दुनियावी तस्वीर साक्षी है ,जो यह बताती है कि अन्य प्राणियों के बनिस्पत इंसान ने धरती पर अपनी 'मानवीय'मेधा शक्ति के झंडे सबसे पहले गाड़े होंगे । कालान्तर में संवेदनशील मनुष्यों ने तत्कालीन परिस्थितियों में जहाँ-तहाँ जब प्रकृति के साथ अपना सातत्य बिठाते हुए अच्छे -बुरे की समझ विकसित की होगी। शायद तभी किसी 'पहले मनुष्य' ने मानवेतर घटनाओं पर अज्ञात 'दैवीय' शक्तियों का चमत्कार मानकर उस आभासी प्रभुसत्ता को एक नूतन वैज्ञानिक खोज की तरह ''यूरेका - यूरेका ..'' के साथ स्वीकार किया होगा । और इस तरह धरती के अधिकांश हिस्सों में ,खास तौर से सभ्य समाजों में धर्म-मजहब का बीजारोपण प्रारम्भ हुआ होगा । मनुष्य ने पहले आग की , पहिए की और बैलगाड़ी की खोज की होगी ,शब्दों को अभिव्यक्त करने की वाग्मिता ईजाद की होगी तथा अन्य प्राणियों के मुकाबले 'मानवीय हाथों की ताकत ' के बलबूते पर श्रमश्वेद के महत्व की खोज की होगी। इसके उपरान्त मनुष्य ने 'घर-परिवार' बसाए होंगे ! इसके उपरान्त गोत्र,समाज और राष्ट्रों की अवधारणा विकसित हुई होगी ! इन सबके संचालन के लिए रीति-रिवाज और नियम कानून बनाये गए होंगे। इस तरह आदिम मनुष्य ने जब अपने पुरुषार्थ को जीवंत देखकर अन्य चौपायों से अपने आपको ज्यादा बुद्धिमान पाया होगा। तभी उसे सुख-दुःख को अक्षुण रखने की लालसा जागी होगी। और इस उधेड़बुन में जब कुछ खास बुद्धिमान इंसानों ने अपराजेय शक्तियों को नमन करते हुए 'ईश्वर' के अस्तित्व की घोषणा कर दी और अपना सन्देश अन्य लोगों को बताया तो वे अवतार,पीर,पैगंबर हो गए।
भारत में 'धर्म' का अनुसंधान किसी एक खास व्यक्ति अथवा अवतार ने नहीं किया। बल्कि मानवीय जीवन की लम्बी यात्रा और सभ्यता के विकास क्रम में पूर्व वैदिक आर्यों ने सूक्तों,मन्त्रों और स्त्रोतों का निरंतर सस्वर पाठ करते हुए उसे 'स्मृति'का रूप प्रदान किया। आर्य सभ्यता के विकास क्रम की इस परम्परा के अवगाहन से कालांतर में उत्तरवर्ती आर्यपुत्रों ने न केवल चारों वेदों का संकलन किया अपितु उन्होंने अपने सिद्धांत सूत्रों में सन्निहित अद्वतीय और महानतम मानवीय मूल्यों को विश्व व्यापी स्वरूप भी प्रदान किया।'अहम ब्र्हमस्मि' , 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया'.., 'धर्मो रक्षति रक्षतः', 'वयम् रक्षाम:', 'सत्यमेव जयते' अहिंसा परमोधर्म :' 'अप्प दीपो भव' ,'वस्तु स्वभावो धम्मह ','ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या' 'परहित सरिस धरम नहीं भाई ,परपीड़ा नहीं सम अधमाई ' इत्यादि लाखों सूत्रों-मन्त्रों से भारतीय 'सनातन धर्म' भरा पड़ा है। इन सूत्रों-मन्त्रों की व्याख्या से कदापि यह नहीं लगता कि वे केवल भारत की आवाम के लिए हैं या केवल हिन्दुओं के लिए बनाए गए हैं। बल्कि वे सर्वकालिक और सार्वभौमिक हैं।
