सोमवार, 11 नवंबर 2013

देशी-विदेशी धन्नासेठों को पप्पू से अधिक फेंकू से प्यार क्यों है? बूझो तो जाने !



भारत के टॉप -100 पूँजीपतियों  के बीच विगत दिनों एक अजीब किस्म का 'जनमत-संग्रह 'किया गया है । इस जनमत संग्रह के परिणाम यह दिखाते हैं कि भाजपा की और से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी - नरेन्द् मोदी को देश के टॉप-74  पूंजीपतियों का समर्थन प्राप्त है । मात्र  7  पूँजीपतियों  ने  कांग्रेस के अघोषित  प्रत्याशी   राहुल गांधी  को  प्रधानमंत्री पद हेतु उचित उम्मीदवार  माना है ।इस सर्वेक्षण से सिद्ध होता है कि देश की  जनता चाहे न चाहे ,किसान मजदूर चाहें न  चाहे  बंगाल   , केरल  , तमिलनाडु   , उड़ीसा  , आंध्र  , कर्नाटका  , झारखंड  ,उत्तराखंड ,एमपी   बिहार ,यूपी ,पंजाब ,हरियाणा , त्रिपुरा या पूर्वोत्तर  की  जनता चाहे न चाहे,  देश  के पूँजीपति  वर्ग का बहुमत और 'संघ परिवार'  का 'जनमत' तो मोदी को   ही  प्रधानमंत्री बनाकर रहेगा ! 
                                              भले ही  मोदी  प्रधानमंत्री  न बन पाएं   किन्तु  'पी एएम इन वैटिंग' तो रहेंगे ही। इस सर्वेक्षण से यह तो पता चल ही गया कि  भारत के भविष्य की   दशा और दिशा के बारे  में पूंजीपतियों   की  भूमिका  क्या होगी ? भाजपा और संघ परिवार का चाल - चरित्र  - चेहरा शनैः -शनैः  'नमो' में परिलक्षित होने लगा है।एक और से कट्टर  हिंदुतववाद का शंखनाद किया जा रहा है दूसरी और से  न केवल देशी पूंजीपतिवर्ग, अपितु विदेशी वित्त  निवेशक  भी अपने नियंत्रित नैगमिक मीडिआ के माध्यम से मोदी को आगामी लोकसभा चुनावों में एनडीए के 'सिरमौर' बनाकर  'अवतार'पुरुष बनाने कि जद्दोजहद में लगे  हैं।
                                            आजकल नैगमिक मीडिआ नरेंद्र मोदी को 'नमो' से विभूषित कर रहा है। उसे नमो से प्यार इसलिए नहीं  उमड़ रहा है कि मोदी कोई बहुत बड़े 'राष्ट्र उद्धारक'-दर्शनशास्त्री या क्रांतिकारी विचारों के प्रणेता हैं ! बल्कि वजह कुछ और है। चूँकि आर्थिक सुधारों के नामपर देशी-विदेशी पूंजीपति  वर्ग को केंद्र की सत्ता में निरंतर सहयोग चाहिए है   चूँकि यूपीए और डॉ मनमोहनसिंह पर अनेक लांछन और असफलताओं के दाग लग चुके हैं और बहरहाल यूपीए या कांग्रेस अभी सत्ता से बहुत दूर हो चुकी है। अब लड़ाई भाजपा और तीसरी शक्तियों के बीच है। चूँकि तीसरी शक्ति में तमाम  क्षेत्रीय दल और वाम मोर्चा भी है और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कांग्रेस भी  गैर भाजपा दलों याने तीसरे मोर्चे से ही  गठबंधन करेगी या बाहर से समर्थन देगी ।  इसलिये देश की  धर्मनिरपेक्ष और गैरपूँजीवादी कतारों द्वारा मोदी को रोकने के पुख्ता इंतजाम किये जा रहे हैं। साम्प्रदायिकता के खिलाफ देश  भर में सफल  'कन्वेंशन ' आयोजित किये जा रहे हैं। पूंजीपतियों को चिंता सता रही है कि  यूपीए  और एनडीए  दोनों ही यदि लोकसभा चुनाव में फिसड्डी सावित हुए [जिसकी  सम्भावना भी अधिक है]  ,यदि तीसरा मोर्चा सत्ता में आ गया  तो उनके पूंजीगत साम्राज्य कि रक्षा कौन  करेगा?                                               
