आवारा वैश्विक पूँजी और दूषित राजनीति के अवैध संसर्ग से उत्पन्न- मीडिया- लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कैसे हो सकता है ?वैश्विक प्रजातांत्रिक अभिलाषाओं के दौर में अब यह सार्वभौम सिद्धांत बन चूका है कि विधायिका, कार्यपालिका,न्यायपालिका के साथ- साथ ' मीडिया' भी आदर्श लोकतंत्र का एक शशक्त जागृत प्रहरी सावित हो सकता है । याने "मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खम्भा होना चाहिए " जिस किसी ने भी यह सिद्धांत प्रतिपादित किया हो ,उससे एक चूक अवश्य हुई है। उसने सम्पूर्ण मीडिया को समेकित रखते हुए 'वाइस पसेरी धान' एक एक ही तराजू से तौलने की जुर्रत की है ! जबकि उसे मीडिया की 'वर्गीय' बुनावट को समझते हुए कहना चाहिए था कि "प्रगतिशील मीडिया -याने धर्मनिरपेक्ष ,जनवादी क्रांतिकारी विचारों से समृद्ध , वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सम्पन्न और निष्पक्ष मीडिया ही लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ हो सकता है।
मीडिया की सामाजिक,आर्थिक ,राजनैतिक , सांस्कृतिक,साहित्य -कला -संगीत और खेलों के क्षेत्र में सर्वत्र प्रतिस्पर्धात्मक पैठ बन चुकी है। लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में मीडिया की महत्वपूर्ण जबाबदेही के बरअक्स कुछ सवाल भी उठ रहे हैं. सबसे पहला तो यही सवाल है कि इस दौर में जो मीडिया की छिछालेदारी हो रही है ,उसके हरावल दस्तों में सभ्रांत वर्गीय ऐयाशी का जो बोलबाला हो रहा है ,जो नैतिकता अवमूल्यन हो रहा है , जो कुछ आक्रामक घटित हो रहा है, क्या उसे देखते हुए भी 'समस्त -मीडिया' को ' लोकतंत्र का चौथा खम्भा' माना जाए? या सिर्फ मीडिया की सकारात्मक विंग को ही लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना जाए, उसे सम्मान दिया जाए। भास्कर,बंसल,साधना और सहारा जैसे अनेक पेड़ न्यूज के आरोपों से घिरे -प्रिंट-दृश्य-श्रव्य- मुनाफाखोर मीडिया ,खनन माफिया या शराब माफिया के पैसों से संचालित सत्ता का दलाल मीडिया , ब्लेकमेलिंग- सुरा-सुंदरी और सत्ता का हथियार मीडिया ,पूँजीवादी सत्ता के दलालों से संचालित,धन्धेबाज - साम्प्रदायिक - बदमाश व्यापारी -पाखंडी बाबाओं से संचालित मीडिया और नारी मात्र को भोग्य मानने वाले अधिकांस फ़िल्म निर्माताओं -निर्देशकों-वित्त पोषकों का तीमारदार मीडिया , तरुण तेजपाल जैसों द्वारा संचालित 'तहलका ' की शक्ल का मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कैसे हो सकता है ?
