शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

व्यभिचार में भी राजनीती करने का माद्दा केवल भाजपा में ही हो सकता है !



      तहलका पत्रिका  के संस्थापक संपादक और  चर्चित   यौन  शोषण के  आरोपों का   सामना कर रहे तरुण तेजपाल दोषी सावित हो  भी सकते हैं !  तथाकथित पीड़िता निर्दोष और चरित्रवान ही होगी इसमें क्या शक है !इसी तरह सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत  जस्टिस अशोक कुमार  गांगुली पर लगे आरोप सही हो भी  सकते हैं और आरोप लगाने वाली पीड़िता{?} नितांत निर्दोष होगी इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए !अब  यक्ष प्रश्न  उठता है  कि
     
            तेल जरे बाती  जरे। … नाम दिया का होय ! क्यों घटित हो रहा है ?

              जिस आसाराम ने  सैकड़ों  लड़कियों की जिदगी बर्बाद कर दी ,जिस भगोड़े  नारायण साईं  ने  हजारों महिलाओं का यौन शोषण ही नहीं बल्कि जीवन बर्बाद कर दिया उसको बचाने के लिए संघ परिवार और भाजपा के नेता एड़ी  चोटी  का जोर लगा रहे हैं। राजस्थान सरकार और पुलिस पर  राजनैतिक कार्यवाही के आरोप मड़  रहे हैं।  जिस "संघ '' प्रचारक   संजय जोशी की अश्लील  सी  डी  पहले  कभी उन्ही के सहयात्री  "साहब"ने देश भर में बंटवाई थी,  जो   "साहब" किसी एक  खास  लड़की की जासूसी  के कारण ही   नहीं  बल्कि  और भी अन्य घटिया हरकतों के  कारण  इतने कुख्यात हो गए हैं कि पी एम् इन वेटिंग हो गए हैं । उनकी इन कामोत्तेजक   हरकतों पर जेटली और  सुषमा की बोलती  बंद है।  जिस  ध्रुबनरायण और तरुण विजय के कारण शहला मसूद की ह्त्या हुई ,जिस भाजपाई मंत्री  राघव सांवला ने अल्पवयस्क युवाओं को भी नहीं बख्सा   -इन सभी के पापों को छिपाने वाली और शरण देने वाली 'भगवा मण्डली'  और कुकर्मियों का समर्थन करने वाले भाजपा नेता अचानक  तरुण तेजपाल पर इतने मेहरवान  क्यों हो गए हैं ?सिर्फ एक खास पीड़िता के  यौन शोषण के खिलाफ क्यों हो गए ? क्या देश भर में हो रहे ह्त्या -व्यभिचार और नारी उत्पीड़न पर उनकी मौन स्वीकृति है ? अचानक गोवा की भाजपा सरकार ,जेटली ,सुषमा  स्वराज  और संघ परिवार  ने 'तहलका पर बदले की भावना से जो घेराव करने का दुस्साहस किया है वो  न्याय  संगत  कम और राजनीति  से प्रेरित ज्यादा लगता है !

             श्रीराम तिवारी!  

गुरुवार, 28 नवंबर 2013

बाजारीकरण के दौर में मानवीय - मूल्यों का क्षरण और मीडिया की भूमिका।



    आवारा वैश्विक पूँजी और दूषित राजनीति  के अवैध संसर्ग  से उत्पन्न- मीडिया- लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कैसे हो सकता है ?वैश्विक प्रजातांत्रिक अभिलाषाओं के दौर में अब यह  सार्वभौम सिद्धांत बन चूका है कि  विधायिका, कार्यपालिका,न्यायपालिका के साथ- साथ ' मीडिया' भी आदर्श लोकतंत्र  का एक शशक्त जागृत प्रहरी  सावित हो सकता है  । याने "मीडिया  को  लोकतंत्र का चौथा खम्भा  होना चाहिए "  जिस किसी ने भी  यह सिद्धांत प्रतिपादित किया  हो ,उससे एक  चूक  अवश्य हुई है। उसने सम्पूर्ण मीडिया  को समेकित रखते हुए  'वाइस पसेरी धान' एक  एक ही तराजू से तौलने की जुर्रत की है !  जबकि उसे मीडिया की 'वर्गीय' बुनावट को समझते हुए कहना चाहिए था कि "प्रगतिशील मीडिया -याने  धर्मनिरपेक्ष ,जनवादी  क्रांतिकारी विचारों से समृद्ध , वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सम्पन्न  और  निष्पक्ष  मीडिया  ही  लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ हो सकता  है।
                                    मीडिया की सामाजिक,आर्थिक ,राजनैतिक , सांस्कृतिक,साहित्य -कला -संगीत और खेलों के   क्षेत्र में सर्वत्र प्रतिस्पर्धात्मक पैठ  बन  चुकी है।  लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में  मीडिया की महत्वपूर्ण जबाबदेही के बरअक्स   कुछ  सवाल भी   उठ रहे हैं.  सबसे पहला तो यही  सवाल है  कि  इस दौर में जो मीडिया  की छिछालेदारी   हो रही है ,उसके  हरावल दस्तों में सभ्रांत वर्गीय ऐयाशी का जो  बोलबाला हो रहा  है ,जो  नैतिकता अवमूल्यन हो रहा है , जो कुछ आक्रामक  घटित हो रहा है, क्या  उसे देखते हुए भी  'समस्त -मीडिया' को ' लोकतंत्र का चौथा खम्भा' माना जाए?  या सिर्फ  मीडिया की सकारात्मक विंग को ही लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ  माना जाए, उसे सम्मान दिया जाए।   भास्कर,बंसल,साधना और सहारा जैसे अनेक पेड़ न्यूज  के आरोपों से घिरे -प्रिंट-दृश्य-श्रव्य- मुनाफाखोर मीडिया  ,खनन माफिया या शराब माफिया  के पैसों से संचालित सत्ता का दलाल मीडिया  , ब्लेकमेलिंग- सुरा-सुंदरी और सत्ता  का हथियार मीडिया ,पूँजीवादी सत्ता के दलालों  से संचालित,धन्धेबाज - साम्प्रदायिक -  बदमाश व्यापारी -पाखंडी  बाबाओं से संचालित मीडिया  और नारी मात्र को भोग्य  मानने  वाले अधिकांस  फ़िल्म  निर्माताओं -निर्देशकों-वित्त पोषकों  का तीमारदार मीडिया ,    तरुण   तेजपाल  जैसों द्वारा  संचालित  'तहलका ' की शक्ल का   मीडिया   लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ  कैसे हो सकता है ?
                                           वैसे तो हर किस्म के नकारात्मक मीडिया को  भृष्ट पूँजीपतियों  और सत्ता के दलालों का भी दलाल माना  जा सकता है  लेकिन लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कदापि नहीं ! दक्षिण पंथी ,अनुदार और पूँजीपतियों  के चरण धोकर पीने वाला  मीडिया तो रंचमात्र   महिमा मंडित  नहीं किया जाना चाहिए !  मीडिया की सार्थक सजगता और उसकी सामाजिक  सरोकार वाली छवि के बरक्स  जिसने ये परिभाषा गढ़ी है  कि ''मीडिया तो लोकतंत्र का चौथा खम्भा है "उसे शायद भारत के 'सभ्रांत सफ़ेदपोश  वर्ग' की उस   सामंती  पुरषत्ववादी   मानसिकता का भान ही  नहीं रहा होगा , जिसमें 'स्त्री' को  पुरुष समाज की  केवल  एक 'वस्तु'  मात्र माना गया है। 'प्रत्यक्ष किम प्रमाणम '!  ज़र -ज़ोरू -ज़मीन  ये पुरुष सत्तात्मक समाज में आज भी  झगड़े की जड़  माने जा रहे  हैं। भारत में  यदि आज भी यह मानसिकता जस-की -तस  है तो   प्रजातांत्रिक व्यवस्था  से  इन सामंती सोच के विषाणुओं का खात्मा  निर्ममता से किया जाना चाहिए ! आधुनिक समाज की  अधोगामी -  वास्तविकता और  लोकतंत्र के   चारों  स्तम्भों सहित मीडिया  की समीक्षा  भी शिद्दत से  की जानी चाहिए !   जिस तरह लोकतंत्र के सकारात्मक तत्वों को  दुनिया भर में सम्मान प्राप्त है और नकारात्मक रुझानों से संघर्ष जारी है ,  जिस तरह  दुनिया में  साम्राज्यवादी -पूंजीवादी वैश्विक नैगमिक वित्तीय  शक्तियों ने प्रजातंत्र  को"जनता का- जनता के द्वारा-शक्तिशाली लोगों के लिए " बना डाला है ,उसी तरह भारतीय परिप्रेक्ष्य में देशी-विदेशी वित्त पोषकों और शक्तिशाली लोगों ने मीडिया को  अपने हित साधन का हथियार  बना  डाला  है।
                                        जिस तरह दुनिया भर में  फ़ौजी तानाशाही -साम्प्रदायिक निरंकुश व्यवस्थाओं और  कार्पोरेट पूँजी से संचालित नकली प्रजातंत्र के खिलाफ  वास्तविक  प्रजातंत्र  की स्थापना के  लिए  संघर्ष  हो रहे हैं, उसी तरह मीडिया  और साहित्य के  क्षेत्र में भी -जनकल्याणकरी,प्रगतिशील,वैज्ञानिकतावादी सकारात्मक  मूल्यों  से समृद्ध मीडिया और क्रांतिकारी प्रगतिशील साहित्य  की  स्थापना के लिए दुनिया  भर में संघर्ष जारी है।  भारत में यह  संघर्ष  अभी हासिये पर  है। यह लड़ाई उस मीडिया के भरोसे नहीं लड़ी जा सकती जिस पर  उन काली ताकतों का कब्जा है जो एक जवान लड़की को केवल 'बाज़ार का माल'  और मेहनतकशों को   'क्रीत - दास' समझते हैं। यह लड़ाई उन  साहित्य़कारों के बलबूते भी  नहीं लड़ी जा सकती जो केवल 'हां -हां -भारत दुर्दशा  देखी  ना जाए "  पर आंसू  बहाते रहते हैं। दुनिया भर में भारत का सिर्फ एक नकारात्मक पक्ष प्रस्तुत कर - बुकर पुरस्कार ,मेगा साय -साय पुरस्कार या भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार पा जाते हैं।  जो बुर्जुआ वुद्धिजीवी,लेखक ,सम्पादक ,कवि  या  साहित्यकार मानता है कि 'कला-कला के लिए है 'वो शोषक शासक वर्ग के पक्ष में बौद्धिक बेईमानी का दोषी है। ऐंसे लोग   'सुरा - सुंदरी -सम्पदा ' के चारण  बनकर किसी सरकारी या अकादमिक संस्था में कोई पद पा जाते हैं।  पाठ्यक्रमों में अपनी रचनाएँ  शामिल कराने के लिए 'सत्ता की चिरोरी किया करते हैं ।   इस दौर में भारतीय कला , साहित्य ,संगीत ,फ़िल्म और मीडिया में इन्ही तत्वों का वर्चस्व है।  संघर्षशील, मेधावी,आधुनिक तकनीक में दक्ष युवा वर्ग -  लड़के लडकियां इस  आर्थिक सर्वसत्तावाद के खिलाफ  इन  क्षेत्रों में जगह बनाने के लिए  संघर्ष कर रहे हैं। ये लड़ाई वे केवल अपने कर्मठ कौशल  और वैयक्तिक संघर्ष से नहीं जीत सकते।
                      आधुनिक  साक्षर युवाओं ,मेहनतकशों,किसानों और उनके क्रांतिकारी  जन-संगठनों से जुड़कर ही कोई सार्थक लड़ाई  लड़ी जा सकती है।  इसके लिए नक्सलवाद जैसे  उग्र -वामपंथ का दामन थामना भी जरूरी नहीं है।  हाँ !यदि लोकतांत्रिक तौर  -तरीकों के आधार पर  यदि इस संघर्ष को जल्दी ही  आरम्भ नहीं किया गया तो  इस दौर  के  साम्प्रदायिकतावादी ,सत्ता के दलाल - पूँजीवादी  दल और सामंती मानसिकता के  नकारात्मक  भृष्ट  नेता-अफसर और अलगाववादी   देश  को इतिहास की अंधेरी सुरंग में धकेल देंगे । यह अत्यंत  दुखदाई है कि  जिस  दौर में देश मंगल गृह से सीधा सम्पर्क करने जा रहा है उस दौर में सामाजिक  , सांस्कृतिक ,आर्थिक और राजनैतिक चेतना  का नितांत अभाव है। देश की शांतिप्रिय,धर्मनिरपेक्ष और यथास्थतिवादी आवाम ने जिन पर ज्यादा  भरोसा किया वे लोकतंत्र के दो खास स्तम्भ न्याय पालिका और मीडिया इन दिनों खुद संदेह के घेरे   आ चुके हैं।  अभी तक   फ़िल्मी हस्तियां , पूंजीपति वर्ग ,सेना के वरिष्ठ अधिकारी, सार्वजनिक उपक्रमों और केंद्र राज्य के आला सरकारी  अफसर ,सांसद ,विधायक , मंत्री   ही नारी -उत्पीड़न ,यौन शोषण और दुराचार के लिए कुख्यात थे। लेकिन  अब इस यौन शोषण  और नारी उत्पीड़न   के आरोप सुप्रीम कोर्ट के जज {अब सेवा निवृत} और  सार्वजनिक जीवन में  भृष्टाचार ,नारी-उत्पीड़न  के खिलाफ निरंतर शंखनाद करने वाले  स्वनामधन्य -तहलका  संस्थापक तरुण तेजपाल  पर भी लग चुके हैं। इन लोगों ने  न केवल देश को दुनिया में रुसवा किया है बल्कि इन के कारण  आवाम  को न्याय पालिका और  मीडिया दोनों  पर भरोसा नहीं रहा।
                                       इन दिनों  भारतीय मीडिया  शोकग्रस्त  है।  वो  चाहे छप्य -पठ्य या श्रव्य हो ,वो चाहे अधुनातन तकनीकी  सूचना संचार क्रान्ति से संवर्धित हो या पुराने जमाने के हस्तलिखित दीवारों के इस्तहारों  की मानिंद रूढ़िग्रस्त   हो,वह जाने - अनजाने  आधुनिक  वैश्विक बाजारीकरण और आवारा  पूँजी का  गुलाम होकर रह गया है।  यह अपनी  प्रतिष्पर्धागत जीवंतता से आक्रान्त  होकर  न केवल अपने राष्ट्रीय , मानवीय  सामाजिक और आर्थिक     सरोकारों   से दूर हो चला है ,यह न केवल अपने   देश की शिक्षित  युवा पीढ़ी और शहरी  जनता को भ्रमित कर रहा है। बल्कि जाने -अन्जाने   भारत की ६० % ग्रामीण आबादी के जीवंतता विषयक  अत्यावश्यक विमर्श   की घोर उपेक्षा भी कर रहा है।  देश की अधिंसख्य  आबादी गाँवों में ही  निवास करती  है और उस आबादी में से  एक प्रतिशत जनता भी ये नहीं जानती कि मीडिया  क्या चीज है.
                                    देश के अंदरूनी हिस्सों में जहां आजादी के ६६ साल बाद भी बिजली -सड़क  -सिचाई या ट्रेन  मयस्सर होना तो दूर की बात है , पीने का शुद्ध  पानी  भी उपलब्ध न हो  वहाँ जाकर 'भारत रत्न'  शब्द की प्रतिध्वनि   क्या भेला कर लेगी ?वहाँ आधुनिक विकाश की गंगा  का भी  पहुंचना कैसे सम्भव है ? वहाँ के वासिंदे नहीं जानते कि  मंगल गृह से भारतीय अंतरिक्ष अनुसन्धान केंद्र का कितना सरोकार है ? मुम्बई के धारावी क्षेत्र में कई वस्तियाँ हैं जहाँ  हर घर में "स्लिम डॉग  मिलयेनर्स'  पैदा नहीं  होते  और वे  नहीं जानते कि  बानखेड़े स्टेडियम क्या चीज है? कहाँ है? क्यों  है  ? किनके लिए है ?  एक सामान्य बुद्धि और साधारण  हैसियत का लड़का -सचिन तेंदुलकर - भगवान् कैसे बन गया  ? इन तमाम वंचित और असहाय लोगों के  लिए भारतीय मीडिया  ने  क्रिकेट के बहाने  एक अदद एक्ट्रा  भगवान् भले ही  पैदा कर दिया  हो किन्तु  जिसे   अपने कल के भविष्य की घोर चिंता ने दबोच रखा हो वो किस -किस भगवान् को कहाँ -कहाँ अर्ध्य देता  फिरे ? और कहता  फिरे  कि हे देव !आपकी  - जय हो ! जय हो !जय हो ! त्राहिमाम् -त्राहिमाम् !
                                 कहने का  अभिप्राय यह है कि  इन दिनों  टीआरपी प्रधान  मीडिया का एक बड़ा हिस्सा   गैर जरूरी विमर्श के  माया मृग जाल में  अपने पाठकों ,दर्शकों और श्रोताओं को भरमाने का काम कर रहा है। न केवकल   क्रिकेट बल्कि नारी -उत्पीड़न ,यौन शोषण  तथा राजनीति  के नकारात्मक पक्ष पर आधुनिक मीडिया इन दिनों ज़रा ज्यादा ही फ़िदा है। एलीट क्लाश  या बुर्जुआ वर्ग  में निरंतर चल रहे  'सूरा-सुंदरी-सम्पदा   के विमर्श को जब राष्ट्र से परे  ही मानने की हद तक आधुनिक मीडिया  उतारू हो जाए तो  इस विमर्श में  चैतन्यशील प्रगतिशील वर्ग का इसमें  सार्थक और  क्रांतिकारी हस्तक्षेप जरूरी है।  प्रासंगिक दौर के विमर्श उतने  सार्वभौम या जनकल्याण कारी नहीं है जितना आधुनिकतम  मीडिया ने गलाकाट  प्रतिष्पर्धा  के चलते देश की जनता  के समक्ष पेश  कर रखा  है।
                 प्रतिस्पर्धा में बने रहने की बाध्यता के चलते न केवल बाज़ार की ताकतों का पिठ्ठू, बल्कि मुख्य धारा  के साथ-साथ   प्रगतिशील मीडिया  भी देश हित से परे कुछ खास  व्यक्तियों के महिमा मंडन याने "नायकत्व'  के बेसुरे राग में तल्लीन  है। कभी नरेद्र मोदी ,कभी राहुल गांधी ,कभी सोनिए गांधी , कभी अन्ना ,केजरीवाल, कभी सचिन तेंदुलकर , विराट कोहली , कभी मनीष तिवारी , कभी दिग्विजयसिंह कभी आसाराम एंड  सन्स  , कभी मुलायमसिंघ , कभी आडवाणी ,मायावती,ममता ,नीतीश या   कभी किसी खास नेता,पत्रकार ,अफसर  ,बाबा या बलात्कार पीड़िता  जैसे नामों पर ही  आधुनिक  मीडिया  के विमर्श की सुई अटक जाया करती  है? किस व्यक्ति के विचार क्या हैं ?किसकी आर्थिक नीति क्या है ? कौन किस सामाजिक -सांस्कृतिक और राजनैतिक 'दर्शन' का  विशेषज्ञ और वेत्ता  है ? कौन कैसे मानवीय सदगुणों  और नैतिक मूल्यों से सम्पन्न है?  कौन कैसे  देश और समाज को दिशा देगा ?या समाज में बदलाव के क्रांतिकारी तत्व कौनसे हैं ? क्या  यह सब  आधुनिक मीडिया को  मालूम है ? विभिन्न नेताओं और राजनैतिक दलों की दुनिया के बारे में , पड़ोसी देशों के बारे में और संयुक्त राष्ट्र संघ के बारे में  आधुनिक मीडिया की  क्या सोच है ? विश्व मानचित्र पर बेहतरीन   भारतीय मूल्यांकन  की  विश्वयक  योजनाएं क्या  हैं? क्या यह सब इस दौर के मीडिया को मालूम है ?यदि मालूम है तो   इन लोकहितकारी सवालों पर भारतीय मीडिया मौन क्यों है ? क्या लोकतंत्र के प्रति उसकी जबाबदेही केवल कीचड़  उछालना ही है ?
                          आधुनिक संचार एवं सूचना सम्पर्क क्रांति की बदौलत  इस दौर का मीडिया   समष्टिगत रूप से अत्यन्त  शक्तिशाली हो चूका है। वह  चाहे  तो पिद्दे को वजीर और वजीर को पिद्दा  बना  दे । वह  प्रकारांतर से  शक्तिशाली  शासक वर्ग की नाभि नाल से जुड़ा होने के कारण उनके  ही हितों के बरक्स सोचता  है और वह जो सोचता है वही समाज से सोचने की  फितरत  करता रहता  है । दुनिया में और उसके साथ-साथ भारत में जब आधुनिक साइंस-टेक्नालॉजी , उन्नत  संचार क्रान्ति और लोकतांत्रिक जन-आकांक्षाएं नहीं हुआ करते थीं तब प्रबुद्ध और शिक्षित  समाज  को केवल छप्य  संसाधनों याने 'प्रिंट' माध्यमों  पर ही निर्भर रहना पड़ता था।
 तब साहित्य के रूप में अखवारी - मीडिया  या तो समाज का दर्पण हुआ करता था  या समाज का मार्गदर्शक हुआ करता था। आजादी की लड़ाई में दैनिक प्रताप ,वीर अर्जुन ,पंजाब केसरी ,हरिजन या हिन्द स्वराज जैसे समाचार  पत्र  तो तत्कालीन हुतात्माओं की आवाज थे ही इसके अलावा भी सारा काव्य जगत  और साहित्य जगत राष्ट्रीय चेतना से लेस हुआ करता था। नतीजादेश की आजादी के रूप में सारे संसार ने देखा।  आपातकाल के दौरान भी राष्ट्रीय मीडिया ने जो  महती भूमिका अदा की थी और देश को लोकतंत्र  की  पटरी पर खींचकर लाने में  इसका कितना योगदान था ये   इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों से लिखे जाने योग्य है। भारत-पकिस्तान युद्ध और बांगला देश के उदय के दौरान भी भारतीय मीडिया ने शानदार देशभक्तिपूर्ण साहसिक भूमिका अदा की थी।
                                        किन्तु  शांतिकाल में और  लोकतंत्र में चौथे खम्बे  के  रूप में  यह आधुनिक मीडिया केवल   सत्ताधारी  शासक वर्ग की  उथली आलोचना करता हुआ  ही नजर आता है।  वास्तव में  मीडिया अब   अपने कर्तव्य  बोध से नहीं बल्कि अपने  वित्त पोषक  शासक वर्ग याने 'आकाओं' के हित साधन के प्रयोजन से जाना जाता है। वेरोजगार लडकियां ,जवान लडकियां और लड़के भी मजबूर होकर इस आधुनिक पतनशील व्यवस्था से जुड़ जाते हैं। कुछ चुपचाप शोषण - उत्पीड़न सहते रहते हैं ,कुछ इस अन्याय  का प्रतिकार करते हैं।  यही वजह है कि आसाराम जेल में होते हैं ,नारायण साईं  छुपता फिरता है , अफसर सस्पेंड कर दिए जाते हैं ,नेता-सांसद-विधायक जेल भेज दिए जाते हैं किन्तु  सुप्रीम कोर्ट के जज [सेवा निवृत} पर आरोप लगने और मीडिया के  एक खास शख्स पर नारी उत्पीड़न और दुराचार का आरोप लगने से देश को जबरजस्त 'शाक' लगा है । दुनिया में भारत   की छवि  धूमिल हुई है।  एक सवाल उठ रहा है  कि  जब साधू संत ,न्याय विद ,नेता, सांसद  -विधायक   मंत्री  अफसर,फिल्मकार, खिलाड़ी  और मीडिया दिग्गज नारी उत्पीड़न और यौन -शोषण में लिप्त हों तो आवाम याने आम आदमी को क्या करना चाहिए ?  क्या अब भी कहेंगे कि "महाजनो  ये गता  स : पंथाः ?
                      
