शनिवार, 9 नवंबर 2013

पांच विधान सभा चुनावों के लिए राजनैतिक दलों की जद्दोजहद और जनमत का रुझान ….!



देश के  पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव की तैयारी लगभग पूर्ण हो चुकी हैं ,चुनाव आचार संहिता लागु है. ई. वी. एम्. -वोटिंग मशीन अब केवल मतदाताओं के बटन दवाने का इन्तजार कर रही है,इस दफा इस मशीन में "नोटा " याने 'कोई नहीं' का भी प्रावधान किया जा रहा है।  उन्नत तकनीकी ,युवाओं की जागरूकता और नये  नेतत्व के आगाज की अग्नि परीक्षाओं से  सभी प्रमुख दलों में हार-जीत को लेकर कशमकश भरी बैचेनी  है , इलेक्ट्रानिक मीडिया ,डिजिटल मीडिया और प्रिंट मीडिया भी शिद्दत से  अपने काम पर लगा हुआ है। राजनैतिक  मंचों पर आरोप- प्रत्यारोपों की बानगी शिखर पर है।  टिकटार्थियों   की भीड़ और उससे वंचित नेताओं का -  कांग्रेस और भाजपा -में आक्रोश चरम पर है।  चुनाव विश्लेषण और तत्संबंधी   सत्ता परिवर्तन के  विमर्श का दौर जारी  है। पूर्वानुमान और कयास भी भिड़ाये जा रहे हैं।   इस मौके पर सुधीजनों का इस विमर्श में सार्थक हस्तक्षेप भी जरूरी   है। चूँकि  राजनैतिक दल अपने फायदे के लिए वर्चुअल इमेज और तदनुसार अपने पक्ष में  'जनमत'  बना रहे  हैं।  इसलिए तटस्थ एवं  प्रबुद्ध मीडिया , सृजनशील - साहित्यकार  और वर्ग चेतना से सम्पन्न  बुद्धिजीवी भी  देश हित   में जन जागरण' का काम कर रहे  हैं.
                                     वेशक भारतीय प्रजातांत्रिक प्रणाली में अनेकों खामियां पहले से ही मौजूद हैं  और  बदलते वक्त के साथ जनसँख्या विस्फोट ,मानवीय लोभ -लालच ,दुनिया भर में आये आर्थिक   उदारीकरण और भूमंडलीकरण के सैलाब इत्यादि   ने भारत के राजनैतिक परिद्रश्य को कुछ  ज्यादा ही  धूमिल   किया है. भारतीय प्रजातंत्र की इस वर्तमान  व्यवस्था ने - पुराने स्थापित अमीरों को पहले से कई  गुना ज्यादा बड़ा अमीर बना दिया है तो कुछ नए अमीर भी  पैदा किये हैं. इसके बरक्स  गरीबों की संख्या में करोड़ों का इजाफा  किया  है । इस सिस्टम की बदौलत  देश में विगत १० सालों में लगभग १० लाख करोड़  रुपयों के  घोटाले भी  हुए हैं। यह पैसा भृष्ट नेताओं , देशी -विदेशी पूंजीपतियों और नव-  धनाड्य बेईमानों  की जेब में गया है। यह किसी से छिपा नहीं  है कि  बार-बार के लोक सभा चुनाव और विधान सभा चुनाव में पूंजीवादी राजनैतिक  पार्टियों को चंदा और संसाधन मुहैया कराने वाला वर्ग इसकी कई गुना कीमत इन राजनीतिक  दलों से वसूलने में कोई कोताही नहीं  बरतता ।  भारत में यह  ढर्रा अब  असहनीय हो चूका है। इसीलिये न केवल केंद्र में बल्कि राज्यों में भी अब गठबंधन सरकारों का दौर  तेज होने वाला है. गोस्वामी तुलसीदास जी की  यह युक्ति   सार्थक होने जा रही है :-  अति संघर्षण कर जो कोई . …!,  तो  अनल  प्रगतट  चन्दन से होई …!!