वैसे तो हर किस्म के नकारात्मक मीडिया को भृष्ट पूँजीपतियों और सत्ता के दलालों का भी दलाल माना जा सकता है लेकिन लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कदापि नहीं ! दक्षिण पंथी ,अनुदार और पूँजीपतियों के चरण धोकर पीने वाला मीडिया तो रंचमात्र महिमा मंडित नहीं किया जाना चाहिए ! मीडिया की सार्थक सजगता और उसकी सामाजिक सरोकार वाली छवि के बरक्स जिसने ये परिभाषा गढ़ी है कि ''मीडिया तो लोकतंत्र का चौथा खम्भा है "उसे शायद भारत के 'सभ्रांत सफ़ेदपोश वर्ग' की उस सामंती पुरषत्ववादी मानसिकता का भान ही नहीं रहा होगा , जिसमें 'स्त्री' को पुरुष समाज की केवल एक 'वस्तु' मात्र माना गया है। 'प्रत्यक्ष किम प्रमाणम '! ज़र -ज़ोरू -ज़मीन ये पुरुष सत्तात्मक समाज में आज भी झगड़े की जड़ माने जा रहे हैं। भारत में यदि आज भी यह मानसिकता जस-की -तस है तो प्रजातांत्रिक व्यवस्था से इन सामंती सोच के विषाणुओं का खात्मा निर्ममता से किया जाना चाहिए ! आधुनिक समाज की अधोगामी - वास्तविकता और लोकतंत्र के चारों स्तम्भों सहित मीडिया की समीक्षा भी शिद्दत से की जानी चाहिए ! जिस तरह लोकतंत्र के सकारात्मक तत्वों को दुनिया भर में सम्मान प्राप्त है और नकारात्मक रुझानों से संघर्ष जारी है , जिस तरह दुनिया में साम्राज्यवादी -पूंजीवादी वैश्विक नैगमिक वित्तीय शक्तियों ने प्रजातंत्र को"जनता का- जनता के द्वारा-शक्तिशाली लोगों के लिए " बना डाला है ,उसी तरह भारतीय परिप्रेक्ष्य में देशी-विदेशी वित्त पोषकों और शक्तिशाली लोगों ने मीडिया को अपने हित साधन का हथियार बना डाला है।
जिस तरह दुनिया भर में फ़ौजी तानाशाही -साम्प्रदायिक निरंकुश व्यवस्थाओं और कार्पोरेट पूँजी से संचालित नकली प्रजातंत्र के खिलाफ वास्तविक प्रजातंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष हो रहे हैं, उसी तरह मीडिया और साहित्य के क्षेत्र में भी -जनकल्याणकरी,प्रगतिशील,वैज्ञानिकतावादी सकारात्मक मूल्यों से समृद्ध मीडिया और क्रांतिकारी प्रगतिशील साहित्य की स्थापना के लिए दुनिया भर में संघर्ष जारी है। भारत में यह संघर्ष अभी हासिये पर है। यह लड़ाई उस मीडिया के भरोसे नहीं लड़ी जा सकती जिस पर उन काली ताकतों का कब्जा है जो एक जवान लड़की को केवल 'बाज़ार का माल' और मेहनतकशों को 'क्रीत - दास' समझते हैं। यह लड़ाई उन साहित्य़कारों के बलबूते भी नहीं लड़ी जा सकती जो केवल 'हां -हां -भारत दुर्दशा देखी ना जाए " पर आंसू बहाते रहते हैं। दुनिया भर में भारत का सिर्फ एक नकारात्मक पक्ष प्रस्तुत कर - बुकर पुरस्कार ,मेगा साय -साय पुरस्कार या भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार पा जाते हैं। जो बुर्जुआ वुद्धिजीवी,लेखक ,सम्पादक ,कवि या साहित्यकार मानता है कि 'कला-कला के लिए है 'वो शोषक शासक वर्ग के पक्ष में बौद्धिक बेईमानी का दोषी है। ऐंसे लोग 'सुरा - सुंदरी -सम्पदा ' के चारण बनकर किसी सरकारी या अकादमिक संस्था