यदि धर्म को राजनीति से अलग रख जाये तो यह दावा किया जा सकता है कि यह 'सनातन धर्म' कोई अफीम नहीं है। अन्य मजहब-पंथ जिनकी जानकारी कार्ल मार्क्स को थी,और इन पंक्तियों के लेखक को नहीं है , वे सरसरी तौर पर अफीम ही सिद्ध हुए हैं। हालाँकि उन पाश्चात्य 'रिलीजंस और मजहबों' में भी बहुमूल्य मानवीय संवेदनाओं का भंडार बहरा हुआ है किन्तु आतंकवाद के नजरिए से देखने पर यह जरुरी हो जाता है कि उन रिलीजंस-मजहब के प्रबुद्ध जन संसार के समक्ष यह सिद्ध करें, कि उनका रिलिजन या मजहब केवल अफीम नहीं है। बल्कि वे भी सनातन धर्म की तरह मानवीय मूल्यों के अजस्र स्रोत हैं ! धार्मिक संकीर्णता और मजहबी आतंकवाद जरूर त्याज्य और निंदनीय है। कार्ल मार्क्स -एंगेल्स ने सम्भवतः इन्ही मजहबी बुराइयों की ओर दुनिया का सबसे पहले ध्यानाकर्षण किया था। और गुलाम दुनिया के लिए धर्म-मजहब को अफीम बताया था।
देश काल परिस्थतियों के कारण कुछ मानव कबीले बौद्धिक रूप से जल्दी-जल्दी विकसित होते चले गये। और कालान्तर में सुमेरु,आर्य,यहूदी,पारसीक सभ्यताओं ने अपने-अपने टोटम भी विकसित किये। सभी ने अपने-अपने दर्शन ग्रन्थ और महाकाव्य रचे। इन उन्नत सभ्यताओं में उच्चतर मानवीय मूल्यों को भरपूर तवज्जो दी जाने लगी । धर्म दर्शन और अध्यात्म के सिद्धांत -सूत्र निर्धारित किये जाने लगे। धरती पर अनेक समृद्ध सभ्यताओं ने कदाचित क्रूरकाल में भी अमन और खुशहाली के परचम बुलंद किये हैं । वैसे इजिप्ट, एथेंस,स्पार्टा ,रोम, परसिया और जेरूसलम की सभ्यताओं के पराभव के बारे में तो मरहूम अल्लामा इकबाल साहिब बजा फरमा गए हैं कि ''यूनान ओ रोमा मिट गए जहाँ से,बाकि है जहाँ में नामो निशा हमारा ,सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा ''!
वस्तुतः अल्लामा इक़बाल साहिब जिसे 'हिन्दोस्ताँ ' कह गए हैं ,वह विशाल सुसंस्कृत धरा 'अखण्ड भारत ' के रूप में पश्चिम में ईरान के मदान शहर से लेकर पूर्व में अंगकोरबाट [कम्बोडिया]तक और दक्षिण में श्रीलंका से लेकर उत्तर में मंगोलिया तक विस्तृत थी। वेशक राजनैतिक दॄष्टि से इस विशाल भूभाग का कोई एक सत्ता केंद्र कभी नहीं रहा।सिर्फ अंग्रेज ही इसके अपवाद रहे हैं। चूँकि ब्रिटिश साम्राज्य का कभी सूर्यास्त ही नहीं होता था,अतः वे अवश्य कुछ समय के लिए इस संम्पूर्ण भूभाग के शासक रहे हैं। लेकिन भारत के महानायकों में शामिल जिन पांडवों ने कुरुक्षेत्र में कौरवों को हराया था वे भी इस विशाल भूभाग के भोक्ता कभी नहीं रहे। क्योंकि कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों ओर के राजाओं की तादाद और उनकी सैन्य शक्ति का 'महाभारत' में विस्तार से वर्णन है। युद्धोपरांत युधिष्ठर द्वारा किये गए अष्वमेध यज्ञ में भी हस्तिनापुर से स्वतंत्र राजाओं का स्प्ष्ट उल्लेख मिलता है। अवध,काशी ,अंग-बंग -कलिंग वाले सौराष्ट्र और सिंधु-सौवीर वाले,मगध वाले,प्राग्ज्योतिषपुर वाले सबके सब उस यज्ञ में आमंत्रित थे। द्वारका और मथुरा वाले तो पहले से ही उनके स्वतंत्र रिस्तेदार थे।