                             श्रीराम तिवारी   
                      
           
 

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

वर्तमान मीडिया पर दोहे :-

         वर्तमान  मीडिया पर दोहे :-


                 टी वी चेनल मीडिया ,सचिन क्रिकेट संन्यास।

                 'भारत रत्न 'ब्रह्मास्त्र अब ,कांग्रेस की आस।।


                 सुरा- सुंदरी- सम्पदा,सिस्टम के   गुलफाम।

                  ख़ाक करे वो  'तहलका' , जो खुद नंगा हम्माम ।। 


                  जिन  हाथों में मीडिया ,नैतिकता  के बोल ।

                 तरुण -तेज के कृत्य से  ,खुली ढोल की  पोल।।


                 सब चेनल में छा रहे ,आसाराम एंड  सन्स।

                  इनसे पीड़ित  लड़कियाँ ,भोग रहीं  सब  दंश।।

              
                    मोदी -राहुल -सोनिया ,मनमोहन- शिवराज।

                     दिग्गी- बैनी - बोलते  ,अनचाहे अल्फाज।।


                    छप्य -दृश्य -पठ -मीडिया, पसर चुका चहुँ ओर।

                    प्रतिस्पर्धा क्षितिज पर ,विज्ञापन की भोर।। 


                      पूंजीवादी  मीडिया ,भृष्टाचार का बाप।

                     पीछे  पड़ा जो  'आप' के , वो अन्ना  अभिशाप।।



                                                          श्रीराम तिवारी -

                                                 १४-डी ,एस-४ ,स्कीम -७८

                                                'अरण्य ' विजयनगर। इंदौर।






                  

बुधवार, 20 नवंबर 2013

सचिन का क्रिकेट संन्यास ! बनाम 'भारत रत्न ' की राजनीति !!