में कोई पद पा जाते हैं। पाठ्यक्रमों में अपनी रचनाएँ शामिल कराने के लिए 'सत्ता की चिरोरी किया करते हैं । इस दौर में भारतीय कला , साहित्य ,संगीत ,फ़िल्म और मीडिया में इन्ही तत्वों का वर्चस्व है। संघर्षशील, मेधावी,आधुनिक तकनीक में दक्ष युवा वर्ग - लड़के लडकियां इस आर्थिक सर्वसत्तावाद के खिलाफ इन क्षेत्रों में जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ये लड़ाई वे केवल अपने कर्मठ कौशल और वैयक्तिक संघर्ष से नहीं जीत सकते।
आधुनिक साक्षर युवाओं ,मेहनतकशों,किसानों और उनके क्रांतिकारी जन-संगठनों से जुड़कर ही कोई सार्थक लड़ाई लड़ी जा सकती है। इसके लिए नक्सलवाद जैसे उग्र -वामपंथ का दामन थामना भी जरूरी नहीं है। हाँ !यदि लोकतांत्रिक तौर -तरीकों के आधार पर यदि इस संघर्ष को जल्दी ही आरम्भ नहीं किया गया तो इस दौर के साम्प्रदायिकतावादी ,सत्ता के दलाल - पूँजीवादी दल और सामंती मानसिकता के नकारात्मक भृष्ट नेता-अफसर और अलगाववादी देश को इतिहास की अंधेरी सुरंग में धकेल देंगे । यह अत्यंत दुखदाई है कि जिस दौर में देश मंगल गृह से सीधा सम्पर्क करने जा रहा है उस दौर में सामाजिक , सांस्कृतिक ,आर्थिक और राजनैतिक चेतना का नितांत अभाव है। देश की शांतिप्रिय,धर्मनिरपेक्ष और यथास्थतिवादी आवाम ने जिन पर ज्यादा भरोसा किया वे लोकतंत्र के दो खास स्तम्भ न्याय पालिका और मीडिया इन दिनों खुद संदेह के घेरे आ चुके हैं। अभी तक फ़िल्मी हस्तियां , पूंजीपति वर्ग ,सेना के वरिष्ठ अधिकारी, सार्वजनिक उपक्रमों और केंद्र राज्य के आला सरकारी अफसर ,सांसद ,विधायक , मंत्री ही नारी -उत्पीड़न ,यौन शोषण और दुराचार के लिए कुख्यात थे। लेकिन अब इस यौन शोषण और नारी उत्पीड़न के आरोप सुप्रीम कोर्ट के जज {अब सेवा निवृत} और सार्वजनिक जीवन में भृष्टाचार ,नारी-उत्पीड़न के खिलाफ निरंतर शंखनाद करने वाले स्वनामधन्य -तहलका संस्थापक तरुण तेजपाल पर भी लग चुके हैं। इन लोगों ने न केवल देश को दुनिया में रुसवा किया है बल्कि इन के कारण आवाम को न्याय पालिका और मीडिया दोनों पर भरोसा नहीं रहा।
इन दिनों भारतीय मीडिया शोकग्रस्त है। वो चाहे छप्य -पठ्य या श्रव्य हो ,वो चाहे अधुनातन तकनीकी सूचना संचार क्रान्ति से संवर्धित हो या पुराने जमाने के हस्तलिखित दीवारों के इस्तहारों की मानिंद रूढ़िग्रस्त हो,वह जाने - अनजाने आधुनिक वैश्विक बाजारीकरण और आवारा पूँजी का गुलाम होकर रह गया है। यह अपनी प्रतिष्पर्धागत जीवंतता से आक्रान्त होकर न केवल अपने राष्ट्रीय , मानवीय सामाजिक और आर्थिक सरोकारों से दूर हो चला है ,यह न केवल अपने देश की शिक्षित युवा पीढ़ी और शहरी जनता को भ्रमित कर रहा है। बल्कि जाने -अन्जाने भारत की ६० % ग्रामीण आबादी के जीवंतता विषयक अत्यावश्यक विमर्श की घोर उपेक्षा भी कर रहा है। देश की अधिंसख्य आबादी गाँवों में ही निवास करती है और उस आबादी में से एक प्रतिशत जनता भी ये नहीं जानती कि मीडिया क्या चीज है.
