवल चुनावी नारों तक ही सीमित है। कुछ मुठ्ठीभर शायरों,कवियों और लेखकों की रचनाओं में ही राष्ट्रवाद प्रतिध्वनित होता रहता है।  'राष्ट्रवाद' के विषय में एकमात्र सुखद सूचना यह  है कि भारत का सुप्रीम कोर्ट अवश्य ही 'राष्ट्रवाद'से प्रेरित है। और दुनिया भर की देखादेखी भारत का हिंदी मिडीया भी 'राष्ट्रवाद' को अपने विमर्श के केंद्र में  शिद्द्त से पेश कर रहा है। किन्तु अपराधबोध से ग्रस्त शासकवर्ग को न्यायपालिका और मीडिया का राष्ट्रप्रेम शायद रास नहीं आ  है। जब तक भारतीय जन-मानस  में  'राष्ट्रवाद' परवान नहीं चढ़ता -तब तक जातिवाद ,अलगाववाद, आतंकवाद और सर्वव्यापी भृष्टाचार से मुक्ति असम्भव है। और राष्ट्रवाद की परीक्षा उत्तीर्ण किये बिना भारत में 'सर्वहारा अंतर् राष्ट्रीयतावाद' केवल कोरी सैद्धांतिक जुगाली मात्र है।    

चूँकि भारत में 'राष्ट्रवाद'की चेतना ही अभी शैशव अवस्था में है। अतः अंतर्राष्टीयतावाद की सोच तो बहुत दूर की बात है। लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि केवल अंतर्राष्ट्रीयतावाद से ही मजहबी उन्माद और हिंसक आतंक  को खत्म किया जा सकता है। यदि कोरे राष्ट्रवाद से  ही आतंक खत्म हो सकता तो दुनिया के कट्टर राष्ट्रवादी मुल्क - फ़्रांस,ब्रिटेन,अमेरिका ,तुर्की ,बांग्ला देश अफगानिस्तान,पाकिस्तान ,सीरिया,ईराक में आतंकवाद क्यों दहक रहा है ? खेद की बात है कि आजादी के ७० साल बाद भी भारत में मजहबी आतंक से निपटने की राजनैतिक समझ विकसित नहीं क्र पाया  है। भारतीय  सुरक्षा एजेंसियां और कूटनीतिक तंत्र केवल हवा में लठ्ठ घुमाए जा रहे हैं । राष्ट्र-समाज के जान-माल की -सुरक्षा की, हम अपने-आप को झूंठी तसल्ली दे रहे हैं। जो लोग केवल सत्ता की राजनीति में ही व्यस्त हैं ,उनके द्वारा नई पीढ़ी को 'राष्ट्रवाद' की जगह साम्प्रदायिकघृणा से युक्त अंधराष्ट्रवाद सिखाया जा रहा है।उधर धर्मांतरण में जुटे  विदेशी ईसाई मशीनरी को या आईएस के मजहबी उन्माद फैलाने में  जुटे मदरसों को  भारतीय एकता -अखण्डता और धर्मनिरपेक्ष 'राष्ट्रवाद' से कोई लेना -देना नहीं है ।

 बहुसंखयक -अल्पसंख्य्क  वर्ग के स्वार्थी और दवंग लोग विश्व पूँजीवाद और एमएनसी की शह पर लोकतंत्र,  धर्मनिरपेक्षता ,समाजवाद और 'राष्ट्रवाद' को लतियाने  में जुटे हैं। साफ़ स्वच्छ लोकतान्त्रिक व्यवस्था स्थापित करने की जगह धर्म-मजहब -जाति आधारित राजनैतिक ध्रुवीकरण,टेक्टिकल वोटिंग ,बूथ केप्चरिंग के मार्फत सर्वत्र भृष्ट नेताओं को बढ़ावा दिया जा  रहा है। यही वजह है कि चारों ओर पड़ोसी देश नाक में दम किये जा रहे हैं। मजहबी आतंक और अलगाववाद ने न केवल कश्मीर में ,न केवल उत्तरपूर्व में ,न केवल  भारत के अंदर बल्कि  सारी दुनिया में कोहराम  मचा रख्खा है । भारत के लिए तो यह बहुत ही शर्मनाक है जो किसी किसी शायर के शब्दों में यूं  कहा गया है ;-

''दिल में  फफोले पड़ गए सीने के दाग से, इस घर को आग लग गयी घर के चिराग से'' 

यह मजेदार तथ्य है कि तमाम खामियों और गलतियों के वावजूद भारत में आजादी के तुरंत बाद से ही शैक्षणिक नीतियाँ साइंस को बढ़ावा दने के उद्देश्य से ज्यादा बनाई गईं। यही वजह है कि सांइस के विद्यार्थी को बाकी विषयों के ज्ञानार्जन में कोई समस्या नहीं रही । वेशक कला ,वाणिज्य,इतिहास,राजनीति और समाजशास्त्र के विद्यार्थियों को साइंस पढ़ने और समझने में दिक्कत दरपेश हो सकती  है । मैं खुद  साइंस का विद्यार्थी रहा हूँ  और राजनीति शास्त्र पढ़ने तथा ततसंबंधी अपनी समझ विकसित  करने में मुझे कोई विशेष परेशानी नहीं हुई। अब मैं किसी पेशेवर राजनीतिज्ञ को ,राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर को या किसी सीनियर पार्लियामेंटेरियन को 'प्रशांत किशोर' से भी बेहतर राजनीति की बारीकियाँ सिखा सकता हूँ। हालाँकि इसमें ट्रेडयूनियन आंदोलन का बहुत योगदान रहा है। मैंने केंद्रीय कर्मचारियों की मान्यता प्राप्त विशाल  यूनियन में  ४० साल तक अनवरत   काम किया है । ब्रांच सेक्रेटरी से लेकर 'राष्ट्रीय संगठन सचिव'के पदों पर काम किया है । उसकी संगठनात्मक संरचना सीटू[सेंटर आफ़ इंडिंयन ट्रेड यूनियन ] से मिलती जुलती है। यह उल्लेखनीय है कि सीटू से संबंधित ट्रेड यूनियनों में  एक आदर्श ,लोकतंत्रात्मक ,स्वतंत्र,निष्पक्ष चुनाव प्रणाली मौजूद है। जनवादी केंद्रीयता ,राष्ट्रवाद और सामूहिक निर्णयों की आदर्श -लोकतांत्रिक राजनीति का सीटू में बहुत सम्मान है। सीटू की सफलता से प्रभावित होकर कांग्रेस ने इंटक को और आरएसएस ने 'भारतीय मजदूर संघ' को चलाने का प्रयास किया है। वे भी कुछ हद तक लोकतंत्रात्मक तौर तरीकों को मानने लगे हैं। किन्तु उनके आदर्श 'सर्वहारा अंतर्राष्टीयतवाद'से जुदा हैं। चूँकि ये सब  प्रकारांतर से भारत के पूँजीवादी दल ही हैं ,इसलिए वे  जिस दक्षिणपंथी  राजनीति का पैटर्न अपनाते हैं ,वह  निहायत ही पक्षपातपूर्ण और अलोकतांत्रिक है। वे ऐन-केन -प्रकारेण भृष्ट दाँव पेंच अपनाकर सत्ता में भले ही आ जाते हैं ,किन्तु  उनकी  'गन्दी राजनीति' के कारण भारत का बेडा गर्क हो रहा है।

भारत के किसी भी देशभक्त नौजवान को  यदि राष्ट्रवाद सीखना है ,लोकतन्त्रमकता सीखना है तो उसे  भारत के वामपंथी  ट्रेड यूनियन आंदोलन से अवश्य जुड़ना चाहिए। चाहे एसएफआई हो ,चाहे जनवादी नौजवान सभा हो , चाहे एआईएसएफ हो ,चाहे इप्टा हो या जलेस-प्रलेस हो ,सभी जगह धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के साथ असली राष्ट्रवाद ही सीखने को मिलगा। जिन्हे अपने वतन से और इंसानियत से प्यार है उन्हें  सच्चे 'राष्ट्रवाद' का ककहरा और साफ़  सुथरी राजनीति अवश्य सीखना चाहिए। स्कूल कालेजों में राजनीति पढ़ना,पढ़ाना अलहदा  बात है  फेसबुकऔर सोशल  मीडिया पर भृष्ट नेताओं की कथनी-करनी के अंतर् वाला  मौकापरस्ती का 'राष्ट्रवाद' बिलकुल अलग बात है , किन्तु  व्यवहारिक राजनीति सीखने के लिए ,असली राष्ट्रवाद और अंतर्राष्टीयतावाद को ठीक से  समझने के लिए तो भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र [सीटू] ,उसके बिरादराना संगठन ही सच्चे राष्टवादी स्कूल सिध्ध हो सकते हैं । 

जिन्होंने राजनीति शास्त्र नहीं पढ़ा वे अपनी अल्पज्ञता के लिए जरा भी अफ़सोस न करें ,क्योंकि जो कुछ भी अब तक  लिखा गया ,पढ़ाया गया उस पर व्यवहारिक राजनीति का कोई सरोकार नहीं है । वैसे भी राजनीतिशाश्त्र के लेखक ,प्रोफेसर और विचारक खुद भी किसी एक सिद्धांत परकभी  एकमत  नहीं रहे ।  राष्ट्रवाद ,राष्ट्रीयता और अंतर् राष्ट्रीयतावाद की जो भी परिभाषाएँ पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाईं जातीं रहीं  हैं ,उनसे  वर्तमान भारतीय राजनीति का कोई वास्ता नहीं दिखता । जिस तरह अभी -अभी बिहार के कुछ स्कूली 'टॉपर्स' छात्रों का खुलासा हुआ है कि वे हकीकत में  किसी भी विषय में  थर्ड क्लास उत्तीर्ण  होने लायक नहीं हैं,किन्तु जुगाड़ की डिग्री से ये  बिहार के नौनिहाल एक दिन लालू,राबड़ी ,पप्पू यादव ,मुलायम परिवार ,मायावाद ,ममतागिरी को भी मात करेंगे। योग्यता को नकारने वाले  वोट जुगाड़ू राजनीतिक सिस्टम की असीम अनुकम्पा  से भारत में 'राष्ट्रवाद' हासिये पर है। यदि जातिवादी राजनीति का यह  अधोगामी सिलसिला जारी रहा तो व्यापमपुत्र - मुन्नाभाई ही आईएएस आईपीएस बनेंगें।  ऐसे  ही अर्धशिक्षित अयोग्य लोग  राजनीति में होंगे। और योग्य -मेधावी छात्र  किसी पूँजीपति के यहाँ प्रायवेट नौकरी करेंगे या कुछ जुगाड़ सम्भव  हुई तो सरकारी क्षेत्र में बाबू-चपरासी बनते रहेंगे। इन हालात में भारत राष्ट्र को पूरा बिहार बनने से कोन रोक सकता है ?  वास्तव में विहार का यह  उदाहरण तो भृष्टाचार की उफनती हांडी का एक चावल मात्र है , दरसल पूरे भारत का यही हाल है।केंद्र का और अधिकांश राज्यों का राजनैतिक सिस्टम बिहार स्टाइल के असंवैधानिक पैटर्न पर  ही काम कर रहा है। नतीजा सामने है कि भारत में  कागजों पर विकास मौजूद  है और केवल  भाषणों में 'राष्ट्रवाद' गूँज रहा है।

आपातकाल के बाद भारत में यह चलन चल पड़ा कि जो अलगाववादी हैं ,जो मजहबी कट्टरपंथी हैं ,जो नक्सलवादी-माओवादी हैं ,वे ही देशद्रोही हैं। दुर्भाग्य से कभी-कभी कुछ लेखकों और बुद्धिजीवियों को भी देशद्रोह के आरोपों से जूझना पड़ा। हाथ में बन्दूक लेकर जो देश के खिलाफ युद्ध छेड़ेगा वह तो देश का दुश्मन है ही। किन्तु जो देश की बैंकों का अकूत धन डकारकर विदेश भाग जाए ,जो बैंकों का उधार चुकाने से इंकार कर दे , दिवाला घोषित कर दे ,जो सरकार का मुलाजिम होकर भी देश के साथ गद्दारी करे ,जो सरकारी नौकरी पाकर भी मक्कारी करे, जो बिना रिष्वत के कोई काम न करे , जो जातीय या आरक्षण  के आधार पर सरकारी नौकरी पाकर जेलों में बंद सोमकुंवर,गजभिए जैसा आचरण करे ,जो सरकारी नौकरी में रहकर जातीय दवंगई दिखाए और काम दो कौड़ी का न करे ,उलटे दारु पीकर सरकार को  ही गालियाँ दे , जो खुद का इलाज न कर सके और सरकारी डाक़्टर बन जाए , जो 'राष्ट्रवाद' की परिभाषा भी न जाने और मंत्री बन जाए,जो  ठेकेदारों के घटिया निर्माण  की अनदेखी करे और कमीशन खाये ,जिसकी वजह से  पुल ,स्कूल अस्पताल ढह जाएँ ,मरीज मर जाएँ , सड़कें बह जाएँ तो इन अपराधों के लिए भारत में भी  चीन की तरह मृत्यु दण्ड क्यों नहीं होना चाहिए ?

भारत  के अधिकांश लोगों को लगता है कि 'राजनीति' बड़ी गन्दी चीज है।  भारत में अशिक्षित ,अर्धशिक्षित जनता  तो फिर भी प्रकारांतर से राजनीति में दखल देती रहती है। किन्तु कुछ उच्च शिक्षित साइंस्टिस्ट,जज, वकील और प्रोफेसर लोग  राजनीति से परहेज करने में ही अपनी भलाई समझते हैं। वे  करप्ट व्यवस्था से भी तालमेल बिठाने में माहिर होते हैं। इस शुतुरमुर्गी कला को  वे अपने स्वास्थ्य की अचूक रामबाण औषधि मानते हैं। राष्ट्रवाद,अंध राष्ट्रवाद ,साम्राज्यवाद या अंतर् राष्ट्रीयतावाद को  वे केवल 'स्कूल-कालेज की पढ़ाई का बोर सिलेबस मानते हैं।जब भारत के उच्च शिक्षित और भद्र लोग राजनीतिक ज्ञान को विस्मृत करते रहेंगे,अपने  देश की  राजनीति  से दूर रहेंगे तो स्वाभाविक है कि नकली डिग्री वाले ,आपराधिक पृष्ठभूमि वाले और राजनीति के आदर्श सैद्धांतिक ज्ञान से शून्य नर-नारी  ही देश का शासन चलाते  रहेंगे।

    दुनिया की तमाम सभ्यताओं में भारतीय सभ्यता सम्भवतः सबसे पुरानी है। शायद,मिश्र ,मेसोपोटामिया और माया सभ्यता भी भारतीय सभ्यता के बाद की सभ्यताएं हैं। दुनिया के अनेक कबीले  जब  'वन मानुष'की जिंदगी जी रहे थे तब सिंधु घाटी सभ्यता , आर्य सभ्यता और द्रविड़ सभ्यता आसमान छू रही थी। अमेरिका का इतिहास महज ५०० साल पुराना है ,लेकिन उसका राष्ट्रवाद चीन ,जापान ,जर्मनी और फ़्रांस से भी सुपीरियर है। किन्तु भारतीय सभ्यता का इतिहास दस हजार साल पुराना होते हुए भी एक संगठित राष्ट्र के रूप में वह सबसे ढुलमुल,असुरक्षित और भृष्ट देश है। राष्ट्रीय चेतना के स्तर पर यह दुनिय में में सबसे बौना है। भारत में 'राष्ट्र' से ऊपर जातीय आरक्षण है, देश से ऊपर रिष्वतखोरी और भृष्टाचार है,राष्ट्रवाद' से ऊपर राजनैतिक पार्टियाँ और साम्प्रदायिक संगठन हैं। यह विचित्र बिडंबना है कि अधिकांश बुद्धिजीवी ,प्रगतिशील साहित्य्कार और कविजन 'राष्ट्रवाद' को दक्षिणपंथ और फासिज्म का पेटेंट मानकर उसका उपहास  करते हैं। वे भूल जाते हैं कि चीन,क्यूबा,वियतनाम और पूर्व सोवियत संघ के विद्वान कामरेडों ने अपने एजंडे में क्रांति और' राष्ट्रवाद' को एक ही गाड़ी के दो पहिए माना है।

भारत में राष्ट्रवाद केवल फिल्मों में ,क्रिकेट में और राजनैतिक जुमलों में ही देखने को मिलता है। 'पूरव पश्चिम ', 'देशप्रेमी ', 'मदर इण्डिया' और बॉर्डर जैसी दरजनों फिल्मों ने  भारत जनता में  अस्थायी भाव के रूप में क्षणिक राष्ट्रवाद को प्रेरित किया है। हालाँकि ! भारत की लगभग ४०% निर्धन,खेतिहर मजदूर और आदिवासी - अपढ़ जनता को 'राष्ट्रवाद' का मतलब  नहीं मालूम ! लेकिन भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच के दरम्यान ,यदि मैच देखने की  सुविधा हो तो  अपढ़ -ग्रामीण भी 'इंडिया'-इण्डिया'के शोर में शामिल होने लग जाते हैं । जब कोई भारतीय कहता है कि 'इण्डिया जीतेगा'या इंडिया की हार के बाद जब कोई भारतीय अपनी टीम को गाली देने कग जाए तो समझो 'राष्ट्रवाद' की कुछ तो सम्भावना शेष है। लेकिन खेल,फिल्म और छुटपुट साहित्यिक गतिविधियों के अलावा भारत में 'राज्य की ओर से 'राष्ट्रवाद' के पक्ष में कुछ खास प्रयोजनात्मक कार्यक्रम नहीं हैं।इसीलिये आरएसएस जैसे गैर सरकारी संगठनों को यह काम करना पढ़ रहा है। हालाँकि आरएसएस वाले जिन्हे तैयार करते हैं , वे भी सत्ता का सानिध्य पाकर  बंगारू लक्ष्मण,जूदेव,प्रमोद महाजन और सिद्धरमैया बन जाते हैं। जबकि संगठन के रूप में उसके अनुषंगी भी सत्ता का बेजा फायदा उठाते रहते हैं। उनके इस पवित्र राष्ट्र धर्म की तब बड़ी भद पिटती है जब वे  'राष्ट्रवाद' की शिक्षा के स्थान पर हिन्दुत्ववादी  साम्प्रदायिक बैमनस्य की शिक्षा देने लग जाते हैं।