      सचिन तेंदुलकर  को दिए जाने  के बाद  तो मानों   'भारत रत्न ' भी धन्य हो गया है  !चार दिन की चांदनी है क्रिकेट का खुमार! देश का मीडिया  फिर अपने 'असली' काम पर लग जाएगा !फिर भी  दुनिया  में जब -जब क्रिकेट कि बात होगी ,जब-जब खेल के मैदान में खिलाड़ी भावना  की चर्चा होगी , जब-जब अपने खेल जीवन से शानदार विदाई और  संन्यास की बात होगी ,सबसे पहले सचिन सुरेश तेंदुलकर ही याद किये जायेंगे।सचिन जिस तरह की विदाई और राष्ट्रीय सम्मान के हकदार हैं वो उन्हें अवश्य ही  नसीब हुआ है ! यह इस उक्ति  की ही याद  दिलाता है कि :-कभी किसी को मुकम्बल जहाँ  नहीं मिलता … कहीं जमीं  तो कहीं आसमां  अन्हीं मिलता ....! यह केवल सचिन ही हैं  जिन्हे सब कुछ मिला है । पैसा ,प्यार , यश और राष्ट्रीय सम्मान  सब कुछ नसीब हुआ। यह सचिन ही हैं कि जिन्होंने दिखा दिया कि कड़ी मेहनत ,ईमानदारी से लाखों -करोड़ों कमाने के साथ -साथ इज्जत भी कमाई जा सकती है। ना  केवल इज्जत कमाई  जा सकती है अपितु बिना लोभ -लालच में पड़े बचाई भी जा सकती है। मुम्बई के बानखेड़े स्टेडियम में अपने जीवन के अंतिम टेस्ट मेच में सचिन भले ही शतक बनाने से  चूक  गए हों ! किन्तु भारतीय प्रशंसकों को गौरवान्वित करने और क्रिकेट प्रेमियों का प्यार पाने  में उन्होंने कभी चूक नहीं की !
          सचिन के  गुरु श्री आचरेकर जी  और मार्गदर्शक संजय जगदाले  जी गर्व कर सकते हैं कि  सभ्रांत लोक के भद्र आचरण और मान्य  सिद्धांतों को आचरण में अंगीकृत करने में उनका परम  शिष्य सचिन  सदा सफल रहा। लक्ष्य के प्रति फोकस,कभी अधीर न होना,अनुशाशन और समर्पण ,विरोधियों का भी सम्मान ,टीम - भावना, निश्छलता और विनम्रता  इत्यादि गुणों के  धनी  सचिन को देश के युवाओं ने शानदार विदाई दी है   !   भारत सरकार ने' भारत रत्न' सम्मान दिया  है  यह भारतीय क्रिकेट को इक्कीस तोपों की सलामी से कम नहीं  और  खेल जगत के लिए  तो यह   स्वर्णिम काल  भी कहा  जा सकता है! जिसके मुख्य शिल्पकार सचिन सुरेश  तेंदुलकर ही हो सकते हैं।  अब यदि  ब्रिटेन की संसद उन्हें कोई ऊँची उपाधि देकर सम्मानित करे तो कोई आश्चर्य नहीं! अमेरिका की सीनेट यदि अपने राष्ट्रीय सम्मान से  नवाजे या आई सी सी  उन्हें किसी खास सम्मान से  सम्मानित करने का प्रस्ताव करती  है तो कोई आश्चर्य नहीं ! ये विश्व सम्मान तो  उनके लिए नज़ीर है जो अपने गरीब  और पिछड़े देश  की अधोगामी आर्थिक -सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था  के दौर   में भी  ईमानदारी और सच्चरित्रता से सफलता की ऊंचाइयों को  छूना  चाहते हैं।  निसंदेह   आगामी   पीढ़ी  सचिन तेंदुलकर से न केवल क्रिकेट के खेल का  बल्कि मानवीय मूल्यों के  अनुशीलन  का पाठ भी सीखना चाहेगी। सार्वजनिक जीवन में शुचिता का अनुपालन कैसे किया जाता है ?यह भी भावी पीढ़ी  को सचिन तेंदुलकर से सीखना चाहिए !
                   वेशक सचिन को 'भारत रत्न' दिए जाने के कुछ  राजनैतिक निहतार्थ भी हो सकते हैं। भृष्टाचार के  विभिन्न  आरोपों, प्रशासनिक  नाकामयाबियों  और कदाचरण की  बदनामियों  से घिरी केद्र की मनमोहन सरकार  की आगामी लोकसभा चुनावों में  महा पराजय की पूरी -पूरी सम्भावनाएं हैं। हालांकि  एनडीए, वाम मोर्चा और तीसरे मोर्चे  सहित सम्पूर्ण  विपक्ष  भी  बुरी तरह  बिखरा हुआ है. उनके पक्ष में भी कोई लहर नहीं है  इसलिए कांग्रेस के 'इंतजाम अली'अभी भी आशान्वित हैं कि यूपीए-३ की सरकार  बनाये जाने की सम्भावनाएं  यदि नहीं भी  हैं तो भी वे एन-केन प्रकारेण  पैदा की जा सकती है ! चूँकि  कांग्रेस को अच्छी तरह मालूम है कि भारत का अधिसंख्य जनमानस भावुक और क्षमाशील है, इसलिए कुछ  सामाजिक ,सांस्कृतिक फ़िल्मी  हस्तियों  क्रिकेट  खिलाडियों  और धर्मनिरपेक्ष शख्सियतों  को अपनी छतरी के नीचे लाकर, कांग्रेस रुपी वृद्ध एवं  मुरझाये वट वृक्ष  में  नयी कोंपलें पनपने  की आशा की जा सकती है। इसी उद्देश्य  से  ये  भारत रत्न,पद्म भूषण या पद्मश्री जैसे  सम्मान  के प्रतीक  याने  तमगे लुटाये जा रहे  हैं !
                         लेकिन 'भारत रत्न' जैसा सर्वोच्च सम्मान  दिए जाने का मतलब सौदेबाजी कदापि नहीं है !  हालांकि  इस सम्मान  में भी  वर्गीय राजनैतिक  हित ,संस्थागत सुरक्षा और  अंतर्निहित भावनात्मक  पक्ष सदाशयता से अवश्य जुड़ा हुआ  हो सकता  है। जिस तरह  संघ परिवार और भाजपा के नेता अक्सर  हिंदुत्व्वादी साधुओं , बाबाओं,सध्ध्वियों  और मठाधीशों  को यों ही साष्टांग दंडवत नहीं करते रहते बल्कि वक्त आने पर  वे उसकी भरपूर कीमत भी वसूलते हैं। जब संसदीय या विधान सभा चुनाव आते हैं तो ये साधू सन्यासियों की फौज भी काम पर लग जाया  करती है।रामदेव ,आसाराम ,रविशंकर और अशोक सिंघल यों ही अपनी जिदगी नहीं खपा रहे हैं। ये सभी  संघ परिवार के गैर पेशेवर राजनेतिक कार्यकर्ता और परोक्ष 'काडर ' हैं।  इसी तरह कांग्रेस सिर्फ उतनी ही नहीं है जितनी प्रतिपक्षियों को नजर आती है ,बल्कि उसका रूप और आकार उसके 'वर्ग चरित्र' और इतिहास के अनुरूप अदृश्य रूप से फैला  हुआ है। भले ही उसमें संगठन स्तर  पर 'फ्री एंड फेयर डेमोक्रेटिक फंक्शनिंग' का अभाव है किन्तु उसका शीर्ष  नेतत्व दुनिया के सर्वाधिक शक्तिशाली नेतत्व में शुमार किया जाता है।
                                           कांग्रेस का  उसका अंदरूनी सहयोगी ताना -बाना बिखरा हुआ  है । लेकिन   जब -जब कांग्रेस पर संकट आया है ,उसके  बौद्धिकों ने अतीत में  यही सब किया है ! कभी मुस्लिम उत्थान, कभी दलित उत्थान  ,कभी गरीबी हटाओ , और कभी  'हो रहा भारत निर्माण ' के सहारे केंद्र की सत्ता में कांग्रेस जो  अब तक  जमी हुई है उसका एक महत्वपूर्ण काऱण उसका यही  संवेदनात्मक चुनावी  व्यवस्थापन   भी है ।  चूँकि इस दौर में  संचार और सूचना प्रौद्द्गिकी के चलते,  युवा जन-चेतना में  आकांक्षाओं की सुनामी  ने विराट रूप धारण किया हुआ  है ,इसलिए कांग्रेस को कुछ  नए और आकर्षक भावनात्मक  हथकंडों की तलाश  है. चूँकि   आगामी चुनावों में , सत्ता प्राप्ति  में सम्भावित  २-३ प्रतिशत मतों  के आ रहे अंतर को  पाटने की मशक्कत के लिए सभी राजनैतिक -गैर राजनैतिक उपाय आजमाए जा रहे हैं । जिसमें 'भारत रत्न ' जैसा  अमोघ अश्त्र भी शामिल है।  कांग्रेस के रणनीतिकारों की सोच है कि  कुछ ऐंसा किया जाए कि खिसकते जनाधार  को स्थिर किया जा सके। बाकी  का काम तो उसकी  धर्मनिरपेक्षता  की पगड़ी ,परम्परागत जनाधार का जामा और राष्ट्रव्यापी 'सेट-अप' के अश्त्र-शस्त्र  से हो ही जाएगा।
                                                 इसीलिए एन आम चुनावों  की पूर्व वेला में  और पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों के दरम्यान , कांग्रेस और यूपीए ने ब्र्ह्मास्त्र के रूप में श्रेष्ठ क्रिकेटर  सचिन तेंदुलकर को  और देश के शीर्ष वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर चिंतामणि नागेश रामचंद्रन राव  को  'भारत रत्न'  प्रदान  किया है। इस राष्ट्रीय  सर्वोच्च नागरिक  सम्मान द्वारा इसकी स्थापना से लेकर अब तक दर्ज़नों लोग महिमामंडित किये जा चुके हैं. किन्तु  सचिन को सम्मान दिए जाने के बाद इस सम्मान की चर्चा अब  हर उस गली मुह्ह्ल्ले में हो रही हैं जहां  छोटे-छोटे  बच्चे भी  टूटी -फूटी  ईंट के विकेट और कबाड़ के बल्ले से क्रिकेट खेला करते  हैं।  कभी -कभी लगता है कि 'भारत रत्न'  के सम्मान ने सचिन को सम्मान दिया है या कि सचिन को दिए जाने पर 'भारत रत्न' गौरवान्वित हो रहा है।केंद्र की यूपीए सरकार ने सचिन को सम्मानित कर कुछ तो राजनैतिक बढ़त हासिल की  है।
                                        प्रोफैसर रामचन्द्रन  राव जो  पहले से ही प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार  हैं और  "सॉलिड स्टेट एंड मटेरियल्स केमिस्ट्री "के अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांतकार भी रहे  हैं । उन्हें भारत रत्न देकर यूपीए-२ और केंद्र सरकार ने निसंदेह 'भारत रत्न' का  ही मान  बढ़ाया है। यह सम्मान मिलने पर प्रोफ़ेसर रामचंद्रन राव अपनी प्रतिक्रिया देने में ज़रा  गच्चा  खा  गए।  किन्तु  सचिन तेंदुलकर को 'भारत रत्न'  दिए जाने से  उन्हें  कोई  घमंड या श्रेष्ठता का दम्भवोध नहीं  व्याप सका।  सचिन को 'भगवान्' मानने वालों से मुझे  बेहद चिड़  है किन्तु जब  सचिन के सम्पूर्ण व्यक्तित्व ,क्रिकेट से परे मर्यादित आचरण,विनम्रता  और भारतीय मूल्यों के प्रति आस्था देखता हूँ तो मन  कहता है कि क्या  सचिन मर्यादा पुरषोत्तम नहीं है ?जिस सचिन ने १५ साल की उम्र में अपने देश में और १७ साल की उम्र में तमाम 'राष्ट्रमंडल ' देशों में धूम मचा दी  जिस सचिन ने क्रिकेट जगत के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए , जिस सचिन ने सैकड़ों बार भारतीय क्रिकेट टीम को संकट से उबारा ,जिस  सचिन ने कभी किसी दाऊद  के आगे सर नहीं झुकाया , कभी किसी सटोरिये को घास नहीं डाली, कभी किसी मेच फिक्सिंगः का हथकंडा नहीं  अपनाया वो सचिन क्या वास्तव में आम आदमी से कुछ ऊपर नहीं है ? यदि किसी को  क्रिकेट में या फिल्मों में एक -दो चांस मिल जाएँ और खिलाड़ी या हीरो कुछ जम जाए तो आसमान में उड़ने लगता है। लड़का है तो शरीफ लड़कियों को बर्बाद करने  के लिए हरामीपन की हद तक चला जाता है.लड़की है तो अमेरिका ,इंग्लेंड, पाकिस्तान या दुबई में रंगरेलियां मनाने पहुँच जायेगी।  किन्तु सचिन ने अपने माँ-बाप और कुल खानदान का नाम तो रोशन किया ही साथ ही भारतीय पारम्परिक मर्यादाओं का मान रखा इसलिए वे यदि 'कुछ लोगों  के लिए 'भगवान्' हैं तो  गलत नहीं !
                            सचिन के फेन हम जैसे  क्या खाक होंगे जो क्रिकेट का ककहरा भी नहीं जानते।  किन्तु हमें फक्र है कि  हम सचिन  के समकालीन हैं ,सचिन के  व्यक्तित्व  और कृतित्व के साक्षी हैं।  हम जिनके  चेले  रहे  हैं वे प्रभाष जोशी भी सचिन  को 'भगवान्' ही मानते थे। वे सचिन के शानदार प्रदर्शन और सचिन की  बेहतरीन खेल भावना के  कारण ही क्रिकेट के दीवाने हो गए थे। यह सर्वविदित है कि सचिन का  क्रिकेट देखते-देखते ही  प्रभाष जोशी   इस संसार से विदा हो गए थे। हम यदि  कभी -कहीं सचिन तेंदुलकर  की लफ्जों से कुछ तारीफ़ कर रहे होते हैं तो लगता है कि  हम कोई 'देशभक्तिपूर्ण कार्य' कर रहे हैं । सचिन होना याने भगवान् होना  भले ही  अतिश्योक्तिपूर्ण  हो किन्तु सचिन होना  वास्तव में देशभक्तिपूर्ण होना  तो अवश्य  है।
                            सचिन को भारत रत्न दिए जाने  के बाद  न केवल राजनैतिक फ़तवेबाज़ी शुरूं हो गई है   बल्कि  देश और दुनिया में  इस सन्दर्भ में भारी मतभेद  भी उभरकर सामने आये हैं । ये मतभेद सचिन की लायकी या  उनकी योग्यता के परिप्रेक्ष्य में कम  किन्तु केंद्र की मनमोहन सरकार के 'नेक' इरादों के संदर्भ में ज़रा  ज्यादा   ही उमड़ -घुमड़ रहे हैं।कुछ लोगों को लगता है कि  पहले राज्य सभा में भेजकर और अब 'भारत रत्न' से सचिन को सम्मानित कर कांग्रेस ,राकपा  और यूपीए ने राजनैतिक बढ़त हासिल की है।  कुछ लोगों को लगता है कि प्रधानमंत्री  डॉ मनमोहनसिंह और केंद्र सरकार ने  इस दौर के क्रिकेट प्रेमियों ,खेल प्रेमियों ,युवाओं और सचिन प्रेमियों  को लुभाने और मतदाताओं का  दिल जीतने की बेहतरीन  कोशिश  की है. यदि यह सच भी है तो इसमें  क्या गलत है ? क्या अच्छे और महान लोगों को राजनीति  से जोड़ना कोई गलत बात है ?क्या सचिन  के राजनीती में आने से देश को खतरा है ? यह जरूरी भी नहीं की सचिन सक्रिय  राजनीति  में उतरेंगे ही । फिर भी कांग्रेस ने यदि सचिन को आनन्-फानन यह सम्मान  दिलाया है तो कुछ तो उम्मीद की  ही  होगी! कांग्रेस की इस आशावादिता में बुरा कुछ नहीं है।  हो सकता है कि  सचिन रुपी  एक बूँद अमृत से मृतप्राय कांग्रेस पुनर्जीवित  हो उठे। यदि सचिन जैसे अच्छे लोग राजनीति  में आयेंगे तो क्या देश का भला नहीं होगा ?  कांग्रेस को फायदा होने की आशंका  से भाजपा ,मोदी और संघ परिवार भी सचिन को 'भारत रत्न' दिए जाने का लगे हाथ  स्वागत  कर रहे हैं । किन्तु  दबी  जुबान से  यह भी कहा जा रहा है कि अटलजी को   भी भारत रत्न दिया जाना चाहिए था । उनकी इस मांग पर गौर किया जाये तो सूची बहुत लम्बी हो जायेगी। क्योंकि अटलजी से बड़े दीनदयाल उपाध्याय थे ,उनसे बड़े स्यामाप्रसाद मुखर्जी थे ,उनसे बड़े गोलवलकर  थे और उनसे भी  बड़े हेडगेवार थे। उनसे भी  बड़े बाजीराव  पेशवा थे ,उनसे भी  बड़े छत्रपति  शिवाजी थे ,उनसे भी  बड़े समर्थ  रामदास  थे । उनसे बड़े महाराणा  प्रताप  थे ,उनसे बड़े कृष्ण थे ,उनसे बड़े श्रीराम थे और उनसे भी  बड़े उनके पिता  दशरथ थे। उनसे बड़े उनके बाप'अज' थे ,उनसे भी  बड़े उनके बाप दिलीप थे और  उनसे बड़े उनके बाप रघु थे।  इन सबसे बड़े इनके  गुरु वशिष्ठ थे. ये सभी एक बार  नहीं लाख बार 'भारत रत्न' के हकदार हैं कि नहीं ?  अब बोलो इन सबको कब कहाँ 'भारत रत्न दिया जाए ?
                           वेशक !  खेलों में हाकी के जादूगर दद्दा  ध्यानचंद को भारत रत्न देने की मांग करने वालों  का मैं भी समर्थक हूँ। लेकिन मुझे  मालूम है कि सूरज को किसी की उधार  रौशनी  नहीं चाहिए । ध्यानचंद  तो भारत रत्न से भी महान हैं।  आजकल के खिलाड़ी भले भी वे कितने ही महान क्यों न  हों! महानतम  खिलाड़ी ध्यानचंद की बराबरी नहीं कर सकते! फटे  जूतों  में ,गुलाम राष्ट्र का क्रांतिवीर ध्यानचंद जब जर्मनी में १५-अगस्त १९३६ के रोज हॉकी के मैदान में गोल पर गोल दागता है और  दर्शक  दीर्घा से एडोल्फ  'हिटलर ' भी ताली बजाने को मजबूर हो जाता है तो मेरे रोम-रोम में सिहरन उठती है ! अंतःकरण   से आवाज आती है कि -  'मेजर ध्यानचन्द अमर रहे  ! मेजर ध्यानचंद -जिन्दावाद !!  तुम पर लाखों 'भारत रत्न' निछावर !!
                             राजनैतिक नफ़ा -नुक्सान के आधार पर  सरकार की सोच  हो सकती है कि  महान हाकी खिलाड़ी मेजर  ध्यानचंद  को सम्मान देने  से  शायद केंद्र की  सत्तारुढ़  गठबंधन सरकार को  कोई राजनैतिक फायदा नहीं  होगा। लेकिन यदि  वह मेजर ध्यानचंद को सचिन से पहले 'भारत रत्न '  दे देती  तो न केवल राजनैतिक फायदा होता बल्कि   यूपीए-२   और  मनमोहन सरकार इतिहास में अमर हो जाती। खैर  इस संदर्भ में  खेल मंत्री और केंद्र  सरकार ने अभी तक  जितनी कोशिश की है और शायद आगे वो अपनी भूल सुधार कर भी ले तो भी अब तो यही कहा जा सकता है कि 'रहिमन फाटे दूध का माथे न माखन होय' !
                          चुनावी वर्ष में  वेवक्त  'भारत रत्न' या अन्य सम्मान पदक प्रदान करने या लाभ के किसी  पद पर किसी व्यक्ति को बिठाने से यह कहना मुश्किल है कि आगामी लोक सभा चुनाव में  इससे कांग्रेस ,राकपा और यूपीए को कितना राजनैतिक फायदा  होगा? इसी उद्देश्य के मद्देनजर  यूपीए सरकार ने  प्रख्यात  फ़िल्म  गायिका लता  मंगेशकर को भी 'भारत रत्न' दिया था  और उम्मीद भी  लगा रखी  थी  कि  कांग्रेस और यूपीए को लता  जी से  कुछ राजनैतिक लाभ याने आशीर्वाद  अवश्य  ही   मिलेगा ।  किन्तु  राजनैतिक ज्ञान से शून्य   लता जी ने  कांग्रेस को कोई खास महत्व नहीं दिया। उन्होंने जब  अपने चरणों में साष्टांग दंडवत कर रहे मोदी को  'प्रधान मंत्री  भव ' कहा तो कांग्रेसी खेमे में   बैचेनी होना स्वाभाविक थी। उस बैचेनी का परिणाम जल्दी ही सामने आ गया और सचिन तेंदुलकर 'भारत रत्न' हो गए।  हालाँकि लता  का मोदी को दिया गया  यह आशीर्वाद भारतीय परम्परा का एक  प्रतीक मात्र है। भारतीय परम्परा में बड़े-बूढ़े इस तरह का आशीर्वाद तो दुश्मनों को भी दे देते हैं. वशर्ते वो दुश्मन 'शरणम् गच्छामि' हो चूका हो !लोग यह भी कहते नहीं चूकते कि  कांग्रेसियों को सिर्फ एक परिवार[गांधी परिवार] की चिरोरी करना  ही आता है. इसलिए  अन्य माननीयों,भारत रत्नों ,परम वीर चक्र - धारियों  को संभालने का उन्हें वो हुनर नहीं आता जो संघ परिवार का पसंदीदा शगल रहा  है। कहा जा रहा  है कि लताजी ने भारत रत्न को खूंटी पर टांगकर कांग्रेस को चिढ़ाने की कोशिश की है।कांग्रेस के जिन 'समझदारों' ने लता  मंगेशकर को 'भारत रत्न ' दिए जाने की सिफारिश की होगी उन्हें अपने किये पर पछतावा हो रहा होगा।
                                     कुछ लोगों का कहना  है कि  लता  जी राजनैतिक समझ बूझ से दूर हैं और भोलेपन या वातसल्य वश  ही उन्होंने मोदी को "प्रधानमंत्री  भव  ''  का आशीर्वाद दे डाला होगा! अब लाख  टके  का सवाल ये है कि क्या 'भारत रत्न ' देना एक राजनैतिक  सौदेबाजी है ? क्या सरकार सम्मान मुँह  देखकर देती है ? यदि हाँ! तो जिसे  तोका  गया वो तो धोखा दे गई ! यदि न कहते हो तो ! फिर  लता  जी ने  नरेंद्र मोदी को आशीर्वाद क्यों दिया ? यदि कोई ये विचार रखता है कि इसमें राजनीति कहाँ से घुस आई ? तो  ऐंसे तटस्थ व्यक्ति को साधुवाद !उसे  चाहिए कि  लता जी को जाकर कहे कि दीदी आप तो सबकी हैं !देश की हैं ! हिंदु-मुसलमान- सिख -ईसाई -जैन-बौद्ध और पारसी -सबकी हैं !  फ़िल्म जगत की  पूँजी हैं! एक भारतीय आत्मा हैं  ! आपको क्या पडी कि कहने लगीं आ बैल  मुझे मार!  यानि फ़ोकट में बोल दिया कि  'नमो' प्रधान मंत्री भव ! अब  कांग्रेस को ,शिव सेना को और राकापा याने शरद पंवार को आशीर्वाद देने से मना कर पाएंगी क्या ? नहीं ! बल्कि  सोनियाजी,राहुल गांधी, मनमोहनसिंह ,नीतीश ,मुलायम  सीताराम येचुरी ,मायावती  या वृंदा कारात  भी   लताजी को नमन करेंगे तो उन्हें भी शायद  यही आशीर्वाद मिलेगा कि  'प्रधान मंत्री  भव् ' ! वशर्ते लताजी को  एडवांस सूचित कर दिया जाए  कि  किसकी क्या ख्वाइश  है ?जैसा की मोदी समर्थकों ने इंतजाम किया कि  उनकी यह पवित्र[?] अभिलाषा है। जबसे लताजी ने मोदी को आशीर्वाद दिया  है  तभी  से कांग्रेसी खेमें में यह कोशिश चल रही थी कि  महाराष्ट्र में किसी  दूसरे गैर पेशेवर राजनैतिक व्यक्तित्व  के बहाने डेमेज कंट्रोल किया जाए। कोई ऐंसा नाम   उभारा  जाए जो  लता  मंगेशकर की चमक से भी ज्यादा आकर्षक हो।  सचिन इस शर्त को पूरा करने के लिए बेहतर विकल्प सावित हुए !
                           चूँकि  इस दौर में  क्रिकेट प्रेमियों के दिलों में भगवान् बन चुके सचिन तेंदुलकर  का  अपने क्रिकेट जीवन से संन्यास लेने  का भी  ऐलान किया जाना प्रस्तावित   था।  अतः इस मौके पर स्वयं कांग्रेस  उपाध्यक्ष  राहुल गांधी ने  मुम्बई के  बानखेड़े स्टेडियम पहुंचकर न केवल सचिन का हौसला आफजाई किया अपितु उनके कान में यह बात भी एडवांस में डाल  दी कि अब आप  भी  'भारत रत्न' होने जा रहे हैं।बधाई!  राहुल और कांग्रेस  की यह सकारात्मक किन्तु सकाम चेष्टा भविष्य में क्या अवदान देगी  इसका आकलन करना कठिन नहीं है. किन्तु यह राजनैतिक विमर्श का विषय जरुर  है.  इस आलेख की अंतर्वस्तु  का अभिन्न अंग होते हुए भी इसे यहाँ उल्लेखित कर पाना आलेख के कलेवर की  दॄष्टि  से सम्भव नहीं है।चूँकि भारत रत्न  या कोई  मानद उपाधि शासक वर्ग द्वारा तभी दी जाती है जब वो व्यक्ति विशेष न केवल उसके काबिल हो बल्कि अपने  सम्मान प्रदाताओं के प्रति कृतज्ञता का भाव भी  रखता हो ! ये मानद  उपाधियों की चोंचलेबाजी  हम भारतीयों को ही नहीं बल्कि उन तमाम राष्ट्रों को जो कामनवेल्थ के पुछल्ले याने ब्रिटिश साम्राजयवाद के भूतपूर्व गुलाम हैं- उन सभी को अपने अंग्रेज हुक्मरानो से विरासत में मिली है। जो लोग आजादी के बाद  इस भारत रत्न या अन्य पदकों के लिए लालायित हैं वे समझ लें कि ये ब्रिटिश राज में सर ,सेठ,नगरसेठ,लम्बरदार , रायबहादुर  ,राजा ,नाइट,प्रिंस आफ फलाँ -फलाँ और प्रिंसेस आफ फलाँ -फलाँ  इत्यादि  लालीपापों से नवाजे जाते थे। ताकि तत्कालीन लुटेरे शासक वर्ग के हाथों की कठपुतली बनकर वफादारी सावित करते रहेंऔर  अपने ही हमवतन साथियों पर जुल्म और अन्याय कर सकें। देश के साथ गद्दारी कर सकें।  किसी -किसी को तो अपने ही देश के मेहनतकश  लोगों को जान से मार डालने की भी  छूट थी।  याने 'तीन खून माफ़' नामक पदवी भी प्राप्त  हुआ करती  थी।  ये पदक खास तौर से  पूंजीपतियों ,सामंतों और  उन हिन्दुस्तानियों को दिए जाते थे जो  ब्रिटिश साम्राज्य के  पालतू हुआ करते थे। ये पदक और मानद उपाधियाँ  शहीद भगत सिंह ,चंद्रशेखर  आजाद ,बिस्मिल ,सुभाष चन्द्र बोस , पंडित नेहरू , मौलाना आजाद ,सरोजनी नायडू या  महात्मा गांधी को नहीं बल्कि कौम के गद्द्दारों  को  दिए जाते थे । फौजी सम्मान भी उन्हें ही दिए जाते थे जो देश और दुनिया  में अंग्रेज कौम के लिए अपनी जान देते थे।  आजाद भारत  के अधिकांस पदक ,सम्मान और प्रतीक चिन्ह - भारत रत्न ,पदम् विभूषण ,पदमश्री  इत्यादि सभी खटराग   गुलाम  भारत  की परम्पराओं के आधुनिक  भारतीय संस्करण मात्र हैं। इनके मिलने या न मिलने से किसी बेहतरीन व्यक्तित्व  की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ता ! फिर भी सरकार और समाज की अभिरुचि को प्रकट करने के माध्यम तो ये अवश्य हैं !
                                वेशक ! महाराष्ट्र और मुम्बई ही नहीं सम्पूर्ण भारत  में तो  क्रिकेट के हीरो  सचिन ही  हैं।  वे किसी भी राष्ट्रीय क्या अंतर्राष्ट्रीय सम्मान के हकदार हैं। इसीलिये यदि सरकार ने उन्हें भारत रत्न से नवाजा है तो यह उसका  एक शानदार कदम है। सचिन को  न केवल भारत में  ,न केवल राष्ट्रमंडल देशों में   बल्कि इंग्लेंड ,अमेरिका और ब्राजील समेत सारी  दुनिया  में भी वाहवाही मिल रही है। क्रिकेट की लोकप्रियता और उसकी अनुगूँज  जहाँ  - जंहाँ  तक है सचिन तेंदुलकर के करिश्माई  व्यक्तित्व और  क्रिकेट में उनके द्वारा स्थापित किये गए कीर्तिमानों की धूम भी  वहाँ-वहाँ  तक मची हुई  है।  वेशक  सचिन   से भी कई भूलें और चूकें हुईं होंगी ,कुछ  प्रतिष्पर्धी  ,मित्र और क्रिकेट से जुड़े   लोग या  साथी खिलाड़ी नाराज भी रहे  होंगे। हो सकता है सचिन राजनीती में आये और  मुक्केबाज मुहम्मद अली , क्रिकेटर इमरान खान ,हॉकी खिलाड़ी असलम, शेरखान या फुटवालर - मेराडोना  की तरह असफल हो  कर गुमनामी के  अँधेरे में को जाएँ ! हो सकता है कि   उन्हें मिले भारत रत्न से किसी को ईर्षा या  दुःख भी पहुंचा हो! किन्तु यह नितांत सत्य है कि सचिन ने शायद ही  कभी  जान बूझकर  किसी के साथ  कोई गलत  व्यवहार   किया  हो ! उन्होंने क्रिकेट के मैदान में मानवीय मूल्यों को  परवान  चढ़ाया,अपने व्यक्तित्व्  को काजल की कोठरी में भी दागदार होने से बचाया। सचिन का   यह अवदान मानवता के लिए चिर स्म्रणीय  रहेगा । सचिन का  क्रिकेट जीवन  से सन्यास  अभी तो सिर्फ एक अल्प विराम है ,अभी तो उन्हें राष्ट्रीय पटल पर  देश हित में पूरा पेज लिखना है !उम्मीद है वे इसमें भी खरे उतरेंगे ! आमीन !
                          
