सोमवार, 18 जुलाई 2016

भारत में 'राष्ट्रवाद' अभी भी शैशव अवस्था में ही है। -Part 1

प्रायः मानवीय  दुस्साहसवाद के वशीभूत  हिंसक प्रवृत्ति के मनुष्य ही  आतंकवाद -अलगाववाद  की बीमारी से ग्रस्त हुआ करते हैं। यह  महामारी  कमोवेश सारी दुनिया में व्याप्त है। भारत में सम्भवतः यह सबसे ज्यादा है। क्षेत्रीय अलगाववाद, मजहबी आतंकवाद दोनों ही 'राष्ट्रवाद' के जुड़वा शत्रु हैं। अमेरिकी क्रांति, फ्रांसीसी क्रान्ति और सोवियत क्रांति के असर से सारी दुनिया ने  बहुत कुछ सीखा है । और इन्ही क्रांतियों की प्रेरणा से बीसवीं शताव्दी में दुनिया के सर्वहारा वर्ग ने 'सरमायेदारों से  शोषण मुक्ति', श्रमिक वर्ग के 'काम के घंटे आठ' सुनिश्चित किये जाने को ह्र्दयगम्य किया है । इन्ही क्रांतियों ने  भारत,दक्षिण अफ्रीका जैसे  सैकड़ों गुलाम राष्ट्रों को राष्ट्रवाद और  'स्वतंत्रता'  का अर्थ सिखाया है । इन्ही क्रांतियों की बदौलत सारी दुनिया में धर्मनिरपेक्षता,अंतरराष्टीयतावाद और लोकतंत्र की धूम मच रही है। भारत के दुर्भाग्य से ,कुटिल पड़ोसियों की अनैतिक हरकतों से और महाभ्रुष्ट व्यवस्था के परिणाम स्वरूप,आजादी के ७० साल बाद  भी  भारत के जन-मानस में , 'राष्ट्रवाद' केवल चुनावी नारों तक ही सीमित है। कुछ मुठ्ठीभर शायरों,कवियों और लेखकों की रचनाओं में ही राष्ट्रवाद प्रतिध्वनित होता रहता है।  'राष्ट्रवाद' के विषय में एकमात्र सुखद सूचना यह  है कि भारत का सुप्रीम कोर्ट अवश्य ही 'राष्ट्रवाद'से प्रेरित है। और दुनिया भर की देखादेखी भारत का हिंदी मिडीया भी 'राष्ट्रवाद' को अपने विमर्श के केंद्र में  शिद्द्त से पेश कर रहा है। किन्तु अपराधबोध से ग्रस्त शासकवर्ग को न्यायपालिका और मीडिया का राष्ट्रप्रेम शायद रास नहीं आ  है। जब तक भारतीय जन-मानस  में  'राष्ट्रवाद' परवान नहीं चढ़ता -तब तक जातिवाद ,अलगाववाद, आतंकवाद और सर्वव्यापी भृष्टाचार से मुक्ति असम्भव है। और राष्ट्रवाद की परीक्षा उत्तीर्ण किये बिना भारत में 'सर्वहारा अंतर् राष्ट्रीयतावाद' केवल कोरी सैद्धांतिक जुगाली मात्र है।    

चूँकि भारत में 'राष्ट्रवाद'की चेतना ही अभी शैशव अवस्था में है। अतः अंतर्राष्टीयतावाद की सोच तो बहुत दूर की बात है। लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि केवल अंतर्राष्ट्रीयतावाद से ही मजहबी उन्माद और हिंसक आतंक  को खत्म किया जा सकता है। यदि कोरे राष्ट्रवाद से  ही आतंक खत्म हो सकता तो दुनिया के कट्टर राष्ट्रवादी मुल्क - फ़्रांस,ब्रिटेन,अमेरिका ,तुर्की ,बांग्ला देश अफगानिस्तान,पाकिस्तान ,सीरिया,ईराक में आतंकवाद क्यों दहक रहा है ? खेद की बात है कि आजादी के ७० साल बाद भी भारत में मजहबी आतंक से निपटने की राजनैतिक समझ विकसित नहीं क्र पाया  है। भारतीय  सुरक्षा एजेंसियां और कूटनीतिक तंत्र केवल हवा में लठ्ठ घुमाए जा रहे हैं । राष्ट्र-समाज के जान-माल की -सुरक्षा की, हम अपने-आप को झूंठी तसल्ली दे रहे हैं। जो लोग केवल सत्ता की राजनीति में ही व्यस्त हैं ,उनके द्वारा नई पीढ़ी को 'राष्ट्रवाद' की जगह साम्प्रदायिकघृणा से युक्त अंधराष्ट्रवाद सिखाया जा रहा है।उधर धर्मांतरण में जुटे  विदेशी ईसाई मशीनरी को या आईएस के मजहबी उन्माद फैलाने में  जुटे मदरसों को  भारतीय एकता -अखण्डता और धर्मनिरपेक्ष 'राष्ट्रवाद' से कोई लेना -देना नहीं है ।