हालांकि यही काम मुस्लिम संगठन और मदरसे भी करते रहे हैं और कर रहे हैं। वे इस्लाम के नाम पर इस्लाम की तमाम सामाजिक ,वैवाहिक,पारिवारिक और मजहबी उपलब्धियों का उपभोग करने को अपना 'परसनल लॉ ' मानते हैं. किन्तु वे दीवानी और फौजदारी मामलों में इस्लामिक राष्ट्रों में जारी उस दण्डात्मक इस्लामी कानून की जगह भारतीय सम्विधान के उदारवादी क़ानून का लाभ उठाते हैं। उनकी इस दोहरी उपलब्धि के अलावा  जम्मू - कश्मीर के मुसलमान तो धारा -३७० का तीसरा लाभ भी लेते हैं  और इसके वावजूद वे  कश्मीर के पंडितों का या तो संहार आकर चुके हैं या उन्हें  घाटी से भागने पर मजबूर क्र चुके हैं ,अब कश्मीर के मुसलमान कस्मीरियत या कशमीरी राष्ट्रवाद नहीं बल्कि 'पाक्सितान जिंदाबाद' के नारे लगा रहे हैं। वे भारतीय फौज पर पत्थर फेंक रहे हैं और भारत की धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद को रुस्वा कर रहे हैं। वेशक कश्मीर के अलगाववादी यदि 'राष्ट्रवाद' का दावा नहीं करते ,यदि विश्व इस्लामिक आतंकवाद और पाकिस्तान उन्हें शह  देता है तो शेष सम्पूर्ण भारत की जनता की यह ऐतिहासिक जिम्मेदारी है कि कम से कम  जो 'राष्ट्रवादी' होने का दावा करते हैं वे तो 'राष्ट्रवाद' का आचरण करे । श्रीराम तिवारी




भारत में 'राष्ट्रवाद' अभी भी शैशव अवस्था में ही है। -Part 1

प्रायः मानवीय  दुस्साहसवाद के वशीभूत  हिंसक प्रवृत्ति के मनुष्य ही  आतंकवाद -अलगाववाद  की बीमारी से ग्रस्त हुआ करते हैं। यह  महामारी  कमोवेश सारी दुनिया में व्याप्त है। भारत में सम्भवतः यह सबसे ज्यादा है। क्षेत्रीय अलगाववाद, मजहबी आतंकवाद दोनों ही 'राष्ट्रवाद' के जुड़वा शत्रु हैं। अमेरिकी क्रांति, फ्रांसीसी क्रान्ति और सोवियत क्रांति के असर से सारी दुनिया ने  बहुत कुछ सीखा है । और इन्ही क्रांतियों की प्रेरणा से बीसवीं शताव्दी में दुनिया के सर्वहारा वर्ग ने 'सरमायेदारों से  शोषण मुक्ति', श्रमिक वर्ग के 'काम के घंटे आठ' सुनिश्चित किये जाने को ह्र्दयगम्य किया है । इन्ही क्रांतियों ने  भारत,दक्षिण अफ्रीका जैसे  सैकड़ों गुलाम राष्ट्रों को राष्ट्रवाद और  'स्वतंत्रता'  का अर्थ सिखाया है । इन्ही क्रांतियों की बदौलत सारी दुनिया में धर्मनिरपेक्षता,अंतरराष्टीयतावाद और लोकतंत्र की धूम मच रही है। भारत के दुर्भाग्य से ,कुटिल पड़ोसियों की अनैतिक हरकतों से और महाभ्रुष्ट व्यवस्था के परिणाम स्वरूप,आजादी के ७० साल बाद  भी  भारत के जन-मानस में , 'राष्ट्रवाद' केवल चुनावी नारों तक ही सीमित है। कुछ मुठ्ठीभर शायरों,कवियों और लेखकों की रचनाओं में ही राष्ट्रवाद प्रतिध्वनित होता रहता है।  'राष्ट्रवाद' के विषय में एकमात्र सुखद सूचना यह  है कि भारत का सुप्रीम कोर्ट अवश्य ही 'राष्ट्रवाद'से प्रेरित है। और दुनिया भर की देखादेखी भारत का हिंदी मिडीया भी 'राष्ट्रवाद' को अपने विमर्श के केंद्र में  शिद्द्त से पेश कर रहा है। किन्तु अपराधबोध से ग्रस्त शासकवर्ग को न्यायपालिका और मीडिया का राष्ट्रप्रेम शायद रास नहीं आ  है। जब तक भारतीय जन-मानस  में  'राष्ट्रवाद' परवान नहीं चढ़ता -तब तक जातिवाद ,अलगाववाद, आतंकवाद और सर्वव्यापी भृष्टाचार से मुक्ति असम्भव है। और राष्ट्रवाद की परीक्षा उत्तीर्ण किये बिना भारत में 'सर्वहारा अंतर् राष्ट्रीयतावाद' केवल कोरी सैद्धांतिक जुगाली मात्र है।    

चूँकि भारत में 'राष्ट्रवाद'की चेतना ही अभी शैशव अवस्था में है। अतः अंतर्राष्टीयतावाद की सोच तो बहुत दूर की बात है। लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि केवल अंतर्राष्ट्रीयतावाद से ही मजहबी उन्माद और हिंसक आतंक  को खत्म किया जा सकता है। यदि कोरे राष्ट्रवाद से  ही आतंक खत्म हो सकता तो दुनिया के कट्टर राष्ट्रवादी मुल्क - फ़्रांस,ब्रिटेन,अमेरिका ,तुर्की ,बांग्ला देश अफगानिस्तान,पाकिस्तान ,सीरिया,ईराक में आतंकवाद क्यों दहक रहा है ? खेद की बात है कि आजादी के ७० साल बाद भी भारत में मजहबी आतंक से निपटने की राजनैतिक समझ विकसित नहीं क्र पाया  है। भारतीय  सुरक्षा एजेंसियां और कूटनीतिक तंत्र केवल हवा में लठ्ठ घुमाए जा रहे हैं । राष्ट्र-समाज के जान-माल की -सुरक्षा की, हम अपने-आप को झूंठी तसल्ली दे रहे हैं। जो लोग केवल सत्ता की राजनीति में ही व्यस्त हैं ,उनके द्वारा नई पीढ़ी को 'राष्ट्रवाद' की जगह साम्प्रदायिकघृणा से युक्त अंधराष्ट्रवाद सिखाया जा रहा है।उधर धर्मांतरण में जुटे  विदेशी ईसाई मशीनरी को या आईएस के मजहबी उन्माद फैलाने में  जुटे मदरसों को  भारतीय एकता -अखण्डता और धर्मनिरपेक्ष 'राष्ट्रवाद' से कोई लेना -देना नहीं है ।

 बहुसंखयक -अल्पसंख्य्क  वर्ग के स्वार्थी और दवंग लोग विश्व पूँजीवाद और एमएनसी की शह पर लोकतंत्र,  धर्मनिरपेक्षता ,समाजवाद और 'राष्ट्रवाद' को लतियाने  में जुटे हैं। साफ़ स्वच्छ लोकतान्त्रिक व्यवस्था स्थापित करने की जगह धर्म-मजहब -जाति आधारित राजनैतिक ध्रुवीकरण,टेक्टिकल वोटिंग ,बूथ केप्चरिंग के मार्फत सर्वत्र भृष्ट नेताओं को बढ़ावा दिया जा  रहा है। यही वजह है कि चारों ओर पड़ोसी देश नाक में दम किये जा रहे हैं। मजहबी आतंक और अलगाववाद ने न केवल कश्मीर में ,न केवल उत्तरपूर्व में ,न केवल  भारत के अंदर बल्कि  सारी दुनिया में कोहराम  मचा रख्खा है । भारत के लिए तो यह बहुत ही शर्मनाक है जो किसी किसी शायर के शब्दों में यूं  कहा गया है ;-

''दिल में  फफोले पड़ गए सीने के दाग से, इस घर को आग लग गयी घर के चिराग से'' 

यह मजेदार तथ्य है कि तमाम खामियों और गलतियों के वावजूद भारत में आजादी के तुरंत बाद से ही शैक्षणिक नीतियाँ साइंस को बढ़ावा दने के उद्देश्य से ज्यादा बनाई गईं। यही वजह है कि सांइस के विद्यार्थी को बाकी विषयों के ज्ञानार्जन में कोई समस्या नहीं रही । वेशक कला ,वाणिज्य,इतिहास,राजनीति और समाजशास्त्र के विद्यार्थियों को साइंस पढ़ने और समझने में दिक्कत दरपेश हो सकती  है । मैं खुद  साइंस का विद्यार्थी रहा हूँ  और राजनीति शास्त्र पढ़ने तथा ततसंबंधी अपनी समझ विकसित  करने में मुझे कोई विशेष परेशानी नहीं हुई। अब मैं किसी पेशेवर राजनीतिज्ञ को ,राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर को या किसी सीनियर पार्लियामेंटेरियन को 'प्रशांत किशोर' से भी बेहतर राजनीति की बारीकियाँ सिखा सकता हूँ। हालाँकि इसमें ट्रेडयूनियन आंदोलन का बहुत योगदान रहा है। मैंने केंद्रीय कर्मचारियों की मान्यता प्राप्त विशाल  यूनियन में  ४० साल तक अनवरत   काम किया है । ब्रांच सेक्रेटरी से लेकर 'राष्ट्रीय संगठन सचिव'के पदों पर काम किया है । उसकी संगठनात्मक संरचना सीटू[सेंटर आफ़ इंडिंयन ट्रेड यूनियन ] से मिलती जुलती है। यह उल्लेखनीय है कि सीटू से संबंधित ट्रेड यूनियनों में  एक आदर्श ,लोकतंत्रात्मक ,स्वतंत्र,निष्पक्ष चुनाव प्रणाली मौजूद है। जनवादी केंद्रीयता ,राष्ट्रवाद और सामूहिक निर्णयों की आदर्श -लोकतांत्रिक राजनीति का सीटू में बहुत सम्मान है। सीटू की सफलता से प्रभावित होकर कांग्रेस ने इंटक को और आरएसएस ने 'भारतीय मजदूर संघ' को चलाने का प्रयास किया है। वे भी कुछ हद तक लोकतंत्रात्मक तौर तरीकों को मानने लगे हैं। किन्तु उनके आदर्श 'सर्वहारा अंतर्राष्टीयतवाद'से जुदा हैं। चूँकि ये सब  प्रकारांतर से भारत के पूँजीवादी दल ही हैं ,इसलिए वे  जिस दक्षिणपंथी  राजनीति का पैटर्न अपनाते हैं ,वह  निहायत ही पक्षपातपूर्ण और अलोकतांत्रिक है। वे ऐन-केन -प्रकारेण भृष्ट दाँव पेंच अपनाकर सत्ता में भले ही आ जाते हैं ,किन्तु  उनकी  'गन्दी राजनीति' के कारण भारत का बेडा गर्क हो रहा है।

भारत के किसी भी देशभक्त नौजवान को  यदि राष्ट्रवाद सीखना है ,लोकतन्त्रमकता सीखना है तो उसे  भारत के वामपंथी  ट्रेड यूनियन आंदोलन से अवश्य जुड़ना चाहिए। चाहे एसएफआई हो ,चाहे जनवादी नौजवान सभा हो , चाहे एआईएसएफ हो ,चाहे इप्टा हो या जलेस-प्रलेस हो ,सभी जगह धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के साथ असली राष्ट्रवाद ही सीखने को मिलगा। जिन्हे अपने वतन से और इंसानियत से प्यार है उन्हें  सच्चे 'राष्ट्रवाद' का ककहरा और साफ़  सुथरी राजनीति अवश्य सीखना चाहिए। स्कूल कालेजों में राजनीति पढ़ना,पढ़ाना अलहदा  बात है  फेसबुकऔर सोशल  मीडिया पर भृष्ट नेताओं की कथनी-करनी के अंतर् वाला  मौकापरस्ती का 'राष्ट्रवाद' बिलकुल अलग बात है , किन्तु  व्यवहारिक राजनीति सीखने के लिए ,असली राष्ट्रवाद और अंतर्राष्टीयतावाद को ठीक से  समझने के लिए तो भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र [सीटू] ,उसके बिरादराना संगठन ही सच्चे राष्टवादी स्कूल सिध्ध हो सकते हैं । 

जिन्होंने राजनीति शास्त्र नहीं पढ़ा वे अपनी अल्पज्ञता के लिए जरा भी अफ़सोस न करें ,क्योंकि जो कुछ भी अब तक  लिखा गया ,पढ़ाया गया उस पर व्यवहारिक राजनीति का कोई सरोकार नहीं है । वैसे भी राजनीतिशाश्त्र के लेखक ,प्रोफेसर और विचारक खुद भी किसी एक सिद्धांत परकभी  एकमत  नहीं रहे ।  राष्ट्रवाद ,राष्ट्रीयता और अंतर् राष्ट्रीयतावाद की जो भी परिभाषाएँ पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाईं जातीं रहीं  हैं ,उनसे  वर्तमान भारतीय राजनीति का कोई वास्ता नहीं दिखता । जिस तरह अभी -अभी बिहार के कुछ स्कूली 'टॉपर्स' छात्रों का खुलासा हुआ है कि वे हकीकत में  किसी भी विषय में  थर्ड क्लास उत्तीर्ण  होने लायक नहीं हैं,किन्तु जुगाड़ की डिग्री से ये  बिहार के नौनिहाल एक दिन लालू,राबड़ी ,पप्पू यादव ,मुलायम परिवार ,मायावाद ,ममतागिरी को भी मात करेंगे। योग्यता को नकारने वाले  वोट जुगाड़ू राजनीतिक सिस्टम की असीम अनुकम्पा  से भारत में 'राष्ट्रवाद' हासिये पर है। यदि जातिवादी राजनीति का यह  अधोगामी सिलसिला जारी रहा तो व्यापमपुत्र - मुन्नाभाई ही आईएएस आईपीएस बनेंगें।  ऐसे  ही अर्धशिक्षित अयोग्य लोग  राजनीति में होंगे। और योग्य -मेधावी छात्र  किसी पूँजीपति के यहाँ प्रायवेट नौकरी करेंगे या कुछ जुगाड़ सम्भव  हुई तो सरकारी क्षेत्र में बाबू-चपरासी बनते रहेंगे। इन हालात में भारत राष्ट्र को पूरा बिहार बनने से कोन रोक सकता है ?  वास्तव में विहार का यह  उदाहरण तो भृष्टाचार की उफनती हांडी का एक चावल मात्र है , दरसल पूरे भारत का यही हाल है।केंद्र का और अधिकांश राज्यों का राजनैतिक सिस्टम बिहार स्टाइल के असंवैधानिक पैटर्न पर  ही काम कर रहा है। नतीजा सामने है कि भारत में  कागजों पर विकास मौजूद  है और केवल  भाषणों में 'राष्ट्रवाद' गूँज रहा है।

आपातकाल के बाद भारत में यह चलन चल पड़ा कि जो अलगाववादी हैं ,जो मजहबी कट्टरपंथी हैं ,जो नक्सलवादी-माओवादी हैं ,वे ही देशद्रोही हैं। दुर्भाग्य से कभी-कभी कुछ लेखकों और बुद्धिजीवियों को भी देशद्रोह के आरोपों से जूझना पड़ा। हाथ में बन्दूक लेकर जो देश के खिलाफ युद्ध छेड़ेगा वह तो देश का दुश्मन है ही। किन्तु जो देश की बैंकों का अकूत धन डकारकर विदेश भाग जाए ,जो बैंकों का उधार चुकाने से इंकार कर दे , दिवाला घोषित कर दे ,जो सरकार का मुलाजिम होकर भी देश के साथ गद्दारी करे ,जो सरकारी नौकरी पाकर भी मक्कारी करे, जो बिना रिष्वत के कोई काम न करे , जो जातीय या आरक्षण  के आधार पर सरकारी नौकरी पाकर जेलों में बंद सोमकुंवर,गजभिए जैसा आचरण करे ,जो सरकारी नौकरी में रहकर जातीय दवंगई दिखाए और काम दो कौड़ी का न करे ,उलटे दारु पीकर सरकार को  ही गालियाँ दे , जो खुद का इलाज न कर सके और सरकारी डाक़्टर बन जाए , जो 'राष्ट्रवाद' की परिभाषा भी न जाने और मंत्री बन जाए,जो  ठेकेदारों के घटिया निर्माण  की अनदेखी करे और कमीशन खाये ,जिसकी वजह से  पुल ,स्कूल अस्पताल ढह जाएँ ,मरीज मर जाएँ , सड़कें बह जाएँ तो इन अपराधों के लिए भारत में भी  चीन की तरह मृत्यु दण्ड क्यों नहीं होना चाहिए ?