  श्रीराम तिवारी        

सोमवार, 18 नवंबर 2013

मध्यप्रदेश में चुनावी घमासान !सड़क, बिजली और विकाश के दावे झूंठे !

       



मध्यप्रदेश में  नई  सरकार १२-१२ -२०१३ को बनेगी। २५ नवम्बर -२०१३ को वोट पड़ेंगे।  ८ दिसंबर को  चुनाव परिणाम आयेंगे याने उम्मीदवारों के  भविष्य का फैसला होगा। सट्टा  बाजार की ताकतें बता रहीं हैं कि वेशक कांग्रेस और भाजपा का  मुक़ाबला  टक्कर का है , किन्तु  भाजपा की सम्भावनाएं फिर भी ज्यादा हैं । मध्यप्रदेश में कई जगहों पर मुकाबला सीधा नहीं है ,प्रदेश  में ३६ सीटें ऐंसी  हैं जहाँ भाजपा और कांग्रेस की नींद उड़ चुकी  है. यहाँ तीसरे मोर्चे -बसपा,सपा,माकपा, भाकपा ,गोंगपा  जदयू और भाजपा -कांग्रेस के  विद्रोही ताकतवर उम्मीदवार फैसला  करेंगे कि मामूली अंतर से वे  या तो स्वयं  जीत सकते हैं या  भाजपा और  कांग्रेस में से  किसी का भी  सूपड़ा -साफ़ कर सकते हैं । भाजपा के एकतरफा विज्ञापनों में उसके दस साल बनाम कांग्रेस के पचास साल का प्रचार किया जा रहा है। लगता है  कि मोदी की  तरह ही  शिवराज का सामान्य ज्ञान भी लचर और उथला ही है । इसीलिये वे मोदी के  गुजरात मॉडल की तरह केवल दुष्प्रचार में संलग्न हैं।  वे अपने गुरु सुंदरलाल पटवा,कैलाश जोशी ,वीरेन्द्रकुमार सकलेचा और 'जनसंघ' के दौर की संविद सरकार  के  संघर्षशील  कार्यकाल सहित  लगभग १७ सालों  को या तो जान बूझकर विस्मृत कर रहे  हैं, या फिर बाकई शिवराज को मध्यप्रदेश के राजनैतिक इतिहास का ज्ञान ही  नहीं है। जिन  दस सालों  का बखान करने  करने के लिए ,चुनावी दुष्प्रचार में - मध्यप्रदेश में शिवराज द्वारा जनता का  करोड़ों रुपया  पानी की तरह बहाया जा रहा है वो सब कुछ तो जमीन पर सबके सामने  बयाँ  हो  रहा है।
           भले ही शिवराज और भाजपा बार-बार  दिग्विजय सिंह के  नकारात्मक दस साल वाले कार्यकाल को  याद  कराते हुए उन्हें 'वंटाढार ' निरूपित कर रहे हों किन्तु वे प्रकारांतर से दिग्विजय सिद्धांत -
             "चुनाव तो मेनेज करके जीते जाते हैं काम करके नहीं''
         पर ही चल रहे हैं। तभी तो दनादन सैकड़ों घोषणांए ,हजारों शिलान्याश ,और लाखों वादे आनन फानन किये जा रहे हैं। जनता में फुसफुसाहट है कि जो  दस साल में नहीं कर पाये  वो  अब क्या खाक करेंगे।  केवल केंद्र सरकार की असफलता या सब्जियों की महंगाई का ही  सहारा है। इसके अलावा मध्यप्रदेश में  सत्ता पक्ष  के  एंटीइनकम्बेन्सी  फेक्टर को डायलूट करने के लिए 'आरएसएस' का जबर्दस्त नेटवर्क भी  है। ढपोरशंख प्रचार माध्यम ,जरखरीद मीडिया और ढेरों विज्ञापन चीख -चीख कर  बता रहे हैं कि  शिवराज सरकार के पास उपलब्धि के नाम पर रुसवाई और असफलताओं  के अलावा कुछ नहीं है।
                         चूँकि कांग्रेसी आपस में सर फुटौवल में लिप्त हैं , चूँकि उनका दिग्गी राज भी निराशाजनक रहा था  इसलिए भाजपा की उम्मीदें बरकरार हैं। बची - खुची कसर केंद्र सरकार याने - डॉ मनमोहन सिंह की यूपीए -२ सरकार ने भी  पूरी कर  ही दी है। याने  भाजपा  और शिवराज की तमाम नाकामियों और बदनामियों के वावजूद मध्यप्रदेश में कांग्रेस की  वापिसी अभी तक तो दूर ही लग रही है। मध्यप्रदेश में भाजपा की हालत कितनी पतली है यह  भाजपा वाले भी बखूबी जानते हैं। दो उदाहरण काफी हैं शिवराज और  उनकी सरकार की  विकाशवादी  असलियत बताने के लिए :-

घटना -एक :-
                       श्रीमती सुषमा स्वराज   १७ नवम्बर को ग्वालियर के भितरवार  क्षेत्र में चुनावी आम सभा अटेंड  करने पहुँची।  हेलीकाप्टर के अलावा जितनी देर वे जमीन पर या  कार  में सड़क पर चलीं उतनी देर तक  न केवल  गढ्ढों को कोसती रहीं अपितु  मन ही मन  शिवराज सरकार  और मध्यप्रदेश  के  लोक निर्माण विभाग  को  ही कोसतीं  रहीं।  वे मंच पर शिवराज सरकार को विकाश की सरकार ,गरीबों की सरकार,कन्याओं भानजे-भांजियों की सरकार, किसानों की मजदूरों की सरकार  न जाने किस किस की  सरकार बताती  रहीं ,किन्तु जब मंच से उतरकर  कार में  बैठीं  तो कराह उठीं।  वे अपनों से ही छुब्ध लग रहीं थीं।  शायद अपने असत्य कथन पर शर्मिन्दा भी होतीं होंगी ! क्योंकि मध्यप्रदेश में सड़कों कि हालत जितनी बुरी है उतनी दुर्गति   तो  बिहार ,यूपी या राजस्थान में  भी नहीं है।सड़कों के बड़े-बड़े  गड्ढे  सुषमाजी को सपने में भी दो-चार दिन तक दिखाई  देंगे ही । वशर्ते वे किसी सड़क दुर्घटना का शिकार न हो जाएँ। ईश्वर  करे वे सही सलामत दिल्ली पहुंचें। क्योंकि  देश को उनकी  सेवाओं की बहुत जरुरत है ,खास तौर  पर तब, जब कि आगामी लोक सभा चुनाव में यदि एनडीए अलायंस ने   मोदी को समर्थन देने के बजाय भाजपा से किसी सेकुलर  चेहरे की मांग कर डाली तो सुषमा जी से  बेहतर-धर्मनिरपेक्ष  चेहरा भाजपा और संघ परिवार में  कौन हो सकता है ? लेकिन यदि मध्यप्रदेश में या केंद्र में भाजपा को शिकस्त मिली तो  उसमें   शिवराज का झूंठा   विकाशवादी वितंडावाद , करप्शन, मध्यप्रदेश में सड़क-बिजली -पानी का अभाव  और क़ानून व्यवस्था की खस्ता हालत  जरुर याद की जायेगी ! नमूने के तौर  पर  ही इन  घटनाओं का एडवांस जिक्र  किया जा रहा है ताकि भविष्य में काम आ सके !

 घटना -दो :-

            मध्यप्रदेश  भाजपा के भूतपूर्व अध्यक्ष -राज्य सभा सांसद  श्री प्रभात झा इंदौर के पास देपालपुर में  भाजपा की चुनावी  आम सभा को सम्बोधित कर रहे थे।  रात के नौ बज चुके थे। हल्की -हल्की ठण्ड पड़ने लगी  तो लोग इधर -उधर खिसकने लगे।  देपालपुर में कांग्रेस के कद्दावर नेता सत्यनाराणयन  पटेल का वहाँ वर्चस्व होने से भाजपा की आम सभा में  श्रोताओं का  पहले से ही टोटा  था। चूँकि भाजपा पैसे वालों की  और व्यापारी वर्ग की पसंदीदा  पार्टी है इसलिए यह चुनावी आम सभा  भी बीच बाजार में ही रखी गई  थी।  आचार संहिता के खौफ से सभी वक्ता अपना -अपना भाषण  जल्दी -जल्दी समाप्त कर रहे थे।  प्रभात झा  प्रमुख वक्ता थे। प्रभात जी ने अपने सम्बोधन में केंद्र सरकार की नाकामियों और शिवराज सरकार की अनेक उपलब्धियां  गिनाईं। उन्होंने  राज्य सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों को  बखूबी रेखांकित किया और कहा कि शिवराज सरकार ने ये किया! वो किया !  हालाँकि  सब जानते हैं कि ये शिवराज ही थे जिन्होंने प्रभात झा को बड़ी बेरहमी से अपमानित कर 'अध्यक्ष ' पद से महरूम  करवाया  था। फिर भी प्रभात झा शिवराज का गुणगान करते हुए  जब बोलने लगे  कि शिवराज ने मध्यप्रदेश में २४ घंटे बिजली की आपूर्ती  का वादा पूरा किया है  ,ठीक तभी बिजली चली गई !  बिजली जो गई तो  एक घंटे तक नहीं आई। तब तक रात  के दस बज चुके थे याने आदर्श आचार संहिता का खौफ सर चढ़कर बोलने लगा ! फिर सभा विसर्जित हो गई !प्रभात जी  भी वही अनुभव  कर  रहे होंगे! जो  सुषमा जी ने ग्वालियर में अनुभव किया होगा ! शिवराज भी अनुभव कर रहे हैं तभी तो चुनाव जीतने के लिए धरती आसमान एक किये हुए हैं।      

