मंगलवार, 19 जुलाई 2016

भारत में 'राष्ट्रवाद' अभी भी शैशव अवस्था में ही है। -Part 11



अधिकांश विद्वानों का मानना है कि 'भारत-राष्ट्र' का उदय १५ अगस्त-१९४७ को  हुआ है .और भारतीय गणतंत्र का जन्म २६ जनवरी -१९५० को हुआ है। यह सच है कि आजादी से पूर्व इस तरह का विधि सम्मत शासन और भौगोलिक  भारत पहले कभी नहीं रहा। चन्द्रगुप्त-चाणक्य ,अशोक, अकबर या अन्य कोई सम्राट या बादशाह इस सकल भारत भूमि और तथाकथित 'अखण्ड भारत' को एकसूत्र में बाँध पाने में कभी  सफल नहीं  हो पाया। उत्तर वैदिक काल के बहुत पहले से ही भारत पर पश्चिम की ओर से संगठित हमले होते रहे हैं। इस भारतीय उपमहाद्वीप पर उन विनाशकारी हमलों का परोक्ष सिलसिला मजहबी आतंकवाद के रूप में अब भी जारी है।  जो लोग एक हजार  साल में भारत को 'दारुल हरब 'नहीं बना पाए ,वे अब मजहबी आतंकवाद के बहाने भारत को अंदर-बाहर से लहूलुहान करने में जुटे  हैं। इस भयावह चुनौती की अनदेखी करके, किसी और मोर्चे पर देश की आवाम और सरकार आगे  बढ़ ही नहीं सकती। इन हालात में वर्किंग क्लास की बाजिब लड़ाई भी कारगर नहीं हो पाती है।

भारत में हर किस्म की मजहबी कट्टरता और आतंकी फितरत से निपटने के लिए,तात्कालिक तौर पर न केवल मजहबी आतंकवाद के हमलों को बल्कि देश के अंदर पल रहे हर किस्म के भृष्टाचार को भारत का दुश्मन नंबर -एक माना जाए। आर्थिक शोषण ,सामाजिक उत्पीड़न को भारतीय 'राष्ट्रवाद' पर हमला माना जाए। इसके साथ-साथ प्रत्येक भारतीय को 'धर्मनिरपेक्ष  भारत' की छवि केअनुरूप 'राष्ट्रवाद' की चेतना से लेस किया जाए । यह महान कार्य  कुछ हद तक भारत का सर्वोच्च न्यायालय और भारत का हिन्दी मीडिया कुशलतापूर्वक कर भी रहा है। जिन्हे बाकई मुल्क की चिंता है वे भी अपने-अपने हिस्से की आहुति प्रदान करेंगे तो भारत का राष्ट्रीय गौरव अवश्य अक्षुण हो सकता है। लेकिन यह तभी सम्भव है जब कुछ समय के लिए संसद में सामूहिक-सर्वसम्मत निर्णयों का दीदार हो और पक्ष-विपक्ष का कटुतापूर्ण वार्तालाप बंद हो ! भारतीय धर्मनिपेक्ष -लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद की चेतना का वास्तविक संचार हो !

भारत में राष्ट्रवाद की  चेतना की पहली शर्त है -देश में भृष्टाचार मुक्त राजनीति और समानता पर आधारित पक्षपातविहींन सुशासन तंत्र हो !जनता केवल वोटर मात्र नहीं हो ! वर्तमान धनतंत्र की जगह , शासन-प्रशासन में जन-भागीदारी का व्यवहारिक लोकतंत्र हो। इसके बिना  भारत में राष्ट्रवाद की स्थापना संभव नहीं ! 'राष्ट्रवादी' चेतना के बगैर  न तो पूँजीवादी लोकतंत्र की बुराइयाँ  खत्म होगीं,और न ही किसी तरह की आर्थिक-सामाजिक असमानता का खात्मा संभव है। मौजूदा दौर के निजाम और उसकी नीतियों से किसी तरह की मानवीय या समाजवादी क्रांति के सफल होने की  भी कोई उम्मीद नहीं  है। इतिहास बताता है कि दुनिया के तमाम असभ्य यायावर आक्रमण कारी और मजहबी -बर्बर लुटेरे भारत को जीतने  में सफल ही इसलिए हुए, क्योंकि यहाँ यूरोप की तर्ज का 'राष्ट्रवाद' नहीं था और उसकी रक्षा के लिए या तो 'भगवान' का भरोसा था या भगवान के प्रतिनिधि के रूप में  इस धरती पर  राजा -महाराजा जनता के तरणतारण थे ! किसान-मजूर -कारीगर के रूप में जनता की भूमिका केवल 'राज्य की सेवा'करना था। जिन्हे यह कामधाम पसंद नहीं थी वे ''अजगर करे न चाकरी ,पंछी करे न काम। दास मलूका कह गए सबके दाता राम।। ''गा -गा कर विदेशी आक्रांताओं के जुल्म -सितम को आमंत्रित करते रहे !राष्ट्रवाद ,समाजवाद,धर्मनिरपेक्षता और क्रांति जैसे शब्दों का महत्व  उस देश की जनता उस सामन्ती दौर में कैसे जान सकती थी ?जिस देश की अत्याधुनिक तकनीकी दक्ष ,एंड्रॉयड फोनधारी आधुनिक  युवा पीढ़ी 'गूगल सर्च 'का सहारा लेकर भी इन शब्दों की सटीक परिभाषा  ठीक से नहीं लिख सकती। 