                                                     भारत में इन दिनों ५ राज्यों की  विधान सभा चुनावों के दरम्यान और आगामी लोकसभा चुनावों केआठ माह  पूर्व संसदीय लोकतंत्र कि वैचारिक परम्पराओं और विमर्शों को ताक़  पर रखकर अमेरिकी  और फ्रांसीसी स्टाइल में   व्यक्तिवादी  चरित्रों  पर फोकस किया जा रहा है। चूँकि राहुल  और कांग्रेस ने अभी भी व्यक्तिगत प्रचार से दूरी बना रखी  है. कांग्रेस ने संसदीय परम्पराओं के  पालन की  दिखावटी चेष्टा तो जरुर की  है. लेकिन संघ परिवार और भाजपा ने तो लोकतांत्रिक मर्यादा का आवरण ही उतार फेंका है.  इसलिए पूंजीपति वर्ग ने नरेद्र मोदी को एक हीरो के रूप में प्रोजेक्ट करने के लिए 'मीडिया हाइप' शुरूं कर दिया है। देश का मजदूर वर्ग और आम आदमी इन हथकंडों को बखूबी समझ रहा है और पूंजीपतियों की  स्वार्थी रणनीति को विफल करने के लिए मुस्तेद भी  होने लगा है। मेहनतकश सर्वहारा और पूंजीपतियों के इस संघर्ष में यदि मोदी  पूंजीपतियों की पसंद हैं तो प्रधानमंत्री उन्हें कौन बनाएगा ? वेशक  पूंजीपति वर्ग  ने अपनी  तिजोरियाँ  'नमो' के लिए खोल दीं हैं किन्तु वोट तो देश कि 'निर्धन -मेहनतकश ' जनता को ही देना हैं।
                                                     सुना है कि कुछ  पक्षी विशेष हैं जो दूसरों के बने बनाये घोसलों में अंडे देते हैं ,कुछ  दूसरे पक्षी ऐंसे भी हैं जो  औरों  के अंडे भी अपने समझकर 'सेते 'हैं।  प्रायः देखा गया है कि चींटियाँ घर बनाती हैं लेकिन वे स्वयं  उस बांबी  में  रह नहीं पातीं। क्यों  कि  साँप  उसमें रहने आ जाते हैं।  इसी तरह  पूँजीवादी  प्रजातंत्र में मेहनतकश आवाम   - किसान ,मज़दूर  और शिल्पकार 'राष्ट्र-निर्माण' करते हैं, राष्ट्रीय सकल सम्पदा का सृजन करते हैं ,जीवन के संसाधन जुटाते हैं , फौजी जवान  देश की  रक्षा करते हैं , इतना सब कुछ करने के वावजूद ,अपना सर्वस्व लुटा देने के  वावजूद इनमें से करोड़ों अब भी 'अनिकेत'हैं।  इस  'श्रमजीवी वर्ग 'का, लाखों वेरोजगार युवाओं का,  करोड़ों भूमिहीन या सीमान्त किसानों  का , असंख्य खेतिहर मजदूरों  का और लाखों-लाख   'सर्वहारा वर्ग' का  सम्पूर्ण   जीवन अधिकांशतः अभावों में ही गुजर जाया करता है। क्योंकि यह वर्ग असंगठित होने , वास्तविक और क्रांतिकारी संघर्ष से वंचित होने तथा वर्ग चेतना  से महरूम होने के कारण परजीवी पूँजीवादी    जोकों की  रुधिर पिपासा  का साधन बने रहने को अभी भी  अभिशप्त है।
                                                            अत्याधुनिक उन्नत   साइंस और टेक्नालॉजी,अत्याधुनिक सूचना एवं संचार क्रांति  के दौर में भी  तमाम प्रगतिशील विचारों की  उपलब्धता  के  वावजूद भारतीय जनता -जनार्दन का  बहुमत ,अपने  'संसदीय लोकतंत्र'  में अभी भी  दक्ष नहीं हो पाया है। इसीलिये  "अंधे पीसें कुत्ते खाएँ " जैसी लोकोक्ति को समझ पाये इससे पूर्व ही यह वर्ग  चुनावी चौपाल में  लुटता -पिटता  रहता  है ।  