 बहुसंखयक -अल्पसंख्य्क  वर्ग के स्वार्थी और दवंग लोग विश्व पूँजीवाद और एमएनसी की शह पर लोकतंत्र,  धर्मनिरपेक्षता ,समाजवाद और 'राष्ट्रवाद' को लतियाने  में जुटे हैं। साफ़ स्वच्छ लोकतान्त्रिक व्यवस्था स्थापित करने की जगह धर्म-मजहब -जाति आधारित राजनैतिक ध्रुवीकरण,टेक्टिकल वोटिंग ,बूथ केप्चरिंग के मार्फत सर्वत्र भृष्ट नेताओं को बढ़ावा दिया जा  रहा है। यही वजह है कि चारों ओर पड़ोसी देश नाक में दम किये जा रहे हैं। मजहबी आतंक और अलगाववाद ने न केवल कश्मीर में ,न केवल उत्तरपूर्व में ,न केवल  भारत के अंदर बल्कि  सारी दुनिया में कोहराम  मचा रख्खा है । भारत के लिए तो यह बहुत ही शर्मनाक है जो किसी किसी शायर के शब्दों में यूं  कहा गया है ;-

''दिल में  फफोले पड़ गए सीने के दाग से, इस घर को आग लग गयी घर के चिराग से'' 

यह मजेदार तथ्य है कि तमाम खामियों और गलतियों के वावजूद भारत में आजादी के तुरंत बाद से ही शैक्षणिक नीतियाँ साइंस को बढ़ावा दने के उद्देश्य से ज्यादा बनाई गईं। यही वजह है कि सांइस के विद्यार्थी को बाकी विषयों के ज्ञानार्जन में कोई समस्या नहीं रही । वेशक कला ,वाणिज्य,इतिहास,राजनीति और समाजशास्त्र के विद्यार्थियों को साइंस पढ़ने और समझने में दिक्कत दरपेश हो सकती  है । मैं खुद  साइंस का विद्यार्थी रहा हूँ  और राजनीति शास्त्र पढ़ने तथा ततसंबंधी अपनी समझ विकसित  करने में मुझे कोई विशेष परेशानी नहीं हुई। अब मैं किसी पेशेवर राजनीतिज्ञ को ,राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर को या किसी सीनियर पार्लियामेंटेरियन को 'प्रशांत किशोर' से भी बेहतर राजनीति की बारीकियाँ सिखा सकता हूँ। हालाँकि इसमें ट्रेडयूनियन आंदोलन का बहुत योगदान रहा है। मैंने केंद्रीय कर्मचारियों की मान्यता प्राप्त विशाल  यूनियन में  ४० साल तक अनवरत   काम किया है । ब्रांच सेक्रेटरी से लेकर 'राष्ट्रीय संगठन सचिव'के पदों पर काम किया है । उसकी संगठनात्मक संरचना सीटू[सेंटर आफ़ इंडिंयन ट्रेड यूनियन ] से मिलती जुलती है। यह उल्लेखनीय है कि सीटू से संबंधित ट्रेड यूनियनों में  एक आदर्श ,लोकतंत्रात्मक ,स्वतंत्र,निष्पक्ष चुनाव प्रणाली मौजूद है। जनवादी केंद्रीयता ,राष्ट्रवाद और सामूहिक निर्णयों की आदर्श -लोकतांत्रिक राजनीति का सीटू में बहुत सम्मान है। सीटू की सफलता से प्रभावित होकर कांग्रेस ने इंटक को और आरएसएस ने 'भारतीय मजदूर संघ' को चलाने का प्रयास किया है। वे भी कुछ हद तक लोकतंत्रात्मक तौर तरीकों को मानने लगे हैं। किन्तु उनके आदर्श 'सर्वहारा अंतर्राष्टीयतवाद'से जुदा हैं। चूँकि ये सब  प्रकारांतर से भारत के पूँजीवादी दल ही हैं ,इसलिए वे  जिस दक्षिणपंथी  राजनीति का पैटर्न अपनाते हैं ,वह  निहायत ही पक्षपातपूर्ण और अलोकतांत्रिक है। वे ऐन-केन -प्रकारेण भृष्ट दाँव पेंच अपनाकर सत्ता में भले ही आ जाते हैं ,किन्तु  उनकी  'गन्दी राजनीति' के कारण भारत का बेडा गर्क हो रहा है।