                    अतःसंभावित  जनाक्रोश और किसी आसन्न जनक्रांति से बचने के लिए ,आगामी लोक सभा चुनाव और उससे पूर्व होने जा रहे  वर्तमान में  ५ राज्यों के विधान सभा चुनाव के लिए भारतीय लोकतंत्र ने यु -टर्न  लिया है. कुछ  शरीफ  नेताओं और गैर राजनैतिक -जन संगठनों का भी   विचार  है कि इस चुनावी करप्शन पर यदि रोक लगाई जाए तो  न केवल  बेहतर और ईमानदार लोग राजनीति  में आयेंगे बल्कि बाकी के सिस्टम को भी कुछ हद तक ठीक किया जा सकता है। बहरहाल   चुनाव कमीशन से लेकर न्याय पालिका तक,मीडिया से लेकर  सामाजिक कार्यकर्ताओं तक - सभी की   सोच  है कि  अब वक्त आ गया है की  इस  राजनैतिक कदाचार पर शिद्दत से रोक  लगाईं जाए। वेशक   आधुनिक उन्नत  सूचना और संपर्क संसाधनों  से सुसज्जित , सुशिक्षित मध्यम  वर्गीय एवं प्रगतिशील   युवाओं  की तादाद बढ़ी है।  किन्तु यह तादाद उस अशिक्षित ,ग्रामीण और कामकाजी सर्वहारा वर्ग  के सापेक्ष बहुत  कम है जो  राजनैतिक  रूप से नितांत निरक्षर और  यथास्थ्तिवादी है।  यही कारण है  कि  देश में न तो सत्ता पक्ष की लहर है ,न तीसरे मोर्चे या  वामपंथ के समर्थन में  कोई लहर है और न ही  संघ परिवार या  भाजपा के पक्ष में  कोई  लहर है। चारों  ओर केवल  पतनशील   अव्यवस्था का कहर है। कसवाई और अर्ध शहरी माध्यम वर्ग को भले ही  इस दौर में कुछ समझ बूझ पड़ता हो किन्तु  महानगरों के बहुसंख्यक निर्धनों  और ठेठ गाँवों के गरीबों,भूमिहीन किसानों  को तो केवल  तात्कालिक  आजीविका के संकट  से जूझने का वक्त  है।  मतदान के प्रति उनमें कोई खास रूचि नहीं है।
                                  इन संभावनाओं के बरक्स  देश का  बहुसंख्यक  जन मानस  के   बाहर से जाति  - धरम  , सम्प्रदाय और खाप में   बटे  हुए होने  के वावजूद   भी  केंद्र सरकार के मनरेगा ,खाद्य सुरक्षा अधिकार  , आधार कार्ड आधारित नकद सब्सिडी जैसे तात्कालिक प्रलोभन से  प्रभावित होने  की सम्भावना   है। इसीलिये  केंद्र में  सत्ता पक्ष को  यदि यथास्थ्तिवाद  की संजीवनी मिल  जाने की आशा है तो मध्यप्रदेश ,छ ग में  विपक्ष को सत्तारूढ़ पार्टी के कारनामों को जनता के बीच उजागर करने फायदा मिलने की उम्मीद है  ।  राजस्थान , दिल्ली तथा मिजोरम में उन्हें अपनी यथास्थ्ती का भरोसा है।  भाजपा और तीसर मोर्चे को अपनी ताकत का भरोसा है  इसीलिये आगामी चुनाव परिणाम भी उसी अंदाज में आने वाले हैं। लेकिन  सत्ता में वो ही आ सकेगा  जो  अपने  प्रतिश्पर्धी से चुनावी प्रचार और हथकंडों में आगे निकलकर बढ़त बनाए रखने की कूबत  रखता हो।