भारत  के अधिकांश लोगों को लगता है कि 'राजनीति' बड़ी गन्दी चीज है।  भारत में अशिक्षित ,अर्धशिक्षित जनता  तो फिर भी प्रकारांतर से राजनीति में दखल देती रहती है। किन्तु कुछ उच्च शिक्षित साइंस्टिस्ट,जज, वकील और प्रोफेसर लोग  राजनीति से परहेज करने में ही अपनी भलाई समझते हैं। वे  करप्ट व्यवस्था से भी तालमेल बिठाने में माहिर होते हैं। इस शुतुरमुर्गी कला को  वे अपने स्वास्थ्य की अचूक रामबाण औषधि मानते हैं। राष्ट्रवाद,अंध राष्ट्रवाद ,साम्राज्यवाद या अंतर् राष्ट्रीयतावाद को  वे केवल 'स्कूल-कालेज की पढ़ाई का बोर सिलेबस मानते हैं।जब भारत के उच्च शिक्षित और भद्र लोग राजनीतिक ज्ञान को विस्मृत करते रहेंगे,अपने  देश की  राजनीति  से दूर रहेंगे तो स्वाभाविक है कि नकली डिग्री वाले ,आपराधिक पृष्ठभूमि वाले और राजनीति के आदर्श सैद्धांतिक ज्ञान से शून्य नर-नारी  ही देश का शासन चलाते  रहेंगे।

    दुनिया की तमाम सभ्यताओं में भारतीय सभ्यता सम्भवतः सबसे पुरानी है। शायद,मिश्र ,मेसोपोटामिया और माया सभ्यता भी भारतीय सभ्यता के बाद की सभ्यताएं हैं। दुनिया के अनेक कबीले  जब  'वन मानुष'की जिंदगी जी रहे थे तब सिंधु घाटी सभ्यता , आर्य सभ्यता और द्रविड़ सभ्यता आसमान छू रही थी। अमेरिका का इतिहास महज ५०० साल पुराना है ,लेकिन उसका राष्ट्रवाद चीन ,जापान ,जर्मनी और फ़्रांस से भी सुपीरियर है। किन्तु भारतीय सभ्यता का इतिहास दस हजार साल पुराना होते हुए भी एक संगठित राष्ट्र के रूप में वह सबसे ढुलमुल,असुरक्षित और भृष्ट देश है। राष्ट्रीय चेतना के स्तर पर यह दुनिय में में सबसे बौना है। भारत में 'राष्ट्र' से ऊपर जातीय आरक्षण है, देश से ऊपर रिष्वतखोरी और भृष्टाचार है,राष्ट्रवाद' से ऊपर राजनैतिक पार्टियाँ और साम्प्रदायिक संगठन हैं। यह विचित्र बिडंबना है कि अधिकांश बुद्धिजीवी ,प्रगतिशील साहित्य्कार और कविजन 'राष्ट्रवाद' को दक्षिणपंथ और फासिज्म का पेटेंट मानकर उसका उपहास  करते हैं। वे भूल जाते हैं कि चीन,क्यूबा,वियतनाम और पूर्व सोवियत संघ के विद्वान कामरेडों ने अपने एजंडे में क्रांति और' राष्ट्रवाद' को एक ही गाड़ी के दो पहिए माना है।

भारत में राष्ट्रवाद केवल फिल्मों में ,क्रिकेट में और राजनैतिक जुमलों में ही देखने को मिलता है। 'पूरव पश्चिम ', 'देशप्रेमी ', 'मदर इण्डिया' और बॉर्डर जैसी दरजनों फिल्मों ने  भारत जनता में  अस्थायी भाव के रूप में क्षणिक राष्ट्रवाद को प्रेरित किया है। हालाँकि ! भारत की लगभग ४०% निर्धन,खेतिहर मजदूर और आदिवासी - अपढ़ जनता को 'राष्ट्रवाद' का मतलब  नहीं मालूम ! लेकिन भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच के दरम्यान ,यदि मैच देखने की  सुविधा हो तो  अपढ़ -ग्रामीण भी 'इंडिया'-इण्डिया'के शोर में शामिल होने लग जाते हैं । जब कोई भारतीय कहता है कि 'इण्डिया जीतेगा'या इंडिया की हार के बाद जब कोई भारतीय अपनी टीम को गाली देने कग जाए तो समझो 'राष्ट्रवाद' की कुछ तो सम्भावना शेष है। लेकिन खेल,फिल्म और छुटपुट साहित्यिक गतिविधियों के अलावा भारत में 'राज्य की ओर से 'राष्ट्रवाद' के पक्ष में कुछ खास प्रयोजनात्मक कार्यक्रम नहीं हैं।इसीलिये आरएसएस जैसे गैर सरकारी संगठनों को यह काम करना पढ़ रहा है। हालाँकि आरएसएस वाले जिन्हे तैयार करते हैं , वे भी सत्ता का सानिध्य पाकर  बंगारू लक्ष्मण,जूदेव,प्रमोद महाजन और सिद्धरमैया बन जाते हैं। जबकि संगठन के रूप में उसके अनुषंगी भी सत्ता का बेजा फायदा उठाते रहते हैं। उनके इस पवित्र राष्ट्र धर्म की तब बड़ी भद पिटती है जब वे  'राष्ट्रवाद' की शिक्षा के स्थान पर हिन्दुत्ववादी  साम्प्रदायिक बैमनस्य की शिक्षा देने लग जाते हैं।

हालांकि यही काम मुस्लिम संगठन और मदरसे भी करते रहे हैं और कर रहे हैं। वे इस्लाम के नाम पर इस्लाम की तमाम सामाजिक ,वैवाहिक,पारिवारिक और मजहबी उपलब्धियों का उपभोग करने को अपना 'परसनल लॉ ' मानते हैं. किन्तु वे दीवानी और फौजदारी मामलों में इस्लामिक राष्ट्रों में जारी उस दण्डात्मक इस्लामी कानून की जगह भारतीय सम्विधान के उदारवादी क़ानून का लाभ उठाते हैं। उनकी इस दोहरी उपलब्धि के अलावा  जम्मू - कश्मीर के मुसलमान तो धारा -३७० का तीसरा लाभ भी लेते हैं  और इसके वावजूद वे  कश्मीर के पंडितों का या तो संहार आकर चुके हैं या उन्हें  घाटी से भागने पर मजबूर क्र चुके हैं ,अब कश्मीर के मुसलमान कस्मीरियत या कशमीरी राष्ट्रवाद नहीं बल्कि 'पाक्सितान जिंदाबाद' के नारे लगा रहे हैं। वे भारतीय फौज पर पत्थर फेंक रहे हैं और भारत की धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद को रुस्वा कर रहे हैं। वेशक कश्मीर के अलगाववादी यदि 'राष्ट्रवाद' का दावा नहीं करते ,यदि विश्व इस्लामिक आतंकवाद और पाकिस्तान उन्हें शह  देता है तो शेष सम्पूर्ण भारत की जनता की यह ऐतिहासिक जिम्मेदारी है कि कम से कम  जो 'राष्ट्रवादी' होने का दावा करते हैं वे तो 'राष्ट्रवाद' का आचरण करे । श्रीराम तिवारी




पाकिस्तान को नाथना है तो ' इंदिरा गाँधी 'से सीखो !



मेरे एक वरिष्ठ सहकर्मी और ट्रेड यूनियन साथी अक्सर कहा करते थे  कि ''जिस तरह प्राकृतिक रूप से  गंगा मैली नहीं है बल्कि उसे कुछ गंदे लोग मैला करते रहते हैं ,उसी प्रकार  यह राजनीति  भी जन्मजात गन्दी नहीं है, बल्कि स्वार्थी लोग ही इसे  गंदा करते रहते  हैं। जिस तरह धर्मांध और संकीर्ण लोग गंगा को गटरगंगा बनाने में जुटे रहते हैं ,उसी तरह अधिकांश फितरती, धूर्त  लोग इस  राजनीतिक गंगा को गटरगंगा बनाने में जुटे रहते हैं। ये धूर्त लोग  सत्ता में आने के लिए जाति ,धर्म-मजहब और 'राष्ट्रवाद' का वितंडा  खड़ा करते हैं, लोक लुभावन वादे करते हैं और जब ये सत्ता में आजाते हैं तो वे खुद और उनके सहयोगी भस्मासुर बन जाते हैं। जब चुनावी वादे पूरे नहीं हो पाते हैं ,तो वे नए-नए बहाने खोजने लगते हैं।  इन हालात में जनता की एकजुटता ही देश के स्वाभिमान की रक्षा कर सकती है। सेना या किसी  नेता या राजनैतिक दल की ओकात नहीं कि सीमाओं की रक्षा कर सके !

 नीतिविहीन रीढ़विहीन नेतत्व में कूबत नहीं कि देश के स्वाभिमान की रक्षा  कर सके। जो नेतत्व  जनाक्रोश से बचने के लिए बचाव की घटिया तरकीबें  खोजने में जुटा हो, जो नेतत्व अपने देश की सीमाओं पर दुश्मन देश के हमले रोकने में लगातार नाकाम  रहा हो ,जो नेतत्व अपनी खीज -खिसियाहट निकालने के लिए सिर्फ 'बातों का धनी ' हो ,जो नेतत्व अपने देश के लोगों को अँधेरे में  रखकर रातों-रात शरीफ के घर जाकर चाय पीता रहा हो , जो नेतत्व अतीत में  दावे और डींगे मारता रहा हो ,जो नेतत्व अपनी असफलता की  शर्मिंदगी ढकने की कुचेष्टा करने में लगा  हो ,ऐसे नेतत्व के 'मन की बात'  पर विश्वास करना आत्मघात है।जनता को चाहिये कि किसी खास तुर्रमखां के भरोसे न रहे। जो चौकीदार सोते हुए मार दिए जाएँ ,जनता उनके भरोसे कदापि न रहे। देशके सभी नर-नारी  और सरकारी सेवक अपनी-अपनी ड्यूटी ईमानदारी से करें। पुलिस ,डाक्टर,अफसर ,वकील ,बाबू और जज संकल्प लें कि भारत का गौरव और आत्मबल बढ़ाने के लिए न रिश्वत देंगे और न रिश्वत लेंगे।जनता भी स्वयमेव इसका अनुशरण करे। देशके नेता और दल भी राष्ट्रीय संकट मानकर 'देशभक्तिपूर्ण आचरण करे।

जिन मिलिट्री वालोंने  इंदौर में कई बार उधम मचाया ,वियर बार में लड़कियों को छेड़ा ,विजयनगर थाना तोडा था और जिन्होंने ऋषिराज हॉस्टल के निर्दोष छात्रों को वेवजह कूटा था ,जिन आर्मी अफसरोंने  महू से लेकर इंदौर  विजयनगर तक -राह चलते सिविलियन को कुत्ता समझकर मारा-पीटा  ,वे मिलिटरीवाले अब अपना शौर्य -जौहर पाकिस्तान के खिलाफ क्यों नहीं दिखाते ? हमारे ये जाँबाँज  फौजी क्यों नहीं पाकिस्तान के  किसी आर्मी बेस पर वैसा ही हमला कर देते ,जैसा की पाकिस्तान के फौजी भारतके खिलाफ पठानकोट ,उरी ,उधमपुर में करते हैं ? हमारे बहादुर फौजी अपने बाहुबल का जौहर सिविलियन भाइयों पर दिखने के बजाय या पुलिस पर दिखाने के बजाय  सीमाओं पर जाकर क्यों नहीं  दिखाते ? सीमाओं पर अधिकांस  भारतीय  फौजी सोते हुए ही क्यों मारे जाते हैं ? उरी आर्मीबेस तक पहुँचने वाले पाकिस्तानी आतंकियों को किसी जागते हुए  भारतीय फौजी के दर्शन क्यों नहीं हुए ? इन सवालों से मुँह मोड़कर और 'राष्ट्रवाद' की कोरी डींगे हांकने से पाकिस्तान के मंसूबों को ध्वस्त नहीं  किया जा सकता।  पाकिस्तान को नाथना है तो ' इंदिरा गाँधी 'से सीखो  !

इंदिराजी  ने सिर्फ भारतीय सेना के भरोसे पाकिस्तान से पंगा नहीं लिया था। उन्होंने बँगला देश के मुजीव जैसे नेताओं और  बँगला मुक्तिवाहनी को आगे करके ,सोवियत संघ की ताकत को यूएनओ में आगे करके,भारत के  पूंजीपति वर्ग को पाकिस्तान की आर्थिक नाके बंदी में झोंककर , १९७१ में  पाकिस्तान को चीर डाला था। तब  भारतीय सेना की भूमिका भी बहुत शानदार रही थी । आज के पूँजीपति और व्यापारी  सिर्फ अपनी दौलत बढ़ाने में व्यस्त हैं । ये  सिर्फ मुनाफाखोरी ,मिलावट ,कालाधन और मेंहगाई ही बढ़ाते रहते हैं। नेतत्व की तदर्थ और  अनिश्चयवाली  नीतियों के कारण भारत खतरे में है। सत्ता पक्ष को कांग्रेस मुक्त भारत चाहिए , विपक्ष को 'संघ' मुक्त भारत चाहिए ,जातिवादियों को आरक्षण चाहिए और धर्म-मजहब वालों को 'नरसंहार'चाहिए। किन्तु जनता को यदि  अमन-खुशहाली चाहिए तो आइंदा  इंदिराजी जैसा  सच्चा देशभक्त नेतत्व ही चुने ! बड़बोले जुमलेबाजों से बचकर रहे। इसके साथ -साथ इस भृष्ट सिस्टम को भी तिलांजलि देनी होगी। तभी भारत की सीमाओं पर स्थाई शांति हो सकेगी।

 किसी भी  क्रांति के बाद ईजाद एक बेहतर  सिस्टम तभी तक चलन में जीवित रह सकता है ,जब तक अच्छे लोग राजनीति में आते रहें। और जब तक कोई 'महान क्रांति'का आगाज न हो जाये ! इसके लिए देशभक्ति वह नहीं जो सोशल मीडिया पर दिख रही है। बल्कि सच्ची देशभक्ति वह है कि हम अपना -अपन दायित्व निर्वहन करते हुए कोई  भी ऐंसा काम न करें जिससे देश का अहित हो। सरकारी माल की चोरी ,सराकरी जमीनों पर कब्जे, आयकर चोरी,निर्धन मरीजों के मानव शरीरअंगों की चोरी ,हथियारों की तस्करी ,मादक द्रव्यों की तस्करी और शिक्षा में भृष्टाचार इत्यादि हजारों उदाहरण है जहाँ देशद्रोही बैठे हैं। इनमें से अधिकांस लोग अपने पाप छिपाने के लिए सत्ताधारी पार्टी के साथ हो जाते हैं। इसलिए  सत्ताधारी पार्टी से देश की सुरक्षा को ज्यादा खतरा है।

मुझे भली भांति ज्ञात है कि मेरे कुछ खास मित्र ,सुहरदयजन , शुभचिंतक और सपरिजन लोग  मेरे आलेखों  को पंसद नहीं करते। लेकिन जो पसंद करते हैं वे  सिर्फ इसलिए प्रशंसा के पात्र नहीं हैं कि वे मुझे 'लाइक' करते हैं , बल्कि वे इसलिए आदर और सम्मान के पात्र हैं कि  उनका नजरिया  वैज्ञानिकता से परिपूर्ण है और वे सत्य,न्याय के साथ हैं ! मेरे आलेख और कविताएँ नहीं पसंद करने वालों को  मैंने तीन श्रेणियों में बाँटा है। एक तो वे जो  यह मानते हैं कि राजनीति ,आलोचना और व्यवस्था पर सवाल उठाना उन्हें पसंद उन्हीं। दूसरे वे जो घोर धर्माधता के दल-दल में धसे हुए हैं और साम्प्रदायिक संगठनों द्वारा निर्देशित सोच से आगे कुछ भी देखना-सुनना ,पढ़ना नहीं चाहते।और सांसारिक  तर्क-वितरक पर कुछ भी लिखना -पढ़ना  नकारात्मक कर्म समझते हैं । तीसरे वे निरीह  प्राणी हैं जो  कहने सुनने को तो वामपंथी  राजनीति में नेतत्व कारी भूमिका अदा करते हैं ,किन्तु व्यवहार में वे दक्षिणपंथी कटटरपंथ के आभाषी प्रतिरूप मात्र हैं। राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता की उनकी समझ बड़ी विचित्र है। उन्हें हर अल्पसंख्य्क  दूध का धुला  नजर आताहै ,किन्तु हर  हिन्दू धर्मावलम्बी उन्हें पाप का घड़ा  दीखता है।  पता नहीं दास केपिटल के किस खण्ड में उन्होंने पढ़ लिया कि  भारत के सारे सवर्ण लोग जन्मजात बदमास और बेईमान हैं। उनकी नजर में  हरेक आरक्षण धारी ,दूध का धुला और परम पवित्र  हैं। 
                  
भारत में संकीर्ण मानसिकता के वशीभूत होकर दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों धड़े एक-दूसरे को फूटी आँखों देखना पसन्द नहीं करते। वामपंथ के दिग्गज,नेताओं,प्रगतिशील साहित्यकारों को लगता है कि धरती की सारी पुण्याई सिर्फ उनके सिद्धांतों,नीतियों और कार्यक्रमों में ही  निहित है।  दक्षिणपंथी सम्प्रदायिक खेमें के विद्व्तजन गलतफहमी में हैं कि भारतीय 'राष्ट्रवाद'उनके बलबूते पर ही कायम है और देश के अच्छे-बुरे का भेद सिर्फ वे ही  जानते हैं । मेरा  अध्यन और अनुभव कहता है कि 'लेफ्टफ्रॉन्ट'के पास जो 'सर्वहारा अंतर्राष्टीयतावाद का सिद्धांत है , मानवता के जो सिद्धांत -सूत्र और नीतियाँ हैं,  बेहतरीन मानवीय मूल्य हैं और शोषण से संघर्ष का जो जज्वा है ,भारत में या संसार में वह और किसी विचारधारा में ,किसी धर्म-मजहब में  कहीं नहीं है। लेकिन वामपंथ में भी अनेक खामियाँ हैं। परन्तु विचित्र किन्तु सत्य यह है कि  केवल वामपंथी ही हैं ,जो 'आत्मविश्लेषण'या आत्मालोचना को स्वीकार करते हैं।लेकिन दक्षिणपंथी ,प्रतिक्रियावादी और पूँजीवादी केवल प्रशंसा पसंद करते हैं ,और इसके लिए वे मीडिया को पालते हैं। वे शोषण की व्यवस्था की रक्षा करते हैं, ताकि यह भृष्ट  निजाम उनके कदाचरण  को ,उनके  राजनैतिक,आर्थिक ,सामाजिक और मजहबी हितों की हिफाजत करता रहे। इस तरह वाम- दक्षिण दोनों ध्रुवों में  एक दूसरे के प्रति अनादर भाव और अविश्वास होने से भारत में  वास्तविक 'राष्ट्रवादी चेतना ' का विकास अवरुद्ध है।


राजनीति का एक रोचक पहलु यह भी है कि इसकी वजह से भारत गुलाम हुआ था, और इसीकी वजह से वह आजाद भी हो गया । इसके अलावा और भी कई उदाहरण हैं कि इसी राजनीति की वजह से दुनिया अधिकांश देशों से क्रूर सामंतशाही -राजशाही खत्म हो गई। और उसकी जगह अब अधिकान्स दुनिया में डेमोक्रेसी अथवा लोकतंत्र कायम है। स्कूल कालेजों में राजनीति पढ़ना,पढ़ाना अलहदा बात है,मौजूदा 'गन्दी राजनीति' को भोगना जुदा बात है। व्यवहारिक किन्तु करप्ट -राजनीति सीखने-समझने के लिए  तो भारतमें  बहुतेरे संगठन मौजूद हैं। किन्तु राष्ट्रवाद और लोकतांत्रिक राजनीति का ककहरा सीखने के लिए भारत में सरकारी तौर पर कोई शैक्षणिक पाठ्यक्रम नहीं है। आरएसएस जैसे गैर संवैधानिक संगठन जरूर दावा करते हैं कि वे  नयी पीढ़ी को राष्ट्रवाद सिखाने के लिए बहुत कुछ ,करते रहते हैं। लेकिन अपनी कट्टरवादी साम्प्रदायिक सोच के कारण वे दुनिया भर में बदनाम हैं। इसके विपरीत  भारत का ट्रेड यूनियन आंदोलन काफी कुछ बेहतर सिखाता  है। आरएसएस वाले तो केवल हिंदुत्व और राष्ट्रवाद ही सीखते-सिखाते होंगे,लेकिन भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र [सीटू] वाले तो धर्मनिरपेक्ष -राष्ट्रवाद.अन्तर्राष्टीयतावाद,जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षताके साथ-साथ फ्री एन्ड फेयर डेमोक्रेटिक फंकशनिंग की भी शिक्षा देते हैं। वे न केवल देशभक्ति ,शोषण से मुक्ति ,अन्याय से संघर्ष बल्कि  भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सन्निहित सभी दिशा- निर्देशों के अनुशरण की वकालत करते हैं। उनकी स्पष्ट समझ है कि आतंकवाद के जनक साम्राज्यवाद और मजहबी कट्टरता दोनों ही हैं। केवल आतंकवाद की निंदा करने से या पूँजीवाद को कोसने से ये चुनौतियाँ खत्म नहीं होंगी ! जनता का विराट एकजुट जन-आन्दोंलन , उसकी जनवादी 'अंतर्राष्टीयतावादी' चेतना ही मौजूदा मजहबी आतंक और पाकिस्तानी कारिस्तानी से निपटने में सक्षम है। मजहबी आतंकवाद को सर्वहारा अंतर्राष्टीयतावाद ही रोक सकता है। लेकिन जब तक यह आयद नहीं होता तब तक इंदिराजी वाला रास्ता ही सही  है। श्रीराम तिवारी










शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

आतंकवाद की कोरी शाब्दिक निंदा का मतलब है किसान ने खुरपी फेंक दी है !