                    मैं  मध्यप्रदेश के इंदौर शहर के जिस क्षेत्र में रहता हूँ  वहाँ के भाजपा  नेता-दो नंबरी कहलाते हैं। यह  द्विअर्थी सम्बोधन है जो आलोचकों को और  प्रशंसकों -दोनों को ही भाता है। वास्तव में यह  क्षेत्र कांग्रेस के कार्यकाल के दौरान -मिल क्षेत्र कहलाता था। यहाँ कामरेड होमी ऍफ़ दाजी के नेत्तव में  वाम मोर्चे का वर्चस्व था। गुलजारीलाल नंदा,वी वी द्रविण,रामसिंह भाई   और इंटकइयों  ने मिल मालिकों से मिलकर कम्युनिस्टों को  लगभग खत्म कर दिया था ।  यह  क्षेत्र १० साल पहले धूल ,धुँआ ,धुंध और अपराधों के लिए जगतविख्यात था।  यहाँ श्रमिक वर्ग की कच्ची  चालें याने गंदी बस्तियाँ  हुआ करती थी । मजदूर पुत्र किन्तु 'संघनिष्ठ' कैलाश विजयवर्गीय  जब पहली बार महापौर बने तो उन्होंने इस क्षेत्र को विकाश के रास्ते आगे बढ़ाने की कोशिश की।  स्वाभाविक है कि उनका और उनकी मण्डली का भी खूब 'विकाश' हुआ है।  विगत १० साल में  उनकी टीम ने इस क्षेत्र को मध्यप्रदेश में अव्वल बना दिया है। चौतरफा विकाश हुआ और यह क्षेत्र  भू माफिया रियल स्टेट ,हवाला  घोटाला,पेंसन घोटाला ,ह्त्या -लूट डकेती और बलात्कार  में  भी अव्वल  हो गया।  इस क्षेत्र का महत्व इस उदाहरण से आंका जा सकता है कि भारत के सबसे बड़े पूँजीपति  याने मुकेश अम्बानी और उनकी धर्मपत्नी नीता अम्बानी ने इसी  क्षेत्र में - इंदौर विकाश प्रधिकरण से  एक बड़ा भूखंड २६७ करोड़ में  खरीदा है। 
                                इस  महानगर के नौ विधान सभा क्षेत्रों  में से  -विधान सभा क्षेत्र क्रमांक -दो  की महिमा  सारे जग से न्यारी है। यहाँ भाजपा अजेय है। यहाँ रमेश मेंदोला,मुन्नालाल यादव,चंदू शिंदे,सुरेश करवड़े और सूरज कैरों जैसे दिगज नेता निवास  करते हैं।  इन सबके उस्ताद और गुरु  'दवंग' नेता कैलाश विजयवर्गीय जी  ही  हैं। वे पहले पार्षद ,फिर   विधायक -महापौर   हुआ करते  थे। अब  मध्यप्रदेश की केविनेट में वे विगत १० साल से नंबर -दो पर हैं।विगत २००८ के विधान सभा चुनाव में उन्होंने अपने  विधान सभा क्षेत्र क्रमांक -दो से  अपने 'पट्ट शिष्य' रमेश मेंदोला को  चुनाव लड़ाया था जो मध्यप्रदेश में सर्वाधिक वोटों से जीतकर विधान सभा में पहली बार पहुंचे  थे। इस बार भी मेंदोला ही यहाँ से भाजपा के उम्मीदवार हैं। कैलाश जी महू से चुनाव लड़ रहे हैं। इस बार  चूँकि एंटी इन्कम्बेंसी फेक्टर है इसलिए शिवराज  जी स्वयं बुधनी और विदिशा -दो जगहों से लड़ रहे हैं और कैलाश जी को जान बूझकर महू  जैसी कांग्रेसी परम्परागत सीट से  लड़वाया  है ताकि वे मध्यप्रदेश में  नंबर दो से नंबर एक न बन पाएं !
                                 आम जनता में जन चर्चा है कि  उमा  भारती के शागिर्द विजयवर्गीय यदि मध्यप्रदेस के मुख्यमंत्री होते तो पूरा मध्यप्रदेश क्षेत्र क्रमांक -दो  की तरह चमन हो जाता। मोदी और आडवाणी के संघर्ष में संघ के सुरेश सोनी दरकिनार कर दिए जाने से कैलाश  विजयवर्गीय कुछ कमजोर हुए हैं इसलिए अब वे भी मध्यप्रदेश की राजनीती से तौबा करने और मोदी गुट में शामिल होकर केंद्र की राजनीती में जाने कि फिराक में हैं।  कांग्रेसियों का आरोप है कि   शिवराजसिंह चौहान ने  विकाश कार्यों की बजाय मामा-भांजिया ,सामूहिक  शादियां ,तीर्थताटन  और जाति -विरादरी के सम्मेलनो में  ही जनता को भरमा रखा  है। उन्होंने अपने ८-९ साल के कार्यकाल में मध्यप्रदेश में सन्नी गौड़ ,दिलीप सूर्यबंसी सुधीर शर्मा  जैसे  कुछ नए पूंजीपति  ही  पैदा किये हैं। उन्होंने महांभृष्ट अधिकारीयों को पनपाया है संरक्षण दिया है ।  डम्फर काण्ड ,खाना माफिया और मुन्ना भाइयों से पूरा मध्यप्रदेश गुंजायमान हो रहा है। लोकायुक्त को मजाक बना कर रख छोड़ा है। सड़क-बिजली -पानी  सब गायब है  केवल अखवारों में विकाश के झूंठे इस्तहार  हैं ,केंद्र सरकार और सोनिया जी , राहुल  गांधी या दिग्विजयसिंह की आलोचना के अलावा बाकी सब केवल ढपोरशंखी दुष्प्रचार है। फिर भी यदि शिवराज की हैट्रिक  बनती है तो इसका श्रेय शिवराज को नहीं बल्कि  कांग्रेस की आपसी फूट,संघ कार्यकर्तोंओं  की  भाजपा के पक्ष में हिंदुत्व्वादी  वैचारिक कट्टरता और भाजपा को पालने पोसने वाले पूंजीपति वर्ग को ही भाजपा की  जीत का श्रेय मिलेगा।  

               श्रीराम तिवारी  

बुधवार, 13 नवंबर 2013

इस दौर में जो देखा -सुना और गुना !

             इस दौर में जो देखा -सुना  और गुना !
                                 

                       [एक]

           आपका तोता वही  बोलेगा जो आपने सिखाया  होगा !

सीबीआई डायरेक्टर साहब की जुबान  क्या फिसली  'नारीवादी प्रवक्ता' तो मानों  अब लाल-पीले हो रहे हैं।  मैं तो सीबीआई प्रमुख  रंजीत  सिन्हा साब  को 'संदेह का लाभ' देने के पक्ष में हूँ. क्योंकि आज वे भले ही देश और दुनिया में "थू-थू के पात्र" बन गए हैं किन्तु इस सिस्टम के  'अंदर की बात' तो उजागर हो ही गई। इसका श्रेय भी तो  सिन्हा जी को ही मिलना चाहिए !उनके इस आंशिक  कथन याने अप्रिय  'महावाक्य'"अगर रेप को रोका नहीं जा सकता तो उसका आनंद लेना चाहिए " को लोग बाग पूरे सन्दर्भ से अलग काटकर ही  पढ़ रहे हैं।जबकि सीबीआई प्रमुख ने गोल्डन जुबली के मौके पर  जो कहा उसकी  अक्षरश : बानगी  इस प्रकार है :-

    "क्रिकेट में सट्टेबाजी को कानूनी जामा पहना दिया जाना चाहिए ,क्योंकि हमारे पास उसे रोकने के लिए पर्याप्त एजेंसियां नहीं हैं ,जब कुछ राज्यों में केसिनो और लाटरी को इजाजत है तो क्रिकेट में सट्टेबाजी को कानूनी रूप देने में क्या हर्ज है ?यदि सट्टेबाजी को रोका नहीं जा सकता तो उसका आनंद लेना चाहिए ,ठीक उसी तरह जैसे अगर रेप को रोका नहीं जा सकता तो उसका आनद लेना चाहिए "
                
                                    याने असल बात क्रिकेट के सट्टे की और उसकी पैरवी की ही  थी  ,किन्तु व्याकरण के अज्ञानी  और वाग्मिता के कच्चे सिन्हा जी  उपमा अलंकार में गच्चा खा गए. श्रीमान  सिन्हा साब !'अब चेते का  होत  है  ,चिड़िया चुग गई खेत '  गनीमत है  आप  ने तुरंत  खेद व्यक्त कर दिया है  वरना अभी तक सीबीआई  की  वर्दी तो क्या चड्डी भी फाड़ दी गई होती ।  कहा जा सकता है कि आपकी  जुबान फिसल गई थी !लेकिन बिन प्रयास अनायास बोले गए शब्द चीख -चीख कर कह रहे हैं कि  भारतीय नौकरशाह 'नारी मात्र' के बारे में क्या सोच रखते हैं?  जिन्हे सीबी आई पर ज़रा ज्यादा ही नाज था ! यकीन था! वे अब गलती से भी उसका नाम लेना भी पसंद नहीं करेंगे। अब तक तो नेता ,बाबा और स्वामी ही बोल-बचन में बदनाम थे अब तो कहना पडेगा कि "सूप बोले सो  बोलेपर ये  किन्तु छलनी क्यों  बोले ''?
                   संचार माध्यमों की महती  कृपा से , उन्नत सूचना सम्पर्क क्रांति के सौजन्य से  और आरटीआई क़ानून की उपलब्ध्ध्ता से हम भारत के नर-नारियों को अब 'अंदर को बातें' सहज ही पता  चला जाती हैं। इसीलिये देश की जनता को वर्त्तमान भृष्ट व्यवस्था  के हम्माम  में अधिकांस नंगे दिखाई  देने लगे  हैं। न केवल   'आसाराम एंड संस' जैसे अधिकांस ऐयास  हवाला कारोबारी- बाबा और रामदेव स्वामी  बल्कि उनके परम भक्त अशोक सिंघल,न केवल भारतीय प्रशाशनिक सेवाओं के छोटे -बड़े ,दौलतखोर -औरतखोर हरामजादे मक्कार भृष्ट अधिकारी , न केवल राजनीति  में  सुरा-सुंदरी के अभिरंजक नेतागण बल्कि अब तो देश की सर्वाधिक  सम्मान प्राप्त न्यायपालिका में भी नारी उत्पीड़न के मंजर देखने  सुनने को मिलने लगे हैं। सूना था कि  सारे कुएँ  में भंग पड़ी  है। अब साक्षात् दर्शन होने लगे हैं।  जब  बड़े-बड़े 'पीएमएन वैटिंग' बड़े-बड़े संत-महंत ,बड़े-बड़े  सामाजिक कार्यकर्ता ,बड़े-बड़े धरती पकड़ नेता  लफ्फाजी कर सकते हैं तो एक 'बेचारे तोते' याने  सीबीआई अधिकारी के 'बोल-बचन' पर इतना मलाल क्या करना ? इसीलिये हे देशवासियो !आपका  तोता वही तो बोलेगा जो आपने उसे सिखाया  होगा!

                श्रीराम तिवारी

                                                          [दो]

                                   लोकतांत्रिक मूल्यों और भारतीय मर्यादाओं के भंजक दोनों एक समान  -कांग्रेस और भाजपा बराबर के हैं  नादान !

                                   इन दिनों जबकि भारत  में पांच  राज्यों के   विधान सभा चुनाव  की प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में है, देश की पार्लियामेंट के आगामी चुनावों की  सुगबुगाहट भी शुरू हो चुकी है,  ठीक इसी अवसर पर सभी राजनैतिक दलों ,उनके नेताओं  और अलायंस  का सक्रिय  होना भी  लाजिमी है. किन्तु  चिंता का विषय  ये है कि  यह सक्रियता 'देश-हित' के लिए नहीं बल्कि पार्टी हित,  निजी हित और 'वर्गीय हित'के लिए पूर्ण रूपेण समर्पित है। राष्ट्रीय विमर्श, सकारात्मक चर्चा , भविष्य के लिए नीतियां -कार्यक्रम  या देश के समक्ष मौजूद   वर्तमान  चुनौतियों पर कोई खास तथ्यपरक राष्ट्रव्यापी  चर्चा इन दिनों  नदारद है।
                                        देश के बड़े  पूंजीवादी  दलों -भाजपा और कांग्रेस में तो आये दिन  हर क्षेत्र में मानों  'मर्यादा भंग' करने  की होड़ सी  मची हुई  है। सरसरी तौर  पर प्रथम दृष्टया तो आभासित होता है कि कांग्रेस और भाजपा के  बीच 'महासंग्राम' छिड़ा हुआ है ! किन्तु यह पूंजीवादी मीडिआ और देशी-विदेशीपूंजीवादी  ताकतों के प्रयासों का ही परिणाम है कि कांग्रेस और भाजपा को ही  जानबूझकर विमर्श के केंद्र में रखा जा रहा है। यह एक सोची समझी  भयानक साजिश ही है कि  यूपीए और एनडीए की तो  चर्चा भी इन दिनों  मीडिआ  के विमर्श से गायब  है । अब तो  इधर राहुल गांधी तो उधर 'नमो' नाम केवलम -चल  रहा है। चुनाव आयोग के सामने भी राहुल गांधी और मोदी के ही  'डायलॉग-अल्फाज-आप्तवाक्य' आचार संहिता के बरक्स शिकायती लहजे में  पेश किये जा रहे हैं। नूरा -कुश्ती की तर्ज पर  दोनों और के शूरमाओं को हद में रहने की हिदायत दी जा रही है।  किसी का कुछ होना -जाना नहीं है। कभी-कभार सपा और जदयू के नेताओं की बाचालता को भी प्रसंगवश  मीडिआ में थोड़ी सी जगह मिल जाती है।  कहा जा सकता है कि  भारत में   प्रजातांत्रिक प्रक्रिया के  दुर्दिन चल रहे  हैं।
                            मध्यप्रदेश और छत्तीशगढ़ में भाजपा के धनबल को और राजस्थान और  दिल्ली में कांग्रेस के धनबल को - तमाम अखबारों ,चेनलों और सोशल मीडिआ के सीने पर  नंगा नाच करते हुए देखा जा सकता है.  दिल्ली में जब 'आपको'  और केजरीवाल को  थोड़ा सा जन सहयोग या आर्थिक सहयोग मिलता दिखाई दिया तो भाजपा और कांग्रेस दोनों के पेट में दर्द होने लगा। संदेह की गुंजायश नहीं कि देश के पूंजीपति वर्ग और उनके द्वारा नियंत्रित मीडिआ - नहीं चाहते कि  भाजपा या कांग्रेस के अलावा अन्य   कोई 'सिरफिरा-ईमानदार' नेता  या दल -सत्ता में प्रतिष्ठित हो जाए। पूंजीपतियों के हितों  के खिलाफ या आम जनता के पक्ष में नीतियां  बनाने की जो  जुर्रत  करता है उसे "आप''की  तरह  हर चुनाव के मौके पर हासिये पर धकेलने का यह षड्यंत्र चला करता है। अभी तक सिर्फ  साम्यवादियों को ही इन पूंजीवादी हथकंडों से जूझना पड़ता था ,अब  "आप"को और तीसरे मोर्चे के जदयू ,सपा   जैसे दलों को भी मीडियाई उपेक्षा का शिकार होना पड़  रहा है. इसीलिये  तीसरे मोर्चे या वाम मोर्चे की बड़ी -बड़ी रैलियों और 'कन्वेंशनों' का या तो संज्ञान ही नहीं लिया जाता या फिर  हासिये पर या कहीं अंदर के किसी कोने में  उपेक्षा से  नाम मात्र के लिए टांक  दिया जाता है।दिल्ली में ३० अक्टूबर को सम्पन  '' साम्प्रदायिक्ता विरोधी विराट कन्वेंसन ''  या उसके बाद इसी नवम्बर में  साम्यवादियों की  लखनऊ में आयोजित  विराट रैली, बंगाल  -त्रिपुरा और केरल में माकपा  - वामपन्थ की विराट रैलियां  एवं  मध्यप्रदेश छतीशगढ या राजस्थान में सीपीएम ,बसपा ,भाकपा और सपा की बड़ी -बड़ी आम सभायें -जुलुस -रैलियाँ नजर अंदाज कर संचार माध्यमों द्वारा  केवल कांग्रेस और भाजपा को ही लक्षित या  केंद्रित किया जा रहा है। यह  एक पूंजीवादी जघन्य षड्यंत्र  और राष्ट्रघाती पक्षपात नहीं तो और क्या है ?
                                          वेशक  भारत में पूंजीपतियों को सुरक्षा देने में सक्षम सिर्फ कांग्रेस या भाजपा ही हो सकती है ।  इसीलिये  देश की सत्ता में प्रतिष्ठित किये जाने वालों  की अग्रिम  कतार में कांग्रेस और भाजपा को ही नैगमिक नियंत्रित  मीडिआ ने विमर्श में लक्षित किया हुआ  है.  इस विमर्श में उनके नेताओं के 'बोल-बचन' या आचार संहिता के उल्लंघन जैसे प्रकरणों को प्रमुखता से उभारा  जा रहा है।यह इसलिए नहीं कि कांग्रेस या भाजपा को आदर्श आचार संहिता के अंतर्गत लाने की मशक्कत है या उन्हें भारतीय प्रजातंत्र की आदर्श - त्रुटिविहीन  निर्वाचक नियमावली के  अनुशीलन के लिए  बाध्य करना है !  मुँहफट- अर्धशिक्षित- नरेद्र  मोदी या विधि-निषेध  के ज्ञान से शून्य -नितांत नादान - राहुल गांधी कोआदर्श चुनाव आचार संहिता या भारतीय  संवैधानिक मूल्यों अथवा 'लोक-मर्यादा'  की कोई चिंता नहीं है। चुनाव आयोग  और मतदाताओं को किसी से डरने या समझौता  करने  का कोई  सबब भी नहीं है। केवल  रस्म अदायगी के लिए ही नहीं बल्कि भारत की शानदार लोकतांत्रिक -धर्मनिरपेक्ष आधारशिला पर अडिग रहते हुए  चुनाव आयोग  को कार्यवाही करते रहना चाहिए । केवल कारण बताओ -नोटिश सर्व  करने और चेतावनी देकर छोड़ने से नहीं बल्कि एक-आध कौए को बांसडे में बांधकर टांगने से बाकी के लम्पट -अपराधी ,मुँहफट  और व्यभिचारी  गिद्ध-चील-बाज सब दम दवाकर दडवे में घुस जायेंगे ।  यह मशक्कत सिर्फ  इसलिए  नहीं कि जनता में यह धारणा मजबूत बना दी जाए कि  हे!देशवासियो ! सुनो !आपके सामने अब  केवल दो ही विक्लप बचे हैं याने कांग्रेस या भाजपा।सिर्फ ये दो ही धनवान हैं भैया - बाकी सब कंगाल …! बल्कि इसलिए कि देश की जनता निर्भय होकर 'राष्ट्र -निर्माताओं' का चयन कर सके !
                                 वेशक  कांग्रेस और भाजपा में  चुनावी जंग छिड़ी है । कुछ लोग  वर्त्तमान विधान सभा चुनावों को सत्ता का सेमीफायनल बता रहे  हैं.आगामी लोकसभा चुनाव को फायनल बता रहे हैं। ये दोनों  ही पूंजीवादी दल वर्त्तमान विनाशकारी आर्थिक नीतियों पर एक -दूसरे  से बढ़चढ़कर प्रतिब्द्धता जताकर अपने देशी-विदेशी आकाओं को खुश करने में  जूट हुए  हैं। बदले में इन्हें करोड़ों का चढ़ावा मिल रहा है। मध्यपर्देश में ,छ्ग में तो नोटों से भरी गाड़ियों पकड़ी जा रहीं हैं। ट्रूकों  भर-भर दारु[शराब] और  अन्य वर्जित सामग्री पकड़ी जा रही है किन्तु अभी तक किसी नेता या कार्यकर्ता को नामजद नहीं किया गया। जनता जानना चाहते है कि  क्या बाकई चुनाव आयोग और  प्रशाशन  की कार्यवाही में पारदर्शिता है? क्या आदर्श चुनाव  हो रहे हैं? कांग्रेस र भाजपा  में से कोई भी सत्ता में आये  लेकिन देश के दुर्भिक्ष या 'अव्यवस्था' में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। क्योंकि ये वो ठाकुर हैं, जिनके   हाथ साम्प्रदायिकता , शोषण, भृष्टाचार और राजनैतिक  अपराधीकरण के अलम्बरदार-गब्बरों ने काट दिए हैं।