                                         चूँकि  तमाम राजनैतिक खामियों, आर्थिक-सामाजिक -क्षेत्रीय  विषमताओं के वावजूद  दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र  भारत की चुनाव प्रक्रिया  सापेक्ष्तः  बेहतर है। इसीलिये यह प्रणाली  सारे संसार को लुभाती है। कई देशों के विधि  विशेषग्य ,चुनाव पर्यवेक्षक और पत्रकार लोग भारत के चुनाव पर पैनी नज़र रखते हैं। दुनिया ने शायद ही  हमारे चुनावों की कभी आलोचना की हो किन्तु हम भारत के लोग फिर भी अपनी आत्मालोचना करते हुए  आदर्श चुनाव पद्धति की ओर अग्रसर हैं। यही हमारी सबसे बड़ी  लोकतांत्रिक   विशेषता है। इसकी  विशुद्ध   शहरी  सभ्रांत नजाकत से  लेकर ठेठ ग्रामीण गंवारपन-काइयापन  [ बकौल श्रीलाल शुक्ल -राग दरवारी]  वाली   ठसक   को  दुनिया भर में  सम्मान प्राप्त है।  पाकिस्तानी ,चीनी  और  दूसरे  देशों की अर्ध-प्रजातंत्रिक व्यवस्थाओं के सापेक्ष - भारतीय लोकतंत्र की देशज और खट्टी -मीठी चुनाव व्यवस्था को  दुनिया में सम्मान की नजरों से देखा जाता है । भारतीय लोकतंत्र के अन्दर   सकारात्मक तत्वों  की  वैसे भी कोई  खास  कमी  नहीं है.उसकी इसी खासियत की  बदौलत उसके प्रजातांत्रिक   मूल्यों को सर्वत्र आदर प्राप्त है और उसके बहुमूल्य  संवैधानिक नीति निर्देशक सिद्धांत तो  दिनों दिन परिमार्जित  हो ही रहे हैं। साथ ही  राष्ट्र की  'बहुलतावादी ' धर्मनिरपेक्ष   राजनीती को  बुलंदियों की  ओर ले जाने   के प्रयत्न  भी किये जा  रहे हैं।   चुनाव प्रक्रया में शुचिता के बहाने -  आर्थिक , सामाजिक ,सांस्कृतिक  और वैदेशिक नीति सम्बन्धी सवालों के  साथ-साथ देश में बढ़ रहे व्यभिचार और भृष्टाचार का-  माकूल  जबाब देने के वक्त आता जा रहा है।
                               भारत  में लोक सभा के आम  चुनाव तो  अगले साल के मध्य में संभावित् हैं।  किन्तु उससे पहले आसन्न ५ राज्यों के विधान सभा चुनाव इसी साल नवम्वर-दिसंबर में सम्पन्न होने जा रहे हैं। छ ग विधान सभा  की ९० सीटों के लिए मतदान  ११/१९ नवम्बर को होगा। मध्यप्रदेश में २३०  विधान सभा सीटों के लिए  २५-नवम्बर को ,राजस्थान में २०० सीटों के लिए  एक दिसंबर को ,दिल्लीकी ७० सीटों के लिए  और मिजोरम में ६० सीटों के लिए - ४ दिसंबर को मतदान सम्पन्न हो जाएगा।  