इस दौर में जो देखा -सुना और गुना !
[एक]
आपका तोता वही बोलेगा जो आपने सिखाया होगा !
सीबीआई डायरेक्टर साहब की जुबान क्या फिसली 'नारीवादी प्रवक्ता' तो मानों अब लाल-पीले हो रहे हैं। मैं तो सीबीआई प्रमुख रंजीत सिन्हा साब को 'संदेह का लाभ' देने के पक्ष में हूँ. क्योंकि आज वे भले ही देश और दुनिया में "थू-थू के पात्र" बन गए हैं किन्तु इस सिस्टम के 'अंदर की बात' तो उजागर हो ही गई। इसका श्रेय भी तो सिन्हा जी को ही मिलना चाहिए !उनके इस आंशिक कथन याने अप्रिय 'महावाक्य'"अगर रेप को रोका नहीं जा सकता तो उसका आनंद लेना चाहिए " को लोग बाग पूरे सन्दर्भ से अलग काटकर ही पढ़ रहे हैं।जबकि सीबीआई प्रमुख ने गोल्डन जुबली के मौके पर जो कहा उसकी अक्षरश : बानगी इस प्रकार है :-
"क्रिकेट में सट्टेबाजी को कानूनी जामा पहना दिया जाना चाहिए ,क्योंकि हमारे पास उसे रोकने के लिए पर्याप्त एजेंसियां नहीं हैं ,जब कुछ राज्यों में केसिनो और लाटरी को इजाजत है तो क्रिकेट में सट्टेबाजी को कानूनी रूप देने में क्या हर्ज है ?यदि सट्टेबाजी को रोका नहीं जा सकता तो उसका आनंद लेना चाहिए ,ठीक उसी तरह जैसे अगर रेप को रोका नहीं जा सकता तो उसका आनद लेना चाहिए "
याने असल बात क्रिकेट के सट्टे की और उसकी पैरवी की ही थी ,किन्तु व्याकरण के अज्ञानी और वाग्मिता के कच्चे सिन्हा जी उपमा अलंकार में गच्चा खा गए. श्रीमान सिन्हा साब !'अब चेते का होत है ,चिड़िया चुग गई खेत ' गनीमत है आप ने तुरंत खेद व्यक्त कर दिया है वरना अभी तक सीबीआई की वर्दी तो क्या चड्डी भी फाड़ दी गई होती । कहा जा सकता है कि आपकी जुबान फिसल गई थी !लेकिन बिन प्रयास अनायास बोले गए शब्द चीख -चीख कर कह रहे हैं कि भारतीय नौकरशाह 'नारी मात्र' के बारे में क्या सोच रखते हैं? जिन्हे सीबी आई पर ज़रा ज्यादा ही नाज था ! यकीन था! वे अब गलती से भी उसका नाम लेना भी पसंद नहीं करेंगे। अब तक तो नेता ,बाबा और स्वामी ही बोल-बचन में बदनाम थे अब तो कहना पडेगा कि "सूप बोले सो बोलेपर ये किन्तु छलनी क्यों बोले ''?
संचार माध्यमों की महती कृपा से , उन्नत सूचना सम्पर्क क्रांति के सौजन्य से और आरटीआई क़ानून की उपलब्ध्ध्ता से हम भारत के नर-नारियों को अब 'अंदर को बातें' सहज ही पता चला जाती हैं। इसीलिये देश की जनता को वर्त्तमान भृष्ट व्यवस्था के हम्माम में अधिकांस नंगे दिखाई देने लगे हैं। न केवल 'आसाराम एंड संस' जैसे अधिकांस ऐयास हवाला कारोबारी- बाबा और रामदेव स्वामी बल्कि उनके परम भक्त अशोक सिंघल,न केवल भारतीय प्रशाशनिक सेवाओं के छोटे -बड़े ,दौलतखोर -औरतखोर हरामजादे मक्कार भृष्ट अधिकारी , न केवल राजनीति में सुरा-सुंदरी के अभिरंजक नेतागण बल्कि अब तो देश की सर्वाधिक सम्मान प्राप्त न्यायपालिका में भी नारी उत्पीड़न के मंजर देखने सुनने को मिलने लगे हैं। सूना था कि सारे कुएँ में भंग पड़ी है। अब साक्षात् दर्शन होने लगे हैं। जब बड़े-बड़े 'पीएमएन वैटिंग' बड़े-बड़े संत-महंत ,बड़े-बड़े सामाजिक कार्यकर्ता ,बड़े-बड़े धरती पकड़ नेता लफ्फाजी कर सकते हैं तो एक 'बेचारे तोते' याने सीबीआई अधिकारी के 'बोल-बचन' पर इतना मलाल क्या करना ? इसीलिये हे देशवासियो !आपका तोता वही तो बोलेगा जो आपने उसे सिखाया होगा!
श्रीराम तिवारी
[दो]
लोकतांत्रिक मूल्यों और भारतीय मर्यादाओं के भंजक दोनों एक समान -कांग्रेस और भाजपा बराबर के हैं नादान !
इन दिनों जबकि भारत में पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव की प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में है, देश की पार्लियामेंट के आगामी चुनावों की सुगबुगाहट भी शुरू हो चुकी है, ठीक इसी अवसर पर सभी राजनैतिक दलों ,उनके नेताओं और अलायंस का सक्रिय होना भी लाजिमी है. किन्तु चिंता का विषय ये है कि यह सक्रियता 'देश-हित' के लिए नहीं बल्कि पार्टी हित, निजी हित और 'वर्गीय हित'के लिए पूर्ण रूपेण समर्पित है। राष्ट्रीय विमर्श, सकारात्मक चर्चा , भविष्य के लिए नीतियां -कार्यक्रम या देश के समक्ष मौजूद वर्तमान चुनौतियों पर कोई खास तथ्यपरक राष्ट्रव्यापी चर्चा इन दिनों नदारद है।
देश के बड़े पूंजीवादी दलों -भाजपा और कांग्रेस में तो आये दिन हर क्षेत्र में मानों 'मर्यादा भंग' करने की होड़ सी मची हुई है। सरसरी तौर पर प्रथम दृष्टया तो आभासित होता है कि कांग्रेस और भाजपा के बीच 'महासंग्राम' छिड़ा हुआ है ! किन्तु यह पूंजीवादी मीडिआ और देशी-विदेशीपूंजीवादी ताकतों के प्रयासों का ही परिणाम है कि कांग्रेस और भाजपा को ही जानबूझकर विमर्श के केंद्र में रखा जा रहा है। यह एक सोची समझी भयानक साजिश ही है कि यूपीए और एनडीए की तो चर्चा भी इन दिनों मीडिआ के विमर्श से गायब है । अब तो इधर राहुल गांधी तो उधर 'नमो' नाम केवलम -चल रहा है। चुनाव आयोग के सामने भी राहुल गांधी और मोदी के ही 'डायलॉग-अल्फाज-आप्तवाक्य' आचार संहिता के बरक्स शिकायती लहजे में पेश किये जा रहे हैं। नूरा -कुश्ती की तर्ज पर दोनों और के शूरमाओं को हद में रहने की हिदायत दी जा रही है। किसी का कुछ होना -जाना नहीं है। कभी-कभार सपा और जदयू के नेताओं की बाचालता को भी प्रसंगवश मीडिआ में थोड़ी सी जगह मिल जाती है। कहा जा सकता है कि भारत में प्रजातांत्रिक प्रक्रिया के दुर्दिन चल रहे हैं।
मध्यप्रदेश और छत्तीशगढ़ में भाजपा के धनबल को और राजस्थान और दिल्ली में कांग्रेस के धनबल को - तमाम अखबारों ,चेनलों और सोशल मीडिआ के सीने पर नंगा नाच करते हुए देखा जा सकता है. दिल्ली में जब 'आपको' और केजरीवाल को थोड़ा सा जन सहयोग या आर्थिक सहयोग मिलता दिखाई दिया तो भाजपा और कांग्रेस दोनों के पेट में दर्द होने लगा। संदेह की गुंजायश नहीं कि देश के पूंजीपति वर्ग और उनके द्वारा नियंत्रित मीडिआ - नहीं चाहते कि भाजपा या कांग्रेस के अलावा अन्य कोई 'सिरफिरा-ईमानदार' नेता या दल -सत्ता में प्रतिष्ठित हो जाए। पूंजीपतियों के हितों के खिलाफ या आम जनता के पक्ष में नीतियां बनाने की जो जुर्रत करता है उसे "आप''की तरह हर चुनाव के मौके पर हासिये पर धकेलने का यह षड्यंत्र चला करता है। अभी तक सिर्फ साम्यवादियों को ही इन पूंजीवादी हथकंडों से जूझना पड़ता था ,अब "आप"को और तीसरे मोर्चे के जदयू ,सपा जैसे दलों को भी मीडियाई उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है. इसीलिये तीसरे मोर्चे या वाम मोर्चे की बड़ी -बड़ी रैलियों और 'कन्वेंशनों' का या तो संज्ञान ही नहीं लिया जाता या फिर हासिये पर या कहीं अंदर के किसी कोने में उपेक्षा से नाम मात्र के लिए टांक दिया जाता है।दिल्ली में ३० अक्टूबर को सम्पन '' साम्प्रदायिक्ता विरोधी विराट कन्वेंसन '' या उसके बाद इसी नवम्बर में साम्यवादियों की लखनऊ में आयोजित विराट रैली, बंगाल -त्रिपुरा और केरल में माकपा - वामपन्थ की विराट रैलियां एवं मध्यप्रदेश छतीशगढ या राजस्थान में सीपीएम ,बसपा ,भाकपा और सपा की बड़ी -बड़ी आम सभायें -जुलुस -रैलियाँ नजर अंदाज कर संचार माध्यमों द्वारा केवल कांग्रेस और भाजपा को ही लक्षित या केंद्रित किया जा रहा है। यह एक पूंजीवादी जघन्य षड्यंत्र और राष्ट्रघाती पक्षपात नहीं तो और क्या है ?