जो लोग महाभारत को इतिहास नहीं मानते या 'मिथ' मानते हैं उन्हें यूनानी दार्शनिक मेगास्थनीज कृत 'इंडिका' का अध्यन अवश्य करना चाहिए ! उसमें भी इस भूभाग की ततकालीन राजनैतिक स्थति लगभग वैसी ही ही जैसी कि 'मिथकीय' महाकाव्य महाभारत में। उसमें उन सब देशों का उल्लेख है जो इस 'अखण्ड भारत' के भूभाग में विदयमान थे। और जिनका विस्तार से महाभारत में भी उल्लेख है । कहने का मकसद ये कि राजनैतिक रूप से तो 'अखण्ड भारत' कभी नहीं बन पाया। किन्तु चन्द्रगुप्त मौर्य ,संम्राट अशोक,के समय इतना अवश्य हुआ कि 'बौद्ध धर्म' इस समस्त दक्षिण एसिया में बोलबाला हो गया। तिब्ब्त,श्रीलंका,चीन मलेशिया,थाइलैंड ,नामपेन्ह ,जापान और मंगोलिया तक बुद्ध का संदेश पहुँच गया। कहीं-कहीं तो बौद्ध धर्म राजधर्म ही बन गया ।
कालांतर में जब बौद्ध धर्म खुद ही बुद्ध के आदेशों और संदेशों से भटक गया ,जब उसके अनुयायी हीनयान-महायान बगैरह के मत-मतांतर में उलझने लगे तब इस 'अखण्ड भारत ' में फिर से वैदिक धर्म ने अंगड़ाई ली। चूँकि बौद्ध धर्म सदियों तक इस भारतीय उपमहाद्वीप पर 'राजधर्म'के रूप में स्थापित रहा है इसलिए उसके अनुयाईओं द्वारा निरीह सनातन धर्मावलम्बियों और ब्राह्मणों का सताया जाना स्वाभाविक था। बहुत लम्बे अर्से तक बचे खुचे ब्राह्मणों ने वेदों,उपनिषदों और पुराणों को अपनी स्मृतियों में संजोए रखने की तकनीक ईजाद क्र ली थी। यही वजह है कि दक्षिण भारत के एक निर्धन ब्राह्मण बालक -आदि शंकराचार्य ने वेद प्रणीत सनातन धर्म को न केवल पुनः जीवित किया बल्कि बौद्ध धर्म और अन्य अवैदिक मतों का खंडन कर उन्हें भारत से बाहर कर दिया। उन्होंने इस प्रायद्वीप के चारों कोनों में चार मठ भी स्थापित किये । उन्होंने अल्प वय में ही वेदप्रणीत सिद्धांतों और सूत्रों के अनेक भाष्य रच डाले। उन्होंने अद्वैत वेदांत और 'ब्र्ह्म सत्यम जगन्मिथ्या 'का सिद्धांत प्रस्तुत किया। बाद में मध्युगीन भक्त कवियों ने आदि शंकराचार्य के वैदिक सिद्धांत' में भारतीय लोक [परम्परा का रंग डालकर जो 'अवतारवाद'और भक्तिमार्ग पेश किया ,उसे ही 'सनातन धर्म 'कहते हैं। बाहर से आने वाले यवन ,तुर्क,मंगोल आक्रमणकारियों ने भारत के इस धर्म को ही 'हिन्दू धर्म'नाम दिया था। 19वीं शताब्दी में स्वामी विवेकानंद ,बंकिमचंद,श्रद्धांनद ,महात्मा गांधी ,सुब्र्मण्यम भारती और जे कृष्ण मूर्ती इत्यादि ने ने इस 'हिन्दू धर्म 'में भारतीय राष्ट्रवाद का सन्देश शामिल किया !