 वेशक सिकंदर,फिलिपस,कासिम,गजनी,गौरी,अरब,तुर्क,खिलजी,लोधी,अफगान,मुगल और  अंग्रेज कौम भी अखण्ड - भारत भूमि पर  कभी विजय  हासिल नहीं कर सके । इतिहास साक्षी है कि अकबर के समय पूरा दक्षिण भारत मुगलों के अधीन कभी नहीं हो पाया । राजपूताने को भी वह पूरा फतह कभी नहीं कर सके. महाराणा प्रताप जैसे राजपूत सदा अजेय ही रहे।  ओरंगजेब के हाथ दक्षिण भारत कभी नहीं आया। शिवाजी और उनके उत्तराधिकारी पेशवा -मराठे हमेशा मुगलों पर हावी रहे। अंग्रेजों के दौर में भी 'भारत राष्ट्र' एक सूत्र में नहीं बांधा जा सका। ५५० देशी रियासतों का स्वतंत्र अस्तित्व था। नेपाल जैसे कई राजा पूर्णतः स्वतंत्र थे।  पांडिचेरी पर फ़्रांस का कब्ज़ा था।  गोवा पर पुर्तगाल का कब्जा था । अंग्रेजों से विशेष संधि के तहत निजाम हैदरावाद,नबाब भोपाल ,कश्मीर के राजा, पूना के पेशवा, मैसूर -जयपुर -जोधपुर-बीकानेर -मेवाड़ के राजपूत राजा और बहुत से देशी राजा-रजवाड़े अपने सिक्के अवश्य चलाते रहे। लेकिन 'अखण्ड भारत 'की फ़िक्र इन सामन्तों-राजाओं को कभी नहीं रही।

आधुनिक भारत में वास्तविक  'राष्ट्रवाद' का बीजांकुरण भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की असफल क्रांति के दौर में  हुआ था। अंग्रेजों और उनकी नजर से इस क्रांति को देखने वालों के लिए यह एक 'गदर' था ,जो देशी राजे-रजवाड़ों का और मुगल इतिहास के सूर्यास्त का  प्रतीक था। जबकि वास्तव में यह १८५७ की यह असफल क्रांति ही भारत में 'राष्ट्रवाद' की संस्थापक कही जानी चाहिए।  क्योंकि भारतीय  इतिहास में वह पहला अवसर था जब अधिकांश रजवाडों ने और स्वयं दिल्ली के अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने अपनी 'प्रजा' को  'हिंदुस्तान की आवाम' के नाम से पुकारा था। और यह पहला मौका था जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी केहाथों  लूटी-पिटी  रक्तरंजित धरती को, ब्रिटिश साम्राज्ञी महारानी विक्टोरिया ने 'इण्डिया' अर्थात हिन्दुस्तान के रूप  'टेक ओवर' किया था। महारानी विक्टोरिया का गुलाम होते हुए भी यह ब्रिटिश  'उपनिवेश' हिन्दुस्तान की बौद्धिक प्रतिभाओं के जेहन में 'अखण्ड भारत 'के रूप में राष्ट्रवाद'की उद्दाम भावना निरंतर  हिलोरें लेती रही है । जिस तरह अतीत मेंआचार्य चाणक्य, स्वामी समर्थ रामदास ने  इस धरा को 'राष्ट्र' राज्य के रूप में देखा था, उसी तरह १८५७ की क्रांति के उपरान्त बंकिमचंद चट्टोपाध्याय ,रवींद्रनाथ टैगोर ,महाकवि- सुब्र्मण्यम भारती और अनेक राष्ट्रवादी कवियों के अंतस में के मानस में भी राष्ट्रवादकी महती चेतना निरंतर  दमकती  रही है ।