वेशक भारत में पूंजीपतियों को सुरक्षा देने में सक्षम सिर्फ कांग्रेस या भाजपा ही हो सकती है । इसीलिये देश की सत्ता में प्रतिष्ठित किये जाने वालों की अग्रिम कतार में कांग्रेस और भाजपा को ही नैगमिक नियंत्रित मीडिआ ने विमर्श में लक्षित किया हुआ है. इस विमर्श में उनके नेताओं के 'बोल-बचन' या आचार संहिता के उल्लंघन जैसे प्रकरणों को प्रमुखता से उभारा जा रहा है।यह इसलिए नहीं कि कांग्रेस या भाजपा को आदर्श आचार संहिता के अंतर्गत लाने की मशक्कत है या उन्हें भारतीय प्रजातंत्र की आदर्श - त्रुटिविहीन निर्वाचक नियमावली के अनुशीलन के लिए बाध्य करना है ! मुँहफट- अर्धशिक्षित- नरेद्र मोदी या विधि-निषेध के ज्ञान से शून्य -नितांत नादान - राहुल गांधी कोआदर्श चुनाव आचार संहिता या भारतीय संवैधानिक मूल्यों अथवा 'लोक-मर्यादा' की कोई चिंता नहीं है। चुनाव आयोग और मतदाताओं को किसी से डरने या समझौता करने का कोई सबब भी नहीं है। केवल रस्म अदायगी के लिए ही नहीं बल्कि भारत की शानदार लोकतांत्रिक -धर्मनिरपेक्ष आधारशिला पर अडिग रहते हुए चुनाव आयोग को कार्यवाही करते रहना चाहिए । केवल कारण बताओ -नोटिश सर्व करने और चेतावनी देकर छोड़ने से नहीं बल्कि एक-आध कौए को बांसडे में बांधकर टांगने से बाकी के लम्पट -अपराधी ,मुँहफट और व्यभिचारी गिद्ध-चील-बाज सब दम दवाकर दडवे में घुस जायेंगे । यह मशक्कत सिर्फ इसलिए नहीं कि जनता में यह धारणा मजबूत बना दी जाए कि हे!देशवासियो ! सुनो !आपके सामने अब केवल दो ही विक्लप बचे हैं याने कांग्रेस या भाजपा।सिर्फ ये दो ही धनवान हैं भैया - बाकी सब कंगाल …! बल्कि इसलिए कि देश की जनता निर्भय होकर 'राष्ट्र -निर्माताओं' का चयन कर सके !
वेशक कांग्रेस और भाजपा में चुनावी जंग छिड़ी है । कुछ लोग वर्त्तमान विधान सभा चुनावों को सत्ता का सेमीफायनल बता रहे हैं.आगामी लोकसभा चुनाव को फायनल बता रहे हैं। ये दोनों ही पूंजीवादी दल वर्त्तमान विनाशकारी आर्थिक नीतियों पर एक -दूसरे से बढ़चढ़कर प्रतिब्द्धता जताकर अपने देशी-विदेशी आकाओं को खुश करने में जूट हुए हैं। बदले में इन्हें करोड़ों का चढ़ावा मिल रहा है। मध्यपर्देश में ,छ्ग में तो नोटों से भरी गाड़ियों पकड़ी जा रहीं हैं। ट्रूकों भर-भर दारु[शराब] और अन्य वर्जित सामग्री पकड़ी जा रही है किन्तु अभी तक किसी नेता या कार्यकर्ता को नामजद नहीं किया गया। जनता जानना चाहते है कि क्या बाकई चुनाव आयोग और प्रशाशन की कार्यवाही में पारदर्शिता है? क्या आदर्श चुनाव हो रहे हैं? कांग्रेस र भाजपा में से कोई भी सत्ता में आये लेकिन देश के दुर्भिक्ष या 'अव्यवस्था' में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। क्योंकि ये वो ठाकुर हैं, जिनके हाथ साम्प्रदायिकता , शोषण, भृष्टाचार और राजनैतिक अपराधीकरण के अलम्बरदार-गब्बरों ने काट दिए हैं।
श्रीराम तिवारी
[तीन]
कांग्रेस और भाजपा में अंदरूनी लोकतंत्र का नामोनिशान नहीं ।
कहने सुनने के लिए कांग्रेस और भाजपा अपने आपको लोकतान्त्रिक व्यवस्था का सबसे बड़ा अनुयाई मानते हैं। किन्तु प्रकारांतर से अंदरूनी तौर पर प्रजातंत्र तो पहले से ही नदारद है। इन दोनों बड़ी पार्टियों में कहने को तो पार्टी संविधान है ,अनुशाशन समितियाँ हैं ,पार्टी के विभिन्न फोरम हैं किन्तु ये सब तो केवल हाथी के दाँत भर हैं। ये तो दुनिया को दिखाने की प्रजातांत्रिक औपचारिकताएँ मात्र भर हैं ।इन दोनों ही सत्ताभिलाषी दलों के दो-दो हाईकमान भी हैं। भाजपा का एक डायरेक्ट हाईकमान उसका 'पार्लियमेंट्री बोर्ड' है दूसरा उसका इनडायरेक्ट 'हाईकमान' 'संघ ' है. जिसका मुख्यालय नागपुर में है और जिसके नीति-निर्धारक त्रयी के प्रमुख वर्त्तमान में आदरणीय मोहन भागवत जी हैं। जब भाजपा अपने पार्टी संविधान में 'संसदीय बोर्ड' को ही सर्वोच्च मानती है तो फिर जिसका पार्टी संविधान में कोई उल्लेख नहीं उस 'आर एस एस ' के निर्णय को अंतिम सत्य क्यों माना जाता है ? जिसकी कोई संवैधानिक जबाबदेही नहीं। क्या यह प्रजातंत्र की मूल भावना के साथ धोखा - धड़ी नहीं है? इसी तरह कांग्रेस रुपी द्रौपदी के भी दो-दो पति हैं। एक तो उनकी 'केंद्रीय कार्य समिति' जो कहने को तो सर्वोच्च नीति नियामक फोरम है किन्तु इसमें लिए गए निर्णयों को और केविनेट में लिए गए निर्णयों को भी ताक़ में रखने या 'फाड़कर फेंकने 'की क्षमता जिनमें है वे कांग्रेस के 'सुपर हाईकमान ' हैं याने आदरणीय सोनिया जी और श्री राहुल गांधी जी !तब भी कांग्रेस के लोग कहते हैं -हम हैं असली लोकतांत्रिक !