दूसरी और घोर   स्वार्थी  पूँजीपति   वर्ग प्रकारांतर से राष्ट्रीय उत्पादन के तमाम संसाधनों  पर कब्जा बनाये रखने की  हर सम्भव कोशिश किया  करता है । अपने निहित स्वार्थों की  अबाध आपूर्ति के लिए इस निर्मम -निर्दयी  शक्तिशाली वर्ग के लिए राजनीति  में कारगर दखलंदाजी जरूरी है।  जब -जब राज्यों कि विधान सभा या देश  की  लोक सभा के चुनाव दरपेश होते हैं तब-तब यह आर्थिक और सामाजिक रूप से शक्तिशाली  'शोषक-शासक वर्ग' अपने वर्ग चरित्र के अनुरूप नितांत  नंगई  पर उतर आता है।  न केवल देशी समृद्धशाली वर्ग अपितु बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भी  प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र कि नीति निर्माण कारी सर्वोच्च संस्था 'संसद' और राज्य विधान सभाओं पर अपना वर्चस्व स्थापित करने में जुट जाया करते हैं। यह काम करने के लिए उन्हें व्यवस्था की  'कमजोर कड़ी 'याने संसदीय लोकतंत्र  रुपी  कुल्हाड़ी में जनादेश रुपी   'बेंट '  की  नितांत आवश्यकता हुआ करती है।
                     भारत में कुछ वाम-जनतांत्रिक दलों को छोड़कर अधिकांस राजनैतिक पार्टियों पर प्रकारांतर से पूंजीवाद परस्त  नीतियों , नेताओं और सत्ता के दलालों  का कब्जा है। भारत में  कांग्रेस ,भाजपा  दो प्रमुख  पूँजीवादी पार्टियां हैं जिन पर देशी  -विदेशी  पूंजीपति 'दांव' लगाते रहते हैं। इन दिनों कार्पोरेट जगत को   यूपीए,कांग्रेस ,मनमोहन सिंह और राहुल से बेहतर उन्हें संघ परिवार ,भाजपा और मोदी नजर आ रहे हैं इसीलिये  अधिकांस देशी-विदेशी  सरमायेदार भारतीय मीडिआ पर काबिज होकर  'नमो' के पक्ष में 'जनमत ' बना रहे हैं। कांग्रेस   की  और से  लगातार १० साल से डॉ मनमोहनसिंह  इस 'धन-लोलुप '  वर्ग कि चाकरी करते आ रहे हैं। उनका 'अर्थशास्त्र' - नव्य-  उदारवाद,  भूमंडलीकरण  और निजीकरण के सिद्धांत पर आधारित  है जो  केवल इस लूटखोर पूंजीपति वर्ग की  सम्पदा में इजाफा ही  करता आ  रहा है ।  मनमोहनसिंह की नीतियों के नकारात्मक परिणामस्वरूप इन दिनों   देश में प्याज से लेकर टमाटर तक   और पेट्रोल से लेकर पानी तक  हर चीज आम आदमी कि पकड़ से दूर होता जा रही  है।इस लूटमार कि नीति से  यूपीए और कांग्रेस का 'जनाधार' भी क्षीण हुआ है। याने सत्ता में यूपीए की  या कांग्रेस की  वापिसी फिलवक्त तो दूर-दूर तक सम्भव नजर  नहीं आ रही  है।  याने  यूपीए , कांग्रेस और मनमोहन अब इससे ज्यादा वंटाढार [ देश  सेवा] नहीं कर सकते याने  पूँजीपतियों  को  लूटखोरी  में  इससे ज्यादा मदद   नहीं कर सकते। क्योंकि 'जनमत' इनसे फिलहाल नाखुश है।  इसलिए इन बहुराष्ट्रीय निगमों ,देशी -विदेशी निवेशकों को  किसी नए अत्याधुनिक विकल्प  की  तलाश है।  जो सत्ता की  दौड़ में और 'जनमत'  की  नज़र में बेहतर परफॉर्मेंस  देने की  कूबत रखता हो ,जो  चुनाव जीतकर सत्ता में आकर कार्पोरेट जगत  को देश की  सार्वजनिक - सम्पदा की  लूट जारी रखने  में मददगार हो सके.  चूँकि राहुल गांधी मनमोहनसिंग को ही अपना आर्थिक गुरु मानते हैं इसलिए जनता का शोषित वर्ग उन्हें संदेह कि नजर से देख रहा है। इसके अलावा यह  भी कटु सत्य है कि  राहुल गांधी  अभी तक कोई  वैकल्पिक  ठोस कार्यक्रम और नीति देश के सामने नहीं रख पाये  हैं , जो उनके या कांग्रेस के पक्ष में चुनावी लहर या  'हलचल' पैदा कर सके।  