इसी दौरान एक -दो  सीटों के लिए  गुजरात और तमिलनाडु में उपचुनाव भी होने जा रहे हैं।   इन विधान सभा  चुनावों से आगामी लोक सभा के  आम चुनावों का प्रत्यक्ष सम्बन्ध तो  है ही  किन्तु  विभिन्न  राज्यों के नेताओं,राजनैतिक दलों  को वहाँ के स्थानीय  मतदाताओं की  आकांक्षाओं  की कसौटी पर खरा  उतरने  के उपरान्त  ही सत्ता का रसास्वादन प्राप्त हो सकेगा।  इन हालत में किसी व्यक्ति या दल  की कुछ वोटों से  बढ़त का मतलब जीत , और किसी की कुछ वोटों से घटत याने हार होगी। यही प्रजातंत्र का क्रूर सिद्धांत है। इस प्रक्रिया में मीडिया की भूमिका  महत्वपूर्ण होगी। वो चाहे तो गधे को घोड़ा बना कर दिखा दे और चाहे तो घोड़े को खच्चर बना दे।  लोकतंत्र  के चौथे खम्भे याने मीडिया को नज़र अंदाज कर इन दिनों कोई भी सत्ता में आने का सपना नही  देख  सकता।
                                 विभिन्न  राष्ट्रीय  और क्षेत्रीय दलों के नेतत्व में हो रहे आंतरिक   परिवर्तनों, आपसी अनैतिक -  गठजोड़   और  राष्ट्रीय राजनीती   के ध्रवीकरण का असर इन चुनावों में अवश्य परिलक्षित होगा।  यह उम्मीद  है कि धर्मनिरपेक्षता ,साम्प्रदायिकता जातीवाद ,आर्थिक  विकाश ,भृष्टाचार और सामाजिक  पतन की घटनाएँ भी इन   चुनावों पर व्यापक प्रभाव  अवश्य   डालेंगीं ।  इस तथ्य को भी नज़र अंदाज नहीं किए जा सकता कि  इस अधुनातन  वैज्ञानिक और  उन्नत  तकनीकी   युग में भी  वोटर याने मतदाता किसी वैज्ञानिक  विचारधारा  को नहीं  जाति -धर्म -खाप और अपने समाज रुपी 'कबीले' को ही  तरजीह  दिए जा  रहे हैं  ।  जिस प्रकार एक कौवे को कितना ही गंगा जल से स्नान कराओ ,वेद -पुराण पढाओ  ,मधुर संगीत सुनाओ ,किन्तु जब उसे मुक्त करोगे, उसकी स्वेच्छिक पसंद के लिए  उसे आप्शन  दोगे, तो वो मरे हुए ढोर पर ही जाकर बैठेगा।  यदि मतदाता  वैचारिक  रूप से  'वर्ग चेतना 'या राष्ट्रीय चेतना ' से जाग्रत नहीं है तो  वह कितना  ही  शिक्षित या सुसभ्य  क्यों न  हो  -अमेरिका ,इंग्लेंड,जापान रिटर्न  क्यों न हो-  मतदान करते वक्त  जात-पांत के गोबर में ही मुहं मारेगा।  इस तथ्य का सबसे जीवंत प्रमाण यही है की   कुछ अपवादों को छोड़कर ,आजादी के ६६ साल बाद भी  अधिकांस राजनैतिक पार्टियां जाति-सम्प्रदाय -खाप के   बाहुल्य आधार पर ही  उम्मीदवार खड़ा किया करतीं हैं.