प्रायः सभी राजनैतिक पार्टियों के हाईकमान हुआ करते हैं। दुहराने की जरुरत नहीं कि, बीजद, सपा ,बसपा ,अकाली,शिवसेना ,राजद,भालोद,लोजद,जदयू ,तृणमूल,डीएमके,एआईडीएमकेऔर जदएस के हाईकमान कोई संस्था नहीं अपितु व्यक्ति विशेष हैं। के हाई कमान कांग्रेस में पार्टी हाईकमान का मतलब सोनिया जी और राहुल गांधी हैं.संघ परिवार और भाजपा में हाई कमान का मतलब 'संघ त्रयी'हैं। याने संघ के तीन शीर्ष पदाधिकारी जिनमें संघ प्रमुख [वर्त्तमान में श्री मोहन भागवत जी] अनिवार्य रूप से सम्मिलित हुआ करते हैं। कांग्रेस और भाजपा के ये हाई कमान प्रकारांतर से अधिनायकवादी ही हैं। वे प्रजातांत्रिक मूल्यों की परवाह नहीं करते बल्कि अपने मनमाफिक निर्णय अपनी -अपनी पार्टियों पर थोपत रहते हैं। इसीका नतीजा है कि इन दोनों ही पार्टियों के नेता न केवल आदर्श चुनाव आचार संहिता को ठेंगा दिखाते हैं उसे 'ठोकर मारने' की बात करते हैं बल्कि राष्ट्रीय और नैतिक मूल्यों की भी दुर्दशा करते रहते हैं। हालाँकि इन दोनों ही पार्टियों के 'हाईकमान' चाहें तो देश में कोई माई का लाल 'संविधान का उलंघन ' नहीं कर सकता। लेकिन जब वे खुद गुड़ खाते हैं तो दूसरों को 'गुलगुलों से परहेज' कैसे करा सकते हैं ?
इन दिनों मीडिया के विमर्शगत केंद्र में दो नेता ज़रा ज्यादा ही चर्चित हैं।इनमें भाजपा के घोषित 'पी एम् इन वेटिंग' नरेन्द्र भाई मोदी और कांग्रेस के 'अघोषित- स्वाभाविक उत्तराधिकारी' राहुल गाँधी प्रमुख हैं । ये दोनों ही महारथी याने देश के भावी प्रधान मंत्री -अपनी-अपनी मैराथान विराट रैलियों में धुँआधार भाषण और एक-दूजे पर 'विषवमन' करते रहते हैं। अर्थात वे केवल तथ्यहीन अनर्गल प्रलाप और नकारात्मक भाषणबाजी ही कर रहे हैं।दोनों के भाषणों में अपनी-अपनी पार्टियों के मेनिफेस्टो -घोषणा पत्र याने नीतियाँ और कार्यक्रम सिरे से गायब हैं। दोनों ही नेता एक-दूसरे के खिलाफ अपने- अपने मुखारविंद से अतिश्योक्तिपूर्ण आलोचना करते हुए अंट -शंट बयानबाजी में मशगूल हो रहे हैं। दोनों कि गलत-सलत बयानबाजी पर रोज-रोज कोई न कोई आपत्ति भी दर्ज हो रही है ,और इस पर चुनाव आयोग भी हैरान है क़ि इन 'काल्पनिक' प्रधानमंत्रियों को आदर्श चुनाव संहिता के दायरे मैं कैसे बांधकर रखा जाए जाए ?
अधिकांश पूँजीवादी राजनैतिक दलों और नेताओं के बगलगीर छुटभैये नेता भी न केवल अपने - अपने दलों के अनुशाशन भंग में व्यस्त हैं अपितु मौजूदा दौर की प्रजातांत्रिक व्यवस्था के नीति निर्देशक सिद्धांतों की ऐंसी-तैसी भी कर रहे हैं। कुछ सत्ताभिलाषी नेता तो भारत के स्वाधीनता संग्राम के बलिदानी इतिहास को भी बदरंग करने में जुटे हुए हैं। इसके बावजूद कि उनके सामने मंच पर खड़ा उनका नेता कोरी लफ्फाजी कर रहा है ,सफ़ेद झूंठ बोल रहा है फिर भी हैरत है कि लोग ताली बजाकर उसके अधकचरे कल्पना जनित ज्ञान को महिमा मंडित किये जा रहे हैं। मोदी की सभाओं में भाजपाई श्रोता और राहुल कि सभाओं में कांग्रेसी श्रोता करतल तुमुलनाद करते हुए जो 'जय कारे ' के नारे लगा रहे हैं वो भारतीय आवाम की प्रजातांत्रिक चेतना नहीं है। ये देश का दुर्भाग्य है , ये नेताओं की 'वर्चुअल इमेज' का मीडिआ कृत सायास प्रयास है। ये बड़ी -बड़ी रैलियां चैतन्य भारतीय जन-मानस का आगाज नहीं हो सकतीं बल्कि अरबों रुपयों के खर्च पर ,नेताओं को सत्ता प्रतिष्ठान तक पहुँचाने के लिए सप्रयास जुटाई गई भीड़ भर हो सकती है। इन अप्रजातांत्रिक और अशुचितापूर्ण साधनों से बेहतरीन नेता और जन-कल्याणकारी राज्य संचालन व्यवस्था की उम्मीद करना मृग मारीचिका मात्र है
पटना रेली से पूर्व मोदी फुल फ़ार्म में हुआ करते थे ,वे दिग्विजय होते जा रहे थे याने शत्रु हंता बन चुके थे। किन्तु जबसे नरेंद्र मोदी की ऐतिहासिक पटना रैली[जिसपर आतंकवादी हमले हुए थे] के भाषण की बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने बखिआ उखेड़ी है तब से नरेंद्र मोदी की वाग्मिता को मानों गृहण सा लग चूका है।अब वे जिस किसी भी विषय पर अपनी जुबान चलाते हैं वहीं गच्चा खा जाते हैं।सुना है कि नीतीश द्वारा मोदी को उनके ज्ञान का आइना दिखाने के बाद भाजपा और संघ परवार के कई खुर्राट नेता मन ही मन गदगदायमान हो रहे हैं। वे मोदी को नाथने की फिराक में तो पहले से ही थे ,किन्तु मोदी कोप से भयभीत कुछ बोल नहीं पा रहे थे। जब नीतीश ने अपने तार्किक विश्लेषण से मोदी के व्यक्तित्व को न केवल खंडित किया अपितु मोदी को एक नौसीखिया नेता सावित कर दिया और मीडिआ ने भी माना की मोदी को कोई खास समझ बूझ नहीं है तो संघ परिवार ,राजनाथ और जेटली ने मोदी को समझाइस दी कि मोदी आइंदा संभलकर बोलेँ। इनके अलावा मोदी के अन्य मित्रों ने भी नरेंद्र मोदी को सावधानी से बोलने और तैयारी से बोलने तक की नसीहत दे डाली है। मोदी के मंच के आसपास बिठाये गए स्थाई किस्म के प्रतिबद्ध श्रोता और समर्थक भले ही फ़ोकट में मौके -बेमौके ताली बजाते रहते हों ,किन्तु उन वापरों को इससे कोई मतलब नहीं की सरदार पटेल और नेहरू की उनकी अपनी कांग्रेस पार्टी में दलगत या वैयक्तिक मतभेद से नरेंद्र मोदी और संघ परिवार का क्या लेना -देना है ? जो अतीत में यदि सच भी था तो भी इससे मोदी और भाजपा की सेहत पर क्या असर पड़ने वाला है ? मोदी के श्रोता वही हो सकते हैं जिनकी अक्ल को लकवा मार गया हो। वरना ऐंसा कैसे हो सकता है कि लाखों श्रोता जो मोदी को सुन रहे हैं हों और एक भी वंदा नहीं जानता हो कि सरदार पटेल ,पंडित नेहरू मौलाना आजाद,डॉ राजेन्द्रप्रसाद ,डॉ राधाकृष्णन् जैसे हीरे तो उन महात्मा गांधी जी की विरासत थे जिन्हे नाथूराम गोडसे ने गोली मार दी थे। अब मोदी किसके साथ हैं?