बाद में यवन ,मलेच्छ ,तुर्क,खिलजी,अफगान आये , मुगल आये किन्तु वे पूरे भूभाग को कभी नहीं जीत पाये ,जिसे कुछ लोग 'अखण्ड भारत' कहते हैं।
ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा ऋषियों के कालजयी श्लोक ''कृणवन्तो विश्वम् आर्यम'की अनुगूँज केवल दक्षिण एसिया तक ही सीमित नहीं रही बल्क मिश्र ,तिब्बत, चीन मगोलिया ,कम्बोडिया,मलेशिया ,जावां,सुमात्रा ,इंडोनेशिया और थाईलैंड में भी बहुत काल तक सुनाई देती रही है।दुनिया में शांति-मैत्री का अलख जगाया जा रहा था। लेकिन यह सर्वजनहिताय वाली चेतना दुनिया के कुछ समाजों को कभी पसंद नहीं आई । पश्चिम के कुछ यथार्थवादी - भौतिकवादी विद्वानों ने जब कहा कि 'रिलीजंस एक अफीम है ' तब उनके निशाने पर भारतीय सनातन धर्म और वेद कदापि नहीं थे। उन्होंने तो पाश्चात्य कबीलाई मजहबों की लटके- झटके और पोप की बादशाहत को इशारों-इशारों में 'अफीम' कह दिया। वास्तव में दुनिया का कोई भी धर्म -मजहब इतना बुरा या त्याज्य नहीं कि उसे सिर्फ अफीम ही रखा जाये। यदि मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा भी है तो उनका तातपर्य किसी धर्म -मजहब के उसूलों से नहीं बल्कि शोषणकारी मजहबी दवंगता को लताड़ने से है। वर्ना धर्म मजहब महज अफीम नहीं बल्कि इंसानियत की दवा भी हैं। वशर्ते ये धर्म -मजहब आतंकवाद और हिंसक बहशीपन से दूर रहें।
:- श्रीराम तिवारी ; -
भारत में 'धर्म' का अनुसंधान किसी एक खास व्यक्ति अथवा अवतार ने नहीं किया। बल्कि मानवीय जीवन की लम्बी यात्रा और सभ्यता के विकास क्रम में पूर्व वैदिक आर्यों ने सूक्तों,मन्त्रों और स्त्रोतों का निरंतर सस्वर पाठ करते हुए उसे 'स्मृति'का रूप प्रदान किया। आर्य सभ्यता के विकास क्रम की इस परम्परा के अवगाहन से कालांतर में उत्तरवर्ती आर्यपुत्रों ने न केवल चारों वेदों का संकलन किया अपितु उन्होंने अपने सिद्धांत सूत्रों में सन्निहित अद्वतीय और महानतम मानवीय मूल्यों को विश्व व्यापी स्वरूप भी प्रदान किया।'अहम ब्र्हमस्मि' , 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया'.., 'धर्मो रक्षति रक्षतः', 'वयम् रक्षाम:', 'सत्यमेव जयते' अहिंसा परमोधर्म :' 'अप्प दीपो भव' ,'वस्तु स्वभावो धम्मह ','ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या' 'परहित सरिस धरम नहीं भाई ,परपीड़ा नहीं सम अधमाई ' इत्यादि लाखों सूत्रों-मन्त्रों से भारतीय 'सनातन धर्म' भरा पड़ा है। इन सूत्रों-मन्त्रों की व्याख्या से कदापि यह नहीं लगता कि वे केवल भारत की आवाम के लिए हैं या केवल हिन्दुओं के लिए बनाए गए हैं। बल्कि वे सर्वकालिक और सार्वभौमिक हैं।
यदि धर्म को राजनीति से अलग रख जाये तो यह दावा किया जा सकता है कि यह 'सनातन धर्म' कोई अफीम नहीं है। अन्य मजहब-पंथ जिनकी जानकारी कार्ल मार्क्स को थी,और इन पंक्तियों के लेखक को नहीं है , वे सरसरी तौर पर अफीम ही सिद्ध हुए हैं। हालाँकि उन पाश्चात्य 'रिलीजंस और मजहबों' में भी बहुमूल्य मानवीय संवेदनाओं का भंडार बहरा हुआ है किन्तु आतंकवाद के नजरिए से देखने पर यह जरुरी हो जाता है कि उन रिलीजंस-मजहब के प्रबुद्ध जन संसार के समक्ष यह सिद्ध करें, कि उनका रिलिजन या मजहब केवल अफीम नहीं है। बल्कि वे भी सनातन धर्म की तरह मानवीय मूल्यों के अजस्र स्रोत हैं ! धार्मिक संकीर्णता और मजहबी आतंकवाद जरूर त्याज्य और निंदनीय है। कार्ल मार्क्स -एंगेल्स ने सम्भवतः इन्ही मजहबी बुराइयों की ओर दुनिया का सबसे पहले ध्यानाकर्षण किया था। और गुलाम दुनिया के लिए धर्म-मजहब को अफीम बताया था।
देश काल परिस्थतियों के कारण कुछ मानव कबीले बौद्धिक रूप से जल्दी-जल्दी विकसित होते चले गये। और कालान्तर में सुमेरु,आर्य,यहूदी,पारसीक सभ्यताओं ने अपने-अपने टोटम भी विकसित किये। सभी ने अपने-अपने दर्शन ग्रन्थ और महाकाव्य रचे। इन उन्नत सभ्यताओं में उच्चतर मानवीय मूल्यों को भरपूर तवज्जो दी जाने लगी । धर्म दर्शन और अध्यात्म के सिद्धांत -सूत्र निर्धारित किये जाने लगे। धरती पर अनेक समृद्ध सभ्यताओं ने कदाचित क्रूरकाल में भी अमन और खुशहाली के परचम बुलंद किये हैं । वैसे इजिप्ट, एथेंस,स्पार्टा ,रोम, परसिया और जेरूसलम की सभ्यताओं के पराभव के बारे में तो मरहूम अल्लामा इकबाल साहिब बजा फरमा गए हैं कि ''यूनान ओ रोमा मिट गए जहाँ से,बाकि है जहाँ में नामो निशा हमारा ,सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा ''!