मानसून आने पर किसान खरीफ -फसल की बोनी करता है। इससे पहले कि खेत में बोये गए बीज अंकुरित हों , घास - खरपतवार' इत्यादि  अनावश्यक पौधे  पहले से ही उगने लग जाते हैं। खेत में बोये गए अन्न-धान या बीज की  बढ़वार के सापेक्ष घास- 'खरपतवार' की  बढ़त बड़ी तेजी से होती ही। लेकिन किसान अपना काम-धाम छोड़कर गाँव की चौपाल पर जाकर उस दुष्ट घास- खरपतवार की  बढ़त का रोना नहीं रोता। बल्कि खुरपी लेकर उघारे बदन खेतों में खटकर उस 'आतंकी' खरपतवार को उखाड़ फैंकता है। इतना ही नहीं वह घास-खरपतवार नाशक दवा का छिड़काव भी करता है। वह निरंतर खेत में खड़ी फसल की रखवारी भी करता है। तब  महिनों की मशक्कत के बाद जाकर कहीं अन्न -धान की  फसल के दर्शन हो पाते हैं।इंसानियत की खेती भी इसी तरह बहुत कठिन है। जबकि शैतानियत और अमानवीयता के लिए सब कुछ सहज अनुकूल है।

इसी तरह धरती  के विभिन्न राष्ट्रों -समाजों और सम्प्रदायों में इंसानियत अथवा मानवता का बीजारोपण करने में, अमन -शांति ,स्वतंत्रता,समानता,धर्मनिरपेक्षता ,लोकतंत्र और अहिंसा के बीज वपन में अनेक दुशवारियाँ पैदा हुआ करतीं हैं। आर्थिक असमानता,शोषण-उत्पीड़न,अन्याय -अत्याचार की खरपतवार और मजहबी आतंकवाद की गाजरघास  निरंतर उगती रहती है। मानवतावाद की खेती करने वाले दुनियावी शासकों की यह जिम्मेदारी है कि इस अमानवीय गाजरघास और खरपतवार को उखाड़ फैंकने में वे 'अमनपसंद' जनता का मार्गदर्शन करें! इस  मजहबी आतंक रुपी खरपतवार और गाजरघास ने दो-तिहाई दुनिया को कवर आकर लिया है। मानवता, का दम  घुट रहा है।कभी अमेरिका,कभी अफ्रीका,कभी यूरोप ,कभी एसिया , कभी ब्रुसेल्स ,कभी ऑर्लेंडो ,कभी इस्ताम्बूल, कभी पेरिस,कभी लन्दन,कभी मुंबई, कभी काबुल,कभी ढाका और कभी नीस [फ़्रांस] में आतंकवाद ने इंसानियत को शर्मशार किया है। इस नृशंस नरसंहार की ,मजहबी कटटरवाद -आतंकवाद की कोरी शाब्दिक निंदा  का मतलब है ,किसान ने खुरपी फेंक दी है। वह गाँव की चौपाल पर जाकर, गाजरघास-खरपतवार' की बढ़वार पर  ढिंढोरा पीटने का उपक्रम कर रहा है। आतंकवाद से पीड़ित देशों के शासक उसी खुरपी फेंकू प्रमादी किसान की तरह केवल आतंकवाद को शब्दों में कोस  रहे है हैं।   -:श्रीराम तिवारी :-  

मंगलवार, 12 जुलाई 2016

इस्लामिक आतंकवाद से भारत में धर्मनिरपेक्षता को गम्भीर खतरा -भाग चार !

यह सोलह आने सच है कि पाकिस्तान का जन्म ब्रिटिश साम्राज्य और उसकी पालित-पोषित मुस्लिम लीग के 'द्विराष्ट्र' सिद्धांत की असीम अनुकम्पा से हुआ था। पाकिस्तान के जन्म के फौरन बाद उसके फौजी हुक्मरानों ने अमेरिका और सऊदी अरब की खेरात हासिल की। उन्होंने अपनी फौजी ताकत को बढ़ाया। कश्मीर पर कबाइली हमले की आड़ में भी पाकिस्तानी फौज ने ही हमला किया था । नेशनल कांफ्रेंस और डोगरा राजा हरिसिंह की खींचातानी का नाजायज फायदा उठाकर पाकिस्तान ने एक-तिहाई कश्मीर [पीओके]हथिया लिया। इसके बाद उन्होंने  भारतीय हिस्से वाले कश्मीर में निरंतर मजहबी आतंकवाद फैलाना जारी रखा ।चूँकि तब दुनिया में शीतयुद्ध का भी दौर था। अमेरिका और सोवियत यूनियन [अब रूस] दुनिया में अपने -अपने खेमें की ताकत और रुतवा बढ़ा रहे थे। पाकिस्तान के नेताओं ने अमेरिका के आगे जल्दी घुटने  टेक दिए। लेकिन भारतीय नेताओं ने 'गुटनिरपेक्षता' और धर्मनिरपेक्षता में यकीन बनाए रखा। भारत-पाकिस्तान के बीच का यह बुनियादी फर्क ही भारत को पाकिस्तान के सापेक्ष बढ़त दिलाता है और भारत का यह धर्मनिरपेक्ष ,गुटनिरपेक्ष स्वरूप उसे  इंसानियत की ओर ले जाता है। जबकि अपने दुष्कर्मों से पाकिस्तान आज सारी  दुनिया में आतंकवाद का बाप माना जाता है।   

सीमा विवाद और कश्मीर विवाद में भारत ने जब अपनी अस्मिता से कोई समझौता नहीं किया तो चीन,पाकिस्तान और अमेरिका सभी भारत को घेरने लगे। तब इंदिराजी के प्रधानमंत्रित्व में भारत ने सोवियत संघ से के साथ सम्मानजनक 'संधि' कर ली। उस महान संधि की बदौलत ही भारत ने १९७१ के युद्ध में पाकिस्तान को पटकनी दी थेी । उस सोवियत संधि की बदौलत ही भारत ने १९७४ में पोखरण परमाणु विस्फोट भी कर लिया। भारत में अटॉमिक और स्पेस टेक्नालॉजी के विकास एवं स्टील उत्पादन के आधुनिकीकरण में भी सोवियत संघ की महती भूमिका रही है। सोवियत यूनियन की सोहबत का एक सकारात्मक असर यह भी रहा कि भारत ने जनवाद और धर्मनिरपेक्षता का दामन कभी नहीं छोड़ा। किन्तु पाकिस्तान का मजहबी- आतंकवादी हमला बदस्तूर जारी रहा। पाकिस्तान की शह  पर कश्मीर आज भी धधक रहा है। भारत में कुछ लोग इस फसाद की जड़ 'धर्मनिरपेक्षता' और 'तुष्टीकरण' की नीति को मानते हैं। चूँकि अब इस धर्मनिरपेक्षता और तुष्टिकरण की नीति वाले  सत्ता से बाहर हैं और 'राष्ट्रवादी' विचारधारा के लोग केंद्र सरकार में विराजित हैं।वर्तमान में  'संघ परिवार'के प्रसाद पर्यन्त महबूबा मुफ्ती जी कश्मीर की  मुख्य्मंत्री हैं। इसलिए अब सवाल उठता है कि यदि कश्मीर समस्या के लिए 'धर्मनिरपेक्षता' जिम्मेदार रही है ,कांग्रेस जिम्मेदार रही है , उसके पूर्व प्रधान  मंत्री जिम्मेदार रहे हैं ,तो अब 'हिंदुत्तववादी' सूरमा क्या कर रहे हैं ? देश में शुध्द 'राष्ट्रवादियों' की सरकार की सरकार होते हुए कश्मीर की वादियों में मरघट की ज्वाला क्यों धधक रही है ? अब सारा भारत आतंकवाद की गिरफ्त में क्यों है? सत्ता के लिए दुष्प्रचार करना, धर्मनिरपेक्षता को गाली देना ,किसी को 'सेकुलरिस्ट' कह देना ,और किसी  को 'हिन्दू विरोधी' करार देना बहुत आसान है , किन्तु खुद सत्ता में आने के बाद जब  समस्याएँ और बिकराल हो उठीं हैं तो अब नए-नए बहाने खोजे जा रहे हैं ! जिनका जमीर नहीं मरा उन्हें खुद से अवश्य पूंछना चाहिए कि सभी समस्याएं यथावत मुँह बाए क्यों खड़ी हैं ? अब कांग्रेस ,वामपंथ या धर्मनिरपेक्षता  वाले तो इस परिदृश्य में  कहीं भी नहीं हैं !

 जो लोग भारत में आतंकी समस्याओं के लिए,अलगाववाद के लिए -कभी कांग्रेस,कभी वामपंथ कभी आरएसएस को कोसते रहे हैं , वे ईमानदार नहीं हैं दरअसल कांग्रेस ,वामपंथ और 'संघ परिवार 'से भारत को कोई खतरा नहीं। बल्कि ये तीनों हीअपने-अपने ढंग से भारत की भलाई चाहते हैं। लेकिन वोट की राजनीति को घृणा की राजनीति में बदलने के लिए कुछ हद तक भारत के 'इस्लामिक धड़े' और  'संघ परिवार' अवश्य जिम्मेदार हैं। हालाँकि अतीत में कांग्रेस ने भी कटटरपंथी अल्पसंख्यक वर्ग को काफी सहलाया है। किन्तु  भारत के पूर्व प्रधान मंत्रियों पर कश्मीर की अराजकता या विलय की असफलता का ठीकरा नहीं फोड़ा जा सकता। यदि मान भी लें कि यह सब कांग्रेस की और धर्मनिरपेक्ष दलों की मुस्लिम परस्त विचारधारा का परिणाम  है ,लेकिन अब तो केंद्र में 'देशभक्त' लोग राज कर रहे हैं और कश्मीर में भी 'देशभक्तों' के समर्थन से पीडीएफ का राज है। फिर कुछ करते क्यों नहीं ? महज एक आतंकी बुरहान बानी के मारे जाने पर पूरा कश्मीर क्यों उबल रहा है ? यदि इन समस्याओं के लिए भारत के लोग एक दूसरे पर आरोप लगाते रहेंगे, तो पाकिस्तान को कसूरबार कैसे कह सकते हैं ? और यदि पाकिस्तान बेक़सूर है ,तो उधमपुर से लेकर ढाका तक जो आतंकी खून बहा रहे हैं, क्या वे कांग्रेसी हैं ? क्या वे कम्युनिस्ट हैं? क्या वे संघी हैं ? नहीं ! नहीं ! नहीं !

जो लोग कम अक्ल हैं ,जिनको इतिहास का ज्ञान नहीं है और जो 'धर्मनिरपेक्षता' का अर्थ भी नहीं जानते वे यह भी नहीं जानते कि भारत का असली दुश्मन कौन है ? सारी दुनिया को मालूम है कि पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ दुनिया भर में नाना-प्रकार के षड्यंत्र रचे। आजादी के तुरंत बाद से ही पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसियों ने भारत के अंदर मुस्लिम अपराधियों, सट्टा कारोबारियों, फिल्म निर्माताओं,हवाला कारोबारियों और मदरसा प्रबंधनों में अपनी घुसपैठ बढ़ा ली और  उसने भारत को परोक्ष युद्ध में निरंतर उलझाए रखा । पाकिस्तान निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना के मनोमष्तिष्क में शायद उतनी साम्प्रदायिक नफरत नहीं थी। जितनी कि उसकी पाकिस्तानी फौज और मजहबी कठमुल्लों की कट्टरतावादी  सोच में भारत विरोध अंदर तक धसा हुआ था। इसी वजह से लगातार भारत -  पाकिस्तान के बीच बैमनस्य और अविस्वास की खाई बढ़ती ही चली गयी। नतीजा सामने है कि भारत पर दो बार हमला करने के बाद ,बुरी तरह पिटने के बाद , पाकिस्तान अब पहले से जयादा हिंसक और आक्रामक हो गया है।

देश में  ज्वंलत समस्याएं और बदतर हालात हों और  यदि  प्रधान मंत्री  विदेशों में जाकर कभी टॉयलेट बनवाने की घोषणा करते हों ,,कभी योग की ,कभी युवाओं की और कभी विश्व आतंकवाद की चर्चा करते हों ,कभी भारत को 'कांग्रेस मुक्त' करवाने की बात करते हों , तो देश की निराशा स्वाभाविक है। क्या इसी बलबूते पर धारा -३७० हटाने का प्रण लिया था ? एक समान क़ानून ,एक समान अवसर की उपलब्धता और 'आतंकवाद'को पाकिस्तान में घुसकर मारने का माद्दा ,,,,,,ये सब कहाँ है? क्या यह सब कुछ कर पाने के लिए धर्मनिरपेक्षता का खात्मा जरुरी है ? क्या इसके लिए  कांग्रेस मुक्त भारत जरुरी है ? क्या कश्मीर समस्या इसी तरह सुलझेगी ? जैसे कि फौजी संगीनों के साये में और दहशतगर्दों की पत्थरबाजी से अभी सुलझ रही है ? यदि नहीं , तो धर्मनिरपेक्षता को कोसने का मकसद क्या है ? महत् ऊर्जावान प्रधान मंत्री जी और उनका अनुगामी 'संघ परिवार'  निरंतर कांग्रेस और विपक्ष पर हमले करने के बजाय अपनी ऊर्जा पाकिस्तान को ठीक करने में और उसके पालित -पोषित आतंकवाद को नष्ट करने में खर्च क्यों नहीं करते ?

विभाजन के दौर में मुस्लिम लीग के मन में केवल हिंदुत्व विरोध का भाव मात्र था। लेकिन धीरे-धीरे समय के साथ-साथ जब पाकिस्तान के नेताओं को लगा कि वे अपनी घरेलु समस्याओं और उससे उत्पन्न जनाक्रोश का सामना नहीं कर सकते , जब पाकिस्तान में डेमोक्रेटिक फंकशनिंग भी  असफल होने लगी, जब पाकिस्तान में पंजाब,सिंध,बलोच,पख्तून इत्यादि का क्षेत्रीयतावाद उग्र होने लगा ,जब बलोच और मुहाजिरों का आक्रोश बढ़ने लगा तो पाकिस्तान के नेताओं ने और याह्या खान और अयूब खान जैसे फौजी जनरलों ने ,पूर्वी पाकिस्तान की 'बांग्लाभाषी' जनता पर अत्याचार करना शुरुं कर दिए। बांग्लाभाषियों पर उर्दू भाषा जबरन थोपी जाने से पूर्वी पाकिस्तान जल उठा। किन्तु जब बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान के नेतत्व में आवामी लीग को असेम्ब्ली चुनाव में भारी बहुमत मिला तो पश्चिमी पाकिस्तानी हुक्मरानों के हाथों से तोते उड़ने लगे। उन्होंने जनता का ध्यान बटाने के लिए भारत विरोध का हौआ खड़ा किया ।मजबूर होकर इंदिराजी को हस्तक्षेप करना पड़ा। और नतीजे में पाकिस्तान की इतनी बुरी गत हुई कि लाखों पाकिस्तानी फौजियों को भारतीय जनरलों के समक्ष हथियार डालने पडे। पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए गए। बांग्लादेश का उदय हुआ। पश्चिमी पाकिस्तान की जनता ने अपनी बलात्कारी -बर्बर बी- हरल्ली फौज को खूब गालियाँ दीं। जनता ने तुरंत बाद के चुनावों में जुल्फीकार अली भुट्टो को सत्ता सौंप दी। भारत से हारे पाकिस्तानी फौजी जनरल कुछ तो दोजख चले गए और कुछ रिटायर होकर वहाँ की सत्ता पर परोक्ष रूप से काबिज हो गए। कभी जिया-उल हक ,कभी परवेज मुहम्मद,कभी राहिल शरीफ सत्ता पर काबिज हो गए। पकिस्तान के लोकतांत्रिक अर्थात जम्हूरी नेता तो सिर्फ मुखौटा हैं। असल ताकत तो फौज के हाथों में है। जिस पाकिस्तानी फौज  ने पहले ओसामा बिन लादेन को छिपाया,जिसने दाऊद -छोटा शकील- हाफिज सईद -अजहर मसूद और कश्मीरी युवाओं को जहरीला बनाया, वही पाकिस्तानी फौज अब कश्मीर के बहाने भारत, बांग्लादेश और पूरे दक्षिण एसिया मे आतंकवाद की फसल काट  रही है। कश्मीर के पत्थरबाज लोंढे इस पाकिस्तानी  षड्यंत्र के सबसे अभागे और वेवकूफ मोहरे  हैं ! वे नहीं जानते कि उनके शैतानी मंसूबे कभी पूरे ! जिन्होंने वेवजह कश्मीर की वादियों को लहूलुहान किया वे हिंसक दंगाई यह भूल जाते हैं कि पाकिस्तान के बलोचिस्तान में क्या हो रहा है ? 