देश के अंदरूनी हिस्सों में जहां आजादी के ६६ साल बाद भी बिजली -सड़क -सिचाई या ट्रेन मयस्सर होना तो दूर की बात है , पीने का शुद्ध पानी भी उपलब्ध न हो वहाँ जाकर 'भारत रत्न' शब्द की प्रतिध्वनि क्या भेला कर लेगी ?वहाँ आधुनिक विकाश की गंगा का भी पहुंचना कैसे सम्भव है ? वहाँ के वासिंदे नहीं जानते कि मंगल गृह से भारतीय अंतरिक्ष अनुसन्धान केंद्र का कितना सरोकार है ? मुम्बई के धारावी क्षेत्र में कई वस्तियाँ हैं जहाँ हर घर में "स्लिम डॉग मिलयेनर्स' पैदा नहीं होते और वे नहीं जानते कि बानखेड़े स्टेडियम क्या चीज है? कहाँ है? क्यों है ? किनके लिए है ? एक सामान्य बुद्धि और साधारण हैसियत का लड़का -सचिन तेंदुलकर - भगवान् कैसे बन गया ? इन तमाम वंचित और असहाय लोगों के लिए भारतीय मीडिया ने क्रिकेट के बहाने एक अदद एक्ट्रा भगवान् भले ही पैदा कर दिया हो किन्तु जिसे अपने कल के भविष्य की घोर चिंता ने दबोच रखा हो वो किस -किस भगवान् को कहाँ -कहाँ अर्ध्य देता फिरे ? और कहता फिरे कि हे देव !आपकी - जय हो ! जय हो !जय हो ! त्राहिमाम् -त्राहिमाम् !
कहने का अभिप्राय यह है कि इन दिनों टीआरपी प्रधान मीडिया का एक बड़ा हिस्सा गैर जरूरी विमर्श के माया मृग जाल में अपने पाठकों ,दर्शकों और श्रोताओं को भरमाने का काम कर रहा है। न केवकल क्रिकेट बल्कि नारी -उत्पीड़न ,यौन शोषण तथा राजनीति के नकारात्मक पक्ष पर आधुनिक मीडिया इन दिनों ज़रा ज्यादा ही फ़िदा है। एलीट क्लाश या बुर्जुआ वर्ग में निरंतर चल रहे 'सूरा-सुंदरी-सम्पदा के विमर्श को जब राष्ट्र से परे ही मानने की हद तक आधुनिक मीडिया उतारू हो जाए तो इस विमर्श में चैतन्यशील प्रगतिशील वर्ग का इसमें सार्थक और क्रांतिकारी हस्तक्षेप जरूरी है। प्रासंगिक दौर के विमर्श उतने सार्वभौम या जनकल्याण कारी नहीं है जितना आधुनिकतम मीडिया ने गलाकाट प्रतिष्पर्धा के चलते देश की जनता के समक्ष पेश कर रखा है।
प्रतिस्पर्धा में बने रहने की बाध्यता के चलते न केवल बाज़ार की ताकतों का पिठ्ठू, बल्कि मुख्य धारा के साथ-साथ प्रगतिशील मीडिया भी देश हित से परे कुछ खास व्यक्तियों के महिमा मंडन याने "नायकत्व' के बेसुरे राग में तल्लीन है। कभी नरेद्र मोदी ,कभी राहुल गांधी ,कभी सोनिए गांधी , कभी अन्ना ,केजरीवाल, कभी सचिन तेंदुलकर , विराट कोहली , कभी मनीष तिवारी , कभी दिग्विजयसिंह कभी आसाराम एंड सन्स , कभी मुलायमसिंघ , कभी आडवाणी ,मायावती,ममता ,नीतीश या कभी किसी खास नेता,पत्रकार ,अफसर ,बाबा या बलात्कार पीड़िता जैसे नामों पर ही आधुनिक मीडिया के विमर्श की सुई अटक जाया करती है? किस व्यक्ति के विचार क्या हैं ?किसकी आर्थिक नीति क्या है ? कौन किस सामाजिक -सांस्कृतिक और राजनैतिक 'दर्शन' का विशेषज्ञ और वेत्ता है ? कौन कैसे मानवीय सदगुणों और नैतिक मूल्यों से सम्पन्न है? कौन कैसे देश और समाज को दिशा देगा ?या समाज में बदलाव के क्रांतिकारी तत्व कौनसे हैं ? क्या यह सब आधुनिक मीडिया को मालूम है ? विभिन्न नेताओं और राजनैतिक दलों की दुनिया के बारे में , पड़ोसी देशों के बारे में और संयुक्त राष्ट्र संघ के बारे में आधुनिक मीडिया की क्या सोच है ? विश्व मानचित्र पर बेहतरीन भारतीय मूल्यांकन की विश्वयक योजनाएं क्या हैं? क्या यह सब इस दौर के मीडिया को मालूम है ?यदि मालूम है तो इन लोकहितकारी सवालों पर भारतीय मीडिया मौन क्यों है ? क्या लोकतंत्र के प्रति उसकी जबाबदेही केवल कीचड़ उछालना ही है ?