                       श्रीराम तिवारी

                                                           [तीन]

                              कांग्रेस और भाजपा में अंदरूनी  लोकतंत्र  का  नामोनिशान नहीं ।

                           कहने सुनने के लिए कांग्रेस और भाजपा अपने आपको  लोकतान्त्रिक व्यवस्था  का  सबसे बड़ा अनुयाई मानते हैं। किन्तु प्रकारांतर से अंदरूनी  तौर पर प्रजातंत्र तो पहले से ही नदारद है।  इन  दोनों  बड़ी पार्टियों  में कहने को तो  पार्टी संविधान है ,अनुशाशन समितियाँ हैं ,पार्टी के विभिन्न फोरम हैं किन्तु ये सब  तो केवल हाथी के दाँत भर  हैं। ये  तो दुनिया को दिखाने  की  प्रजातांत्रिक औपचारिकताएँ मात्र  भर हैं ।इन दोनों ही सत्ताभिलाषी दलों के दो-दो हाईकमान भी हैं। भाजपा का  एक डायरेक्ट  हाईकमान उसका  'पार्लियमेंट्री बोर्ड' है दूसरा उसका  इनडायरेक्ट 'हाईकमान' 'संघ ' है.  जिसका मुख्यालय नागपुर में है और जिसके  नीति-निर्धारक त्रयी के प्रमुख वर्त्तमान में  आदरणीय मोहन  भागवत जी हैं। जब भाजपा अपने पार्टी  संविधान में  'संसदीय बोर्ड'  को ही  सर्वोच्च मानती  है  तो फिर  जिसका पार्टी संविधान  में कोई उल्लेख नहीं उस  'आर एस एस ' के निर्णय को अंतिम  सत्य क्यों माना जाता  है ? जिसकी कोई संवैधानिक जबाबदेही नहीं।  क्या यह प्रजातंत्र की मूल  भावना के साथ  धोखा - धड़ी नहीं है?  इसी तरह कांग्रेस रुपी द्रौपदी के भी दो-दो पति हैं। एक तो उनकी 'केंद्रीय कार्य समिति'  जो  कहने को तो सर्वोच्च नीति  नियामक फोरम   है  किन्तु  इसमें लिए गए निर्णयों को और केविनेट में लिए गए निर्णयों को  भी ताक़  में रखने या 'फाड़कर फेंकने 'की क्षमता जिनमें है वे कांग्रेस के 'सुपर हाईकमान ' हैं याने आदरणीय सोनिया जी और श्री राहुल गांधी जी !तब भी कांग्रेस के लोग कहते हैं -हम हैं असली लोकतांत्रिक !
                    प्रायः सभी राजनैतिक पार्टियों के हाईकमान हुआ करते हैं। दुहराने की जरुरत नहीं कि, बीजद,  सपा  ,बसपा ,अकाली,शिवसेना ,राजद,भालोद,लोजद,जदयू ,तृणमूल,डीएमके,एआईडीएमकेऔर  जदएस के हाईकमान कोई संस्था नहीं अपितु व्यक्ति विशेष हैं।  के हाई कमान  कांग्रेस में पार्टी हाईकमान  का मतलब  सोनिया जी और राहुल गांधी हैं.संघ परिवार और भाजपा में हाई कमान का मतलब  'संघ त्रयी'हैं। याने संघ के तीन  शीर्ष पदाधिकारी जिनमें संघ प्रमुख [वर्त्तमान में श्री मोहन भागवत जी]  अनिवार्य रूप से सम्मिलित हुआ करते हैं। कांग्रेस और भाजपा के ये  हाई कमान  प्रकारांतर से अधिनायकवादी ही हैं। वे प्रजातांत्रिक मूल्यों की परवाह नहीं करते बल्कि अपने मनमाफिक निर्णय अपनी -अपनी पार्टियों पर थोपत रहते हैं। इसीका नतीजा है कि इन दोनों ही पार्टियों के नेता न केवल आदर्श  चुनाव आचार संहिता को ठेंगा दिखाते हैं उसे 'ठोकर मारने' की बात करते हैं  बल्कि राष्ट्रीय और नैतिक मूल्यों की भी दुर्दशा करते रहते हैं।  हालाँकि  इन दोनों ही पार्टियों के 'हाईकमान'  चाहें तो देश में कोई माई का लाल 'संविधान का उलंघन ' नहीं कर सकता। लेकिन जब वे खुद गुड़  खाते हैं तो दूसरों को 'गुलगुलों से परहेज' कैसे करा सकते हैं ?
                                            इन दिनों मीडिया के विमर्शगत  केंद्र में   दो नेता ज़रा  ज्यादा ही  चर्चित हैं।इनमें भाजपा के घोषित 'पी एम् इन वेटिंग' नरेन्द्र  भाई  मोदी  और कांग्रेस के 'अघोषित- स्वाभाविक उत्तराधिकारी'  राहुल गाँधी प्रमुख हैं । ये दोनों ही  महारथी याने देश के भावी प्रधान मंत्री  -अपनी-अपनी मैराथान विराट रैलियों में धुँआधार भाषण और एक-दूजे पर 'विषवमन' करते रहते हैं। अर्थात वे केवल  तथ्यहीन अनर्गल प्रलाप   और   नकारात्मक भाषणबाजी ही  कर  रहे हैं।दोनों के भाषणों में अपनी-अपनी पार्टियों के मेनिफेस्टो -घोषणा पत्र  याने  नीतियाँ  और कार्यक्रम सिरे से  गायब हैं।  दोनों ही नेता एक-दूसरे  के खिलाफ अपने- अपने मुखारविंद से  अतिश्योक्तिपूर्ण आलोचना    करते हुए अंट -शंट  बयानबाजी में  मशगूल हो रहे  हैं। दोनों कि गलत-सलत बयानबाजी पर रोज-रोज कोई न कोई आपत्ति भी  दर्ज  हो रही है  ,और इस  पर  चुनाव आयोग भी  हैरान है क़ि  इन 'काल्पनिक' प्रधानमंत्रियों को आदर्श चुनाव संहिता के दायरे मैं कैसे  बांधकर रखा जाए  जाए ?
                                             अधिकांश  पूँजीवादी राजनैतिक दलों और  नेताओं  के बगलगीर छुटभैये नेता भी  न केवल  अपने  - अपने दलों  के  अनुशाशन भंग में व्यस्त हैं अपितु  मौजूदा दौर की  प्रजातांत्रिक व्यवस्था के नीति निर्देशक सिद्धांतों  की  ऐंसी-तैसी  भी कर रहे हैं। कुछ सत्ताभिलाषी नेता तो  भारत के स्वाधीनता संग्राम के बलिदानी इतिहास  को  भी बदरंग  करने में जुटे हुए  हैं।  इसके बावजूद कि  उनके सामने मंच पर खड़ा उनका नेता कोरी लफ्फाजी कर रहा है ,सफ़ेद झूंठ बोल रहा है  फिर भी हैरत है कि लोग ताली बजाकर उसके अधकचरे कल्पना जनित ज्ञान को महिमा मंडित किये जा रहे हैं। मोदी की सभाओं में भाजपाई श्रोता और राहुल कि सभाओं में कांग्रेसी श्रोता  करतल तुमुलनाद करते हुए  जो  'जय कारे '   के नारे लगा रहे हैं वो भारतीय आवाम की प्रजातांत्रिक चेतना नहीं है। ये देश का दुर्भाग्य है , ये नेताओं की 'वर्चुअल इमेज' का मीडिआ कृत सायास  प्रयास है। ये बड़ी -बड़ी रैलियां   चैतन्य भारतीय जन-मानस  का आगाज नहीं हो सकतीं  बल्कि  अरबों रुपयों  के खर्च पर ,नेताओं को सत्ता प्रतिष्ठान तक पहुँचाने  के लिए  सप्रयास जुटाई गई भीड़ भर हो सकती है।  इन अप्रजातांत्रिक और अशुचितापूर्ण साधनों से बेहतरीन नेता और जन-कल्याणकारी राज्य संचालन व्यवस्था  की उम्मीद करना  मृग मारीचिका मात्र  है
                              पटना रेली से पूर्व मोदी फुल फ़ार्म में हुआ करते  थे ,वे दिग्विजय  होते जा रहे थे याने शत्रु हंता बन चुके थे। किन्तु जबसे नरेंद्र  मोदी की ऐतिहासिक  पटना रैली[जिसपर आतंकवादी हमले हुए थे]  के भाषण की बिहार के मुख्य मंत्री  नीतीश कुमार  ने बखिआ उखेड़ी है तब से नरेंद्र मोदी की वाग्मिता को मानों गृहण  सा लग चूका  है।अब  वे जिस किसी भी  विषय पर अपनी जुबान   चलाते हैं वहीं गच्चा खा जाते हैं।सुना  है कि नीतीश द्वारा  मोदी को उनके  ज्ञान का आइना दिखाने के बाद भाजपा और संघ परवार के कई खुर्राट नेता  मन ही मन गदगदायमान हो रहे हैं। वे मोदी को नाथने की फिराक में तो  पहले से ही  थे  ,किन्तु मोदी कोप से भयभीत कुछ बोल नहीं पा रहे थे। जब नीतीश ने  अपने तार्किक विश्लेषण से मोदी  के व्यक्तित्व को  न केवल खंडित  किया अपितु मोदी को  एक नौसीखिया नेता सावित कर दिया  और मीडिआ ने भी माना की मोदी  को कोई खास समझ बूझ नहीं है  तो संघ परिवार  ,राजनाथ और जेटली ने मोदी को समझाइस दी कि मोदी आइंदा   संभलकर बोलेँ। इनके अलावा मोदी के अन्य मित्रों  ने भी  नरेंद्र मोदी को सावधानी से बोलने और तैयारी से बोलने तक की नसीहत दे डाली है।   मोदी के  मंच के आसपास बिठाये गए  स्थाई किस्म के प्रतिबद्ध  श्रोता और समर्थक  भले ही फ़ोकट में मौके -बेमौके  ताली बजाते रहते हों  ,किन्तु  उन वापरों को  इससे कोई मतलब नहीं की सरदार पटेल और नेहरू की उनकी अपनी कांग्रेस  पार्टी में दलगत या वैयक्तिक मतभेद से  नरेंद्र मोदी और संघ परिवार का क्या लेना -देना है ?  जो अतीत में यदि सच भी  था  तो भी  इससे मोदी और भाजपा की सेहत पर क्या असर पड़ने वाला है ? मोदी के श्रोता  वही हो सकते हैं   जिनकी अक्ल को लकवा मार गया हो। वरना ऐंसा कैसे हो सकता है कि लाखों श्रोता जो  मोदी को सुन रहे हैं हों और एक भी वंदा  नहीं जानता हो कि सरदार पटेल ,पंडित नेहरू मौलाना आजाद,डॉ राजेन्द्रप्रसाद ,डॉ राधाकृष्णन्  जैसे हीरे तो उन महात्मा   गांधी जी की विरासत थे  जिन्हे नाथूराम गोडसे ने गोली मार दी थे। अब मोदी किसके साथ हैं?गोडसे के साथ या गांधी के साथ ? यदि गांधी को गोली मारने वाले गोडसे की शिक्षाओं से प्रेरित मोदी अब गांधी,पटेल या नेहरू का नाम ले रहे हैं या उनके मतभेदों की चर्चा कर रहे हैं तो ये उनकी राजनैतिक  लाचारी है।नेहरू-पटेल के बीच मतभेद थे  यह  उतना ही सच है जितना ये सच है  कि आडवाणी -अटलजी में मतभेद थे.तो इससे क्या फर्क पड़ता है ?जहां जनतंत्र होगा वहाँ '' मुण्डे -मुण्डे  मतिर्भिन्ना " भी होगा। क्या मोदी को मतभेद पसंद नहीं ?तब तो वे बाकई हिटलर ही हैं क्योंकि हिटलर को भी सिर्फ 'मुंडी हिलाउ  ही चाहिए थे। उसे मतभेद से नफरत थी।
                   ,मोदी और राजनाथ में मतभेद  नहीं हैं क्या ? क्या संघ' और भाजपा में सब कुछ मीठा-मीठा ही चल रहा है ? इस तरह के सवाल हवा में  उछालकर संघ परिवार -भाजपा और मोदी देश की आवाम को उल्लू नहीं बना सकते।  चन्द्रगुप्त  मौर्य और चंद्गुप्त विक्रमादित्य में फर्क नहीं समझने वाले मोदी , मौर्य वंश को गुप्त वंश का बताने वाले मोदी , तक्षशिला  को पाकिस्तान  की जगह  बिहार में बताने वाले मोदी  और सिकंदर को सतलुज पार कराने की  जगह 'गंगापार' कराने वाले मोदी  यदि  प्रधान मंत्री बन भी गए तो यह नितांत चिंतनीय है कि 'तेरा क्या होगा  कालिया'? क्या मंच पर  मोदी के साथ बैठे बड़े -बड़े  दिग्गज नेता -स्वयंभू राष्ट्रवादी बाकई में नहीं जानते  कि पटेल ,नेहरू ,मौलाना ,प्रसाद ,पंत जाकिर हुसेन और जगजीवनराम जैसे खांटी कांग्रेसी उस महात्मा गांधी के चेले थे  जिसे -गोडसे ने गोली मार दी थी। यह बताने की जरुरत नहीं कि मोदी और गोडसे का रिस्ता क्या है ? हालाँकि  सरदार पटेल को याद कर मोदी ने रीयलाइजेसन की शुरुआत अच्छी की है , किन्तु अपनी रेखा बढ़ाने के बजाय वे केवल कांग्रेस और गांधी परिवार की रेखा  मिटाने की असफल कोशिश में जूट हैं जो असम्भव ही नहीं नामुमकिन है !
                                    

                                                   [चार]

                  मोदी फ़ासिस्ट  और राहुल अगंभीर हैं -दोनों ही  राष्ट्रीय  नेतत्व  के काबिल नहीं हैं !