                                  जहां मुसलमान  ज्यादा  होंगे  वहाँ मुस्लिम उम्मीदवार  ,जहां यादव ज्यादा  होंगे वहाँ यादव ,जहां दलित ज्यादा हैं वहाँ दलित ,जहां जाट  बाहुल्य क्षेत्र  है वहाँ किसी गैर जाट  को खड़ा करके  जिताने का माद्दा  तो अभी  भाजपा  और  कांग्रेस में  तो क्या केजरीवाल में भी नहीं। हाँ वामपंथी जरुर कभी -कभार  ये जोखिम उठा  लिया करते हैं  इसीलिये तो  वे यूपी ,बिहार एमपी और गुजरात  जैसे घोर जातीयतावादी  समाज में अपनी जमानत भी  नहीं बचा पाते। नस्लवाद ,क्षेत्रीयतावाद और  आरक्षणवाद  के हमलों से भारतीय एकता को समय-समय पर प्राणघातक हमले सहने पड़ते हैं।  नयी पीढी को इन तमाम बुराइयों से  भयानक खतरा है।
  भारतीय न्यायपालिका और   प्रगतिशील विचारक  इस बावत समय-समय  पर - वाजिब चिंता का इजहार  करते रहे हैं ।  चुनाव आयोग और जिम्मेदार  राष्ट्रीय  मीडिया  भी  भारतीय लोकतंत्र की इन  नकारात्मक  और  सर्वथा असहनीय  बुराईयों  को मिटाने के लिए निरंतर  प्रयास रत है। आशा है की आगामी विधान सभा चुनाव में  सम्बंधित राज्यों से  मतदान के जो परिणाम आयेंगे उनमें भृष्ट ,दागी ,साम्प्रदायिक , जातीयतावादी  तत्वों को पराजय का मुहं देखना पडेगा।इन्ही आग्रहों की  छाँव में ५ राज्यों के विधान सभा चुनाव सम्पन्न होने जा रहे हैं। भौगोलिक और आर्थिक-सामाजिक तासीर के अनुसार प्रत्येक राज्य का  विधान सभा परिदृश्य  और  राजनैतिक  सत्ता प्रतिष्ठान की स्थति भिन्न-भिन्न हुआ करती  है।
                              मीडिया और राजनैतिक विश्लेषकों  का आकलन है कि  दिल्ली विधान सभा  के चुनावो में  मुख्य मंत्री शीला दीक्षित और  सत्तारूढ़ कांग्रेस की स्थति ठीक-ठाक नहीं है.  कहा जा रहा है कि  मोदी फेक्टर से नहीं डरने वाले [बकौल जनाब मदनी साहिब]अधिकांस  मुस्लिम मतदाताओं  के  एकतरफा वोट पता नहीं किन्ही  कारणों से  कांग्रेस को  मिल भी जाएँ , वसपा - मायावती के वावजूद राहुल का दलित कार्ड  चल भी जाए    और शीला के  'विकाश्वादी'तेवर दिल्ली की जनता को पसंद  आ भी जाएँ   तो  भी एंटी इन्कबेंसी फेक्टर ,वसपा का माया प्रेम और  "आपके" कारण  कुल ७० सीटों में से  कांग्रेस को  २२-२५ तक सिमिट  जाने का  पूर्वानुमान है । यदि यह अनुमान  सही निकला याने कांग्रेस हारी तो हार का ठीकरा  वसपा और शीला दीक्षित के सर ही फूटेगा। कांग्रेस के चापलूस पहले तो आला कमान के माध्यम से क्षत्रीय क्षत्रपों के हाथ पैर बाँध देते हैं फिर  उनसे उम्मीद करते हैं की वे   प्रतिश्पर्धा में विजय हासिल  करके दिखाएँ।   नीतियाँ और निर्देशन  हाई कमान के हुआ करते हैं।  यदि जीते तो श्रेय हाई  कमान को  याने  'सोनिया जी -राहुल जी 'को और हारे तो  जिम्मेदारी शीला   दीक्षित की. याने मीठा-मीठा  ग़प  -कडवा-कडवा थू। कांग्रेस की सनातन से यही रीति है।