गोडसे के साथ या गांधी के साथ ? यदि गांधी को गोली मारने वाले गोडसे की शिक्षाओं से प्रेरित मोदी अब गांधी,पटेल या नेहरू का नाम ले रहे हैं या उनके मतभेदों की चर्चा कर रहे हैं तो ये उनकी राजनैतिक लाचारी है।नेहरू-पटेल के बीच मतभेद थे यह उतना ही सच है जितना ये सच है कि आडवाणी -अटलजी में मतभेद थे.तो इससे क्या फर्क पड़ता है ?जहां जनतंत्र होगा वहाँ '' मुण्डे -मुण्डे मतिर्भिन्ना " भी होगा। क्या मोदी को मतभेद पसंद नहीं ?तब तो वे बाकई हिटलर ही हैं क्योंकि हिटलर को भी सिर्फ 'मुंडी हिलाउ ही चाहिए थे। उसे मतभेद से नफरत थी।
,मोदी और राजनाथ में मतभेद नहीं हैं क्या ? क्या संघ' और भाजपा में सब कुछ मीठा-मीठा ही चल रहा है ? इस तरह के सवाल हवा में उछालकर संघ परिवार -भाजपा और मोदी देश की आवाम को उल्लू नहीं बना सकते। चन्द्रगुप्त मौर्य और चंद्गुप्त विक्रमादित्य में फर्क नहीं समझने वाले मोदी , मौर्य वंश को गुप्त वंश का बताने वाले मोदी , तक्षशिला को पाकिस्तान की जगह बिहार में बताने वाले मोदी और सिकंदर को सतलुज पार कराने की जगह 'गंगापार' कराने वाले मोदी यदि प्रधान मंत्री बन भी गए तो यह नितांत चिंतनीय है कि 'तेरा क्या होगा कालिया'? क्या मंच पर मोदी के साथ बैठे बड़े -बड़े दिग्गज नेता -स्वयंभू राष्ट्रवादी बाकई में नहीं जानते कि पटेल ,नेहरू ,मौलाना ,प्रसाद ,पंत जाकिर हुसेन और जगजीवनराम जैसे खांटी कांग्रेसी उस महात्मा गांधी के चेले थे जिसे -गोडसे ने गोली मार दी थी। यह बताने की जरुरत नहीं कि मोदी और गोडसे का रिस्ता क्या है ? हालाँकि सरदार पटेल को याद कर मोदी ने रीयलाइजेसन की शुरुआत अच्छी की है , किन्तु अपनी रेखा बढ़ाने के बजाय वे केवल कांग्रेस और गांधी परिवार की रेखा मिटाने की असफल कोशिश में जूट हैं जो असम्भव ही नहीं नामुमकिन है !
[चार]
मोदी फ़ासिस्ट और राहुल अगंभीर हैं -दोनों ही राष्ट्रीय नेतत्व के काबिल नहीं हैं !
वेशक कांग्रेस और भाजपा -दोनों में लोकतंत्रात्मक कार्य प्रणाली का घोर अभाव है ,वेशक इन दोनों ही पार्टियों को देश के धनवानों ने अपनी जेब में रख छोड़ा है ,वेशक इन बड़ी पार्टियों के नेता एक दूसरे को फूटी आँखों देखना पसंद नहीं करते ,बिना देश चलाने कि कूबत अभी किसी में नहीं है देश में - राहुल और मोदी से बेहतर ,विचारवान ,कुशल प्रशासक व्यक्ति हैं जो प्रधानमंत्री के काबिल हैं. किन्तु मोदी और राहुल के हाथों भारतीय लोकतंत्र को सौंपना खतरे से खाली नहीं है। राहुल को गम्भीरता से लेना वक्त कि बर्बादी है ,वे जो कुछ भी बोल रहे हैं वो नितांत बचकानी बाते हैं। उन्होंने इंदौर की आम सभा में जो साम्प्रदायिक-उन्माद के खिलाफ मुजफ्फरनगर दंगा पीड़ितों और आईएसआई वाला वयान दिया था उस पर चुनाव आयोग ने संज्ञान लेकर उन्हें नोटिश दिया था। राहुल के जबाब से आयोग संतुष्ट नहीं है और चेतावनी दी गई है। उधर नरेद्र मोदी ने छ्ग में जो 'खुनी पंजे ' वाला वयान दिया है उस पर चुनाव आयोग भन्नाया हुआ है । उन्हें भी नोटिश जारी होने जा रहा है।
चूँकि यूपीए और कांग्रेस के योग अब विपक्ष में बैठने के आते जा रहे हैं इसलिए राहुल कि नेत्तव कारी भूमिका अभी शिशिक्षु काल में ही है। उन्हें नौसीखिया कहा जा सकता है। किन्तु मोदी तो गुजरात में अपनी हैट्रिक बना चुके हैं ,वे वर्षों से 'संघ' की शाखों में प्रशिक्षण प्राप्त करते रहे हैं ,कई साल तक अटल-आडवाणी के 'रथ हांकते' रहे हैं , घाट -घाट का पानी पिए हुए हैं ,फिर भी वे राजनीति के मैदान में बोल-बचन में ,भाषणों में फिसड्डी सावित हो रहे हैं। यदि देश और दुनिया उन्हें गम्भीरता से ले रही है तब तो उनके भाषणों -बकतब्यों और सोच पर गौर करना देश हित में बहुत जरूरी है। जब मोदी कहते हैं कि 'भारत को कांग्रेस मुक्त बनाना हैं 'तो उसका अभिप्राय समझे बिना ही श्रोता और श्रोत्रियाँ तालियाँ पीटकर अपनी महामूर्खता का ही अवगाहन कर रहे होते हैं। ताली बजाने वालों को सोचना होगा कि जो व्यक्ति 'कांग्रेस को खत्म करने' कि इच्छा रखता है वो देश के ३५ % लोगों के खात्में का भयानक विचार रखता है। क्या ऐंसे व्यक्ति को देश का सर्वोसर्वा बनाया जा सकता है ? क्या कांग्रेस कोई छुई-मुई है जो मोदी की अंगुली के इशारे मात्र से मुरझा जायगी ?