स्वातांत्रोत्तर भारत के प्रगतिशील साहित्य कारों ,कवियों और राष्ट्रवादियों के साहित्य सृजन में तो 'भारतीय राष्ट्रवाद' हमेशा शिद्द्त से मौजूद रहा है ,किन्तु जातिवादी -आरक्षणवादी नेताओं ,मजहबी धर्म गुरुओं ,कट्टरपंथी अल्पसंख्यकों ,भृष्ट नेताओं ,अफसरों -मुनाफाखोर व्यापारियों ,बड़े जमीनदारों और भूतपूर्व ;राजवंशों के जेहन में 'भारत का राष्ट्रवाद' सिरे से नदारद है। विचित्र बिडंबना है कि यह भृष्ट 'बुर्जुवा वर्ग ही भारत राष्ट्र का भाग्य विधाता बन बैठा है। स्वाधीनता संग्राम के दरम्यान और आजादी के बाद के दो दशक बाद तक अधिकांश हिंदी कवियों ने ,फ़िल्मी गीतकारों ने  राष्ट्रवादी चेतना के निमित्त ,देशभक्तिपूर्ण कविता ,गजल ,शायरी और गीतों का सृजन किया था। कुछ अब भी कर रहे हैं और कुछ ने हिन्दी फिल्मों में 'राष्ट्रीय चेतना - राष्ट्रवाद के निमित्त बहुत कुछ सकारात्मक फिल्माया है।

'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,झंडा ऊंचा रहे हमारा।' मेरे देश की धरती सोना उगले ,वन्दे मातरम ,आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की ,,,, ए  मेरे वतन के लोगो ,,,,,,झंडा ऊँचा रहे हमारा ,,,,,इत्यादि सैकड़ों गीत आज भी लोगों की जुबान पर  हैं। किन्तु जिन लोगों का स्वाधीनता संग्राम में रत्ती भर योगदान नहीं रहा,जो अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली बने रहे वे साम्प्रदायिक संगठन  अब  आजादी के बाद भी 'भारत राष्ट्र' के लिए नहीं बल्कि अपने-अपने धर्म-मजहब के खूंटों के लिए हलकान हो रहे हैं । कोई कहता है ,,'कौन बड़ी सी बात ,,धरम पर मिट जाना' ,,,तो दूसरे को उसके मजहब से बढ़कर  दुनिया में कुछ  भी नहीं है। सम्भवतः भारत में  'राष्ट्रवाद' का ठेका केवल भारतीय फ़ौज ने या कलम के सिपाहियों ने ले रखा है ?

भारत विभाजन का खूनी मंजर नयी पीढ़ियों ने भले ही न देखा हो किन्तु उस दरिंदगी के जीवित अवशेष अभी भी मजहबी आतंकवाद के रूप में विदयमान हैं। उनके मजहबी -उन्माद और 'भारत विरोधी 'तेवर देखकर सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि इनको 'राष्ट्रवाद' की नहीं बल्कि अपने धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की,अपने जेहाद की ज्यादा फ़िक्र है । चूँकि इस लक्ष्य के लिए अनेक-मत-पंथ और दर्शन हैं , सांस्कृतिक-भाषाई ठिकाने हैं किन्तु 'राष्ट' की अखंडता बाबत उनकी सोच क्या है ? भारत के अतीत में भी इसी तरह का दुखद मंजर था जब सांस्कृतिक -सामाजिक -क्षेत्रीय -भाषाई अनेकता ने 'राष्ट्रवाद' की संभावनाओं को बहुत पीछे छोड़ दिया था । विभिन्न मत-दर्शन और सम्प्रदायों की टकराहट ने और देशी राजे-रजवाड़ों की ऐयासी ने विदेशी आक्रमणकारियों की गुलामी के द्वार अवश्य खोल दिए थे । न केवल अतीत  के देशी हिन्दू रजवाड़ोंने  बल्कि बाद के मुस्लिम नबाबों- शहंशाहों में  ऐंसा  कोई नहीं था ,जिसे 'अखण्ड भारत' का किंचित भी मोह रहा हो। इसके अलावा उस दौर के गुलाम भारत के बनियों और जागीरदारों को 'राष्ट्र राज्य' की अवधारणा से कोई मतलब नहीं था। जाति -धर्मऔर भाषा में खण्ड-खण्ड  बटी इस उपमहाद्वीपीय आवाम को 'अखण्ड भारत ' जैसी चीज का अल्प ज्ञान भी सम्भव नहीं नहीं था।