    वेशक  कांग्रेस और भाजपा -दोनों  में  लोकतंत्रात्मक कार्य प्रणाली का  घोर अभाव  है ,वेशक इन दोनों ही पार्टियों को देश के धनवानों ने अपनी जेब में रख छोड़ा है ,वेशक  इन बड़ी पार्टियों के  नेता एक दूसरे  को फूटी आँखों देखना पसंद नहीं करते ,बिना  देश  चलाने कि कूबत  अभी किसी में नहीं  है  देश में   - राहुल और मोदी  से बेहतर ,विचारवान ,कुशल प्रशासक व्यक्ति हैं जो प्रधानमंत्री के काबिल हैं. किन्तु मोदी और राहुल  के हाथों भारतीय लोकतंत्र को सौंपना खतरे से खाली नहीं है।  राहुल को  गम्भीरता से लेना  वक्त कि बर्बादी है ,वे जो कुछ भी बोल रहे हैं वो नितांत बचकानी बाते हैं। उन्होंने इंदौर की आम सभा में जो साम्प्रदायिक-उन्माद के खिलाफ   मुजफ्फरनगर  दंगा पीड़ितों और  आईएसआई  वाला वयान दिया था उस पर चुनाव आयोग ने संज्ञान लेकर उन्हें नोटिश दिया था। राहुल के जबाब से आयोग संतुष्ट नहीं है और चेतावनी दी गई है। उधर नरेद्र मोदी ने छ्ग में जो 'खुनी पंजे ' वाला वयान दिया है उस पर चुनाव आयोग भन्नाया हुआ है । उन्हें भी नोटिश जारी होने जा रहा है।
                                 चूँकि यूपीए और कांग्रेस के  योग अब विपक्ष में बैठने के  आते जा रहे हैं इसलिए राहुल कि नेत्तव कारी भूमिका अभी शिशिक्षु काल में ही है। उन्हें नौसीखिया कहा जा सकता है।  किन्तु मोदी तो गुजरात में अपनी हैट्रिक बना चुके हैं ,वे वर्षों से 'संघ' की शाखों में प्रशिक्षण प्राप्त करते रहे हैं ,कई साल तक अटल-आडवाणी के 'रथ हांकते' रहे हैं ,  घाट -घाट  का पानी पिए हुए हैं ,फिर भी वे राजनीति  के मैदान में बोल-बचन में ,भाषणों में  फिसड्डी सावित हो रहे हैं।  यदि  देश और दुनिया उन्हें  गम्भीरता से ले रही है तब  तो उनके भाषणों -बकतब्यों  और सोच पर गौर करना देश हित में बहुत  जरूरी है।  जब मोदी कहते हैं  कि 'भारत को कांग्रेस मुक्त बनाना हैं 'तो उसका अभिप्राय समझे बिना ही श्रोता और श्रोत्रियाँ  तालियाँ  पीटकर अपनी महामूर्खता का ही अवगाहन कर रहे होते हैं। ताली बजाने वालों को सोचना होगा कि जो व्यक्ति 'कांग्रेस को खत्म करने' कि इच्छा रखता है वो देश के ३५ % लोगों के खात्में का भयानक विचार रखता है।  क्या ऐंसे   व्यक्ति को देश का सर्वोसर्वा बनाया जा सकता है ?  क्या कांग्रेस कोई छुई-मुई है जो मोदी की अंगुली के इशारे मात्र से मुरझा जायगी ?
                       १०० साल पुरानी कांग्रेस का बुरे से बुरे दौर में भी इतना जन-समर्थन तो अवश्य रहा है। केवल दलितों ,मुस्लिमों -अल्पसंख्यकों या 'गांधी-नेहरू वंश ' की पार्टी मात्र नहीं है कांग्रेस। बल्कि 'संघ परिवार' से ज्यादा सच्चे और अच्छे हिन्दूओं और मुसलमानोँ समेत सभी समुदाय के लोगों   की पार्टी भी  रही है कांग्रेस।  महामना मदनमोहन मालवीय , पंडित गोविन्द वल्लभपंत ,कमलापति त्रिपाठी ,रविशंकर शुक्ल जैसे लाखों ब्राह्मणों से लेकर ,बाबू जगजीवनराम  ,सुभद्रा राय  जैसे करोड़ों अनुसूचित जनों तक सरदार पटेल से लेकर ,वी पी मंडल तक  ,कामराज से लेकर लाल बहादुर शाश्त्री  तक करोड़ों पिछड़ों, स्वामी श्रद्धानंद  ,राजऋषि पुरषोत्तमदास टंडन से लेकर स्वामी स्वरूपानन्द  सरस्व्ती  तक लाखों सज्जन-साधुओं की  पयस्वनी  कांग्रेस,मौलाना अबुल कलाम आजाद ,सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फार खान ,डॉ जाकिर हुसेन और फकरुद्दीन अली अहमद जैसे महान देशभक्तों- नररतनो द्वारा परवान चढ़ती रही है कांग्रेस।  कांग्रेस  स्वाधीनता संग्राम की अलम्बरदार रही है।  कांग्रेस  आज कितनी ही 'मैली' क्यों न हो गई हो,भले ही मेने उसे आज तक कभी 'वोट एंड सपोट' नहीं किया हो , किन्तु उसे समूल नष्ट करने की बात  करना नाकाबिले बर्दास्त है । लोकतंत्र में किसी भी राजनैतिक पार्टी को जो धर्मनिरपेक्ष हो और  संविधान में आस्था रखती हो उसे नष्ट करने की बात करना सरासर घोर  नाजीवादी   मानसिकता ही कही जायेगी।यदि मोदी को कुछः नष्ट करने की चाहत है तो वे सबसे पहले अपने अज्ञान को नष्ट करें ,अपने अहंकार को नष्ट करें और अपने अंदर  की साम्प्रदायिकता को नष्ट करें।  यदि वे ऐंसा  करते हैं तो देश  वे भारत के आजीवन प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं।
                          जिस तरह पवित्र गंगा के 'गटरगंगा ' बन जाने पर भी कोई उसे समूल नष्ट करने की बात नहीं करता उसी तरह  कांग्रेस  को भाजपा को ,सपा को ,वसपा को क्षेत्रीय दलों को  या वामपंथ को खत्म करने की बात करने वाला व्यक्ति या विचार निहायत ही खतरनाक और अप्रजातांत्रिक है ।  यह नक्सलवाद से भी ज्यादा खतरनाक विचारधारा है। 'एकोअहम  द्वतीयोनास्ति 'याने सिर्फ हम ही रहेंगे बाकी सबको  खत्म करने का  इरादा बेहद खतरनाक है। इस 'नेक' इरादे वाले व्यक्ति को चाहे वो नरेंद्र मोदी हो या कोई साक्षात 'देवदूत' 'राष्ट्रवादी' तो नहीं कहा जा सकता। यह 'असहनशीलता' भारतीय लोकतंत्र और भारतीय साझी विरासत के अनुकूल नहीं है। ऐंसा व्यक्ति जो अतीत के खंडहरों में विचरण करता हो और उसके 'पुरावशेषों'से नए भवन का निर्माण करने की बात करता हो वो या तो कोई मानसिक रोगी हुआ करता  है या कुंठित मानसिकता का प्रतिघाती दयनीय  आत्महंता।
                                    देश और दुनिया के तमाम  प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष विचारकों की  आम राय है कि  कटटरपंथी - साम्प्रदायिक तत्व हालाँकि  एक  दूसरे के खिलाफ ज़हर  उगलते रहते हैं ,एक-दूसरे  के खिलाफ षड्यंत्र करते रहते हैं  किन्तु अब वक्त आ गया है कि कुछ सीमांकन हो ! मोदी उवाच "गाँधी जी ने कांग्रेस खत्म करने की इच्छा व्यक्त की थी,सत्ता के लालचियों ने उनकी बात नहीं मानी "  इसके लिए  वे केवल  पंडित नेहरु को गांधी जी की अवज्ञा का  पात्र सिद्ध करने के फेर में वे गाँधी जी के परम प्रिय शिष्यों  -बिनोबा भावे ,महादेव देसाईं ,के एम् मुन्सी , राजेन्द्रप्रसाद ,सरदार पटेल ,  पुरषोत्तम दास  टंडन  ,लाल् बहादुर शाश्त्री , और कामराज नाडार जैसे   को भी  इतिहास  के कूड़ेदान में फेंकने की जुर्रत कर रहे हैं।  क्योंकि कांग्रेस को संभालने-संवारने में इन सभी की भूमिका वेमिशाल रही है। पंडित नेहरु ने कांग्रेस  को नहीं बचाया ,वे तो राज्य सत्ता के शीर्ष पर बैठकर दुनिया के नेता बनने  की लालसा में और चीन के साथ अनावश्यक भिडंत से हुई हार के सदमें से असमय   ही स्वर्ग  सिधार गए थे।
                      मोदी की समझ पर तरस आता है की वे समझते हैं कि  कांग्रेस  को नेहरू -गाँधी परिवार ने बचाया है । मोदी दूसरा सबसे बड़ा झूंठ बोलते हैं -  "कांग्रेस ने ६५ साल देश पर शाशन किया और केवल देश को लूटा है  तरक्की का कोई काम नहीं किया " पता नहीं किस ने  उन्हें यह पढ़ा दिया कि  भारत   में ६५ साल से पर केवल कांग्रेस का ही राज है !  आदरनीय मोदी जी को मालूम हो कि  भारत  एक "संघीय गणराज्य " है। राज्यों के समूह से मिलकर बना है भारत। इन अधिकांस  राज्यों में  कांग्रेस का कबका सफाया हो चूका है।   तमिलनाडु से कांग्रेस ५५ साल से गायब है ,बंगाल में कांग्रेस ४० साल से गायब है ,उड़ीसा में कांग्रेस ४०  साल से गायब है।  बिहार ,उत्तरप्रदेश और गुजरात से कांग्रेस दशकों से बाहर है। कश्मीर में कांग्रेस को कभी ५ साल के लिए भी ठीक से सत्ता नहीं मिल पाई होगी।
                         इन दिनों  जगह -जगह सम्प्रदाय विशेष के  बाबा -स्वामी-संत -महात्मा अपने धार्मिक क्रिया -कलापों के बहाने राजनैतिक  भाषणबाजी  ज़रा ज्यादा ही  करने लगे हैं।  कुछ भगवा लंगोटी  धारी  या लूंगीधारी  केवल एक पार्टी विशेष  या परिवार को ही  निशाना बनाकर  लगातार गालियाँ   की बौछार करते रहते हैं ।  दुर्वासा की तरह श्राप देने का पुनीत कार्य ही करते रहते हैं।  केंद्र में  सत्तापरिवर्तन की जितनी जल्दी  विपक्ष  को नहीं उससे कहीं ज्यादा जल्दी   इन नकली   बाबाओं  और दुराचार के आरोपों से घिरे स्वामियों -बापुओं  को  है। उन्हें डर  है कि  यदि उनके साम्प्रदायिक -बंधू -बांधवों की  आइन्दा दिल्ली में  याने केंद्र में सरकार नहीं बनी तो इन कपटी-धंधेबाज-हत्यारे और नारी-उत्पीड़क बाबाओं  को जेल की काल कोठरी में सारे उम्र गुजारनी होगी। क्योंकि ये पब्लिक है सब जान चुकी है अतः : इन पाखंडी साम्प्रदायिक तत्वों की लफ्फाजी  और उनका अपार कालाधन कुछ काम नहीं आ सकेगा। इसलिए  साम्प्रदायिक  उन्माद पैदा कर बहुसंख्यक वोटों का  ध्रवीकरण कर  सत्ता प्राप्ति का प्रयास जारी है।   व्यक्ति विशेष को हीरों बनाने और बाकी पार्टियों -उसके नेताओं को  सारे देश को ,जनता को , धर्म की मजहब की अफीम खिलाकर ,नास्तिकता का आरोप लगाकर या  साधू-संतों के अनादर का आरोप ;लगाकर हासिये पर सरकाने  की सोची समझी योजना पर अमल जारी है।
                       
                                                 श्रीराम तिवारी  
                            

                                                    [पांच]

                            जिनका नैतिक और चारित्रिक पतन हो चूका है वे साधू-सन्यासी और नेता  नहीं चाहिए !