आजादी के बाद से  पाकिस्तानी मदरसों में बच्चों में को मजहबी कट्टरवाद शिद्द्त से सिखाया जा रहा है । वे अपने ही बच्चों को भारतीय उपमहाद्वीप का गलत-सलत इकतरफा इतिहास पढ़ा रहे हैं । जिसमें केवल हिन्दु विरोध और तमाम अल्पसंख्य्क वर्ग के खिलाफ घृणा का बोलवाला है। न केवल भारत और उसके बहुसंखयक हिन्दू समाज के खिलाफ ,बल्कि मुस्लिम अहमदिया,शिया और सूफी सम्प्रदायों को भी 'गैर इस्लामिक' बताकर सताया गया । नाना प्रकार के कटटरपंथी कानून बनाकर उन का दमन -उत्पीड़न किया गया । उनके अत्याचार की चरम परिणीति यह है कि पाकिस्तान में आर्मी वाले खुद अपने  बच्चों की जिंदगी नहीं बचा पाये। मजहबी आतंकियों ने उनके बच्चों का भी सामूहिक नरसंहार किया है। उनके द्वारा कभी मस्जिदों में खून की होली खेली गयी , कभी भारत की सीमाओं पर बेकसूर लोगों को आपस में लड़वाया -मरवाया गया । आईएसआई ,सिमी अलकायदा, तालिवान आईएसआईएस,दुख्तराने हिन्द, जेश-ऐ-मुहम्म्द  ये सब पाकिस्तानी फौज के ही हिस्से हैं। भले ही इस कट्टरपंथी  बहशीपन से पाकिस्तान दुनिया में  बुरी तरह बदनाम हो चुका है। लेकिन उनकी देखा देखि या न्यूटन के गति के नियम* की तर्ज पर भारत में भी कुछ लोग  'हिंदुत्ववाद' जैसा नाटक खेलने की हास्यपद कोशिश कर रहे  हैं। लेकिन यह पक्का है कि इस बचकानी हरकत में भारत की हिन्दू-जैन-बौद्ध जनता को कोई खास दिलचस्पी नहीं है। चूँकि भारत के सनातनधर्मी लोग 'अहिंसा परमोधर्म' को ही जीवन आदर्श मानते  हैं। और एनडीए -भाजपा- मोदी जी को वोट देकर भारत की बहुसंख्यक जनता उनके वीरोचित करिश्में के इंतजार में है। किसी भी नेक इंसान को आईएसआईएस या अलकायदा जैसा संगठन में बलि बकरा बनने में कोई रूचि नहीं ! धर्मनिपेक्षता भारत के अन्तस् में वसी है। ये बात जुदा है कि कुछ मुठ्ठी भर नेता सत्ता के लिए  इसी धर्मनिरपेक्षता  को गालियाँ  देते हैं। धर्मनिरपेक्षता को गालियाँ देने वाले लोग जड़मति अथवा अभद्र तो हो सकते हैं ,किन्तु वे आईएसआईएस,अलकायदा या तालिवान जैसे कदापि नहीं हैं ! श्रीराम तिवारी :-



शनिवार, 9 जुलाई 2016

इस्लामिक आतंकवाद से भारत में धर्मनिरपेक्षता को गम्भीर खतरा -भाग तीन

दुनियावी तस्वीर साक्षी है ,जो यह बताती है कि अन्य प्राणियों के बनिस्पत इंसान ने धरती पर अपनी 'मानवीय'मेधा शक्ति के झंडे सबसे पहले गाड़े होंगे । कालान्तर में संवेदनशील मनुष्यों ने तत्कालीन परिस्थितियों में जहाँ-तहाँ जब प्रकृति के साथ अपना सातत्य बिठाते हुए अच्छे -बुरे की समझ विकसित की होगी। शायद तभी किसी 'पहले मनुष्य' ने मानवेतर घटनाओं पर अज्ञात 'दैवीय' शक्तियों का चमत्कार मानकर उस आभासी प्रभुसत्ता को एक नूतन वैज्ञानिक खोज की तरह ''यूरेका - यूरेका ..'' के साथ  स्वीकार किया होगा । और इस तरह धरती के अधिकांश हिस्सों में ,खास तौर से सभ्य समाजों में धर्म-मजहब का बीजारोपण प्रारम्भ हुआ होगा । मनुष्य ने पहले आग की , पहिए की और बैलगाड़ी की खोज की होगी ,शब्दों को अभिव्यक्त करने की वाग्मिता ईजाद की होगी  तथा अन्य प्राणियों के मुकाबले  'मानवीय हाथों की ताकत ' के बलबूते पर श्रमश्वेद के महत्व की खोज की होगी। इसके उपरान्त  मनुष्य ने 'घर-परिवार' बसाए होंगे ! इसके उपरान्त गोत्र,समाज और राष्ट्रों की अवधारणा विकसित हुई होगी ! इन सबके संचालन के लिए रीति-रिवाज और नियम कानून बनाये गए होंगे। इस तरह आदिम  मनुष्य ने जब अपने पुरुषार्थ को जीवंत देखकर अन्य चौपायों से अपने आपको ज्यादा बुद्धिमान पाया होगा। तभी उसे सुख-दुःख को  अक्षुण रखने की लालसा जागी होगी। और इस उधेड़बुन में जब कुछ खास बुद्धिमान इंसानों  ने अपराजेय शक्तियों को नमन करते हुए  'ईश्वर' के अस्तित्व की घोषणा  कर दी और अपना सन्देश अन्य लोगों को बताया तो वे अवतार,पीर,पैगंबर हो गए।  

भारत में 'धर्म' का अनुसंधान किसी एक  खास व्यक्ति अथवा अवतार ने नहीं किया। बल्कि मानवीय  जीवन  की लम्बी यात्रा और सभ्यता के विकास क्रम में पूर्व वैदिक आर्यों ने  सूक्तों,मन्त्रों और स्त्रोतों का निरंतर सस्वर पाठ करते हुए उसे 'स्मृति'का रूप प्रदान किया। आर्य सभ्यता के विकास क्रम की इस परम्परा के अवगाहन से कालांतर में उत्तरवर्ती आर्यपुत्रों ने न केवल चारों  वेदों का संकलन किया अपितु उन्होंने अपने सिद्धांत सूत्रों में सन्निहित अद्वतीय और महानतम मानवीय मूल्यों को विश्व व्यापी स्वरूप भी प्रदान  किया।'अहम ब्र्हमस्मि' , 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया'.., 'धर्मो रक्षति रक्षतः', 'वयम् रक्षाम:', 'सत्यमेव जयते' अहिंसा परमोधर्म :' 'अप्प दीपो भव' ,'वस्तु स्वभावो धम्मह ','ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या' 'परहित सरिस धरम नहीं भाई ,परपीड़ा नहीं सम अधमाई ' इत्यादि लाखों सूत्रों-मन्त्रों से भारतीय 'सनातन धर्म' भरा पड़ा है। इन सूत्रों-मन्त्रों की व्याख्या से कदापि यह नहीं लगता कि वे केवल भारत की आवाम के लिए हैं या केवल हिन्दुओं के लिए बनाए गए हैं। बल्कि वे सर्वकालिक और सार्वभौमिक हैं।

यदि धर्म को राजनीति से अलग रख जाये तो यह दावा किया जा सकता है कि यह 'सनातन धर्म' कोई अफीम नहीं है। अन्य मजहब-पंथ जिनकी जानकारी कार्ल मार्क्स को थी,और इन पंक्तियों के लेखक को नहीं है , वे सरसरी तौर पर अफीम ही सिद्ध हुए  हैं। हालाँकि उन पाश्चात्य 'रिलीजंस और मजहबों' में भी बहुमूल्य मानवीय संवेदनाओं का भंडार बहरा हुआ है किन्तु आतंकवाद के नजरिए से देखने पर यह जरुरी हो जाता है कि उन रिलीजंस-मजहब के प्रबुद्ध जन संसार के समक्ष यह सिद्ध करें, कि उनका रिलिजन या मजहब केवल अफीम नहीं है। बल्कि वे भी सनातन धर्म की तरह मानवीय मूल्यों के अजस्र स्रोत  हैं ! धार्मिक संकीर्णता और मजहबी आतंकवाद जरूर त्याज्य और निंदनीय है। कार्ल मार्क्स -एंगेल्स ने सम्भवतः इन्ही मजहबी बुराइयों की ओर  दुनिया का सबसे पहले ध्यानाकर्षण किया था। और गुलाम दुनिया के लिए धर्म-मजहब को अफीम बताया था।

देश काल परिस्थतियों के कारण कुछ मानव कबीले बौद्धिक रूप से जल्दी-जल्दी विकसित होते चले गये। और कालान्तर में सुमेरु,आर्य,यहूदी,पारसीक सभ्यताओं ने अपने-अपने टोटम भी विकसित किये। सभी ने अपने-अपने दर्शन ग्रन्थ और महाकाव्य रचे। इन उन्नत सभ्यताओं में उच्चतर मानवीय मूल्यों को भरपूर तवज्जो दी जाने लगी । धर्म दर्शन और अध्यात्म के सिद्धांत -सूत्र  निर्धारित किये जाने लगे। धरती पर अनेक समृद्ध सभ्यताओं ने कदाचित क्रूरकाल में भी अमन और खुशहाली के परचम बुलंद किये हैं । वैसे इजिप्ट, एथेंस,स्पार्टा ,रोम, परसिया और जेरूसलम  की सभ्यताओं के पराभव के बारे में तो मरहूम अल्लामा इकबाल साहिब बजा फरमा गए हैं कि ''यूनान ओ रोमा मिट गए जहाँ से,बाकि है जहाँ में नामो निशा हमारा ,सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा ''!

वस्तुतः अल्लामा इक़बाल साहिब जिसे 'हिन्दोस्ताँ ' कह गए हैं ,वह विशाल सुसंस्कृत धरा 'अखण्ड भारत ' के रूप में पश्चिम में ईरान के मदान शहर से लेकर पूर्व में अंगकोरबाट [कम्बोडिया]तक और दक्षिण में श्रीलंका से लेकर उत्तर में मंगोलिया तक विस्तृत थी। वेशक राजनैतिक दॄष्टि से इस विशाल भूभाग का कोई एक सत्ता केंद्र कभी नहीं रहा।सिर्फ अंग्रेज ही इसके अपवाद रहे हैं। चूँकि ब्रिटिश साम्राज्य का कभी सूर्यास्त ही नहीं होता था,अतः वे अवश्य कुछ समय के लिए इस संम्पूर्ण भूभाग के शासक रहे हैं। लेकिन भारत के महानायकों में शामिल जिन पांडवों ने कुरुक्षेत्र में कौरवों को हराया था वे भी इस विशाल भूभाग के भोक्ता कभी नहीं रहे। क्योंकि कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों ओर के राजाओं की तादाद और उनकी सैन्य शक्ति का 'महाभारत' में विस्तार से वर्णन है। युद्धोपरांत युधिष्ठर द्वारा किये गए अष्वमेध यज्ञ में भी हस्तिनापुर से स्वतंत्र राजाओं का स्प्ष्ट उल्लेख मिलता है। अवध,काशी ,अंग-बंग -कलिंग वाले सौराष्ट्र और सिंधु-सौवीर वाले,मगध वाले,प्राग्ज्योतिषपुर वाले सबके सब उस यज्ञ में आमंत्रित थे। द्वारका और मथुरा वाले तो पहले से ही उनके स्वतंत्र रिस्तेदार थे।

जो लोग महाभारत को इतिहास नहीं मानते या 'मिथ' मानते हैं उन्हें यूनानी दार्शनिक मेगास्थनीज कृत 'इंडिका' का अध्यन अवश्य करना चाहिए ! उसमें भी इस भूभाग की ततकालीन राजनैतिक स्थति  लगभग वैसी ही ही जैसी कि 'मिथकीय' महाकाव्य महाभारत में। उसमें उन सब देशों का उल्लेख है जो इस 'अखण्ड भारत' के भूभाग में विदयमान थे। और जिनका विस्तार से महाभारत में भी उल्लेख है । कहने का मकसद ये कि राजनैतिक रूप से तो 'अखण्ड भारत' कभी नहीं बन पाया। किन्तु चन्द्रगुप्त मौर्य ,संम्राट अशोक,के समय इतना अवश्य हुआ कि 'बौद्ध धर्म' इस समस्त दक्षिण एसिया में बोलबाला हो गया। तिब्ब्त,श्रीलंका,चीन मलेशिया,थाइलैंड ,नामपेन्ह ,जापान और मंगोलिया तक बुद्ध का संदेश  पहुँच गया। कहीं-कहीं तो बौद्ध धर्म राजधर्म ही बन गया ।

कालांतर में जब बौद्ध धर्म खुद ही बुद्ध के आदेशों और संदेशों से भटक गया ,जब उसके अनुयायी हीनयान-महायान बगैरह के मत-मतांतर में उलझने लगे तब इस  'अखण्ड भारत ' में फिर से वैदिक धर्म ने अंगड़ाई ली। चूँकि बौद्ध धर्म सदियों तक इस भारतीय उपमहाद्वीप पर 'राजधर्म'के रूप में स्थापित रहा है इसलिए उसके अनुयाईओं द्वारा निरीह सनातन धर्मावलम्बियों और ब्राह्मणों का सताया जाना स्वाभाविक था। बहुत लम्बे अर्से तक  बचे खुचे ब्राह्मणों ने वेदों,उपनिषदों और पुराणों को अपनी स्मृतियों में संजोए रखने की तकनीक ईजाद क्र ली थी। यही वजह है कि दक्षिण भारत के एक निर्धन ब्राह्मण बालक -आदि शंकराचार्य ने  वेद प्रणीत सनातन धर्म को न केवल पुनः जीवित किया बल्कि बौद्ध धर्म और अन्य अवैदिक मतों का खंडन कर उन्हें भारत से बाहर कर दिया। उन्होंने इस प्रायद्वीप के चारों कोनों में चार मठ भी स्थापित किये । उन्होंने अल्प वय में ही वेदप्रणीत सिद्धांतों और सूत्रों के अनेक भाष्य रच डाले। उन्होंने अद्वैत  वेदांत और 'ब्र्ह्म सत्यम जगन्मिथ्या 'का सिद्धांत प्रस्तुत किया। बाद में मध्युगीन भक्त कवियों ने आदि शंकराचार्य के वैदिक सिद्धांत' में भारतीय लोक [परम्परा का रंग डालकर जो 'अवतारवाद'और भक्तिमार्ग पेश किया ,उसे ही 'सनातन धर्म 'कहते हैं। बाहर से आने वाले यवन ,तुर्क,मंगोल आक्रमणकारियों ने भारत के इस धर्म को ही 'हिन्दू धर्म'नाम दिया था। 19वीं शताब्दी में स्वामी विवेकानंद ,बंकिमचंद,श्रद्धांनद ,महात्मा गांधी ,सुब्र्मण्यम भारती और जे कृष्ण मूर्ती इत्यादि ने  ने इस 'हिन्दू धर्म 'में भारतीय राष्ट्रवाद का सन्देश शामिल किया ! 

बाद में यवन ,मलेच्छ ,तुर्क,खिलजी,अफगान आये , मुगल आये किन्तु वे पूरे  भूभाग को कभी नहीं जीत पाये ,जिसे कुछ लोग 'अखण्ड भारत' कहते हैं।
ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा ऋषियों के कालजयी श्लोक ''कृणवन्तो विश्वम् आर्यम'की अनुगूँज केवल दक्षिण एसिया तक ही सीमित नहीं रही बल्क मिश्र ,तिब्बत, चीन मगोलिया ,कम्बोडिया,मलेशिया ,जावां,सुमात्रा ,इंडोनेशिया और थाईलैंड में भी बहुत काल तक सुनाई देती रही है।दुनिया में शांति-मैत्री का अलख  जगाया जा रहा था। लेकिन यह सर्वजनहिताय वाली चेतना दुनिया के कुछ समाजों को कभी  पसंद नहीं आई । पश्चिम के कुछ यथार्थवादी - भौतिकवादी विद्वानों ने जब कहा कि  'रिलीजंस एक अफीम है ' तब उनके निशाने पर भारतीय सनातन धर्म और वेद कदापि नहीं थे। उन्होंने तो पाश्चात्य कबीलाई मजहबों की लटके- झटके और पोप की बादशाहत को इशारों-इशारों में 'अफीम' कह दिया। वास्तव में दुनिया का कोई भी धर्म -मजहब इतना बुरा या त्याज्य नहीं कि उसे सिर्फ अफीम ही रखा जाये। यदि मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा भी है तो उनका तातपर्य  किसी धर्म -मजहब के उसूलों से नहीं बल्कि शोषणकारी मजहबी दवंगता  को लताड़ने से है। वर्ना धर्म मजहब महज अफीम नहीं बल्कि इंसानियत की दवा भी हैं। वशर्ते ये धर्म -मजहब आतंकवाद और हिंसक बहशीपन से दूर रहें।

 :- श्रीराम तिवारी ; -



इस्लामिक आतंकवाद से भारत की धर्मनिर्पेक्षता को गम्भीर खतरा -भाग-2

इस्लामिक आतंकवाद मौजूदा दौर में अमनपसंद दुनिया के सामने एक अहम चुनौती है। इससे दुनिया की तमाम सभ्यताओं और कौमों को गम्भीर खतरा है। खास तौर से भारत जैसे 'अहिंसा के पुजारी' देश को, जाति -वर्ण,आरक्षण-विचक्षण में खण्ड-खण्ड बटे हिन्दू समाज को इस जुड़वाँ आतंकवाद से भारी   खतरा है। किन्तु इस कट्टरवादी इस्लामिक आतंकवाद से खुद इस्लाम को सबसे ज्यादा खतरा है। सारी दुनिया में इस मजहबी आतंकवाद के विरुद्ध आवाजें उठ रहीं हैं। दुनिया का हर सच्चा और अमनपसंद मुसलमान इस आतंकवाद से नफरत करता है। हालांकि दुनिया के अधिकांश आतंकवादी अपने आप को मुसलमान बताते हैं ,किन्तु वास्तव में वे इस्लाम के और इंसानियत के भी दुश्मन हैं। अधिकांश मुसलमान मानते हैं कि इन रक्तपिपासु आतंकियों ने इस्लाम को रुसवा किया है, और इस्लाम को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है। लेकिन दुनिया के अन्य धर्म-मजहब के लोगों को भारत के हिन्दुओं को इस्लाम की पवित्रता पर कोई संदेह नहीं है। एक सच्चा हिन्दू गीता के सन्देश की तरह  हुजूर स अ व  हजरत मुहम्मद की शिक्षाओं का भी आदर करता है । उसकी नजर में इस्लाम उतना ही पाक और अमनपसंद है जितना कि उसका 'सनातन धर्म'! यह बहुत जरुरी है कि  कट्टरपंथी आतंकवाद की आलोचना हो ,उसके खिलाफ संघर्ष किया जाये ,किन्तु इसके लिए यह बहुत जरूरी है कि, इस्लामिक जगत के अमनपसंद लोगों को, और ज्यादा शिद्द्त से इस आतंकवाद की मुखालफत करनी होगी।