                संघ परिवार, भाजपा ,  और डॉ   हर्षवर्धन को  भी  २८-३० तक  ही सीटें मिलने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है । इनका खेल  बिगाड़ने  में  भी "आपकी" ही  शानदार भूमिका रहेगी।नरेन्द्र मोदी की  दिल्ली  में  ऐतिहासिक आम सभा कराने,रामदेव  के बार-बार बड़े-बड़े आयोजन करवाने , संघ प्रमुख आदरणीय मोहन   भागवत जी ,अब तक  रहते आये 'पी एम् इन वेटिंग आडवाणी जी , राज्य सभा में नेता  प्रतिपक्ष जेटली जी, लोक सभा में नेता  प्रतिपक्ष सुषमा जी  दिल्ली के वेटिंग  मुख्यमंत्री-डॉ हर्षवर्धन जी ,विजय गोयल जी  और तमाम हिंदुत्वादी,पूंजीवादी - धतकरम बाजी के वावजूद , धुरंधरों के तूफानी घनघोर प्रचार के वावजूद दिल्ली में भाजपा को सत्ता लायक  'विजय' श्री की संभावना  कम  है , दिल्ली  विधान सभा में स्पष्ट बहुमत न पाने के  लिए  भाजपा के लोग  'आपको ' जिम्मेदार ठहरा सकते हैं।शायद  उनका यकीन है  कि   लगातार के अनर्गल  दुष्प्रचार से उलट फेर  हो जाए और दिल्ली में भाजपा की सरकार  बन जाए. किन्तु   इस तरह की संभावना   व्यक्त  करने में संघ के लोग ही सावधानी बरत रहे हैं.  क्योंकि यदि हार गए तो नरेन्द्र मोदी के नाम से आगामी लोकसभा चुनाव कैसी जीत पायेंगे ?तब मोदी फुस्सी बम ही सावित नहीं  हो जायेंगे? इसी लिए सावधानी वर्ती  जा रही है और  इसे ज्यादा  हवा नहीं दी जा रही। जीत गए तो  श्रेय मोदी के नाम लिखवाकर आगामी लोक सभा चुनाव का शंखनाद किया जाएगा ।  हार गए तो केजरीवाल,कांग्रेस  और 'आप'तो हैं ही।  किसी पर भी ठीकरा फोड़ा जा सकता है। विजय गोयल और हर्षवर्धन के दवद को कारण बना कर भी पेश  किया जा सकता है।
                   दिल्ली विधान सभा के आसन्न चुनाव में   'आपको' याने केजरीवाल को १६-१८ तक सीटें मिल जाएँ   तो   कोई आश्चर्य नहीं । हालांकि एक सर्वे के मुताबिक 'आप' के प्रवक्ता और जाने-माने चुनाव विश्लेषक योगेन्द्र यादव के अनुसार 'आप' को ३५  सीटें  मिलने की संभावना है।  उनका दावा है कि  वे भाजपा के सवर्ण  और उच्च मध्यमवर्गीय  वोट  बैंक तथा  कांग्रेस के  शिक्षित मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब होंगे। उनके इस आशावाद को देश की जनता का मुबारकबाद।  निसंदेह केजरीवाल भले ही स्थानीय मुद्दों को लेकर या भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर  हों ।  भले ही  वो लोकपाल बिल को राम लीला  मैदान में  पारित करने का वादा  करें ,भले ही  वो  बिजली बिल ,पानी के बिल माफ़ करने का वादा करें,  भले ही वो ह्त्या बलात्कार और व्यभिचार की रोकथाम का वादा करें ,भले ही वो 'आपकी ' मदद के लिए  दर्जनों एन आर आई बुला लें ,भले ही वो  विकाश और शुचिता के नारे लगाएं , भले ही  वे भारतीय राजनीती में एक उद्धारक की हैसियत से ईमानदार राजनीति  के केंद्र बिंदु  बनकर उभर  आयें, भले ही सभ्य सुशिक्षित युवाओं और तीसरे मोर्चे का सहयोग उन्हें हासिल है,  किन्तु विधान सभा चुनाव में   डेड़  दर्जन सीटों से ज्यादा जीतने   की सम्भावना  ' आपकी'  नहीं है।  