       बचपन में किसी विद्द्वान  से सूना था  "जब सिकंदर स्पार्टा ,एथेंस को विजित कर   मकदूनिया से अपनी शानदार  अजेय फ़ौज के साथ  विश्व विजय के लिए प्रस्थान करने   लगा तो  अपने गुरु   अरस्तु   के पास  आदेश लेने गया  । उनसे  दिशा निर्देश मांगे।  उसके गुरु ने तत्कालीन ज्ञात विश्व के कुछ खास देशों के नाम  लेते हुए  सिकंदर से   उन्हें फतह करने के कुछ  सुझाव दिये ।  साथ  ही उन देशों  से उसे कुछ खास  उपहारों लाने  की तमन्ना भी  व्यक्त की।  अरस्तु ने कहा  - हे सिकंदर महान ! जब तुम  चीन फतह करो तो रेशम के थान ,कागज़ और मार्शल आर्ट के लिए प्रसिद्ध शाओलिन प्रशिक्षित जवान साथ में लाना। जब तुम   अरब को फ़तेह करो तो ऊंट ,खजूर  और  अरबी घोड़े    साथ लाना । फारस फ़तेह करो तो मखमल की कालीन ,सूखे मेवे और जिन्दवेस्ता ग्रन्थ साथ  लाना। जब उज्बेगिस्तान - मंगोलिया तुर्क्मेनियाँ  फ़तेह करो तो उत्तम कोटि घोड़े  जावांज लड़ाके और धारदार  शमशीरें   साथ लाना।  यदि   हिन्दोस्तान जा सको और उसे  फतह कर सको  तो गंगा जल  ,भगवद्गीता और  कोई एक   सिद्ध महात्मा योगी  भी  साथ लेते  लाना। "
                                             ये   किवदंती है या सच ; सिकंदर ये सब मांगें पूरी कर पाया या नहीं  ये तो इतिहासकारों  के शोध का विषय है , किन्तु इसके प्रमाण अवश्य हैं की सिकंदर को भारत में सिर्फ शुरुआत  में ही आंशिक विजय मिली थी बाद में पंजाब और मालवा  विजित करने के दौर में उसके   सैनिक  जब  विद्रोह करने पर उतारू होने लगे  और सिकंदर  स्वयम भी  घायल हो गया तो उसका विजय का स्वप्न अधूरा ही रह गया। मायूस होकर घायल और  सन्निपात की अवस्था में   जब वह मकदूनिया वापिस  लौटने लगा तो  भारत  से वे वांछित वस्तुएं शायद नहीं ले जा सका जो उसके गुरु 'अरस्तु' को प्रिय थीं । इस घटना से यह अवश्य ही स्थापित होता है की , अरस्तु द्वारा बनाई गई सूची में उल्लेखित और  भारत से मंगाई जाने वालीं वस्तुओं की महिमा का बखान तत्कालीन यूनान तक अवश्य ही पहुंचा होगा।  निसंदेह ये वस्तुएं इक्कीसवीं शताब्दी  में भी भारत   और भारत से बाहर दुनिया भर में जा वसे  हिन्दुओं  के लिए आज भी उतनी ही पावन और पूज्य हैं।
                    लेकिन  आज  के   ढोंगी -पाखंडी - कपटी और धूर्त लोग - 'साधु'   के वेश में तिजारत  करने वाले धंधेबाज   बन चुके हैं।  आधुनिक  युग के  'सिद्ध महात्मा  योगी'  देश का उद्धार करने के बजाय 'शिष्याओं का उद्धार' करने में जुटे हैं । किसी के पास देश -विदेश में  ११ हजार करोड़ की संपदा ,किसी के पास ८ हजार करोड़ के आश्रम,फ़ार्म हॉउस ,किसी के पास  सैकड़ों सुन्दरियों की फौज, किसी के पास श्रद्धालुओं के नाम पर हजारों लफंगों,शोहदों  और भृष्ट  तत्वों का असंवैधानिक लवाजमा है।  किसी के पास मंदिर -मठ की जागीर  है ।  किसी के पास राजनैतिक नेताओं और पार्टियों का हुजूम और किसी के पास ईश्वरीय सन्देश का विशेषाधिकार।  कोई आयकर नहीं देना ,कोई सर्विस टेक्स नहीं देना , यदि धरम की आड़ में हथियारों की तश्करी करें ,मादक पदार्थों की तश्करी करें या किसी ज़िंदा मानव को मारकर उसकी खोपड़ी का चूरा बेचकर "आयुवर्धक औषधि ' बेचें तो किसी सरकार और क़ानून को हक नहीं कि  इनसे किसी तरह की पूंछतांछ कर सकें। यदि पुलिस क़ानून ने या किसी पीड़ित या पीडिता ने प्रतिकार किया तो उसे नास्तिक,विधर्मी ,विदेशी और  न जाने किस-किस  सर्वनाम से विभूषित करेंगे।   इन अधार्मिक व्यक्तियों  का  काले धन  और  [अ]धर्म स्थलों पर इतनी संपदा और स्वर्ण भण्डार है कि  देश को आगामी दस साल तक की बजट में एक पाई न तो विश्व बेंक से लेनी पड़ेगी और न ही देशी-विदेसी पूँजीपतियों  के  आगे 'पूँजी निवेश 'की चिरोरी करनी पड़ेगी। अपने पापों को छिपाने के असफल प्रयासों में नाकाम , ये नापाक तत्व राजनैतिक अशुचिता का दुष्प्रचार कर जनता का गुस्सा केवल राजनैतिक  नेताओं और खास तौर से धर्मनिरपेक्ष दलों और व्यक्तियों की ओर मोड़ देते हैं।
                                         इन  धनाड्य -बाबाओं ,समपन्न  मठों - चमाचम पीठों   , मजहबी -पंथिक धर्म स्थलों और धार्मिक- पारमार्थिक संस्थाओं को राष्ट्र और राष्ट्र की जनता से   लगातार तन-मन -धन  समर्पित किया जाता रहता है किन्तु इनकी ओर से राष्ट्र को या जनता को केवल 'आध्यत्मिक प्रवचन के नाम पर  बाचिक - लफ्फाजी और पारलौकिक विषवमन '   ही दिया जाता रहता है। प्राकृतिक आपदाएं , धर्म स्थलों पर अनपेक्षित भीड़ का ' सामूहिक वैकुंठवास'  या   देश में बढ़ती महंगाई ,गरीबी ,अशिक्षा ,शोषण और व्यवस्थागत दोषों से उत्पन्न जागतिक-सामाजिक  समस्याओं  बाबत इनके  पास  कोई  निदान या समाधान  नहीं है। उलटे   हरेक धरमध्वज केवल भोगी ,ढोंगी और सुरा सुन्दरी का तलबगार पाया जा रहा है।  चूँकि   सिकंदर के हमले  का मुकाबला करने के लिए चन्द्रगुप्त के साथ  चाणक्य के चरित्र ,अनुशाशन और विवेक का  योगदान था। इसीलिये सिकंदर यहाँ से जीतकर नहीं  पिटकर गया है। आज के संत आसाराम ,उमा भारती  ,रा मदेव , कृपालु महाराज,,निर्मल बाबा ,गाजी फ़कीर,नित्यानंद और भीमानंद जैसे सैकड़ों  हैं  जो  यदि  सिकंदर के हाथ लगते तो  समूचा फारस,समस्त रोमन साम्राज्य और सारा यूनान   यों ही  चुटकियों में फतह कर लेते।
          आसाराम जैसे ऐय्यास 'धार्मिक-ठगों' और उसके समर्थकों ,हमदर्दों के  बारे में कुछ भी लिखना ,कहना  या सुनना अब  केवल 'निन्दारस-अभिलाषा'नहीं  बल्कि यह तो अब राष्ट्रीय शर्म  की विषय वस्तू हो चूका है ।  ये पाखंडी साम्प्रदायिक उन्मादी वर्ग  जितना काइयां और चालाक है ,उसके 'स्टेक होल्डर्स ' उससे भी कहीं ज्यादा धूर्त और चालाक हैं।  कुछ तो इस वर्ग को  सत्ता  का साधन भी बना लेते हैं।  हो सकता है कि इनसे जुड़े हुए कुछ लोग आपराधिक पृवृत्ति के  न हों । किन्तु जब तक वे खुलकर अपने 'गुरु-घंटालो 'को सरे आम जूते नहीं लगाते तब तक न तो  समाज और देश का उद्धार  संभव है और  न हीं वे खुद बेदाग साबित होंगे। आशाराम के साथ  तो सबके -सब 'दो-नम्बरी' और नापाक किस्म के हैं। सवाल है कि  इन बदमाशों में खास तौर से उस  ख़ास समाज  के  ही लोग अधिक क्यों  हैं  जिससे  आसाराम  का सामाजिक सम्बन्ध है.  इस अधिकांस करप्ट और  'नव-धनाड्य 'वर्ग में - सटोरिये  ,वकील ,आश्रम इंचार्ज - सूरत से लेकर दिल्ली तक आसाराम के सजातीय लोग ही क्यों हैं ? यदि   आसाराम का लड़का नारायण साइ निर्दोष हैं तो पुलिस और क़ानून के सामने आकर अपना पक्ष कोर्ट के समक्ष क्यों नहीं रखता  ? अपने पापों पर पर्दा डालने के लिए ये -महा हत्यारे, बलात्कारी रात दिन  एक ही रट  लगाए रहते हैं कि "माँ  -बेटे"के इशारे पर  सरकार परेशान कर रही है।  यदि आसाराम और उसकी 'गेंग' को लगता है कि  वे 'निर्दोष' हैं तो सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा क्यों नहीं करते जहां उनकी पैरवी 'साइ राम जेठमलांनी  खुद कर  रहे हैं.
                               स्वामी रामदेव जैसे लफ्फाज और ढोंगी हैं  जो जनता को ठगते हैं ,इनके आश्रमों से  लड़के-लडकियाँ  गायब हो जाएँ  और यदि पुलिस -क़ानून अपना काम कर्रें तो ये लोग कभी सोनिया गाँधी ,कभी  राहुल गाँधी  और कभी  दिग्विजयसिंह  या गहलोत  पर भौंकने लगते हैं।  उनके इस अनर्गल अशालीन विषवमन  पर  अब जन-प्रतिक्रिया होने लगी है। आजकल जहां भी रामदेव जाते हैं उनको महिलायें चूड़ियाँ  भेंट करतीं हैं ,युवा और छात्र रामदेव को काले झंडे  दिखाते  हैं. मीडिया भी अब उन्हें ज्यादा भाव नहीं देता। उनकी 'राख -भभूत' वाली   अचूक औषधियाँ"  भी  बाजार में पडी -पडी सड़  रहीं हैं।  वे जो  'बन्दर -कुन्दनी 'आसन वगैरह अपने नाम से पेटेंट करने को उद्दत रहते  हैं वे  तो इंसान अनादिकाल से ही  करता ही आ रहा है. दर्शल बाबा रामदेव को अपनी लोक्ख्याती  का रोग लग चूका है ,वे भारतीय संविधान का ककहरा भी नहीं जानते किन्तु राजनीति  में 'चाणक्य' की भूमिका चाहते हैं। वे अर्थशाश्त्र ,समाज् शाश्त्र  या दर्शन शाश्त्र में से किसी भी विषय में दीक्षित नहीं हैं केवल शीर्शाशन ,लोम-विलोम या बंदरों जैसी उछल-कुंद  के दम पर भारत -भाग्य विधाता बन जाने के सपने देखते रहते  हैं।  राजनीतिज्ञों की तरह चाटुकारों -चापलूसों से घिरे स्वामी रामदेव बार -बार पतन के गर्त में गिर रहे हैं।
                                      जब रामदेव के आश्रम में  किसी का अपहरण  हो जाता है और अन्य  संदेहास्पद गतिविधियों की छानबीन  के लिए पुलिस  दविश देती है तो रामदेव का भाई फरार क्यों हो जाता  ?  उनके भरोसेमंद आचार्य - जी पर जो आरोप लगे हैं उन पर कोर्ट में सफाई देने के बजाय उत्तराखंड सरकार या केंद्र सरकार से रहम की उम्मीद क्यों की जाती है ? यदि रामदेव कुछ गलत नहीं करते और उनके 'पतंजलि योग पीठ' में या उनके औद्दोगिक साम्राज्य में कुछ भी गैर कानूनी नहीं है तो किस बात पर वो इतने डर-डर कर अरण्य रोदन  करते फिर   रहे हैं ? वे खुद ही कहते फिरते हैं कि केंद्र सरकार और उत्तराखंड सरकार  मुझे फंसाने की कोशिश कर रही है।  "मुझे सेक्स स्केंडल में भी   फँसाया  जा सकता है  " या  "उन्हें फ़साने में किसी विदेशी महिला और उनके बेटे  का हाथ है"  उनका यह घटिया वयान  अब  एक बचकाना जुमला बन चूका है, इस सफ़ेद झूंठ को बोलते वक्त रामदेव की आँखे खुद-ब -खुद  बंद क्यों हो जाया करती हैं?
                    रामदेव कुछ दिनों पहले कहा करते थे  कि "मैं भारत स्वाभिमान संघ के मंच से देश का उद्धार करूंगा। देश भर में इस मंच के ५००  उम्मीदवार खड़े  किये जायंगे। कांग्रेस ,भाजपा दोनों भृष्टाचार में लिप्त हैं। ये दोनों ही अमेरिका परस्त हैं। हमारे राज में  स्वदेशी का सम्मान होगा।  विदेशों में जमा काला धन  वापिश लाया जाएगा।  देश में गरीबों को न्याय मिलेगा। सभी को रोटी-कपड़ा -मकान  मिलेगा।" इत्यादि . . . इत्यादि।   देश के पढ़े-लिखे नौजवान  ,माध्यम वर्ग और  स्वभाव से धर्मभीरु नर-नारी रामदेव के झांसे में आते चले गए। जब तक वे केवल  योग गुरु थे  ,मुझे भी ठीक लगते थे ,जब उन्होंने भृष्टाचार मुक्त भारत की बात की तो वे अधिकांस सभ्रांत वर्ग के 'आइकान' बन गए। किन्तु ज्यों ही उन्होंने भारत स्वाभिमान के सिद्धांत को तिलांजलि  देकर  'नमो' और 'संघ परिवार' के चरणों में समर्पण किया , वे देश की सक्रीय राजनीति  का  एक दिग्भ्रमित   पक्ष बन  कर रह गए हैं ।
                                  हालांकि यह उनका संवैधानिक अधिकार है। किन्तु जो लोग कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही सरमायेदारों और लुटेरों का एजेंट समझते हैं उनको अब स्वामी  रामदेव यदि  शोषक शासक वर्ग के साम्प्रदायिक  पाले में नज़र आ रहे हैं तो वे गलत नहीं हैं । इतना  ही नहीं  पहले की बनिस्पत  रामदेव अब  ज्यादा  साम्प्रदायिक  और तदनुरूप  साम्प्रदायिक राजनीती के धुरंधर भी सिद्ध हो चुके हैं। अब यदि धर्मनिरपेक्ष ताकतें रामदेव को स्वामी या बाबा मानने के बजाय 'नेता' मानकर उनके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करे तो रामदेव को  कपडे   नहीं फाड़ना चाहिए।  जो साम्प्रदायिक नेता सरकार को  गालियाँ देते हैं , विदेशी आक्रमण कारियों के खिलाफ आवाम को राम-रावण युद्ध का -  "विजय रथ रूपक " पढ़ाते हैं।  दुश्मन से जीत  सकने का माद्दा इन  कलुषित मानसिकता के स्वयम्भू 'बाबाओं और स्वामियों  में कैसे संभव हो सकता  है। ये तथाकथित सन्यासी एक ओर तो अपने आप को संसार से परे सन्यासी बताते हैं दूसरी  ओर जब -तब किसी खास नेता या दल की निंदा करते रहते हैं। क्या यह संतों ,साधुओं या आचार्यों का आदर्श है ?ये कामुक किस्म के धन लोभी अ-धार्मिक ठग  पाकिस्तान,चीन और अमेरिका  के खिलाफ दहाड  लगाकर  युद्धोन्माद की कोशिश करंगे। किन्तु  जब कुर्बानी की बात आयेगी तो  दूम दवाकर दडवे  में छिप  जायेंगे। भगवा वेशधारी पाखंडी स्वामी ,बाबा   -  सभी   जनता  में अंध श्रद्धा और धर्मान्धता का वीज वपन करते रहते  हैं। 
                        ये नैतिक रूप से पतित ,नीति विहीन ,धार्मिक पाखंड के  पहरुए - देश का ,समाज का और  नेताओं का मार्ग दर्शन क्या खाक करेंगे ? तात्पर्य यह है की आज का भारत अपने अतीत के भारत से और ज्यादा दैन्य स्थति में पहुँच चूका है।  भारतीय समाज में अनेक विद्रूपताओं के  वावजूद कुछ पवित्र प्रतीक अवश्य थे। जिनपर भारत के विवेकवान लोगों को गर्व था।   आज चाणक्य जैसी वैज्ञानिक और प्रगतिशील दृष्टी की जरुरत है न की हिटलर -मुसोलनी के  फासिजम से सरावोर नेताओं की ,  या वर्तमान दौर के ढोंगी ,व्यभिचारी -धर्मं -मजहब के ठेकेदारों की ।
                                   गंगा को गंदा करने में पाकिस्तान या चीन का नहीं बल्कि  भारतीय  जनता जनार्दन का ही हाथ है. खास तौर से हिन्दू समाज ही गंगा समेत तमाम नदियों को गंदा करने के लिए जिम्मेदार है।  अब यदि भारतीय न्यापालिका का आदेश है की मूर्तियों को गंगा में न बहायें तो ये तथाकथित  हिन्दू श्रद्धालुओं की जिम्मेदारी है की अपनी पवित्र नदियों को 'मरने ' से बचाएं।
          इसी तरह जब धर्म -मजहब के नाम पर कोई शातिर बाबा ,स्वामी, या धर्मगुरु जब भोली -भली जनता को खास  तौर  से महिलाओं  को फांसने या ठगने का जाल बुनता हो तो सुधि जनों की जिम्मेदारी है की  उसे जेल  भेजने में क़ानून की मदद करे।   कुकर्मी आसाराम और उसके लफंगे ऐय्यास बदमाश लड़के नारायण साई को बचाने के लिए  कुछ   निर्लज्ज महिलायें और कुकर्मी भक्त  भी  मीडिया के सामने  दिखाई देते हैं ये देश के नाम पर कलंक हैं।  जो पीड़ित महिलायें और सेवक इन पापियों के पापों का भंडाफोड़ रहे हैं उनको पूरा सम्मान और सुरक्षा   मिलनी चाहिए।  गनीमत है की अभी कोई सिकंदर  ,कोई गजनी ,कोई गौरी  भारत पर आक्रमण करने नहीं आ रहा है किन्तु आधुनिक सूचना एवं संचार क्रांति के दौर में  जबकि भारतपर  अपने पड़ोसियों की नापाक नज़रों  हों। यह नितांत जरुरी है की नैतिक मूल्यों और प्राकृतिक सम्पन्नता का संरक्षण सुनिश्चित किया जाए।
                                     इतिहासकार  बताते हैं की  वह असमय ही भरी जवानी में भारत से मकदूनिया लौटते वक्त  म्रत्यु को प्राप्त  हो गया  था।  उसके सेनापति सैल्युकास  ने भारत के पश्चिम मैं   इरान ,अफगानिस्तान और ईराक इत्यादि  - सिकंदर के विजित क्षेत्रों को अपने काबू में  करने की असफल कोशिश जरुर की थी किन्तु मगध के नवोदित सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु  विष्णुगुप्त चाणक्य  के निर्देश पर सैल्युकास के पुत्र फिलिप्स को पराजित कर उसकी बहिन 'हेलेन' से शादी कर ,यूनान  और मकदूनिया को भारत की ताकत से  रूबरू जरुर कराया था।  यूनानी दार्शनिक और सिकंदर के गुरु अरस्तु   से भारतीय दर्शन शाष्त्री  और  चन्द्रगुप्त मौर्य  का  गुरु चाणक्य  बेशक तीक्ष्ण और कुशाग्र बुद्धि का  धनी था। उसने अपने शिष्य चन्द्रगुप्त से 'भारतवर्ष ' राष्ट्र की एकता स्थापित करने की मांग ही की थी जिसे उसके शिष्य ने पूरा करने का भरपूर प्रयास किया था।
                                      विष्णुगुप्त चाणक्य ने केवल 'अर्थशास्त्र ' ही नहीं लिखा बल्कि 'चाणक्य नीति'   सहित अन्य अनेक  प्रगतिशील वैज्ञानिक तथ्यों का प्रतिपादन भी किया था। जब तक उसके सिधान्तों को चन्द्रगुप्त ने माना तब तक भारत का दुनिया में बोलबाला रहा। जब चन्द्रगुप्त ने चाणक्य को छोड़कर जैन धर्म धारण कर लिया तो विदेशी ताकतों ने फिर सर उठाया और उसके पुत्र विम्बीसार को अपयश का भागीदार होना पडा। चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाकर भले ही दुनिया भर में 'धम्म चक्र प्रवर्तन' की  ध्वजा फहराई हो किन्तु उसके निधन के बाद भारत छिन्न -भिन्न होने से नहीं बचा।  दुर्भाग्य से भारत की जनता  और खास तौर  से 'हिन्दू समाज' ने चाणक्य के उपदेशों को लाल कपडे में पोथी की तरह बांधकर पूजा तो की किन्तु उन सूत्रों और सिद्धांतों को राजनीती,समाज और लोक व्यवहार में  प्रयुक्त करने की जहमत नहीं उठाई। एक तरफ विदेशी आक्रान्ता भारत विजय के लिए भयंकर आक्रमणों का सिलसिला बनाए चले गए और दूसरी ओर भारत के राजे -रजवाड़े ,सामंत ऐय्यासी में डूबते -उतराते रहे। भारतीय समाज में  'चमत्कार को नमस्कार ' का बाहुल्य बढ़ता चला गया। विज्ञान के आविष्कार,सामजिक  परिशकारन ,राष्ट्र निर्माणकारी नीतियां सब लोप होते चले गए। राज्य -समाज के सारे उपक्रम   केवल राज्य कृपा तक सीमित रह गए. समाज   में धर्मांध बाबाओं ,पाखंडी साधुओं , धनाड्य  मठाधीशों  और 'भिक्षु ' पृवृत्ति के लोगों का कारवाँ बढ़ता चला गया। इसी कारण भारत को दुहरी -तिहरी गुलामी कई सदियों तक झेलनी पड़ी। स्वामी विवेकानंद को अपने अमेरिका प्रवास  के दौरान कहना पडा -" भारत को ज्ञान ,धर्म ,अध्यात्म की नहीं रोटी की जरुरत है "
                    वर्तमान दौर की राजनीती की आलोचना जायज हो सकती है ,उसमें किये जा रहे  सुधारों का स्वागत  है ,न्यायपालिका ,मीडिया और देशभक्त लोगों के सकारात्मक प्रयास वन्दनीय हैं. किन्तु   राजनीती की कुरूपता से ज्यादा भयावह  समाज में व्याप्त  धर्मान्धता  ,जातीयता ,क्षेत्रीयता नितांत निंदनीय है। धर्म-मजहब के ठिकानों पर हो रहे व्यभिचार ,शोषण उत्पीडन और पूंजीवादी लूट की खुली छूट और गलाकाट प्रतियोगिता से समाज और देश को  बचाने के लिए आज फिर किसी कार्ल मार्क्स ,किसी चाणक्य की किसी विचारधारा की जरुरत है।

                                         सोचो !   सिकंदर यदि रस्ते में न मरता और मकदूनिया में जाकर अपने गुरु को उसकी मनचाही भेंट दे देता तो भारत की तस्वीर कुछ और ही होती।   यदि वो योगी आसाराम  स्वामी रामदेव  या  भीमान्नद जैसा  हुआ होता  तो यूनान की क्या दुर्गति हुई होती ? गंगाजल ,तुलसी की माला और गीता तो जरुर वहां पहुंची होती , क्योंकि जब सिकंदर के सेनापति  सेलुकस को हराकर चन्द्रगुप्त  मौर्य ने उसकी बहिन 'हेलेन ' से शादी की तो स्वाभाविक है की  इन महत्वपूर्ण और पवित्र वस्तुओं को यूनान भेजे जाने में कोई खास दिक्कत नहीं आई होगी। चन्द्रगुप्त के गुरु कौटिल्य चाणक्य भी यही चाहते होंगे की आर्यावर्त याने भारतवर्ष याने हिन्दुस्तान की गरिमा दुनिया में जाज्वल्यमान हो। किन्तु चाणक्य ने ११ हजार करोड़ की संपदा या अपनी कुटिया में 'वारांगनाओं' का अन्तःपुर नहीं वसाया था।  वे किसी सेक्स स्केंडल में नहीं  फँसे  थे। रामदेव को और अन्य बाबाओं ,या हिन्दू  साम्प्रदायिक  नेताओं को यदि चाणक्य बनने का गुमान हो तो सत्ता सुन्दरी  रुपी विष कन्या का सेवन करने से बचना होगा। शोषण की पूंजीवादी शक्तियों के हाथ का खिलौना बनने  के बजाय  देश के मेहनतकशों -मजदूरों और किसानों के बीच जाकर अपने आपको तपाना  होगा। देश में किसी खास  नेता का समर्थन या विरोध नहीं बल्कि  जन-कल्याणकारी वैकल्पिक नीतियों  के अनुसन्धान  के साथ -साथ प्रजातांत्रिक -धर्मनिरपेक्ष  मूल्यों का संवर्धन भी करना होगा। तभी कोई स्वामी ,कोई  योगी ,कोई  अष्टाबक्र ,चाणक्य या समर्थ रामदास  बन पायेगा।  राष्ट्र का मार्ग दर्शक  बनने  के लिए इस सूत्र पर अमल भी जरूरी है।
                           "यथा चित्तं तथा वाचो ,यथा वचस्तथा क्रिया,
                         
                           चित्ते  -वाचि क्रियाणाम ,साधुनाम च  एकरूपता"

                           श्रीराम तिवारी