१०० साल पुरानी कांग्रेस का बुरे से बुरे दौर में भी इतना जन-समर्थन तो अवश्य रहा है। केवल दलितों ,मुस्लिमों -अल्पसंख्यकों या 'गांधी-नेहरू वंश ' की पार्टी मात्र नहीं है कांग्रेस। बल्कि 'संघ परिवार' से ज्यादा सच्चे और अच्छे हिन्दूओं और मुसलमानोँ समेत सभी समुदाय के लोगों की पार्टी भी रही है कांग्रेस। महामना मदनमोहन मालवीय , पंडित गोविन्द वल्लभपंत ,कमलापति त्रिपाठी ,रविशंकर शुक्ल जैसे लाखों ब्राह्मणों से लेकर ,बाबू जगजीवनराम ,सुभद्रा राय जैसे करोड़ों अनुसूचित जनों तक सरदार पटेल से लेकर ,वी पी मंडल तक ,कामराज से लेकर लाल बहादुर शाश्त्री तक करोड़ों पिछड़ों, स्वामी श्रद्धानंद ,राजऋषि पुरषोत्तमदास टंडन से लेकर स्वामी स्वरूपानन्द सरस्व्ती तक लाखों सज्जन-साधुओं की पयस्वनी कांग्रेस,मौलाना अबुल कलाम आजाद ,सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फार खान ,डॉ जाकिर हुसेन और फकरुद्दीन अली अहमद जैसे महान देशभक्तों- नररतनो द्वारा परवान चढ़ती रही है कांग्रेस। कांग्रेस स्वाधीनता संग्राम की अलम्बरदार रही है। कांग्रेस आज कितनी ही 'मैली' क्यों न हो गई हो,भले ही मेने उसे आज तक कभी 'वोट एंड सपोट' नहीं किया हो , किन्तु उसे समूल नष्ट करने की बात करना नाकाबिले बर्दास्त है । लोकतंत्र में किसी भी राजनैतिक पार्टी को जो धर्मनिरपेक्ष हो और संविधान में आस्था रखती हो उसे नष्ट करने की बात करना सरासर घोर नाजीवादी मानसिकता ही कही जायेगी।यदि मोदी को कुछः नष्ट करने की चाहत है तो वे सबसे पहले अपने अज्ञान को नष्ट करें ,अपने अहंकार को नष्ट करें और अपने अंदर की साम्प्रदायिकता को नष्ट करें। यदि वे ऐंसा करते हैं तो देश वे भारत के आजीवन प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं।
जिस तरह पवित्र गंगा के 'गटरगंगा ' बन जाने पर भी कोई उसे समूल नष्ट करने की बात नहीं करता उसी तरह कांग्रेस को भाजपा को ,सपा को ,वसपा को क्षेत्रीय दलों को या वामपंथ को खत्म करने की बात करने वाला व्यक्ति या विचार निहायत ही खतरनाक और अप्रजातांत्रिक है । यह नक्सलवाद से भी ज्यादा खतरनाक विचारधारा है। 'एकोअहम द्वतीयोनास्ति 'याने सिर्फ हम ही रहेंगे बाकी सबको खत्म करने का इरादा बेहद खतरनाक है। इस 'नेक' इरादे वाले व्यक्ति को चाहे वो नरेंद्र मोदी हो या कोई साक्षात 'देवदूत' 'राष्ट्रवादी' तो नहीं कहा जा सकता। यह 'असहनशीलता' भारतीय लोकतंत्र और भारतीय साझी विरासत के अनुकूल नहीं है। ऐंसा व्यक्ति जो अतीत के खंडहरों में विचरण करता हो और उसके 'पुरावशेषों'से नए भवन का निर्माण करने की बात करता हो वो या तो कोई मानसिक रोगी हुआ करता है या कुंठित मानसिकता का प्रतिघाती दयनीय आत्महंता।
देश और दुनिया के तमाम प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष विचारकों की आम राय है कि कटटरपंथी - साम्प्रदायिक तत्व हालाँकि एक दूसरे के खिलाफ ज़हर उगलते रहते हैं ,एक-दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र करते रहते हैं किन्तु अब वक्त आ गया है कि कुछ सीमांकन हो ! मोदी उवाच "गाँधी जी ने कांग्रेस खत्म करने की इच्छा व्यक्त की थी,सत्ता के लालचियों ने उनकी बात नहीं मानी " इसके लिए वे केवल पंडित नेहरु को गांधी जी की अवज्ञा का पात्र सिद्ध करने के फेर में वे गाँधी जी के परम प्रिय शिष्यों -बिनोबा भावे ,महादेव देसाईं ,के एम् मुन्सी , राजेन्द्रप्रसाद ,सरदार पटेल , पुरषोत्तम दास टंडन ,लाल् बहादुर शाश्त्री , और कामराज नाडार जैसे को भी इतिहास के कूड़ेदान में फेंकने की जुर्रत कर रहे हैं। क्योंकि कांग्रेस को संभालने-संवारने में इन सभी की भूमिका वेमिशाल रही है। पंडित नेहरु ने कांग्रेस को नहीं बचाया ,वे तो राज्य सत्ता के शीर्ष पर बैठकर दुनिया के नेता बनने की लालसा में और चीन के साथ अनावश्यक भिडंत से हुई हार के सदमें से असमय ही स्वर्ग सिधार गए थे।
मोदी की समझ पर तरस आता है की वे समझते हैं कि कांग्रेस को नेहरू -गाँधी परिवार ने बचाया है । मोदी दूसरा सबसे बड़ा झूंठ बोलते हैं - "कांग्रेस ने ६५ साल देश पर शाशन किया और केवल देश को लूटा है तरक्की का कोई काम नहीं किया " पता नहीं किस ने उन्हें यह पढ़ा दिया कि भारत में ६५ साल से पर केवल कांग्रेस का ही राज है ! आदरनीय मोदी जी को मालूम हो कि भारत एक "संघीय गणराज्य " है। राज्यों के समूह से मिलकर बना है भारत। इन अधिकांस राज्यों में कांग्रेस का कबका सफाया हो चूका है। तमिलनाडु से कांग्रेस ५५ साल से गायब है ,बंगाल में कांग्रेस ४० साल से गायब है ,उड़ीसा में कांग्रेस ४० साल से गायब है। बिहार ,उत्तरप्रदेश और गुजरात से कांग्रेस दशकों से बाहर है। कश्मीर में कांग्रेस को कभी ५ साल के लिए भी ठीक से सत्ता नहीं मिल पाई होगी।
इन दिनों जगह -जगह सम्प्रदाय विशेष के बाबा -स्वामी-संत -महात्मा अपने धार्मिक क्रिया -कलापों के बहाने राजनैतिक भाषणबाजी ज़रा ज्यादा ही करने लगे हैं। कुछ भगवा लंगोटी धारी या लूंगीधारी केवल एक पार्टी विशेष या परिवार को ही निशाना बनाकर लगातार गालियाँ की बौछार करते रहते हैं । दुर्वासा की तरह श्राप देने का पुनीत कार्य ही करते रहते हैं। केंद्र में सत्तापरिवर्तन की जितनी जल्दी विपक्ष को नहीं उससे कहीं ज्यादा जल्दी इन नकली बाबाओं और दुराचार के आरोपों से घिरे स्वामियों -बापुओं को है। उन्हें डर है कि यदि उनके साम्प्रदायिक -बंधू -बांधवों की आइन्दा दिल्ली में याने केंद्र में सरकार नहीं बनी तो इन कपटी-धंधेबाज-हत्यारे और नारी-उत्पीड़क बाबाओं को जेल की काल कोठरी में सारे उम्र गुजारनी होगी। क्योंकि ये पब्लिक है सब जान चुकी है अतः : इन पाखंडी साम्प्रदायिक तत्वों की लफ्फाजी और उनका अपार कालाधन कुछ काम नहीं आ सकेगा। इसलिए साम्प्रदायिक उन्माद पैदा कर बहुसंख्यक वोटों का ध्रवीकरण कर सत्ता प्राप्ति का प्रयास जारी है। व्यक्ति विशेष को हीरों बनाने और बाकी पार्टियों -उसके नेताओं को सारे देश को ,जनता को , धर्म की मजहब की अफीम खिलाकर ,नास्तिकता का आरोप लगाकर या साधू-संतों के अनादर का आरोप ;लगाकर हासिये पर सरकाने की सोची समझी योजना पर अमल जारी है।
श्रीराम तिवारी
[पांच]
जिनका नैतिक और चारित्रिक पतन हो चूका है वे साधू-सन्यासी और नेता नहीं चाहिए !