वे केवल  सत्ता की राजनीती में  तराजू के  ' पासंग'   की भूमिका  अदा कर सकने की पात्रता ही  प्राप्त  कर सकेंगे।  यदि "आप" को इतना महत्व मिल गया तो भी  कम नहीं  और फिर तो  उनके कदम आगे बढ़ने से  रोक  सके- ये किसी में दम नहीं।  याने दिल्ली में तो  'आप'  और  केजरीवाल जिधर जायंगे  सत्ता की तराजू  का पलड़ा उधर ही  झुका हुआ मिलेगा। लेकिन 'आप'के लोगों को मालूम हो कि  सिर्फ ईमानदार नेता होने से काम नहीं चलेगा  । जब बेहतर  संघठन ,केडर ,कार्यक्रम  ,नीतियाँ ,विचारधारा  और पर्याप्त  जन समर्थन   के वावजूद धर्मनिरपेक्ष - ईमानदार वामपंथ  अब तक    भारतीय राजनीती पर अपनी मजबूत पकड़ नहीं बना पाया तो अकेले ईमानदारी का खूंटा पकड़कर "आप" और केजरीवाल  क्या कर लेंगे ? फिर भी 'आपकी' भुमिका सकारात्मक  होगी यही कामना की जानी चाहिए। मायावती की माया से  वसपा यदि २-४  सीटें हथिया ले ,तब तो दिल्ली राज्य की विधान सभा का स्वरूप बिलकुल भारतीय संसद के जैसा हो जाएगा।
                                          मध्यप्रदेश की २३० विधान सभा सीटों के लिए मतदान २५  नवम्बर को होने जा रहा है। निवर्तमान विधान सभा में भाजपा के १४३  सिटिंग एम्एलए  हैं। कांग्रेस के ७१ और अन्य १६ हैं। जब से गुजरात में मोदी ने हैट्रिक बनाई है ,तब से  शिवराज पर भी हैट्रिक बनाने का  भारी दवाव है अभी कुछ दिनों पहले तक  जब आडवाणी जी कोप भवन में हुआ करते थे तब शिवराज  का राजनैतिक पारा आसमान पर था।  आडवाणी जी ने और मोदी विरोधी भाजपाईयों ने शिवराज को  मोदी से बेहतर 'पी एम् इन वेटिंग ' बताया था। इसीलिये शिवराज भी  बड़ी उमंग और उत्साह में आकर ,मोदी की   गुजरात  विधान सभा चुनाव से पूर्व की सद्भावना  यात्रा की तर्ज पर, मध्यप्रदेश में 'जन-आशीर्वाद  यात्रा पर महीनो पहले निकल ही  पड़े थे।  संघ परिवार और भाजपा के शीर्ष नेतत्व ने भी शिवराज को हर किस्म की छूट दे रखी  थी। इसीलिये  मध्यप्रदेश में शिवराज की और भाजपा की  हैट्रिक  बनाए जाने में किसी को कोई  शंका नहीं थी।  भाजपा और संघ परिवार के लिए सब कुछ हरा -भरा था।  प्रमुख विपक्षी प्रदेश कांग्रेस तो  अपने केन्द्रीय और राज्य स्तरीय नेताओं की आपसी सर फुटौव्वल से लहू-लुहान थी। लेकिन ज्यों -ज्यों विधान सभा चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं शिवराज और भाजपा को पसीने छूट रहे हैं।  मध्यप्रदेश सरकार के मंत्रियों /अफसरों से सम्बंधित  भृष्टाचार  की     विभिन्न  पेंडिंग शिकायतों  की सघन जांच के लिए  केन्द्रीय एजेंसियों ने भोपाल में डेरा डाल रखा है ,वातावरण की हवा बता रही है कि  इन विधान सभा चुनाव के दौरान या बाद में  कुछ बड़े भृष्ट मगरमच्छ फांसकर  केंद्र की यूपीए सरकार शिवराज और भाजपा को नाथना चाहती है । ताकि संभव हो तो मध्यप्रदेश में सरकार बनाई जा सके और आगामी लोकसभा चुनाव में मध्यप्रदेश से ज्यादा लोक सभा सीटें हासिल कर  राहुल की दिल्ली में   ताजपोशी  की राह आसान की जा सके।सुधीर शर्मा ,दिलीप सूर्यवंशी  जैसे कुख्यात चेहरे और  नाम तो पहले से ही उनके पास है अब नए -नए नाम और चेहरे उजागर करने की जिम्मेदारी सीबीआई ,इन्फोस्मेंट डायरेक्टोरेट  तथा आयकर विभाग तक ही सीमित नहीं रहेगी ,बात खुलेगी तो दूर तलक जायेगी। इसी वजह से भाजपा में हडकम्प  और हड़बड़ी  मची हुई है।