वस्तुतः अल्लामा इक़बाल साहिब जिसे 'हिन्दोस्ताँ ' कह गए हैं ,वह विशाल सुसंस्कृत धरा 'अखण्ड भारत ' के रूप में पश्चिम में ईरान के मदान शहर से लेकर पूर्व में अंगकोरबाट [कम्बोडिया]तक और दक्षिण में श्रीलंका से लेकर उत्तर में मंगोलिया तक विस्तृत थी। वेशक राजनैतिक दॄष्टि से इस विशाल भूभाग का कोई एक सत्ता केंद्र कभी नहीं रहा।सिर्फ अंग्रेज ही इसके अपवाद रहे हैं। चूँकि ब्रिटिश साम्राज्य का कभी सूर्यास्त ही नहीं होता था,अतः वे अवश्य कुछ समय के लिए इस संम्पूर्ण भूभाग के शासक रहे हैं। लेकिन भारत के महानायकों में शामिल जिन पांडवों ने कुरुक्षेत्र में कौरवों को हराया था वे भी इस विशाल भूभाग के भोक्ता कभी नहीं रहे। क्योंकि कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों ओर के राजाओं की तादाद और उनकी सैन्य शक्ति का 'महाभारत' में विस्तार से वर्णन है। युद्धोपरांत युधिष्ठर द्वारा किये गए अष्वमेध यज्ञ में भी हस्तिनापुर से स्वतंत्र राजाओं का स्प्ष्ट उल्लेख मिलता है। अवध,काशी ,अंग-बंग -कलिंग वाले सौराष्ट्र और सिंधु-सौवीर वाले,मगध वाले,प्राग्ज्योतिषपुर वाले सबके सब उस यज्ञ में आमंत्रित थे। द्वारका और मथुरा वाले तो पहले से ही उनके स्वतंत्र रिस्तेदार थे।
जो लोग महाभारत को इतिहास नहीं मानते या 'मिथ' मानते हैं उन्हें यूनानी दार्शनिक मेगास्थनीज कृत 'इंडिका' का अध्यन अवश्य करना चाहिए ! उसमें भी इस भूभाग की ततकालीन राजनैतिक स्थति लगभग वैसी ही ही जैसी कि 'मिथकीय' महाकाव्य महाभारत में। उसमें उन सब देशों का उल्लेख है जो इस 'अखण्ड भारत' के भूभाग में विदयमान थे। और जिनका विस्तार से महाभारत में भी उल्लेख है । कहने का मकसद ये कि राजनैतिक रूप से तो 'अखण्ड भारत' कभी नहीं बन पाया। किन्तु चन्द्रगुप्त मौर्य ,संम्राट अशोक,के समय इतना अवश्य हुआ कि 'बौद्ध धर्म' इस समस्त दक्षिण एसिया में बोलबाला हो गया। तिब्ब्त,श्रीलंका,चीन मलेशिया,थाइलैंड ,नामपेन्ह ,जापान और मंगोलिया तक बुद्ध का संदेश पहुँच गया। कहीं-कहीं तो बौद्ध धर्म राजधर्म ही बन गया ।
कालांतर में जब बौद्ध धर्म खुद ही बुद्ध के आदेशों और संदेशों से भटक गया ,जब उसके अनुयायी हीनयान-महायान बगैरह के मत-मतांतर में उलझने लगे तब इस 'अखण्ड भारत ' में फिर से वैदिक धर्म ने अंगड़ाई ली। चूँकि बौद्ध धर्म सदियों तक इस भारतीय उपमहाद्वीप पर 'राजधर्म'के रूप में स्थापित रहा है इसलिए उसके अनुयाईओं द्वारा निरीह सनातन धर्मावलम्बियों और ब्राह्मणों का सताया जाना स्वाभाविक था। बहुत लम्बे अर्से तक बचे खुचे ब्राह्मणों ने वेदों,उपनिषदों और पुराणों