बचपन में किसी विद्द्वान से सूना था "जब सिकंदर स्पार्टा ,एथेंस को विजित कर मकदूनिया से अपनी शानदार अजेय फ़ौज के साथ विश्व विजय के लिए प्रस्थान करने लगा तो अपने गुरु अरस्तु के पास आदेश लेने गया । उनसे दिशा निर्देश मांगे। उसके गुरु ने तत्कालीन ज्ञात विश्व के कुछ खास देशों के नाम लेते हुए सिकंदर से उन्हें फतह करने के कुछ सुझाव दिये । साथ ही उन देशों से उसे कुछ खास उपहारों लाने की तमन्ना भी व्यक्त की। अरस्तु ने कहा - हे सिकंदर महान ! जब तुम चीन फतह करो तो रेशम के थान ,कागज़ और मार्शल आर्ट के लिए प्रसिद्ध शाओलिन प्रशिक्षित जवान साथ में लाना। जब तुम अरब को फ़तेह करो तो ऊंट ,खजूर और अरबी घोड़े साथ लाना । फारस फ़तेह करो तो मखमल की कालीन ,सूखे मेवे और जिन्दवेस्ता ग्रन्थ साथ लाना। जब उज्बेगिस्तान - मंगोलिया तुर्क्मेनियाँ फ़तेह करो तो उत्तम कोटि घोड़े जावांज लड़ाके और धारदार शमशीरें साथ लाना। यदि हिन्दोस्तान जा सको और उसे फतह कर सको तो गंगा जल ,भगवद्गीता और कोई एक सिद्ध महात्मा योगी भी साथ लेते लाना। "
ये किवदंती है या सच ; सिकंदर ये सब मांगें पूरी कर पाया या नहीं ये तो इतिहासकारों के शोध का विषय है , किन्तु इसके प्रमाण अवश्य हैं की सिकंदर को भारत में सिर्फ शुरुआत में ही आंशिक विजय मिली थी बाद में पंजाब और मालवा विजित करने के दौर में उसके सैनिक जब विद्रोह करने पर उतारू होने लगे और सिकंदर स्वयम भी घायल हो गया तो उसका विजय का स्वप्न अधूरा ही रह गया। मायूस होकर घायल और सन्निपात की अवस्था में जब वह मकदूनिया वापिस लौटने लगा तो भारत से वे वांछित वस्तुएं शायद नहीं ले जा सका जो उसके गुरु 'अरस्तु' को प्रिय थीं । इस घटना से यह अवश्य ही स्थापित होता है की , अरस्तु द्वारा बनाई गई सूची में उल्लेखित और भारत से मंगाई जाने वालीं वस्तुओं की महिमा का बखान तत्कालीन यूनान तक अवश्य ही पहुंचा होगा। निसंदेह ये वस्तुएं इक्कीसवीं शताब्दी में भी भारत और भारत से बाहर दुनिया भर में जा वसे हिन्दुओं के लिए आज भी उतनी ही पावन और पूज्य हैं।
लेकिन आज के ढोंगी -पाखंडी - कपटी और धूर्त लोग - 'साधु' के वेश में तिजारत करने वाले धंधेबाज बन चुके हैं। आधुनिक युग के 'सिद्ध महात्मा योगी' देश का उद्धार करने के बजाय 'शिष्याओं का उद्धार' करने में जुटे हैं । किसी के पास देश -विदेश में ११ हजार करोड़ की संपदा ,किसी के पास ८ हजार करोड़ के आश्रम,फ़ार्म हॉउस ,किसी के पास सैकड़ों सुन्दरियों की फौज, किसी के पास श्रद्धालुओं के नाम पर हजारों लफंगों,शोहदों और भृष्ट तत्वों का असंवैधानिक लवाजमा है। किसी के पास मंदिर -मठ की जागीर है । किसी के पास राजनैतिक नेताओं और पार्टियों का हुजूम और किसी के पास ईश्वरीय सन्देश का विशेषाधिकार। कोई आयकर नहीं देना ,कोई सर्विस टेक्स नहीं देना , यदि धरम की आड़ में हथियारों की तश्करी करें ,मादक पदार्थों की तश्करी करें या किसी ज़िंदा मानव को मारकर उसकी खोपड़ी का चूरा बेचकर "आयुवर्धक औषधि ' बेचें तो किसी सरकार और क़ानून को हक नहीं कि इनसे किसी तरह की पूंछतांछ कर सकें। यदि पुलिस क़ानून ने या किसी पीड़ित या पीडिता ने प्रतिकार किया तो उसे नास्तिक,विधर्मी ,विदेशी और न जाने किस-किस सर्वनाम से विभूषित करेंगे। इन अधार्मिक व्यक्तियों का काले धन और [अ]धर्म स्थलों पर इतनी संपदा और स्वर्ण भण्डार है कि देश को आगामी दस साल तक की बजट में एक पाई न तो विश्व बेंक से लेनी पड़ेगी और न ही देशी-विदेसी पूँजीपतियों के आगे 'पूँजी निवेश 'की चिरोरी करनी पड़ेगी। अपने पापों को छिपाने के असफल प्रयासों में नाकाम , ये नापाक तत्व राजनैतिक अशुचिता का दुष्प्रचार कर जनता का गुस्सा केवल राजनैतिक नेताओं और खास तौर से धर्मनिरपेक्ष दलों और व्यक्तियों की ओर मोड़ देते हैं।
इन धनाड्य -बाबाओं ,समपन्न मठों - चमाचम पीठों , मजहबी -पंथिक धर्म स्थलों और धार्मिक- पारमार्थिक संस्थाओं को राष्ट्र और राष्ट्र की जनता से लगातार तन-मन -धन समर्पित किया जाता रहता है किन्तु इनकी ओर से राष्ट्र को या जनता को केवल 'आध्यत्मिक प्रवचन के नाम पर बाचिक - लफ्फाजी और पारलौकिक विषवमन ' ही दिया जाता रहता है। प्राकृतिक आपदाएं , धर्म स्थलों पर अनपेक्षित भीड़ का ' सामूहिक वैकुंठवास' या देश में बढ़ती महंगाई ,गरीबी ,अशिक्षा ,शोषण और व्यवस्थागत दोषों से उत्पन्न जागतिक-सामाजिक समस्याओं बाबत इनके पास कोई निदान या समाधान नहीं है। उलटे हरेक धरमध्वज केवल भोगी ,ढोंगी और सुरा सुन्दरी का तलबगार पाया जा रहा है। चूँकि सिकंदर के हमले का मुकाबला करने के लिए चन्द्रगुप्त के साथ चाणक्य के चरित्र ,अनुशाशन और विवेक का योगदान था। इसीलिये सिकंदर यहाँ से जीतकर नहीं पिटकर गया है। आज के संत आसाराम ,उमा भारती ,रा मदेव , कृपालु महाराज,,निर्मल बाबा ,गाजी फ़कीर,नित्यानंद और भीमानंद जैसे सैकड़ों हैं जो यदि सिकंदर के हाथ लगते तो समूचा फारस,समस्त रोमन साम्राज्य और सारा यूनान यों ही चुटकियों में फतह कर लेते।
आसाराम जैसे ऐय्यास 'धार्मिक-ठगों' और उसके समर्थकों ,हमदर्दों के बारे में कुछ भी लिखना ,कहना या सुनना अब केवल 'निन्दारस-अभिलाषा'नहीं बल्कि यह तो अब राष्ट्रीय शर्म की विषय वस्तू हो चूका है । ये पाखंडी साम्प्रदायिक उन्मादी वर्ग जितना काइयां और चालाक है ,उसके 'स्टेक होल्डर्स ' उससे भी कहीं ज्यादा धूर्त और चालाक हैं। कुछ तो इस वर्ग को सत्ता का साधन भी बना लेते हैं। हो सकता है कि इनसे जुड़े हुए कुछ लोग आपराधिक पृवृत्ति के न हों । किन्तु जब तक वे खुलकर अपने 'गुरु-घंटालो 'को सरे आम जूते नहीं लगाते तब तक न तो समाज और देश का उद्धार संभव है और न हीं वे खुद बेदाग साबित होंगे। आशाराम के साथ तो सबके -सब 'दो-नम्बरी' और नापाक किस्म के हैं। सवाल है कि इन बदमाशों में खास तौर से उस ख़ास समाज के ही लोग अधिक क्यों हैं जिससे आसाराम का सामाजिक सम्बन्ध है. इस अधिकांस करप्ट और 'नव-धनाड्य 'वर्ग में - सटोरिये ,वकील ,आश्रम इंचार्ज - सूरत से लेकर दिल्ली तक आसाराम के सजातीय लोग ही क्यों हैं ? यदि आसाराम का लड़का नारायण साइ निर्दोष हैं तो पुलिस और क़ानून के सामने आकर अपना पक्ष कोर्ट के समक्ष क्यों नहीं रखता ? अपने पापों पर पर्दा डालने के लिए ये -महा हत्यारे, बलात्कारी रात दिन एक ही रट लगाए रहते हैं कि "माँ -बेटे"के इशारे पर सरकार परेशान कर रही है। यदि आसाराम और उसकी 'गेंग' को लगता है कि वे 'निर्दोष' हैं तो सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा क्यों नहीं करते जहां उनकी पैरवी 'साइ राम जेठमलांनी खुद कर रहे हैं.