आधुनिक संचार एवं सूचना सम्पर्क क्रांति की बदौलत इस दौर का मीडिया समष्टिगत रूप से अत्यन्त शक्तिशाली हो चूका है। वह चाहे तो पिद्दे को वजीर और वजीर को पिद्दा बना दे । वह प्रकारांतर से शक्तिशाली शासक वर्ग की नाभि नाल से जुड़ा होने के कारण उनके ही हितों के बरक्स सोचता है और वह जो सोचता है वही समाज से सोचने की फितरत करता रहता है । दुनिया में और उसके साथ-साथ भारत में जब आधुनिक साइंस-टेक्नालॉजी , उन्नत संचार क्रान्ति और लोकतांत्रिक जन-आकांक्षाएं नहीं हुआ करते थीं तब प्रबुद्ध और शिक्षित समाज को केवल छप्य संसाधनों याने 'प्रिंट' माध्यमों पर ही निर्भर रहना पड़ता था।
तब साहित्य के रूप में अखवारी - मीडिया या तो समाज का दर्पण हुआ करता था या समाज का मार्गदर्शक हुआ करता था। आजादी की लड़ाई में दैनिक प्रताप ,वीर अर्जुन ,पंजाब केसरी ,हरिजन या हिन्द स्वराज जैसे समाचार पत्र तो तत्कालीन हुतात्माओं की आवाज थे ही इसके अलावा भी सारा काव्य जगत और साहित्य जगत राष्ट्रीय चेतना से लेस हुआ करता था। नतीजादेश की आजादी के रूप में सारे संसार ने देखा। आपातकाल के दौरान भी राष्ट्रीय मीडिया ने जो महती भूमिका अदा की थी और देश को लोकतंत्र की पटरी पर खींचकर लाने में इसका कितना योगदान था ये इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों से लिखे जाने योग्य है। भारत-पकिस्तान युद्ध और बांगला देश के उदय के दौरान भी भारतीय मीडिया ने शानदार देशभक्तिपूर्ण साहसिक भूमिका अदा की थी।
किन्तु शांतिकाल में और लोकतंत्र में चौथे खम्बे के रूप में यह आधुनिक मीडिया केवल सत्ताधारी शासक वर्ग की उथली आलोचना करता हुआ ही नजर आता है। वास्तव में मीडिया अब अपने कर्तव्य बोध से नहीं बल्कि अपने वित्त पोषक शासक वर्ग याने 'आकाओं' के हित साधन के प्रयोजन से जाना जाता है। वेरोजगार लडकियां ,जवान लडकियां और लड़के भी मजबूर होकर इस आधुनिक पतनशील व्यवस्था से जुड़ जाते हैं। कुछ चुपचाप शोषण - उत्पीड़न सहते रहते हैं ,कुछ इस अन्याय का प्रतिकार करते हैं। यही वजह है कि आसाराम जेल में होते हैं ,नारायण साईं छुपता फिरता है , अफसर सस्पेंड कर दिए जाते हैं ,नेता-सांसद-विधायक जेल भेज दिए जाते हैं किन्तु सुप्रीम कोर्ट के जज [सेवा निवृत} पर आरोप लगने और मीडिया के एक खास शख्स पर नारी उत्पीड़न और दुराचार का आरोप लगने से देश को जबरजस्त 'शाक' लगा है । दुनिया में भारत की छवि धूमिल हुई है। एक सवाल उठ रहा है कि जब साधू संत ,न्याय विद ,नेता, सांसद -विधायक मंत्री अफसर,फिल्मकार, खिलाड़ी और मीडिया दिग्गज नारी उत्पीड़न और यौन -शोषण में लिप्त हों तो आवाम याने आम आदमी को क्या करना चाहिए ? क्या अब भी कहेंगे कि "महाजनो ये गता स : पंथाः ?