इसीलिये आगामी लोक सभा  चुनाव में उनकी सफलता संदिग्ध है।  भले ही कांग्रेस एक धर्मनिरपेक्ष - जनतांत्रिक -पूंजीवादी पार्टी है ।  भले  ही उसकी धर्मनिरपेक्ष छवि के कारण अल्पसंख्यक वर्गों  का समर्थन उसके पक्ष में जाता  हुआ दिखे  लेकिन राहुल गांधी जब तक   मनमोहनसिंह  ,चिदंबरम ,अहलूवालिया की  पूँजीवाद परस्त  दिवालिया  आर्थिक   नीतियों से तौबा नही  करते और बेहतर जन-कल्याणकारी विकल्प प्रस्तुत नहीं करते तब तक उन्हें या उनकी कांग्रेस को   केंद्र में  सत्ता वापसी कि उम्मीद नहीं करनी चाहिए।
                                   मीडिया  की खबरों और विभिन्न सर्वे से जाहिर होता है कि देश में महँगाई ,बेकारी , उत्पीड़न,ह्त्या,बलात्कार तथा भृष्टाचार से पीड़ित जनता -जनार्दन  ने यूपीए ,कांग्रेस  मनमोहन या राहुल गांधी   को  'विश्राम' देने का मन बना लिया है  देश-विदेश के कार्पोरेट जगत  ने इस सम्भावना   के मद्देनजर 'पप्पू'  राहुल गांधी से 'फेंकू' नरेंद्र  मोदी  को ज्यादा तबज्जो देना शुरू कर दिया है। अब तक भारत के खाँटी  पूँजीपति  तो फिर भी संतुलन बनाकर चल रहे हैं.  वे वामपंथ को छोड़कर नक्सलवादियों  से  लेकर आतंकवादियों तक  ,अण्डर वर्ल्ड, कांग्रेस  ,भाजपा  , बसपा  , सपा  ,राकांपा  , डीएमके  , एआईडीएमके  ,जदयू, बीजद,शिवसेना ,अकाली और अन्य राजनैतिक समूहों या नेताओं को साधने या संतुलन बनाने में हमेशा  सिद्धहस्त रहे हैं।  किन्तु 'गोल्ड़मैन 'जैसी अंतर्राष्ट्रीय निवेश  बैंकिंग संस्था ने नरेंद्र मोदी को भारतीय राजनीति  में अपनी पहली पसंद  बताकर भारतीय राजनीति  में अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूँजी कि दखलंदाजी  को उजागर कर दिया  है। ऐंसे अनेक उदाहरण पेश किये जा सकते हैं जो सावित करते हैं कि 'नमो' को सत्ता में लाने के लिए देशी-विदेशी पूँजी  और कार्पोरेट जगत शिद्दत से लालायित है। झूंठे-सच्चे  विभिन्न सर्वे पेश किये जा रहे हैं कि भाजपा को  भारी बढ़त मिलने जा रही है और  'नमो'ही आगामी प्रधान मंत्री होंगे!हो सकता है कि निवेशकों और अंतर्राष्ट्रीय वित्त संस्थानों  को संघ परिवार ने या  दक्षिणपंथी  'हिंदुत्ववादियों'ने ही  साध लिया हो।  शायद यही वजह रही हो  कि घरेलू शेयर बाजार में ,सट्टा  बाजार में ,वायदा बाजार में ,विभिन्न उत्पादों या  ब्राण्डों  में सिर्फ 'नमो' का ब्रांड ही बहुबिक्रीत  या बहु माँग  का अलम्बरदार बन चूका है। निवेशकों और सट्टा   बाजार  के खिलाडियों   का  दावा है कि 'जनमत' मोदी के पक्ष में है।
                                                                        देश के धर्मनिरपेक्ष -लोकतांत्रिक - बहुलवादी बुद्धिजीवी  और राजनैतिक  समूह   मानते हैं कि यह वास्तविक  'जनमत' नहीं बल्कि संघ परिवार के निरंतर दुष्प्रचार, मीडिआ  -इंतजाम और रामदेव  'बाबाओं' जैसे  ढपोरशंखी  लफ्फाजों  का कमाल है। यह संचार माध्यमों   द्वारा सप्रयास निर्मित काल्पनिक  'आभासी' इमेज है।' नमो'  बनाम  राहुल  ' का वैयक्तिक और काल्पनिक  'दवंद' केवल 'संघ परिवार' के थिक  टेंक  और दक्षिणपंथी मीडिआ के मोदीगान अर्थात  'वृदावलि 'गान का कमाल है।  