स्वामी रामदेव जैसे लफ्फाज और ढोंगी हैं जो जनता को ठगते हैं ,इनके आश्रमों से लड़के-लडकियाँ गायब हो जाएँ और यदि पुलिस -क़ानून अपना काम कर्रें तो ये लोग कभी सोनिया गाँधी ,कभी राहुल गाँधी और कभी दिग्विजयसिंह या गहलोत पर भौंकने लगते हैं। उनके इस अनर्गल अशालीन विषवमन पर अब जन-प्रतिक्रिया होने लगी है। आजकल जहां भी रामदेव जाते हैं उनको महिलायें चूड़ियाँ भेंट करतीं हैं ,युवा और छात्र रामदेव को काले झंडे दिखाते हैं. मीडिया भी अब उन्हें ज्यादा भाव नहीं देता। उनकी 'राख -भभूत' वाली अचूक औषधियाँ" भी बाजार में पडी -पडी सड़ रहीं हैं। वे जो 'बन्दर -कुन्दनी 'आसन वगैरह अपने नाम से पेटेंट करने को उद्दत रहते हैं वे तो इंसान अनादिकाल से ही करता ही आ रहा है. दर्शल बाबा रामदेव को अपनी लोक्ख्याती का रोग लग चूका है ,वे भारतीय संविधान का ककहरा भी नहीं जानते किन्तु राजनीति में 'चाणक्य' की भूमिका चाहते हैं। वे अर्थशाश्त्र ,समाज् शाश्त्र या दर्शन शाश्त्र में से किसी भी विषय में दीक्षित नहीं हैं केवल शीर्शाशन ,लोम-विलोम या बंदरों जैसी उछल-कुंद के दम पर भारत -भाग्य विधाता बन जाने के सपने देखते रहते हैं। राजनीतिज्ञों की तरह चाटुकारों -चापलूसों से घिरे स्वामी रामदेव बार -बार पतन के गर्त में गिर रहे हैं।
जब रामदेव के आश्रम में किसी का अपहरण हो जाता है और अन्य संदेहास्पद गतिविधियों की छानबीन के लिए पुलिस दविश देती है तो रामदेव का भाई फरार क्यों हो जाता ? उनके भरोसेमंद आचार्य - जी पर जो आरोप लगे हैं उन पर कोर्ट में सफाई देने के बजाय उत्तराखंड सरकार या केंद्र सरकार से रहम की उम्मीद क्यों की जाती है ? यदि रामदेव कुछ गलत नहीं करते और उनके 'पतंजलि योग पीठ' में या उनके औद्दोगिक साम्राज्य में कुछ भी गैर कानूनी नहीं है तो किस बात पर वो इतने डर-डर कर अरण्य रोदन करते फिर रहे हैं ? वे खुद ही कहते फिरते हैं कि केंद्र सरकार और उत्तराखंड सरकार मुझे फंसाने की कोशिश कर रही है। "मुझे सेक्स स्केंडल में भी फँसाया जा सकता है " या "उन्हें फ़साने में किसी विदेशी महिला और उनके बेटे का हाथ है" उनका यह घटिया वयान अब एक बचकाना जुमला बन चूका है, इस सफ़ेद झूंठ को बोलते वक्त रामदेव की आँखे खुद-ब -खुद बंद क्यों हो जाया करती हैं?
रामदेव कुछ दिनों पहले कहा करते थे कि "मैं भारत स्वाभिमान संघ के मंच से देश का उद्धार करूंगा। देश भर में इस मंच के ५०० उम्मीदवार खड़े किये जायंगे। कांग्रेस ,भाजपा दोनों भृष्टाचार में लिप्त हैं। ये दोनों ही अमेरिका परस्त हैं। हमारे राज में स्वदेशी का सम्मान होगा। विदेशों में जमा काला धन वापिश लाया जाएगा। देश में गरीबों को न्याय मिलेगा। सभी को रोटी-कपड़ा -मकान मिलेगा।" इत्यादि . . . इत्यादि। देश के पढ़े-लिखे नौजवान ,माध्यम वर्ग और स्वभाव से धर्मभीरु नर-नारी रामदेव के झांसे में आते चले गए। जब तक वे केवल योग गुरु थे ,मुझे भी ठीक लगते थे ,जब उन्होंने भृष्टाचार मुक्त भारत की बात की तो वे अधिकांस सभ्रांत वर्ग के 'आइकान' बन गए। किन्तु ज्यों ही उन्होंने भारत स्वाभिमान के सिद्धांत को तिलांजलि देकर 'नमो' और 'संघ परिवार' के चरणों में समर्पण किया , वे देश की सक्रीय राजनीति का एक दिग्भ्रमित पक्ष बन कर रह गए हैं ।
हालांकि यह उनका संवैधानिक अधिकार है। किन्तु जो लोग कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही सरमायेदारों और लुटेरों का एजेंट समझते हैं उनको अब स्वामी रामदेव यदि शोषक शासक वर्ग के साम्प्रदायिक पाले में नज़र आ रहे हैं तो वे गलत नहीं हैं । इतना ही नहीं पहले की बनिस्पत रामदेव अब ज्यादा साम्प्रदायिक और तदनुरूप साम्प्रदायिक राजनीती के धुरंधर भी सिद्ध हो चुके हैं। अब यदि धर्मनिरपेक्ष ताकतें रामदेव को स्वामी या बाबा मानने के बजाय 'नेता' मानकर उनके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करे तो रामदेव को कपडे नहीं फाड़ना चाहिए। जो साम्प्रदायिक नेता सरकार को गालियाँ देते हैं , विदेशी आक्रमण कारियों के खिलाफ आवाम को राम-रावण युद्ध का - "विजय रथ रूपक " पढ़ाते हैं। दुश्मन से जीत सकने का माद्दा इन कलुषित मानसिकता के स्वयम्भू 'बाबाओं और स्वामियों में कैसे संभव हो सकता है। ये तथाकथित सन्यासी एक ओर तो अपने आप को संसार से परे सन्यासी बताते हैं दूसरी ओर जब -तब किसी खास नेता या दल की निंदा करते रहते हैं। क्या यह संतों ,साधुओं या आचार्यों का आदर्श है ?ये कामुक किस्म के धन लोभी अ-धार्मिक ठग पाकिस्तान,चीन और अमेरिका के खिलाफ दहाड लगाकर युद्धोन्माद की कोशिश करंगे। किन्तु जब कुर्बानी की बात आयेगी तो दूम दवाकर दडवे में छिप जायेंगे। भगवा वेशधारी पाखंडी स्वामी ,बाबा - सभी जनता में अंध श्रद्धा और धर्मान्धता का वीज वपन करते रहते हैं।
ये नैतिक रूप से पतित ,नीति विहीन ,धार्मिक पाखंड के पहरुए - देश का ,समाज का और नेताओं का मार्ग दर्शन क्या खाक करेंगे ? तात्पर्य यह है की आज का भारत अपने अतीत के भारत से और ज्यादा दैन्य स्थति में पहुँच चूका है। भारतीय समाज में अनेक विद्रूपताओं के वावजूद कुछ पवित्र प्रतीक अवश्य थे। जिनपर भारत के विवेकवान लोगों को गर्व था। आज चाणक्य जैसी वैज्ञानिक और प्रगतिशील दृष्टी की जरुरत है न की हिटलर -मुसोलनी के फासिजम से सरावोर नेताओं की , या वर्तमान दौर के ढोंगी ,व्यभिचारी -धर्मं -मजहब के ठेकेदारों की ।
गंगा को गंदा करने में पाकिस्तान या चीन का नहीं बल्कि भारतीय जनता जनार्दन का ही हाथ है. खास तौर से हिन्दू समाज ही गंगा समेत तमाम नदियों को गंदा करने के लिए जिम्मेदार है। अब यदि भारतीय न्यापालिका का आदेश है की मूर्तियों को गंगा में न बहायें तो ये तथाकथित हिन्दू श्रद्धालुओं की जिम्मेदारी है की अपनी पवित्र नदियों को 'मरने ' से बचाएं।