भारत के किसी भी देशभक्त नौजवान को  यदि राष्ट्रवाद सीखना है ,लोकतन्त्रमकता सीखना है तो उसे  भारत के वामपंथी  ट्रेड यूनियन आंदोलन से अवश्य जुड़ना चाहिए। चाहे एसएफआई हो ,चाहे जनवादी नौजवान सभा हो , चाहे एआईएसएफ हो ,चाहे इप्टा हो या जलेस-प्रलेस हो ,सभी जगह धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के साथ असली राष्ट्रवाद ही सीखने को मिलगा। जिन्हे अपने वतन से और इंसानियत से प्यार है उन्हें  सच्चे 'राष्ट्रवाद' का ककहरा और साफ़  सुथरी राजनीति अवश्य सीखना चाहिए। स्कूल कालेजों में राजनीति पढ़ना,पढ़ाना अलहदा  बात है  फेसबुकऔर सोशल  मीडिया पर भृष्ट नेताओं की कथनी-करनी के अंतर् वाला  मौकापरस्ती का 'राष्ट्रवाद' बिलकुल अलग बात है , किन्तु  व्यवहारिक राजनीति सीखने के लिए ,असली राष्ट्रवाद और अंतर्राष्टीयतावाद को ठीक से  समझने के लिए तो भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र [सीटू] ,उसके बिरादराना संगठन ही सच्चे राष्टवादी स्कूल सिध्ध हो सकते हैं । 

जिन्होंने राजनीति शास्त्र नहीं पढ़ा वे अपनी अल्पज्ञता के लिए जरा भी अफ़सोस न करें ,क्योंकि जो कुछ भी अब तक  लिखा गया ,पढ़ाया गया उस पर व्यवहारिक राजनीति का कोई सरोकार नहीं है । वैसे भी राजनीतिशाश्त्र के लेखक ,प्रोफेसर और विचारक खुद भी किसी एक सिद्धांत परकभी  एकमत  नहीं रहे ।  राष्ट्रवाद ,राष्ट्रीयता और अंतर् राष्ट्रीयतावाद की जो भी परिभाषाएँ पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाईं जातीं रहीं  हैं ,उनसे  वर्तमान भारतीय राजनीति का कोई वास्ता नहीं दिखता । जिस तरह अभी -अभी बिहार के कुछ स्कूली 'टॉपर्स' छात्रों का खुलासा हुआ है कि वे हकीकत में  किसी भी विषय में  थर्ड क्लास उत्तीर्ण  होने लायक नहीं हैं,किन्तु जुगाड़ की डिग्री से ये  बिहार के नौनिहाल एक दिन लालू,राबड़ी ,पप्पू यादव ,मुलायम परिवार ,मायावाद ,ममतागिरी को भी मात करेंगे। योग्यता को नकारने वाले  वोट जुगाड़ू राजनीतिक सिस्टम की असीम अनुकम्पा  से भारत में 'राष्ट्रवाद' हासिये पर है। यदि जातिवादी राजनीति का यह  अधोगामी सिलसिला जारी रहा तो व्यापमपुत्र - मुन्नाभाई ही आईएएस आईपीएस बनेंगें।  ऐसे  ही अर्धशिक्षित अयोग्य लोग  राजनीति में होंगे। और योग्य -मेधावी छात्र  किसी पूँजीपति के यहाँ प्रायवेट नौकरी करेंगे या कुछ जुगाड़ सम्भव  हुई तो सरकारी क्षेत्र में बाबू-चपरासी बनते रहेंगे। इन हालात में भारत राष्ट्र को पूरा बिहार बनने से कोन रोक सकता है ?  वास्तव में विहार का यह  उदाहरण तो भृष्टाचार की उफनती हांडी का एक चावल मात्र है , दरसल पूरे भारत का यही हाल है।केंद्र का और अधिकांश राज्यों का राजनैतिक सिस्टम बिहार स्टाइल के असंवैधानिक पैटर्न पर  ही काम कर रहा है। नतीजा सामने है कि भारत में  कागजों पर विकास मौजूद  है और केवल  भाषणों में 'राष्ट्रवाद' गूँज रहा है।