प्रस्तुत आलेख का मकसद- किसी भी धर्म-मजहब की बाजिब -गैरबाजिब आलोचना करना ,उसके गुण -दोषों की विवेचना करना, या उनकी महत्ता का बखान करना नहीं है। वैसे भी दूसरे की रेखा का कुछ हिस्सा मिटाकर ,अपनी रेखा बढ़ाने वाले कभी सफल नहीं हो सके। प्रायः सभी जानते हैं कि मजहबी कट्टरवाद किस खास मजहब में ज्यादा परवान चढ़ा है।  यह भी कड़वा सच है  कि हिंसा का रास्ता अखत्यार करने में आईएसआईएस ,अलकायदा,तालिवान और बोको हरम की बराबरी का आतंकी संगठन इस दुनिया में कहीं नहीं ,किसी गैर इस्लामिक धर्म-मजहब और राष्ट्र में कहीं भी नहीं । लेकिन क्या अन्य धर्म-मजहब में पूरा अमन -चैन है ? और क्या इस्लामिक आतंकवाद के बहाने इस्लाम को निशाना बनाना उचित है ? भारत में 'हिंदुत्ववाद' का बड़ा हो हल्ला है। कुछ लोग इस्लामिक आतंकवाद बहाने दुनिया भर में अपनी बेबसी का रोना रोते  फिर रहे हैं। कुछ हिन्दूवादी संगठन और नेता हिन्दू कौम और सनातन- धर्म पर इस्लामिक अत्याचार का इतिहास बार-बार दुहराते रहते हैं।

धर्मावलम्बियों की दुर्दशा पर आंसू बहाकर राजनीतिक रोटियाँ सेंकने में सफल भी हुए हैं। कहीं इस्लामिक जिहाद ,लव जेहाद और हिन्दुओं की घटती आबादी का अरण्यरोदन है ,कहीं मस्जिद बनाम मन्दिर का द्रुतविलंबित बनावटी शोर है। इससे हिन्दुओं का या सनातन धर्म का कोई भला नहीं होने वाला। बल्कि पाकिस्तान और आईएसआईएस जैसे नापाक तत्वों को भारत के खिलाफ उनके दुष्टतापूर्ण उद्देश्यों को जस्टीफाई करने का मौका अवश्य मिलता है।   

'आवश्यकता आविष्कार की जननी है ' ! इस सिद्धांत के अनुसार धरती के सबसे 'समझदार प्राणी' कहे जाने वाले इंसान ने पहले तो जीवन निर्वाह के तमाम संसाधन जुटाए, फिर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती के निमित्त निरंतर नए-नए आविष्कार किये और  तदनुसार मानव समाज ने नित नूतन नव निर्माण किये।  सभ्यताओं के विकास क्रम में दुनिया के अधिकांश हिस्सों के आदिम कबीलों ने अपनी दैहिक,दैविक,भौतिक समस्याओं के निवारण के लिए सामाजिक रीति-रिवाज बनाए, अपने-अपने  नियम कानून बनाए और  कालान्तर में जब इन  कबीलाई समाजों ने सूखा,बाढ़ ,उल्कापात,आगजनी, हिमपात और महामारी जैसी बिकट समस्याओं-दुर्घटनायें देखीं-भोगीं और उनके निवारण में अपने आप को जब असहाय निरुपाय महसूस किया,तब उनके बीच मौजूद विवेक बुद्धि सम्पन्न इंसानों ने 'अज्ञात दैवीय शक्तियों' की उपासना का सिद्धांत तजबीज किया। लगभग इसी तर्ज पर दुनिया के तमाम  धर्म-मजहब अस्तित्व में आये। यह बात जुदा है कि बहुत बाद में इस दैवीय अनुष्ठान में चमत्कार,अवतार, धन दौलत के लुटेरे ,आडंबरपूर्ण उपासना गृह, अधार्मिक-मजहबी पाखण्ड,धार्मिक कट्टरता और आतँक के जल-जले पैदा होते चले गए।  ये तमाम नकारात्मक तत्व समय-समय पर राज्य सत्ता के ठिकाने  भी बनते रहे हैं । इस दौर का मजहबी आतंकवाद उसी नापाक तस्वीर की निशानी है।

दुनिया में जो धर्म-मजहब अपने आप को छुई-मुई समझते हैं या दूसरों के धर्म-मजहब से घृणा करते हैं,वे अतीत में भी मजहब के नाम पर दुनिया भर में हिंसा और लूट के लिए बदनाम रहे हैं। हिंसक -लूट के धन से 'खलीफा' का खजाना भरने और दुनिया भर से कमसिन जवान लड़कियों-ओरतों को लूटकर उसका 'हरम' भरने निकले मुहम्म्द बिन कासिम ,महमूद गजनबी,मुहम्म्द गौरी तो इस जहाँ से कब के रुखसत हो गए किन्तु वे शैतानियत की अमानवीय नजीर इस धरा पर अवश्य छोड़ गए। उनके वैचारिक उत्तराधिकारी ;अपने धर्म-मजहब के प्रचार-प्रसार और विस्तार की लालसा में रात -दिन हलकान हो रहे हैं। वैसे तो दुनिया के सभी धर्म-मजहब कटटरवाद,संकीर्णतावाद और पाखंडवाद से ग्रस्त हैं, किन्तु वैश्विक सरमायेदारी ने और आधुनिक मारक हथियारों की तिजारत ने 'इस्लामिक आतंकवाद 'को कुछ ज्यादा ही खाद-पानी दिया है। खुद सऊदी अरब ,जॉर्डन,सीरिया,सूडान ,यमन ,पाकिस्तान और अन्य पेट्रोलियम उत्पादक इस्लामिक देशों ने  दुनिया में   साम्प्रदायिक वैमनस्य  बढ़ावा दिया है।  जिन देशों ने मजहबी कट्टरता को हावी होने दिया ,अलकायदा,तालिवान,बोको हरम और आईएसआईएस को मजबूत किया ,वे इस्लामिक देश अब खुद ही इस भस्मासुर से भयभीत हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक,धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है ,यह बहुत खेदजनक और असहनीय है कि भारत के कुछ  भटके हुए युवा, कभी कश्मीर के अलगाववादियों से जुड़कर ,कभी पाकिस्तान के आतंकी संगठनों और प्रशिक्षण शिवरों से जुड़कर ,कभी अलकायदा ,कभी तालिवान ,कभी दुख्तराने मिल्लत,कभी आईएस,और कभी किसी अन्य आतंकी संगठन से जुड़कर , अपने ही मादरे -वतन भारत से गद्दारी करते हुए  बेमौत मर रहे हैं।  वे इस्लाम के पवित्र सिद्धांतों के बारे में और उसकी महानता के बारे में कुछ नहीं जानते। उनके आतंकी इतिहास से विचलित होकर कुछ  'हिन्दू ' भी उनकी नकल करना चाहते हैं,किन्तु वे भूल जाते हैं कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और हिन्दू धर्म में 'अहिंसा' तत्व का समावेश बहुत गहरे तक पैठ बनाए हुए है, इसलिए 'हिंदूवादी आतंकवाद' केवल एक कोरी कल्पना या गप्प मात्र है।आरएसएस,   शिवसेना इत्यादि का मकसद हिन्दुत्ववादी ध्रुवीकरण के मार्फत सत्ता हासिल करना है ,ताकि वे पैसे वाले हिन्दू -वनियों को सुरक्षा प्रदान कर सकें!इसके बदले उन्हें 'गुरु दक्षिणा 'या चंदा मिलता है।  जिस प्रकार इस्लामिक आतंकवाद खुद इस्लाम का दुश्मन है उसी प्रकार 'संघ परिवार'का 'हिंदुत्ववाद' सनातन धर्म का शत्रु है।

  वर्तमान समय में इस्लामिक कट्टरपंथियों से न केवल इस्लाम को  बल्कि सम्पूर्ण धरती को ही खतरा पैदा हो गया है। लेकिन 'सनातन धर्म' से दुनिया में  किसी को कोई खतरा नहीं। 'संघ परिवार' से हिंदुत्व को और धर्मनिरपेक्षता को खतरा अवश्य है किन्तु उससे इस्लाम को या भारत में किसी धर्म-मजहब  को कोई खतरा नहीं है । 'संघ' वाले इन्देशकुमार,सुधींद्र जैसे लोग खुद ही अल्पसंख्यकों को 'संघ' की छतरी के नीचे लाने में जुटे हैं।  अपने स्वभाव से ही यह 'सनातन धर्म' चाहकर भी किसी बिधर्मी का बलात धर्म परिवर्तन नहीं कर सकता ,क्योंकि उसकी जाति -गोत्र-खाप की संरचना में नवआगुंतक को कोई स्थान नहीं। और न ही यह 'सनातन धर्म' किसी  व्यक्ति अथवा समाज पर तलवार या बन्दूक की ताकत से थोपा जा सकता  है। हालांकि इस सनातन धर्म के अंदर 'कर्मयोग,ध्यानयोग और सुदर्शन क्रिया इत्यादि आध्यात्मिक गुण सूत्र ऐंसे हैं कि  संसार का कोई भी मनुष्य बिना धर्म परिवर्तन के ही 'सनातन धर्म'का अनुशरण कर सकता है। हालाँकि इस्लाम ,बौद्ध ,जैन ,सिख और ईसाइयों की भाँति 'सनातन धर्म' में भी अनेक मत-मतांतर और झगड़े हैं। किन्तु इसके कुछ सिद्धांत और सूत्र वैज्ञानिकता ,तार्किकता से परिपूर्ण  हैं। उपनिषद,वेदांत दर्शन और गीता की शिक्षाएं अपनी रचनात्मक बुनावट में सार्वभौम और कालजयी हैं। और इसकी आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार धाम और ज्योति पीठ की परम्परा ,द्वादश ज्योतर्लिंग की भारत में भौगोलिक स्थति और प्रमुख नदियों में  'कुम्भ स्नान' वाली  परम्परा 'सनातन धर्म' को मानवीय सम्वेदनाओं से जोड़कर और ज्यादा  महान बनाती है। शायद इसीलिये 'इसे सनातन धर्म 'कहा गया है। और उसके प्रमुख आर्ष ग्रंथों -वेदों को 'अपौरषेय' कहा गया है। इनमें  'सनातन धर्म' की उदारता ,विनम्रता और महानता के लाखों मन्त्र दर्ज यहीं। उनमें से एक -दो मंत्र यहाँ प्रस्तुत है :

''इन्द्रम् मित्रम् वरुणं अग्निम अहुरथो,दिव्या सा सुपर्णों गरुत्मान,एकम सद  विप्रः बहुधा बदन्ति''

अर्थात :-इंद्र,मित्र ,वरुण ,अग्नि ,अहुरमज्द एवं संसार के सभी देवी -देवता ,नैतिक आदर्श ,धर्म सिद्धांत  मूलतः एक ही  हैं। विद्वान लोग उन्हें भिन्न -भिन्न नामों से याद करते हैं, उनके नाम और उपासना  के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं ,किन्तु अंततोगत्वा वह 'सत् 'एक ही है !

अयं निजः परोवेत्ति ,गणना लघुचेतसाम। उदार चरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम।।

अर्थात : ये मेरा है ,ये तेरा है  इस प्रकार की सोच 'निम्नकोटि' के लोगों की हुआ करती है। उदार चरित्र के लोग तो सारे संसार को अपना कुटुंम्ब मानते हैं।

 ये सूत्र मन्त्र केवल दर्शन झाड़ने के लिए नहीं बने थे। सत्य हरिशचन्द्र ,नल दमयन्ती, मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम और महर्षि दधीचि जैसे पात्रों में इन सिद्धांतों को व्यवहृत हुआ भी देखा जा सकता है।

यह अद्भुत एव विचित्र किन्तु सत्य तथ्य है कि दस हजार साल पहले जब इन मन्त्रों  की रचना की गयी , तब दुनिया में जितने धर्म-मजहब थे ,उन सबका सादर उल्लेख इस मन्त्र में किया गया है। इसमें उल्लेखित अग्नि और अहुरमज्द पारसियों और सुमेरियन सभ्यता के देवता हैं ,इस मन्त्र में आये नाम  किसी मानव या आदमजात के नहीं अपितु अलौकिक शक्तियों के हैं। इसमें प्रकृति की अज्ञात शक्तियों को उस एक 'सत्य'का स्वरूप मानकर  मान्यता दी गयी है। वेशक कोई  भी यह सवाल उठा सकता है कि जब यह सार्वभौम और कालजयी  मंत्र है तो इस मन्त्र में गॉड,अल्लाह, बुद्ध,महावीर और नानक का उल्लेख  क्यों नहीं है ?इस प्रश्न का उत्तर बहुत सहज और सरल है। ईसाई धर्म का अभ्युदय दो हजार साल पहले हुआ है ,इस्लाम का उदय चौदह सौ साल पहले हुआ है,बौद्ध धर्म का अवतरण २५०० साल पहले हुआ है। लेकिन इस मन्त्र की रचना  दस हजार साल पहले हो चुकी थी। दूसरा सवाल यह भी उठ सकता है कि तब तो  हिन्दू शब्द ही इस धरा पर मौजूद नहीं था ,तो इस मन्त्र को हिन्दू धर्म से  कैसे जोड़ा जा सकता है ? इस प्रश्न का जबाब ही 'सनातन धर्म' है। अर्थात जो सनातन से है ,काल से परे  है और जिसमें संसार के सभी धर्म-मजहब का सार है। हिन्दू धर्म ,हिन्दू कौम और हिन्दू राष्ट्र ,ये शब्द ही सारे झगड़े की जड़ हैं।

भारत में सिंधु घाटी सभ्यता ने ,हिमालय पर्वत की सभ्यता ने ,दक्षिण की द्रविड़ सभ्यता ने और गंगा-यमुना के मैदानों की सभ्यता ने अपने अलग-अलग स्वतंत्र विकास किये । इन आदिम कबीलाई सभ्यताओं के प्रारम्भ में आपसी संबंध बहुत कम थे ,उनके रीति-रिवाज, धर्म और पूजा पद्धति इत्यादि भी अलग-अलग थे। कुछ कबीले तो बहुत काल तक किसी भी तरह के धर्म- मजहब और 'सभ्यता'से वंचित रहे। इसीलिये इनमें से अधिकांश लोग 'हिंदोस्तान' में इस्लाम के आगमन पर मुसलमान हो गए। और जो शेष बचे वे  अंग्रेजों-ईसाइयों  के 'इंडिया' आगमन पर ईसाई हो गए । वास्तव में सिंधु नदी को अरब-फारस के लोगों ने 'हिन्दू' पुकारा और  जिसे आज  सारी दुनिया 'हिन्दू धर्म' कहती  है ,उसका नामकरण संस्कार भी 'इस्लामिक 'विद्वानों ने  ही किया था। लेकिन इस नामकरण से पहले इसे केवल 'सनातन धर्म' कहा जाता था। जिसके वेद ,उपनिषद और षड दर्शन सारे  संसार को लुभाते रहे हैं।

किन्तु धरती पर किसी बड़ी उथल-पुथल के कारण 'इंडोयूरोपियन सभ्यता' के कुछ कबीले जब मध्य एसिया से उत्तर-पश्चिम भारत में आ वसे तब उन्होंने उस प्रदेश नामकरण 'पंचनद प्रदेश ' के रूप में किया। सम्भवतः रावी, विपस्त्ता,सतलुज,व्यास और झेलम नदियों का नामकरण संस्कार इन्ही आदिम आर्यों ने किया होगा। सिन्धु,सप्त सिंधु और आर्यावर्त नाम भी इस भूमि को इन यायावर आर्यों ने ही दिया होगा।
जब पूर्व वैदिक आर्यों के कबीले मध्य एसिया से 'पंचनद'प्रदेश में  आये तब तक भारतीय उपमहाद्वीप का नामकरण संस्कार भी नहीं हुआ था।  में 'आर्यावर्त' भरत खण्ड ,द्रविड़ देश,दक्षिणापथ और कदाचित या जम्बूद्वीप  नामकरण से पहले कुछ स्थानीय कबीले जम्बूद्वीप कहा करते थे एवं दैवीय आस्था का श्रीगणेश  प्रारम्भ हुआ होगा।  सनातन धर्म और भारत 

जब कुदरती बिघ्न बाधाओं पर मनुष्य का जोर नहीं चला ,जब उसकी विवेक बुद्धि चुकने लगी , तो उसने देश-काल-परिस्थिति एवं सामाजिक रहन -सहन के मुताबिक दैवीय अदृश्य शक्ति के रूप में  'धर्म-मजहब -दर्शन' का अनुसन्धान किया। कालांतर में समय -समय पर अपनी-अपनी भाषाओँ में दुनिया के तमाम कबीलों,गोत्रों के धर्मगुरुओं ने , सुधीजनों ने विभिन्न सिद्धांत -सूत्र और 'मन्त्र- नियम' बनाए। मानव सभ्यता के इतिहास में ऐंसे कई मौके भी आये जब  यह 'धर्म-मजहब' का चलन एक क्रूर गोरख धंधा बन गया। कभी-कभी तो दुनिया भर में 'धर्म-मजहब' के बहाने सामूहिक नरसंहार का रक्तरंजित इतिहास भी लिखा गया है। कहीं-कहीं , कभी-कभी धर्म-मजहब  को शैतानी जामा पहनाया जाता रहा है। इसीलिये यह 'धर्म-मजहब' मानव समाज का हित करने के बजाय उसकी  मौत का फंदा ही बन गया। कुछ समाजों के खुरापाती लोग अपने आदिम कबाइली उसूलों को मजहबी अंधश्रद्धा में घोंटकर पी गए और  इंसान से हैवान बन गए हैं ।यह अनुसन्धान का विषय है कि  इस आधुनिक वैज्ञानिक युग के तरक्की पसंद रोशनख्याल इंसान ने, 'अंध-उन्मादी मजहबी आतंकवाद ' के समक्ष अपने बुद्धि -विवेक ,ज्ञान-विज्ञान से सज्जित जग कल्याणकारी  हथियार क्यों डाल दिए हैं ?  दुनिया के किसी भी धर्म को किसी अन्य धर्म से खतरा नहीं -बल्कि हरएक के विनाशक उसके अंदर मौजूद हैं। दुनिया के किसी भी धर्म-मजहब को हिंदुत्व से कोई खतरा नहीं  है ! लेकिन इस्लामिक आतंकवाद से भारत की लोकतांत्रिक -धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को गम्भी खतरा अवश्य है। यदि इस्लामिक कट्टरतावाद और उग्र होगा तो प्रतिक्रिया स्वरूप 'हिंदुत्ववाद' भी जोर पकड़ेगा। तब हिन्दू राष्ट्र की मांग भी जोर पकड़ेगी. और यदि इस्लामिक आतंकवाद ने टेक्टिकल वोटिंग से भारतीय लोकतंत्र को कैप्चर करने की कोशिश की तब भी परिवर्तित व्यवस्था में मजहबों का दखल बढ़ेगा. तब धर्मनिरपेक्षता केवल दिखावटी ही होगी। श्रीराम तिवारी !