को अपनी स्मृतियों में संजोए रखने की तकनीक ईजाद क्र ली थी। यही वजह है कि दक्षिण भारत के एक निर्धन ब्राह्मण बालक -आदि शंकराचार्य ने वेद प्रणीत सनातन धर्म को न केवल पुनः जीवित किया बल्कि बौद्ध धर्म और अन्य अवैदिक मतों का खंडन कर उन्हें भारत से बाहर कर दिया। उन्होंने इस प्रायद्वीप के चारों कोनों में चार मठ भी स्थापित किये । उन्होंने अल्प वय में ही वेदप्रणीत सिद्धांतों और सूत्रों के अनेक भाष्य रच डाले। उन्होंने अद्वैत वेदांत और 'ब्र्ह्म सत्यम जगन्मिथ्या 'का सिद्धांत प्रस्तुत किया। बाद में मध्युगीन भक्त कवियों ने आदि शंकराचार्य के वैदिक सिद्धांत' में भारतीय लोक [परम्परा का रंग डालकर जो 'अवतारवाद'और भक्तिमार्ग पेश किया ,उसे ही 'सनातन धर्म 'कहते हैं। बाहर से आने वाले यवन ,तुर्क,मंगोल आक्रमणकारियों ने भारत के इस धर्म को ही 'हिन्दू धर्म'नाम दिया था। 19वीं शताब्दी में स्वामी विवेकानंद ,बंकिमचंद,श्रद्धांनद ,महात्मा गांधी ,सुब्र्मण्यम भारती और जे कृष्ण मूर्ती इत्यादि ने ने इस 'हिन्दू धर्म 'में भारतीय राष्ट्रवाद का सन्देश शामिल किया !
बाद में यवन ,मलेच्छ ,तुर्क,खिलजी,अफगान आये , मुगल आये किन्तु वे पूरे भूभाग को कभी नहीं जीत पाये ,जिसे कुछ लोग 'अखण्ड भारत' कहते हैं।
ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा ऋषियों के कालजयी श्लोक ''कृणवन्तो विश्वम् आर्यम'की अनुगूँज केवल दक्षिण एसिया तक ही सीमित नहीं रही बल्क मिश्र ,तिब्बत, चीन मगोलिया ,कम्बोडिया,मलेशिया ,जावां,सुमात्रा ,इंडोनेशिया और थाईलैंड में भी बहुत काल तक सुनाई देती रही है।दुनिया में शांति-मैत्री का अलख जगाया जा रहा था। लेकिन यह सर्वजनहिताय वाली चेतना दुनिया के कुछ समाजों को कभी पसंद नहीं आई । पश्चिम के कुछ यथार्थवादी - भौतिकवादी विद्वानों ने जब कहा कि 'रिलीजंस एक अफीम है ' तब उनके निशाने पर भारतीय सनातन धर्म और वेद कदापि नहीं थे। उन्होंने तो पाश्चात्य कबीलाई मजहबों की लटके- झटके और पोप की बादशाहत को इशारों-इशारों में 'अफीम' कह दिया। वास्तव में दुनिया का कोई भी धर्म -मजहब इतना बुरा या त्याज्य नहीं कि उसे सिर्फ अफीम ही रखा जाये। यदि मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा भी है तो उनका तातपर्य किसी धर्म -मजहब के उसूलों से नहीं बल्कि शोषणकारी मजहबी दवंगता को लताड़ने से है। वर्ना धर्म मजहब महज अफीम नहीं बल्कि इंसानियत की दवा भी हैं। वशर्ते ये धर्म -मजहब आतंकवाद और हिंसक बहशीपन से दूर रहें।
:- श्रीराम तिवारी ; -
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