राहुल गांधी बनाम  मोदी  जैसे  दो अपरिपक्व  और मामूली  व्यक्तियों के विमर्श  में भारतीय लोकतंत्र  के   जनतांत्रिक  मूल्यों  और बहुलतावादी  नीति निर्देशक सिद्धांतों को विस्मृति के गर्त में धकेला जा रहा है। ये  राजनैतिक रूप से  अर्धशिक्षित  नेता भी अपनी-अपनी पार्टियों की  पालिसी और प्रोग्राम पर बात करने के बजाय  इतिहास के खंडहरों  में विचरण कर रहे हैं।  राहुल  गांधी अपने पूर्वजों के बलिदान पर अरण्यरोदन कर रहे हैं।  उनका और  कांग्रेस का आर्थिक दर्शन  तो फिर भी सर्वविदित है किन्तु 'नमो' का आर्थिक दर्शन क्या है ?यह शायद संघ परिवार और भाजपा को भी नहीं मालूम।  मोदी ने गुजरात अस्मिता से राजनीती शुरूं कि थी , इन दिनों वे   यूपीए और कांग्रेस की  विफलता को अखिल  भारतीय अस्मिता से जोड़कर दिल्ली के लाल-किले  पर तिरंगा फहराने को व्यग्र हैं. किन्तु उनके कटटर  हिंदुतव्वादी राष्ट्रवाद में बर्बर पूंजीवाद और वैयक्तिक अधिनायकवाद   का खतरनाक मेल हो रहा है जो भारतीय प्रजातंत्र के 'सर्व सामूहिकवाद' और बहु-सांस्कृतिक चरित्र से मेल नहीं  खाता।  इसके वावजूद भी यदि  नरेंद्र मोदी देश के  प्रधानमंत्री बनने में सफल हो जाते हैं तो देश को अनेक  मानवीय आपदाओं से गुजरने के लिए तैयार रहना होगा। 
                                        यह स्प्ष्ट  है कि  यूपीए कि डूबती नाव से घबराकर देशी -विदेशी पूँजी के दलाल अब  'नमो'गान में जुट गए हैं। उन्हें भारत  की  जनता केवल उनके उत्पादों की  ग्राहक  भर दिखाई देती है. संघ परिवार ,भाजपा नरेंद्र मोदी कि आर्थिक नीतियां मनमोहनसिंह या कांग्रेस की वर्त्तमान नीतियों से अलहदा नहीं हैं ,मोदी का संघनिष्ठ वर्चस्वादी स्व्भाव और पूंजीवाद परस्त  नीतियां ही प्रमुख कारण हैं  कि देशी विदेशी पूंजीपतियों द्वारा नियंत्रित मीडिआ को 'नमो' से इतना प्यार उमड़ रहाहै कि वे मनमोहन सिंह जैसे कट्टर आर्थिक सुधारवादी को अब दूर से ही  प्रणाम करने लगे हैं। राहुल गांधी को तो देश में कांग्रेस के अलावा कोई गंभीरता से नहीं ले रहा। अब मोदी का मुकाबला जिससे है  वो कोई व्यक्ति नहीं बल्कि पूंजीपतियों द्वारा सनातन से शोषित -पीड़ित -दमित वर्ग -,किसान-मजदूर वर्ग  -सर्वहारा वर्ग  है । यह वर्ग जाति -धर्म और सम्प्रदाय से परे है इस विराट जनता -जनार्दन से   मोदी तब तक नहीं जीत सकते  जब तक साम्प्रदायिकता और पूंजीवाद से नाता नहीं तोड़ लेते।  इसीलिये संघ परिवार एवं पूंजीपतिवर्ग लगातार देश भर में जनता के बीच अलगाव ,संघर्ष और बिखराव के कांटे बो रहे हैं। नैगमिक नियंत्रित मीडिआ उनका जर खरीद गुलाम है जो  आम जनता को ,तीसरे मोर्चे को ,धर्मनिरपेक्ष ताकतों को हिकारत से देखता है।यह भारतीय जनतंत्र और उसके संविधानिक मूल्यों  को पूंजीवादी साम्प्रदायिकता की खुली चुनौती है। देखने की बात है कि जनता में इस संकट  से जूझने के लिए क्या तैयारियां हैं ?
                     श्रीराम तिवारी
                                         
                           

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