बुधवार, 6 जुलाई 2016

इस्लामिक आतंकवाद से भारत की धर्मनिरपेक्षता को गम्भीर खतरा - भाग एक

इस आलेख का मकसद किसी भी धर्म -मजहब पर अंगुली उठाना या उसकी आलोचना करना नहीं है। किन्तु इस विमर्श के बहाने हमारा पवित्र ध्येय यह अवश्य है कि सभी धर्म-मजहब को राजनीति से अलग रखा जाए।और भारत समेत दुनिया के तमाम देशों में यथासम्भव 'धर्मनिरपेक्षता'को बचाया जाए ! दैवीय आस्था और आध्यात्मिकता को कट्टरवाद से मुक्त रखा जाए। मौजूदा दौर के इस्लामिक आतंकवाद के बरक्स उदारवादी  इस्लाम को पर्याप्त सम्मान दिया जाए। भारत में धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखते हुए उदारवादी इस्लाम और  'सनातन धर्म' सहित अन्य सभी धर्म-पंथ की खूबियों को सम्पूर्ण मानवता के हित में पालन करना सुधीजनों का   ऐतिहासिक दायित्व है। वैसे भी 'सनातन धर्म' और 'इस्लाम' में काफी समानताएँ हैं। दोनों ही सम्प्रदायों के अतीत का इतिहास यदि मानव मूल्यों के लिए उत्सर्ग की गाथाओं से भरा -पड़ा है तो कुछ इतिहास कुर्बानियों से भी लबालब है। नृशंश हत्याओं और षड्यंत्रों के दास्तान भी धर्म-मजहब के इतिहास में समान रूप से  स्याह पन्नों पर दर्ज हैं। कुरुक्षेत्र -कलिंग के युध्दों से लेकर 'कर्बला' के नृशंश संहार तक, येरुशलम से लेकर एथेंसके नर संहार तक और बेटिकन से लेकर फिलीपीन्स तक , अपने ही भाई-बंधुओं के हाथों मारे जाते रहे सहोदरों का रक्तरंजित  इतिहास हमारे सामने है। सभी धर्म-मजहब के धर्म संस्थापकों ,साधु-संतों,पीर-फकीरों ने सभी धर्मो के प्रति विनम्र सदाशय भाव दर्शाया है। किन्तु इस्लाम का रक्त रंजित दौर अभी तक जारी है। वह न केवल अपनी उग्रता के चरम पर है बल्कि अमनपसंद लोगों की चिंता का वॉयस भी है। उनके कारण भारतीय आवाम का धर्मनिरपेक्षतावादी -अहिंसावादी  मानव समाज बहुत ज्यादा हैरान-परेशान  है। भारत में धर्मनिरपेक्षता को इस्लामिक आतंकवाद से गम्भीर खतरा उतपन्न हो गया है।

आम तौर पर लोग जिसे 'हिन्दू धर्म 'कहते हैं,उसे मैं 'सनातन धर्म' कहता हूँ। क्योंकि गीता,वेद ,पुराण ,उपनिषद और संहिताओं में हिन्दू शब्द कहींउल्लेख नहीं है। अतएव 'हिन्दू धर्म' के नाम से किसी धर्म के होने का सवाल ही नहीं उठता। दुनिया की तमाम सभ्यताओं ने अपने-अपने धर्म-मजहब का नामकरण खुद ही किया है। सिवाय 'हिन्दू धर्म'के। क्योंकि यह नामकरण खुद हिन्दुओं ने नहीं किया , बल्कि यह  गैर हिन्दुओं द्वारा किया गया है। भारतीय उपमहाद्वीप में जब तक आर्यों की चली तो उन्होंने यहाँ 'आर्यधर्म'अथवा 'वेदमत' के नाम से अपना परचम फहराया । जब बौद्ध धर्म का बोलवाला रहा तो यहाँ 'बौद्ध धर्म' की अथवा 'धम्म'की साख परवान चढ़ी । जब आदिशंकराचार्य ने  वेदों और अद्वैत वेदांत की नवीन व्यख्या की तथा अपने पूर्ववर्ती सभी भारतीय मत-सिद्धांतों -पंथों का परिमार्जन करते हुए  भारतीय षड्दर्शन  की नवीन व्याख्या की, तब भारत की जनता ने उनके सिद्धांत 'ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या 'को सर माथे लिया। सम्भवतः कालांतर में 'भक्तिमार्ग' तीर्थाटन और अवतारवाद के समिश्रण से सज्जित भारतीय धार्मिक परम्परा को ही सनातन धर्म कहा जाने लगा। बाद में कुछ विदेशी आक्रमणकारियों और यायावर  विदेशी धर्म प्रचारकों ने इस सनातन धर्म को 'हिंदू धर्म ' का नाम दिया।

 चूँकि  विदेशियों के मजहब  उनकी कौम के नाम से ही जाने जाते थे। इसलिए जिस तरह  ईसाइयों का ईसाई धर्म, यहूदियों का यहूदी धर्म ,पारसियों का पारसीधर्म ,मुसलमानों का इस्लाम नाम से मजहब  प्रचलन में आया ,उसी तरह उन्होंने सिंधु के इस पार भारत के खानदानी स्थाई निवासियों को हिन्दू कहा होगा। और हिन्दुओं के धार्मिक पूजा-पाठ ,दर्शन-विचार को 'हिन्दू धर्म' नाम दिया होगा । लेकिन वे यह नहीं जानते थे कि  जिसे वे 'हिन्दू धर्म' कहकर पुकारते हैं वह केवल कोरा मजहब या धार्मिक आडंबर मात्र नहीं है। बल्कि उसमें परा विद्या और आध्यत्म ज्ञान की अकूत सम्पदा सुरक्षित रखी है और उसमें मानवीय मूल्यों के अपार मोती भरे पड़े हैं। समुद्री मार्गों से भारत आने वाले इस्लामिक और यूरोपीय व्यापारियों ने भारत के पश्चिमी तटों पर अपने ठिकाने बनाये और इन समुद्र तटवर्ती मनुष्यों को मुसलमान बना लिया। बाद में जब इस्लामिक खलीफा के जंगजूओं ने फारस को जीता तो पारसी भी भागकर भारत में शरण लेने को मजबूर हो गए। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इस्लाम के एक हाथ में तलवार थी और दूसरे  हाथ में कुरान। मुस्लिम क्रूर शासकों ने साम,दाम दण्ड ,भेद से भारत के गरीबों  दलितों- आदिवासियों को अपने मजहब में दीक्षित किया। उन्होंने क्षत्रिय राजाओं को या तो युद्ध में उलझे रखा या दोस्ती - रिस्तेदारी कर ली। उन्होंने लाखों ब्राह्मणों को मारा ,मंदिर ध्वस्त किये मस्जिदें बनाईं और जो उनके मजहब में शामिल नहीं हुआ उसे उन्होंने 'काफिर' मानकर जजिया कर और अन्य प्रकार से खूब सताया।

लम्बे अंतराल के बाद जब सभी विदेशी धर्मप्रचारकों और शासकों की कट्टरता चरम पर जा पहुंची तो भारत के अहिंसावादी और मानवतावादी धर्म-सम्प्रदाय में भी कुछ कुछ धार्मिक कट्टरता आ गयी। परिणामस्वरूप भारत के बहुसंखयक  हिन्दू समाज ने २०१४ में केंद्र की 'धर्मनिरपेक्ष' यूपीए सरकार को सत्ता से हटाकर 'हिन्दुत्ववादी मोदी सरकार को सत्ता में बिठा दिया। इस घटना से  शायद भारत के अंदर कुछ कट्टरपंथी मुसलमानों को और दुनिया भर में आतंक मचाने वाले आईएसआईएस वालों अच्छा नहीं लगा। कदाचित उन्हें  मोदी जी का सत्ता में आना रास नहीं आया। पाकिस्तान के मजहबी- फौजी  हुक्मरान भी मोदी जी और 'संघ परिवार'से चिड़ते रहे हैं। गोकि मोदी सरकार के सत्ता में होने से भारत को क्या -क्या फायदा होने वाला है यह तो भविष्य तय करेगा। किन्तु इतना तय है कि इस्लामिक कट्टरवाद के सामने हिन्दुत्ववादी कट्टरवाद को खड़ा करने से 'संघ परिवार' की बल्ले-बल्ले हो गई है। लेकिन इससे भारत का कितना -क्या हित होगा ,अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। इससे दुनिया में अमन -शांति की भी कोई गारंटी नहीं ! साम्प्रदायिक कट्टरता का जबाब साम्प्रदायिक हो-हल्ला नहीं हो सकता । विशुद्ध धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की शक्ति ही मजहबी कट्टरवाद को कुचल सकती है। जैसे की चीन में ,रूस में,वियतनाम में, कम्बोडिया में और क्यूबा में ! दूसरा रास्ता इजरायल वाला भी है। यह जाहिर है कि दुनिया के ५६ इस्लामिक देश और सैकड़ों इस्लामिक आतंकवादी एक साथ मिलकर भी छोटे से इजरायल का बाल बांका नहीं कर पा रहे हैं। आईएसआईएस वाले इतने ही सूरमा हैं तो इजरायल से अपने उस अपमान का बदला क्यों नहीं लेते जो १९६९ में इजरायल ने इस्लामिक देशों के साथ किया था?  छोटा सा इजरायल ,छोटा सा जापान और छोटा सा क्यूबा इसलिए अजेय है क्योंकि इन देशों की जनता धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिकता में नहीं 'राष्ट्रवाद'में यकीन रखती हैं। भारत के हिन्दू-मुसलमान का हित एक धर्मनिरपेक्ष भारत में ही है। भारत के लोगों को सभी प्रकार की धार्मिक कट्टरता के खिलाफ लड़ना होगा।  इस्लामिक आतंकवाद को हिन्दू कट्टरवाद से नहीं बल्कि धर्मनिरपेक्ष 'राष्ट्रवाद'की दवा से ही ठीक किया जा सकता है। इस 'राष्ट्रवादी 'दवा का निर्माण इस्लामिक मदरसों में नहीं,'संघ ' शाखाओं में नहीं ,बल्कि खेतों, खदानों, कारखानों ,स्कूल कालेजों और साहित्य के ठिकानों पर ही बन सकती है। इसके लिए संघ द्वारा रचित भारतीय इतिहास ,अंग्रेजों द्वारा रचित इतिहास,इस्लामिक साहित्यकारों द्वारा लिखित इतिहास ,वामपंथी नजरिए से लिखा गया इतिहास नहीं बल्कि दुनिया के तटस्थ लोगों द्वारा सही इतिहास पुनः लिखा जाना चाहिए।

भारत में मुसलमानों के आगमन के बाद यहाँ के'सनातन -धर्मानुयायी अपने आपको मुस्लिमों द्वारा दिए गए नामों से पुकारने लगे। यदि भारत के स्थायी निवासी आर्य थे  तो उन्हें आर्य  ही लिखना चाहिए था , द्रविड़ थे  तो द्रविड़ लिखना चाहिए था । अनार्य या आदिवासी थे तो वह लिखना चाहिए। और यदि भारत में पहले वैदिक या सनातन धर्म था तो उसे ही लिखा-पढ़ा और बोला जाना चाहिए था। लेकिन पता नहीं कब किसने 'हिन्दू' शब्द पकड़ लिया और अब वह शब्द भारत समेत दुनिया के तमाम सनातन धर्मियों को मुँह चिड़ा रहा है। किसी आक्रमणकारी ने कहा तुम 'हिन्दू' हो ! तो आप अपने आपको हिन्दू कहने लगे। यदि आपका दावा है कि भारतीय आवाम का धर्म तो 'सनातन'है ,वह दुनिया के हर इंसान को एक समान मानता है ,उसका नारा ही -'धर्मो रक्षति रक्षितः' है !तो इसे प्रतिपादित क्यों नहीं किया गया ?यदि इस सिद्धांत को आप  ठीक से जान सके हैं तो गर्व से कहिये कि आप सनातनी हैं । आपका धर्म 'सनातन धर्म' है। आप वैष्णव,शैव,शाक्त ,गाणपत्य और बौद्ध  जैन और सिख जो भी हों , शर्त यह है कि आप किसी अन्य धर्म-मजहब से द्वेष या बैर न रखें। और 'अहिंसा' को ही परम धर्म समझे। तभी आप एक सच्चे 'सनातनी'हो सकते हैं। आपको अपनी  पुरातन -सनातन और पुरातात्विक पहचान बनाए रखना कोई गुनाह नहीं। वशर्ते उस पहिचान के बहाने,उग्रता या आतंक के खेल में आप शामिल न हों ! यदि आपके ह्रदय में दूसरों के धर्म-मजहब का सम्मान नहीं तो आपकी असहिष्णुता ही कट्टरवाद की जननी होगी। इस सोच का परिणाम हिंसा,द्वेष और अमानवीयता में झलकने लगता है।  

चूँकि भारतीय उपमहाद्वीप में कोई एक दर्शन अथवा पंथ कभी नहीं रहा। यहाँ सिंधु घाटी सभ्यता ,आर्य सभ्यता ,द्रविड़ सभ्यता ,मूल आदिवासी अर्थात लोक परम्परा की आदिम सभ्यता और इस्लाम से पहले जो अन्य गैरइस्लामिक कबीले भारत आते रहे उन तमाम कबीलों -यवनों,यूनानियों,शकों,हूणों,कुषाणों और तोरमाँणों की सभ्यता के मिलन से धर्म का जो  एक रोचक और पाचक समिश्रण तैयार हुआ, मैं  उसे ही 'सनातन धर्म 'कहता हूँ । हो सकता है कि विद्वान मेरे इस सिद्धांत से सहमत न हों । किन्तु मेरा मानना है कि अरब-फारस के इस्लामिक हमलावरों ने जब आर्यवर्त या भरतखण्ड पर हमला किया तब इस भूभाग को उन्होंने 'हिन्दोस्ताँन कहा होगा। और तब उन्होंने  सिंधु पार के इस तरफ वाले निवासियों को 'हिन्दू' और उनके धर्म को 'हिन्दू धर्म' नाम दिया होगा। जब अंग्रेजो से आजादी मिलने के पूर्व हिन्दुस्तान के चार टुकड़े हो गए और भारत,पाकिस्तान,बांग्लादेश और म्यांमार बन गए,जब पाकिस्तान के लोग पाकिस्तानी हो गए , जब पूर्वी बंगाल के नागरिक बांग्लादेशी हो गए, जब चीन के चीनी हो कहलाए,तो भारत के निवासी हिन्दू कैसे हो गए ? कम से कम आजादी के उपरांत तो भारत में भारतीयता की गूँज होनी चाहिए थी !हिन्दू,हिन्दुस्तान तो अतीत की यादें भर हैं। आम तौर पर दुनिया के अधिकांश धर्म-मजहब में काफी समानताएं हैं।  खास तौर से 'सनातन धर्म' और इस्लाम में काफी  समानताएं हैं। इधर  सत्य हरिशचन्द्र  की करुण कहानी है , मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम का वन गमन है और उदात्त चरित्र है , कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरव-पांण्डव [भाई-भाई]के बीच 'महाभारत 'का युद्ध है ! उधर इस्लामिक इतिहास में भी ऐंसी ही घटनाएँ बाहरी पडी हैं। फर्क सिर्फ पात्रों-प्रतीकों और देश-काल-परिस्थितियों का है। यहाँ शहादत के लिए रोहित है ,श्रवणकुमार है ,अभिमन्यु हैं। वहाँ उस्मान गनी हैं ,हुसैन हैं ,हसन हैं और कर्बलाका मैदान है !

सिंधु नदी पार कर ईरान के रास्ते या खैवर दर्रा पार करके कश्मीर के रास्ते भारत आने वाले  हमलावरों ने- भारत के सनातन धर्म को ही 'हिन्दू धर्म' कहा।  यह विचित्र बिडंबना है कि 'सभ्य'अंग्रेजों ने इस विशाल 'अखण्ड भारत' भूमि को जीतकर उसे 'इण्डिया' नाम दिया। और गुलाम भारत के बहुसंख्यक समाज को ''ब्लेडि इंडियंस '' कहा ! जब तक यहाँ आजादी की मांग नहीं उठी तब तक यहाँ के मुसलमान ,हिन्दू,सिख बौद्ध ,जैन और नास्तिक सभी अंग्रेजों की नजर में 'ब्लेडी इंडियन्स' ही थे। किन्तु जब इस आवाम ने स्वाधीनता का सिंहनाद किया ,तो वे हिन्दू,मुस्लमान,जैन,बौद्ध सिख ,दलित,पिछड़े और सवर्ण हो गए। क्योंकि भारत को गुलाम बनाए रखने में यह 'फूट डालो राज करो' की नीति उनके लिए बहुत माकूल थी। भारत में  मजहबी अलगाव और मत -भिन्नता तो पहले भी थी किन्तु साम्प्रदायिकता और बैमनस्य की आंधी के लिए यह ब्रिटिश नीति ही जिम्मेदार है। इस घृणित दुरनीति के कारण 'भारतीय राष्ट्रवाद'हासिये पर चला गया और धर्म-मजहब आपसी वैमनस्य एवं संघर्ष के केंद में आ गए। मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान फ्री फंड में हासिल किया, वहाँ लोकतंत्र या राष्ट्रवाद को प्रमुखता देने के बजाय भारत और हिन्दुओं के खिलाफ निरंतर षड्यंत्र रचे गए । विश्व साम्राज्यवाद और अन्य इस्लामिक राष्ट्रों ने इन षड्यंत्रों में पाकिस्तान को सहयोग दिया । जब भारत -चीन अपने सीमा विवाद पर उलझ गए तो पाकिस्तान ने चीन का भी दामन थाम लिया। इन सभी ने भारतीय मुसलमानों को भी बरगलाने की खूब कोशिशें कीं,किन्तु कामयाब नहीं हुए.चूँकि विभाजन के वक्त जो मुसलमान पाकिस्तान चले गए उनकी दुर्दशा, भारत में रुक गए  मुसलमानों ने खुद अपनी आँखों से  देखी।   