इसी तरह जब धर्म -मजहब के नाम पर कोई शातिर बाबा ,स्वामी, या धर्मगुरु जब भोली -भली जनता को खास तौर से महिलाओं को फांसने या ठगने का जाल बुनता हो तो सुधि जनों की जिम्मेदारी है की उसे जेल भेजने में क़ानून की मदद करे। कुकर्मी आसाराम और उसके लफंगे ऐय्यास बदमाश लड़के नारायण साई को बचाने के लिए कुछ निर्लज्ज महिलायें और कुकर्मी भक्त भी मीडिया के सामने दिखाई देते हैं ये देश के नाम पर कलंक हैं। जो पीड़ित महिलायें और सेवक इन पापियों के पापों का भंडाफोड़ रहे हैं उनको पूरा सम्मान और सुरक्षा मिलनी चाहिए। गनीमत है की अभी कोई सिकंदर ,कोई गजनी ,कोई गौरी भारत पर आक्रमण करने नहीं आ रहा है किन्तु आधुनिक सूचना एवं संचार क्रांति के दौर में जबकि भारतपर अपने पड़ोसियों की नापाक नज़रों हों। यह नितांत जरुरी है की नैतिक मूल्यों और प्राकृतिक सम्पन्नता का संरक्षण सुनिश्चित किया जाए।
इतिहासकार बताते हैं की वह असमय ही भरी जवानी में भारत से मकदूनिया लौटते वक्त म्रत्यु को प्राप्त हो गया था। उसके सेनापति सैल्युकास ने भारत के पश्चिम मैं इरान ,अफगानिस्तान और ईराक इत्यादि - सिकंदर के विजित क्षेत्रों को अपने काबू में करने की असफल कोशिश जरुर की थी किन्तु मगध के नवोदित सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु विष्णुगुप्त चाणक्य के निर्देश पर सैल्युकास के पुत्र फिलिप्स को पराजित कर उसकी बहिन 'हेलेन' से शादी कर ,यूनान और मकदूनिया को भारत की ताकत से रूबरू जरुर कराया था। यूनानी दार्शनिक और सिकंदर के गुरु अरस्तु से भारतीय दर्शन शाष्त्री और चन्द्रगुप्त मौर्य का गुरु चाणक्य बेशक तीक्ष्ण और कुशाग्र बुद्धि का धनी था। उसने अपने शिष्य चन्द्रगुप्त से 'भारतवर्ष ' राष्ट्र की एकता स्थापित करने की मांग ही की थी जिसे उसके शिष्य ने पूरा करने का भरपूर प्रयास किया था।
विष्णुगुप्त चाणक्य ने केवल 'अर्थशास्त्र ' ही नहीं लिखा बल्कि 'चाणक्य नीति' सहित अन्य अनेक प्रगतिशील वैज्ञानिक तथ्यों का प्रतिपादन भी किया था। जब तक उसके सिधान्तों को चन्द्रगुप्त ने माना तब तक भारत का दुनिया में बोलबाला रहा। जब चन्द्रगुप्त ने चाणक्य को छोड़कर जैन धर्म धारण कर लिया तो विदेशी ताकतों ने फिर सर उठाया और उसके पुत्र विम्बीसार को अपयश का भागीदार होना पडा। चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाकर भले ही दुनिया भर में 'धम्म चक्र प्रवर्तन' की ध्वजा फहराई हो किन्तु उसके निधन के बाद भारत छिन्न -भिन्न होने से नहीं बचा। दुर्भाग्य से भारत की जनता और खास तौर से 'हिन्दू समाज' ने चाणक्य के उपदेशों को लाल कपडे में पोथी की तरह बांधकर पूजा तो की किन्तु उन सूत्रों और सिद्धांतों को राजनीती,समाज और लोक व्यवहार में प्रयुक्त करने की जहमत नहीं उठाई। एक तरफ विदेशी आक्रान्ता भारत विजय के लिए भयंकर आक्रमणों का सिलसिला बनाए चले गए और दूसरी ओर भारत के राजे -रजवाड़े ,सामंत ऐय्यासी में डूबते -उतराते रहे। भारतीय समाज में 'चमत्कार को नमस्कार ' का बाहुल्य बढ़ता चला गया। विज्ञान के आविष्कार,सामजिक परिशकारन ,राष्ट्र निर्माणकारी नीतियां सब लोप होते चले गए। राज्य -समाज के सारे उपक्रम केवल राज्य कृपा तक सीमित रह गए. समाज में धर्मांध बाबाओं ,पाखंडी साधुओं , धनाड्य मठाधीशों और 'भिक्षु ' पृवृत्ति के लोगों का कारवाँ बढ़ता चला गया। इसी कारण भारत को दुहरी -तिहरी गुलामी कई सदियों तक झेलनी पड़ी। स्वामी विवेकानंद को अपने अमेरिका प्रवास के दौरान कहना पडा -" भारत को ज्ञान ,धर्म ,अध्यात्म की नहीं रोटी की जरुरत है "
वर्तमान दौर की राजनीती की आलोचना जायज हो सकती है ,उसमें किये जा रहे सुधारों का स्वागत है ,न्यायपालिका ,मीडिया और देशभक्त लोगों के सकारात्मक प्रयास वन्दनीय हैं. किन्तु राजनीती की कुरूपता से ज्यादा भयावह समाज में व्याप्त धर्मान्धता ,जातीयता ,क्षेत्रीयता नितांत निंदनीय है। धर्म-मजहब के ठिकानों पर हो रहे व्यभिचार ,शोषण उत्पीडन और पूंजीवादी लूट की खुली छूट और गलाकाट प्रतियोगिता से समाज और देश को बचाने के लिए आज फिर किसी कार्ल मार्क्स ,किसी चाणक्य की किसी विचारधारा की जरुरत है।
सोचो ! सिकंदर यदि रस्ते में न मरता और मकदूनिया में जाकर अपने गुरु को उसकी मनचाही भेंट दे देता तो भारत की तस्वीर कुछ और ही होती। यदि वो योगी आसाराम स्वामी रामदेव या भीमान्नद जैसा हुआ होता तो यूनान की क्या दुर्गति हुई होती ? गंगाजल ,तुलसी की माला और गीता तो जरुर वहां पहुंची होती , क्योंकि जब सिकंदर के सेनापति सेलुकस को हराकर चन्द्रगुप्त मौर्य ने उसकी बहिन 'हेलेन ' से शादी की तो स्वाभाविक है की इन महत्वपूर्ण और पवित्र वस्तुओं को यूनान भेजे जाने में कोई खास दिक्कत नहीं आई होगी। चन्द्रगुप्त के गुरु कौटिल्य चाणक्य भी यही चाहते होंगे की आर्यावर्त याने भारतवर्ष याने हिन्दुस्तान की गरिमा दुनिया में जाज्वल्यमान हो। किन्तु चाणक्य ने ११ हजार करोड़ की संपदा या अपनी कुटिया में 'वारांगनाओं' का अन्तःपुर नहीं वसाया था। वे किसी सेक्स स्केंडल में नहीं फँसे थे। रामदेव को और अन्य बाबाओं ,या हिन्दू साम्प्रदायिक नेताओं को यदि चाणक्य बनने का गुमान हो तो सत्ता सुन्दरी रुपी विष कन्या का सेवन करने से बचना होगा। शोषण की पूंजीवादी शक्तियों के हाथ का खिलौना बनने के बजाय देश के मेहनतकशों -मजदूरों और किसानों के बीच जाकर अपने आपको तपाना होगा। देश में किसी खास नेता का समर्थन या विरोध नहीं बल्कि जन-कल्याणकारी वैकल्पिक नीतियों के अनुसन्धान के साथ -साथ प्रजातांत्रिक -धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का संवर्धन भी करना होगा। तभी कोई स्वामी ,कोई योगी ,कोई अष्टाबक्र ,चाणक्य या समर्थ रामदास बन पायेगा। राष्ट्र का मार्ग दर्शक बनने के लिए इस सूत्र पर अमल भी जरूरी है।
"यथा चित्तं तथा वाचो ,यथा वचस्तथा क्रिया,
चित्ते -वाचि क्रियाणाम ,साधुनाम च एकरूपता"
श्रीराम तिवारी