आपातकाल के बाद भारत में यह चलन चल पड़ा कि जो अलगाववादी हैं ,जो मजहबी कट्टरपंथी हैं ,जो नक्सलवादी-माओवादी हैं ,वे ही देशद्रोही हैं। दुर्भाग्य से कभी-कभी कुछ लेखकों और बुद्धिजीवियों को भी देशद्रोह के आरोपों से जूझना पड़ा। हाथ में बन्दूक लेकर जो देश के खिलाफ युद्ध छेड़ेगा वह तो देश का दुश्मन है ही। किन्तु जो देश की बैंकों का अकूत धन डकारकर विदेश भाग जाए ,जो बैंकों का उधार चुकाने से इंकार कर दे , दिवाला घोषित कर दे ,जो सरकार का मुलाजिम होकर भी देश के साथ गद्दारी करे ,जो सरकारी नौकरी पाकर भी मक्कारी करे, जो बिना रिष्वत के कोई काम न करे , जो जातीय या आरक्षण  के आधार पर सरकारी नौकरी पाकर जेलों में बंद सोमकुंवर,गजभिए जैसा आचरण करे ,जो सरकारी नौकरी में रहकर जातीय दवंगई दिखाए और काम दो कौड़ी का न करे ,उलटे दारु पीकर सरकार को  ही गालियाँ दे , जो खुद का इलाज न कर सके और सरकारी डाक़्टर बन जाए , जो 'राष्ट्रवाद' की परिभाषा भी न जाने और मंत्री बन जाए,जो  ठेकेदारों के घटिया निर्माण  की अनदेखी करे और कमीशन खाये ,जिसकी वजह से  पुल ,स्कूल अस्पताल ढह जाएँ ,मरीज मर जाएँ , सड़कें बह जाएँ तो इन अपराधों के लिए भारत में भी  चीन की तरह मृत्यु दण्ड क्यों नहीं होना चाहिए ?

भारत  के अधिकांश लोगों को लगता है कि 'राजनीति' बड़ी गन्दी चीज है।  भारत में अशिक्षित ,अर्धशिक्षित जनता  तो फिर भी प्रकारांतर से राजनीति में दखल देती रहती है। किन्तु कुछ उच्च शिक्षित साइंस्टिस्ट,जज, वकील और प्रोफेसर लोग  राजनीति से परहेज करने में ही अपनी भलाई समझते हैं। वे  करप्ट व्यवस्था से भी तालमेल बिठाने में माहिर होते हैं। इस शुतुरमुर्गी कला को  वे अपने स्वास्थ्य की अचूक रामबाण औषधि मानते हैं। राष्ट्रवाद,अंध राष्ट्रवाद ,साम्राज्यवाद या अंतर् राष्ट्रीयतावाद को  वे केवल 'स्कूल-कालेज की पढ़ाई का बोर सिलेबस मानते हैं।जब भारत के उच्च शिक्षित और भद्र लोग राजनीतिक ज्ञान को विस्मृत करते रहेंगे,अपने  देश की  राजनीति  से दूर रहेंगे तो स्वाभाविक है कि नकली डिग्री वाले ,आपराधिक पृष्ठभूमि वाले और राजनीति के आदर्श सैद्धांतिक ज्ञान से शून्य नर-नारी  ही देश का शासन चलाते  रहेंगे।

    दुनिया की तमाम सभ्यताओं में भारतीय सभ्यता सम्भवतः सबसे पुरानी है। शायद,मिश्र ,मेसोपोटामिया और माया सभ्यता भी भारतीय सभ्यता के बाद की सभ्यताएं हैं। दुनिया के अनेक कबीले  जब  'वन मानुष'की जिंदगी जी रहे थे तब सिंधु घाटी सभ्यता , आर्य सभ्यता और द्रविड़ सभ्यता आसमान छू रही थी। अमेरिका का इतिहास महज ५०० साल पुराना है ,लेकिन उसका राष्ट्रवाद चीन ,जापान ,जर्मनी और फ़्रांस से भी सुपीरियर है। किन्तु भारतीय सभ्यता का इतिहास दस हजार साल पुराना होते हुए भी एक संगठित राष्ट्र के रूप में वह सबसे ढुलमुल,असुरक्षित और भृष्ट देश है। राष्ट्रीय चेतना के स्तर पर यह दुनिय में में सबसे बौना है। भारत में 'राष्ट्र' से ऊपर जातीय आरक्षण है, देश से ऊपर रिष्वतखोरी और भृष्टाचार है,राष्ट्रवाद' से ऊपर राजनैतिक पार्टियाँ और साम्प्रदायिक संगठन हैं। यह विचित्र बिडंबना है कि अधिकांश बुद्धिजीवी ,प्रगतिशील साहित्य्कार और कविजन 'राष्ट्रवाद' को दक्षिणपंथ और फासिज्म का पेटेंट मानकर उसका उपहास  करते हैं। वे भूल जाते हैं कि चीन,क्यूबा,वियतनाम और पूर्व सोवियत संघ के विद्वान कामरेडों ने अपने एजंडे में क्रांति और' राष्ट्रवाद' को एक ही गाड़ी के दो पहिए माना है।