श्रीराम तिवारी
मुझे वोट डालना आता है __ मैंने वोट ड़ाल दिया_ ८ -९ तारीख को क्या होगा_ मुझे क्या ? सब के कहने पर आम नागरिक का कर्त्तव्य निभाया__ मुझे 'राम मंदिर' से क्या लेना देना__ मैं तो सुबह काम के लिए निकलते समय सभी मंदिर-मस्ज़िद-गुरूद्वारे-चर्च के आगे शीश झुकाता निकल जाता हूँ_ मैं अंदर जाकर क्या करूंगा_ मेरे पास समय भी नहीं है और न मैं उन लोगों जितना समझदार हूँ कि इबादत कैसे की जाती है__ मुझे नहीं मालूम कि रोड पर मस्ज़िद या मंदिर आने से क्या-क्या बाधाएं आती हैं_ मैं तो कच्चे रास्ते की धूल में अपनी फिक्र को उडाता हुआ चला जाता हूँ_ कल बस्ती मैं शराब बटीं, रोज कि तरह मैंने भी पी ली_ सरकार किसी की भी हो, दोनों अपना धर्म निभाती आ रहीं हैं-- कितने अच्छे हैं ये लोग_ भूखे पेट तो नींद नहीं आती लेकिन इनके द्वारा प्रायोजित नीलाम की गई दुकानो से प्राप्त सोमरस द्वारा भूख का पता भी नहीं चलता_ सपने भी अच्छे आते हैं_ अलसाया हुआ सुबह-सुबह वोट डालने गया_ भीड़ भी नहीं थी_ रात में परोसा गया सोमरस किसके द्वारा आया यह भी मुझे याद था_ लेकिन अचानक वोट डालते समय जोरदार 'भूख की याद' आ गई _होश में था ना_ 'नोटा' तक ही जैसे तैसे बेहाल 'भूखी-नंगी' ऊँगली पहुंची_ मैं भूख से प्रभावित, महंगाई से ग्रसित एक आम जवाबदार नागरिक था_ मैंने दोनों प्रमुख पार्टियों में से कोई भी नाराज़ न हो, इसलिए 'नोटा' बटन दबा दिया_ क्योंकि दोनों पार्टियां गरीबी हटाएं या न हटाएं _ सोमरस कि आसान उपलब्धि के द्वारा हमें नींद की दवा तो अच्छी देती है_ वास्तव में कौन लोग हमारे हितेषी हैं यह भी दोनों सोचने नहीं देते_ क्योंकि ये लोग इतने अच्छे हैं कि सोचने का टेंशन भी नहीं देना चाहते_ साथ में पञ्च वर्ष में एक पर एक फ्री_ मैं हूँ एक बहुसंख्यक अति गरीब आदमी। (by Yeshwant Kaushik, Indore)
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