कुल जमा कहने का तात्पर्य यह है कि भौगोलिक,राजनैतिक और संवैधानिक रूप से मौजूदा भारत ही बेमिसाल राष्ट्र है !क्योंकि अतीत में यह  सांस्कृतिक,आधात्मिक रूप से भले ही 'अखण्ड भारत' जैसा प्रतीत होता रहा हो, किन्तु इतना एकजुट- ताकतवर-जनकल्याणकारी   भारत राष्ट्र यह कभी नहीं रहा। कुछ लोगों की धारणा है कि भारत तो  सनातन से एक विशाल और महान 'राष्ट्र ' है। लेकिन उनके इस भावनात्मक विश्वाश का कोई तार्किक आधार नहीं है । केवल अपनी सांस्कृतिक पहचान और अपने धार्मिक विश्वास के बलबूते पर यह 'अखण्ड भारत' ही उनके मष्तिष्क में मौजूद है। यदि  उनका  यह तर्क मान्य किया जाता है कि अतीत में हजारों साल से भारतीय उपमहाद्वीप की चारों दिशाओं में स्थित चार धाम,द्वादश ज्योतर्लिंग लिंग ,अनगिनत शक्तिपीठ ,मंदिर, मठ 'भारत राष्ट्र 'की भौगोलिक सीमाओं का रेखांकन करते हैं ,तब  तो तिब्ब्त,मैकमोहन लाइन,और पाकिस्तान का भारत से बाहर होना स्वाभाविक है। क्योंकि आदिशंकराचार्य द्वारा सीमांकित -धरती तो मौजूदा भारत में पूर्णतः विदयमान है। वेशक  पौराणिक गाथाओं के फिक्शन और मिथक बतलाते हैं कि अंगकोरवाट ,से लेकर मध्य एसिया तक और सुदूर मंगोलिया से लेकर जावा -सुमात्रा  तक के विशाल भूभाग में 'अखण्ड भारत' का इतिहास मौजूद है। लेकिन शायद यह तब की बात है जब  दुनियामें 'वसुधैव कुटुम्बकम', 'अहिंसा परमोधर्म :' और 'धम्मम शरणम गच्छामि' का उद्घोष हुआ करता था। नयी 'सभ्यताओं 'के उदय और मजहबों के कारण अब भूमंडल पर सवा दो सौ देश बन चुके हैं। अतः अभी जो भारत राष्ट ' शहीदों की कुर्बानी से मिला है,उसे ही सुरक्षित,संवर्धित, निष्कंटक और गौरवशाली  बनाया जाए यही अंतिम समाधान उचित है।

 जन श्रुति और संस्कृत साहित्य में यह बार-बार दुहराया गया है कि 'अमुक'चक्रवर्ती सम्राट ने 'अश्वमेध 'यज्ञ किया ,अमुक ने 'राजसूय 'यज्ञ किया। किस राजवंश ने 'अखण्ड भारत' पर कितने हजार वर्ष तक शासन किया ! आदिकवि  बाल्मीकि ,कविकुलगुरु कालिदास ,भवभूति,वररुचि,अश्वघोष ,आचार्य चाणक्य ,गुरुदेव रवींद्रनाथ टेगोर, बंकिमचंद और महाकवि सुब्रमण्यम भारती ने भी अपने-अपने रचना साहित्य में इस 'अखण्ड भारत' को कभी 'जननी-जन्मभूमश्च स्वर्गादपि गरीयसी', कभी आर्यवर्त,कभी भरतखण्ड ,कभी जम्बूद्वीप ,कभी 'हिन्द',कभी भारत और कभी उसे भारतवर्ष नाम से सम्बोधित किया है। 'बन्दे मातरम '.जय हिन्द,जय भारत जैसे राष्ट्रवादी नारों का जन्म -स्वाधीनता संग्राम और इन्ही कवियों-साहित्यकारों की देंन है।लेकिन शहीदों के सपनों के  भारत राष्ट्र में भृष्टाचार के परनाले बहते देखकर तो नहीं लगता कि हमने अपने शहीदों की शहादत का सही सम्मान किया है ! 