भारत में राष्ट्रवाद केवल फिल्मों में ,क्रिकेट में और राजनैतिक जुमलों में ही देखने को मिलता है। 'पूरव पश्चिम ', 'देशप्रेमी ', 'मदर इण्डिया' और बॉर्डर जैसी दरजनों फिल्मों ने  भारत जनता में  अस्थायी भाव के रूप में क्षणिक राष्ट्रवाद को प्रेरित किया है। हालाँकि ! भारत की लगभग ४०% निर्धन,खेतिहर मजदूर और आदिवासी - अपढ़ जनता को 'राष्ट्रवाद' का मतलब  नहीं मालूम ! लेकिन भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच के दरम्यान ,यदि मैच देखने की  सुविधा हो तो  अपढ़ -ग्रामीण भी 'इंडिया'-इण्डिया'के शोर में शामिल होने लग जाते हैं । जब कोई भारतीय कहता है कि 'इण्डिया जीतेगा'या इंडिया की हार के बाद जब कोई भारतीय अपनी टीम को गाली देने कग जाए तो समझो 'राष्ट्रवाद' की कुछ तो सम्भावना शेष है। लेकिन खेल,फिल्म और छुटपुट साहित्यिक गतिविधियों के अलावा भारत में 'राज्य की ओर से 'राष्ट्रवाद' के पक्ष में कुछ खास प्रयोजनात्मक कार्यक्रम नहीं हैं।इसीलिये आरएसएस जैसे गैर सरकारी संगठनों को यह काम करना पढ़ रहा है। हालाँकि आरएसएस वाले जिन्हे तैयार करते हैं , वे भी सत्ता का सानिध्य पाकर  बंगारू लक्ष्मण,जूदेव,प्रमोद महाजन और सिद्धरमैया बन जाते हैं। जबकि संगठन के रूप में उसके अनुषंगी भी सत्ता का बेजा फायदा उठाते रहते हैं। उनके इस पवित्र राष्ट्र धर्म की तब बड़ी भद पिटती है जब वे  'राष्ट्रवाद' की शिक्षा के स्थान पर हिन्दुत्ववादी  साम्प्रदायिक बैमनस्य की शिक्षा देने लग जाते हैं।

हालांकि यही काम मुस्लिम संगठन और मदरसे भी करते रहे हैं और कर रहे हैं। वे इस्लाम के नाम पर इस्लाम की तमाम सामाजिक ,वैवाहिक,पारिवारिक और मजहबी उपलब्धियों का उपभोग करने को अपना 'परसनल लॉ ' मानते हैं. किन्तु वे दीवानी और फौजदारी मामलों में इस्लामिक राष्ट्रों में जारी उस दण्डात्मक इस्लामी कानून की जगह भारतीय सम्विधान के उदारवादी क़ानून का लाभ उठाते हैं। उनकी इस दोहरी उपलब्धि के अलावा  जम्मू - कश्मीर के मुसलमान तो धारा -३७० का तीसरा लाभ भी लेते हैं  और इसके वावजूद वे  कश्मीर के पंडितों का या तो संहार आकर चुके हैं या उन्हें  घाटी से भागने पर मजबूर क्र चुके हैं ,अब कश्मीर के मुसलमान कस्मीरियत या कशमीरी राष्ट्रवाद नहीं बल्कि 'पाक्सितान जिंदाबाद' के नारे लगा रहे हैं। वे भारतीय फौज पर पत्थर फेंक रहे हैं और भारत की धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद को रुस्वा कर रहे हैं। वेशक कश्मीर के अलगाववादी यदि 'राष्ट्रवाद' का दावा नहीं करते ,यदि विश्व इस्लामिक आतंकवाद और पाकिस्तान उन्हें शह  देता है तो शेष सम्पूर्ण भारत की जनता की यह ऐतिहासिक जिम्मेदारी है कि कम से कम  जो 'राष्ट्रवादी' होने का दावा करते हैं वे तो 'राष्ट्रवाद' का आचरण करे । श्रीराम तिवारी




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