इस्लामिक आतंकवाद और पाकिस्तान की काली करतूतों से आजिज आकर कुछ कट्टरपंथी हिन्दुओं ने भी 'राष्ट्रीय स्वाभिमान' के नारे लगाना शुरुं कर दिए। चूँकि भारत की सभ्यता में उत्पन्न सभी धर्म -दर्शन और मत 'अहिंसा' आधारित हैं ,वे अच्छी तरह जानते हैं कि दुनिया का कोई भी मजहबी कट्टरपंथ अपने नापाक इरादों में कभी कामयाब नहीं हो सकता। खास तौर से 'सनातन धर्म' वेदों का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। इसलिए भारत के तमाम प्राचीन धर्मों में कट्टरवाद को कभी पसन्द नहीं किया गया । यहाँ हमेशा उदारवादियों का ही वर्चस्व रहा है। आरएसएस वाले ,विश्व हिन्दू परिषद वाले, शिवसेना वाले चाहे कितना ही कट्टरपंथ का दिखावा या हो हल्ला करें किन्तु वे आईएसआईएस जैसे तो कदापि नहीं हैं। अधिकांश 'सनातन धर्मी' हिन्दू जनता 'धर्मनिरपेक्षता और सर्व धर्म समभाव को ही पसंद करती है। किन्तु इस्लामिक जगत का खूनी इतिहास और वर्तमान वीभत्स हालात  देखकर बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि इस्लामिक उदारवादियों पर उसका 'बहावी' कट्टरपंथ  हावी  है। इस वैज्ञानिक और लोकतंत्रात्मक युग में जहाँ दुनिया के तमाम धर्म-मजहब  अपने मानवीय मूल्यों को सहेजने में जुटे हैं, वहीँ आईएसआईएस ,अलकायदा ,तालिवान और बोको हरम जैसे आतंकी संगठन और पाकिस्तान में पल रहे अंडर वर्ल्ड माफिया डॉन जैसे तत्व 'इस्लाम' को लगातार  बदनाम कर रहे हैं।

भारत में इस्लामिक कट्टरपंथियों ने उदारवादी मुसलमानों पर ,शियाओं -अहमदियों पर ,सूफियों पर जो जुल्म किये हैं , सिख गुरुओं पर जो अत्याचार किये हैं। हिन्दुओं ,जैनों,बौद्धों और काफिरों पर जो जुल्म किये हैं ,उन्हें भुलाकर भी भारत की बहुसंख्यक 'अहिंसावादी'जनता  आगे बढ़ना चाहती है। खेद की बात है कि भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान या बांग्ला देश न जाकर भारत में ही रुक जाने और यहीं अन्न -पानी ग्रहण करने के बाद भी यदि कोई संसद पर हमला करता है, कोई मुंबई पर हमला करता है , कोई पठानकोट एयरबेस पर हमला करता है ,कोई आईएसआईएस -अलकायदा -सिमी- तालिवान का एजेंट बनकर भारत में दहशत और हिंसा का तांडव करता है ,तो उसक साथ क्या सलूक किया जाए ? ऐंसे मजहबी कट्टरपंथियों की हरकतों से उन आरोपों की पुष्टि होती है जो आईएस के  अभियान का हिस्सा हैं। जिसमें  आईएस ने भारत को 'खुरासान' नाम देकर इसे 'दारुल हरब ' बनाने का मंसूबा पेश किया  है। जहाँ-तहाँ कुछ जीवित पकडे गए आतंकियों से यह पता चला है कि उनके वास्तविक इरादे क्या हैं ? दरअसल ये इस्लामिक आतंकी इस्लाम की कोई सेवा नहीं करते। बल्कि ये इतिहास के हर दौर में विभिन्न शासकों और राजनैतिक शक्तियों के षड्यंत्रों के काम आते रहे हैं। ये शैतान के हाथों खेलते हुए कभी सद्दाम हुसैन, कभी कर्नल गद्दाफी,कभी अनवर सादात, कभी बेनजीर भुट्टो ,कभी मलाला युसूफ जाई  पर हमले करते हैं। वे कभी सूफी गायक साबरी ,कभीअहमदियों ,कभी शियाओं ,कभी सूफियों पर हमले करते हुए किस इस्लाम की सेवा कर रहे हैं ?

सामन्तकालीन भारत में इस्लामिक बादशाही भले ही तलवार के जोर पर स्थापित हुई हो,किन्तु यहाँ इस्लाम की स्थापना  सूफी संतों,इस्लामिक विद्वानों और उदारवादी मुसलमानों के बलबूते ही हुई है। शेख सलीम चिस्ती , गरीब नवाज -ख्वाजा मोइनुद्दीन चिस्ती ,हजरत निजामुद्दीन औलिया,अमीर खुसरो, मलिक मुहम्म्द जायसी,अकबर, रहीम,रसखान,दारा शिकोह ,बाजिद अली शाह और बहादुर शाह जफर जैसे बेहतरीन इंसानों की बदौलत ही तत्कालीन हिन्दुस्तान में इस्लाम का प्रादुर्भाव हुआ। आजादी की जंग के दौरान सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फार खान ,मौलाना अबुल कलाम आजाद ,फैज अहमद फैज ,कैफी आजमी जैसे नेक मुसलमानों ने गांधी के 'अहिंसा' सिद्धांत का समर्थन किया था। अल्लामा इकबाल जैसे मुस्लिम नायकों ने खुद को मुसलमान के बजाय 'हिंदुस्तानी' ही माना। आजादी के बाद भारत के प्रगतिशील आंदोलन में हिन्दू-मुस्लिम क्रांतिकारियों ने 'गंगा-जमुनी' संस्कृति की खूब वकालत की। धर्मनिरपेक्षता के गीत लिखे गए। भारत को आजादी मिली। किन्तु दुर्दैव इतिहास ने सदा के लिए  भारत की गर्दन पर पाकिस्तान का बैर टांग दिया। और हिन्दू-मुस्लिम खुनी संघर्ष का अमिट दाग मानवता की छाती पर जड़ दिया। अधिकांश  सियासी दलों ने अपने-अपने धर्म-मजहब -जात -खाप का खूंटा 'भारत राष्ट्र ' के माथे मढ़ दिया। 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा' लिखने वाला शख्स  खुद ही 'पाकिस्तान जिंदाबाद' का नारा  लगाते हुए इस्लामाबाद पहुंच गया। वक्त की आंधी और इस कट्टरपंथी साम्प्रदायिक सोच ने  भारत की  हिन्दू जनता को निराश किया है।और 'हिंदुत्ववाद' की ओर धकेलने का असफल प्रयास भी किया है । इसका खामयाजा  पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को भुगतना पड़ रहा है ।

वेशक राष्ट्रवाद का ठेका केवल 'हिन्दुओं'के पास नहीं है और देशभक्ति के लिए किसी हिन्दूवादी संगठन के सर्टिफिकेट की जरुरत  भी नहीं है। किन्तु भारत समेत सारे संसार में आतंक की जो तस्वीर उमड़-घुमड़ कर सामने आ रही है ,उससे स्पष्ट जाहिर है कि मजहबी आतंक के मामले में इस्लामिक आतंक के बराबर खूंखार -बर्बर और इंसानियत का दुश्मन  और कोई  नहीं है। भारत का प्रत्येक हिन्दू स्त्री पुरुष इस्लाम की शिक्षाओं का ,क़ुरआने-पाक और हदीस का तथा मुहम्मद पैगंबर साहब का बहुत आदर करता है। क्योंकि हिन्दूओं को उनके महान पथप्रदर्शकों और संतों ने यही सिखाया है कि ''सबका  मालिक एक ''!गोस्वामी तुलसीदास जी ने मस्जिद में बैठकर 'रामचरित मानस 'लिखा! स्वामी  रामकृष्ण परमहंस देवी दुर्गा के सामने दुर्गा सप्तपदी और मस्जिद में जाकर वे कुरान की आयतें पढ़ते थे।  उनके शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने तो इस्लाम को भारत का शरीर और 'हिन्दू धर्म'को उसकी आत्मा कहा है। शिर्डी के साईं बाबा जो कि लाहिड़ी महाशय [हिन्दू योगी ]के शिष्य थे ,उन्होंने अपना गुरु मंत्र ही 'अल्लाह मालिक ' चुन लिया था ।लेकिन कट्टरपंथी सोच वाले आतंकवाद और वैश्विक पूँजीवाद ने इस गंगा जमुनी तहजीव को ,इस धार्मिक -मजहबी उदारता को आतंकवादियों के सामने घुटने टेकु स्थति में लाकर खड़ा कर दिया ।

 महिलाओं के साथ घाट रहीं निंदनीय घटनाओं  की बाढ़ से स्पष्ट दिख रहा है कि भारत में 'लव जेहाद'और पाकपरस्त आतंकी फर्मावरदारी का कुछ तो असर है। इतिहास गवाह है कि सामन्तकाल और मुगलकाल में मुस्लिम राजा और सेनापति अपने हरम में मुसलमान कम हिन्दू ओरतें ज्यादा ठूंस-ठूंस कर भरते रहे। नारी उत्पीड़न की और पुर्षत्ववादी कबीलाई मानसिकता बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी में भी मौजूद है। बालीबुड के कुछ ऐयाश मुस्लिम नायकों ने ,निर्माता -निर्देशकों ने और अन्य मुस्लिम फ़िल्मी हस्तियों ने मुंबई से लेकर दुबई तक अपने -अपने हरम बना रखे हैं ।अधिकांश मुस्लिम  फ़िल्मी स्टेक होलडर और हीरो वगैरह किसी न किसी हिन्दू लड़की को फांसने उसे बर्बाद करने में लिप्त रहे हैं ! शंका होना स्वाभाविक है कि कहीं यह लव जेहाद का हिस्सा तो नहीं है ? सीधा सवाल यह  है कि इन फ़िल्मी और जुल्मी हस्तियों की हर दूसरी या तीसरी बीबी  हिन्दू युवती ही क्यों होती  है ? भाजपा के अधिकांश मुस्लिम नेताओं की बीबियाँ  भी हिन्दू ही क्यों हैं ?दाऊद ,अबु सालेम की तरह ही अन्य तश्करों स्मगलरों के हरम में हिन्दू लड़कियों को रखेल बनाकर बर्बाद करने का मकसद सिर्फ शारीरिक भोग लिप्सा नहीं है। ये नशीली वस्तुओं की तस्करी ,नकली करन्सी  और कश्मीर समेत  अन्य अलगाववादियों -नक्सलवादियों को गोल बारूद की आपूर्ति में लिप्त हैं ,वे अन्य सभ्यताओं और धर्म-मजहबोंको घृणा की नजर से देखते हैं। जिनकी नजर में यह सब हिंसक अमानवीय  कार्यवाही इस्लाम की रिवायत है ,वे सनातन धर्म के सत्य और शील कैसे देख सकते हैं ? यदि अरब और मध्य एशियाई देशों से भारत में आकर बसने वाले मुसलमानों की नयी पीढ़ी को इंडोनेशिया और मलेशिया के मुसलमानों की तरह नयी  धर्मनिपेक्ष सोच  'आधुनिक राष्ट्रवाद' नहीं सिखाया गया  तो  गुनहगार कौन है ? काश ! बहावी मदरसा संस्कृति की मजहबी दुनिया में कट्टरपंथ की जगह प्रगतिशीलता और रोशन ख्याली को सम्मान दिया जाता , तब  भारत सहित सारी दुनिया को इस्लामिक आतंकवाद का यह भयानक चेहरा नहीं देखना पड़ता।  

सिमी और अन्य मजहबी आतंकी नशीली वस्तुओं की तस्करी में व्यस्त हैं। वे नेपाल,बांग्लादेश और श्रीलंका के रास्ते  भारत में घुसपैठ करते रहते हैं। भारत में नकली करन्सी खपाना ,कश्मीरी और अन्य अलगाववादियों का वित्त पोषण करना ,नक्सलवादियों को गोला बारूद की आपूर्ति कराना, देश भर में दंगे कराना , चुनावों में मजहबी आधार पर टेक्टिकल वोटिंग कराना,इत्यादि धतकरम करने के उपरान्त ,इन दहशतगर्दों की अकाल मौत पर आंसू बहाने के लिए उनके प्रेरणा स्त्रोत भी हाजिर नहीं होते। उनके रहनुमा खुद ही नजरबंद होने के लिए तैयार रहते हैं ,ताकि पुलिस प्रोटेक्शन में अपनी निजी जिंदगी अमन-चैन से जियें ! यह  मंजर केवल क़ानून व्यवस्था की चुनौती नहीं है। यह केवल भारत की सभ्यता और संस्कृति पर प्राणघातक हमला है। बल्कि ये मजहबी आतंकी तत्व तो प्रायः सभी सभ्यताओं और धर्म-मजहबों में केवल कुफ्र ही देखते हैं। मदरसे में काफिर शब्द की जो व्याख्या उन्हें समझाई गयी वह विज्ञानसम्मत -न्यायसंगत कहाँ   है?  पहले तो अंग्रेजों के बहकाने पर मुस्लिम लीग ने 'पाकिस्तान' मांग लिया। अब बचे -खुचे धर्मनिरपेक्ष भारत पर भी उनकी कुदृष्टि है। जो पाकिस्तान चले गए उनको शायद कुछ मलाल रहा होगा ,किन्तु जो मुसलमान भारत छोड़कर नहीं गए ,वे आगे बढ़कर 'खुरासान' सिद्धांत का विरोध क्यों नहीं करते ? उनके मन में यदि दारुल हरम या दारुल  हरब की लिप्सा नहीं है तो  खुलकर कहते क्यों नहीं ?

हजरत मुहम्मद के जन्नतनशींन होने के बाद उनके नवप्रवर्तित मजहब - इस्लाम की 'खिलाफत'के लिए उनके उत्तराधिकारियों का खूनी संघर्ष जग जाहिर है। हजरत अबूबक्र ,हजरत उमर ,हजरत गनी ,हजरत अली ,हजरत बनु उमैया ,हजरत रुकइया ,हजरत कुलसुम और अन्य कबीलों के बीच जो अंदरूनी खूनी संघर्ष चला ,उसकी भयानक परिणिति तो कर्बला के मैदान में हुई थी । जिस खून खराबे को लेकर आज की अमन पसंद दुनिया बैचेन है ,इस्लाम के शुरआती दौर ने सबसे पहले खुद हजरत उस्मान गनी, हजरत इमाम हुसैन और हसन समेत तमाम निर्दोष मुसलमान भोग चुके थे। इस्लाम के उस आंतरिक हिंसक द्वन्द का सिलसिला कभी का खत्म हो जाना चाहिए था। हालाँकि इस्लाम के आगमन से पहले वाली दुनिया का इतिहास भी कम रक्तरंजित नहीं रहा। और भारत का पुरातन इतिहास , रामायण काल,महाभारत काल,गुप्तकाल,और मौर्यकाल भी हिंसा के मामले में इस्लाम से कुछ कम नहीं था। किन्तु इस्लाम के उदय के बाद अरब कबीलों  को उम्मीद थी कि वे न केवल उनके कबीलाई समाजों में बल्कि  शेष दुनिया में  भी अमन का पैगाम पहुँचेगा। लेकिन हजरत मुहम्मद की बेहतर शिक्षाओं के वावजूद दुनिया में खून-खराबा बंद नहीं हुआ। बल्कि जेहाद के नाम पर दुनिया में जो मारकाट मची उसमें सर्वाधिक शिया मुसलमान ही मारे गए। और यह भी सच है कि मारने वाले ये बहावी -सुन्नी कट्टरपंथी खुद भी अपने सगोत्रीयों के द्वारा ही मारे गए । कभी जेहादी के रूप में ,कभी तथाकथित काफिरों को मारने के रूप में ,कभी अपने भाई-बंधुओं को ही मारने के रूप में, कभी फिदायीन के रूप में, ज्यादातर मुसलमान ही बेमौत मरते रहे हैं ।

इस्लामिक जगत में अमेरिकी दखल के बाद , सद्दाम हुसैन और ओसामा के कत्ल के बाद आईएसआईएस  [इस्लामिक स्टेट आफ ईराक एण्ड सीरिया ] के हिंसक आतंकियों ने विध्वंस का मोर्चा सम्भल लिया है। वे मक्का से लेकर ढाका तलक ,फ्रांस से लेकर फिलीपीन्स तक,चेचन्या से लेकर लन्दन तलक खून की होली खेल रहे हैं। वेशक उनके नापाक मंसूबे कभी सफल नहीं होंगे, क्योंकि दुनिया का हर सच्चा मुसलमान उनसे नफरत करता है और इंसानियत का तरफदार है। चूँकि भारत को बर्बाद करने के उद्देश्य से पाकिस्तान के कुछ सिरफिरे कट्टरपंथी और १९७१ में बांग्ला देश मुक्ति संग्राम में भारतीय फौज के हाथों  मार खाए पाकिस्तानी फौजी जनरल ,पूरे भारत में और विशेषकर कश्मीर क्षेत्र में विगत ४५ सालों से लगातार आग उगल रहे हैं। वे  कुछ सिरफिरे युवाओं को 'फिदायीन' के रूप में तैयार कर, बेमौत मरने  के लिए भारत की सीमाओं में धकेलते रहते हैं। अब आईएसआईएस वालों ने भी भारत के खिलाफ विष वमन शुरू कर दिया है। अतएव भारत के हिन्दू-मुसलमान और तमाम धर्मनिरपेक्ष जनता का चिंतित होना लाजिमी है।

 यहाँ इसकी तुलना सामन्तयुगींन भारत के क्षत्रिय योद्धाओं के आचरण से की जा सकती है। तत्कालीन क्षत्रिय योद्धा बारह बरस की उम्र में ही युद्द के लिए तैयार हो जाते थे। तब उनकी माता,बहिन या पत्नी खुद अपने बेटे ,भाई या पति को ख़ुशी-ख़ुशी युद्ध  में भेजते हुए उत्साहित करती थी - 'खुशी-ख़ुशी युद्ध में जाओ , और भले ही वीरगति को प्राप्त हो जाओ किन्तु पीठ दिखाकर मत लौटना ! क्योंकि यही क्षत्रिय कुल का व्यवहार है।यही शूरवीरों की कुल रीति है।' युद्ध में मरने मारने के लिए खूब  उकसाया जाता था और यह सन्देश सुनाया जाता था :- 

''बारह बरस तक कुत्ता जीवे ,सोलह बरस तक जीवे स्यार।
तीस बरस तक क्षत्रिय जीवे ,आगे जीवे  खों धिक्कार।।  [ जगनिक कृत -परिमल रासो ]

अर्थ :- कुत्ता १२ साल ही जीवित रहता है ,स्यार १६ साल और क्षत्रिय को ३० साल से ज्यादा जीने पर धिक्कार है। यह शिक्षा मुहम्म्द साहिब की नहीं है बल्कि यह शिक्षा सूर्यवंशियों ,चन्द्रवंशियों को उनकी आदिम परम्परा से प्राप्त हुई थी। 

श्रीराम तिवारी