'अखण्ड भारत' का नक्सा कभी आर्य समाज वालों ने ,कभी आरएसएस वालों ने और कभी आजाद हिन्द फ़ौज वालों ने भी बनवाया था। लेकिन उनके इस  मासूम और बचकाने  विचार में सभ्यताओं के सनातन संघर्ष की अनदेखी की गई है। चाहे स्वामी सत्यमित्रांनद द्वारा स्थापित हरिद्वार के 'भारत माता मंदिर' की झांकी हो ,चाहे संघ वालों की सोच का  'अखण्ड भारत'  हो ,उसकी सीमायें पूर्व में इंडोनेशिया तक ,पश्चिम में तेहरान तक दक्षिण में श्रीलंका तक और उत्तर में उसकी सीमा काबुल -कंधार ,ताशकंद ,अजरबेजान ,उज्वेगिस्तान ,कश्यप सागर[केस्पियन सागर] तक फैली हुई हैं । उनके अनुसार यह विराट सीमांकन उनके पूर्वज ऋषि, कवि और सम्राट तस्दीक कर गए हैं। जब पूर्वज और 'अवतारी' लोग यह सीमा तय आकर गए हैं तो अब हमारी क्या औकात कि उनका खंडन कर सकें ? और वैसे भी 'अखण्ड भारत' सदा से था ,यह मान लेने में बुराई क्या है ? दरसल जब दुनिया में 'राज्य' या स्टेट का विचार ही नहीं था तब उस कबीलाई समाज में 'राष्ट्र' या राष्ट्रवाद का नामोनिशान भी नहीं था। अर्थात सारी  धरती 'वसुधैव कुटुम्बकम 'ही थी।  अब यदि वामपंथी साथी भी 'अन्तर्राष्टीयतावाद' की बात करते हैं तो क्या गलत कहते हैं ?  यदि अखण्ड भारत का 'संघी' आकलन  काल्पनिक भी है तो भी इसमें एतराज की क्या बात है ?  थोड़ी देर के लिए हम मान लें  कि  'विभाजन' के बाद बचे-खुचे  लुंज-पुँज  भारत में अचानक कम्युनिस्ट क्रांति  सफल हो गई है ,लाल किले पर तिरंगे के साथ -साथ हंसिया -हथौड़ा वाला लाल झंडा भी लहरा रहा है,पोलित व्यूरो के साथी संसद में 'भारत राष्ट्र की सीमाओं की चर्चा कर  रहे हैं ,तब  क्या होगा ? तब 'अखण्ड भारत 'का नाक-नक्श क्या होगा ? इसका उत्तर मेरे पास है ! जिस तरह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने दक्षिण चीन सागर से लेकर पश्चिम में -वाया 'पीओके' -पाकिस्तानके कराची बंदरगाह तक ,उत्तर में मंगोलिया से लेकर दक्षिण में नेपाल तक अपना लाल झंडा गाड़ रखाहै ,इसी तरह यदि भारत में भी कभी कम्युनिस्ट क्रांति सफल हो  गई तो भारतीय वामपंथ  द्वारा जो 'नए भारत' का मानचित्र  जारी होगा ,उसमें ताशकंद से लेकर अंगकोरवाट  तक  और मॉरीशस से लेकर मंगोलिया तक 'अखण्ड भारत' किया जाना सुनिश्चित है।

 इसलिए जब तक कोई क्रांति नहीं हो जाती ,भारत के सभी नागरिकों का यह उत्तरदायित्व है कि शहीदों ने  अपनी कुर्बानी के बलबूते पर जितना भी छोटा-बड़ा मुल्क 'भारत राष्ट्र'  के रूप में दिया है , उसकी  जी जान से हिफाजत करें। यदि कुछ लोग इसे अपना वतन नहीं मानते  तो उन्हें  लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अंदर ही अवसर दिया जाए कि वे अपनी 'देशभक्ति' प्रमाणित कर सकें ! किन्तु उससे पहले वे स्वयम्भू राष्ट्रवादी खुद सुधर जाएँ ,  जिनके शब्दों में तो  'राष्ट्रवाद' दरपेश है ,किन्तु व्यवहार में उनका चरित्र घोर 'अराष्ट्रवादी 'है। जो लोग रिश्वत लिए बिना फाइल आगे नहीं बढ़ाते,जो लोग चुनाव में भारी  चन्दा लेकर बाद में  चंदादेने वालों को उपकृत करते हैं ,जो लोग  स्विश बैंकों में कालाधन जमा करते हैं ,जो लोग हवाला-घोटाला करते हैं ,जो लोग खाद्यान्न में भी सट्टाखोरी करते हैं ,जो लोग किसानों की फसल सस्ते में खरीदकर उपभोक्ताओं को महँगा बेचते हैं ,जो निकृष्ट लालची लोग भारतीय फौज के साजो-सामान में भी हेर-फेर करते हैं, जो लोग अपनी  फौज को नकली माल -असलाह,नकली बुलेट प्रूफ जैकेट बेचते हैं ,जो लोग सीमाओं पर शहीद होने वाले बहादुरों के ताबूत में भी कमीशन खोरी करते हैं ,यदि ऐसे लोग अपने आपको राष्टवादी कहेंगे तो वतन का 'गद्दार 'किसे कहते हैं ?     श्रीराम तिवारी

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