                                चूँकि   अब आडवाणी जी तो मोदी शरणम् गच्छामि हो चुके हैं और शिवराज को चौबे  से छब्बे बनाने  की बनाने के फेर में दुब्बे बनाने की राह पर अकेला छोड़ दिया है। कांग्रेस ने राहुल की मर्जी से कमलनाथ की  सरपरस्ती  में  ज्योति सिंधिया  को   आगामी प्रांतीय  क्षत्रप बनाए जाने का जबसे इशारा किया है प्रदेश कांग्रेस में जान आ गई है। इधर  केंद्र सरकार ने शिवराज के  खासमखास वित्तीय साझीदारों की  भृष्टाचार जनित संपत्ति  पर, सीबीआई ,इनकम टेक्स और अन्य केन्द्रीय जांच  एजेंसियों को काम पर लगा दिया है। उधर  शिवराज की बदकिस्मती से खंडवा में ६ -७ सिमी आतंकवादी जेल तोड़कर भाग निकले ,दतिया  के  रतनगढ़ माता मंदिर में सेकड़ों श्रद्धालु सरकार और प्रशासन की लापरवाही से बेमौत मर गए। विगत १० साल से सत्ता पर काबिज  कई मंत्रियों के खिलाफ उनके ही  स्थानीय कार्यकर्ता  बेहद आक्रोशित हैं ,भाजपा की अंदरूनी लड़ाई  और आपसी  खुन्नस चरम पर है , टिकट  बंटवारे की मारामारी पर  संघ परिवार और  शिवराज  हलकान हो रहे हैं। उनके विरोधी  -उमा भारती ,गौर ,झा ,माखनसिंह और अन्य प्रतिद्वंदी  काम पर लग  गए हैं । इनके अपने -अपने पृथक एजेंडे भी  हैं। किसी को किसी पर यकीन नहीं है । केवल सत्ता में बने रहने की   तमन्ना के अनुरूप काम चलाउ  दिखावटी एकता हैं ।  सरकार के कामकाज असफलताएं और भृष्टाचार  पर जनता और मीडिया में जो  सवाल उछाले जा रहे हैं  ,वे भाजपा की अंदरूनी लड़ाई के  परोक्ष परिणाम हैं।  एक- दूसरे  को  राजनैतिक श्रद्धांजलि के निमित्त  उपक्रम किये जा रहे हैं। केवल आर एस एस ही एकमात्र सहारा है जो   शायद शिवराज की लडखडाती नैया पार लगा दे। हालांकि मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में संघ और शिवराज के बीच धार, इंदौर , खरगोन,खंडवा, इत्यादि में हुए साम्प्रदायिक झगड़ों के निमित्त 'अनबन'भी बरकरार है।
                           कांग्रेस ने दिग्विजयसिंह को कुछ समय के लिए पीछे कर ज्योति सिंधिया को प्रदेश की कमान सौंपी है। बूढी -जर्जर कांग्रेस में फिर से  जवानी उभरने लगी है ,राहुल गांधी  भी कुछ -कुछ संभलकर बोलने लगे हैं ,शहडोल ग्वालियर और  राहतगढ़,इंदौर और बुंदेलखंड  में उनकी छवि एक जिम्मेदार राजनेता की उभरी है , वे  अपनी माँ  सोनिया गाँधी की सह्रदयता और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की  सज्जनता को भुन्नाने में निपुण  हो चुके  हैं।  उन्होंने आदिवासियों ,मुस्लिमों और परम्परागत कांग्रेसी कतारों  में उल्लास और उमंग का  माहौल पैदा  कर दिया  है. राहुल की कोशिशों का ही परिणाम है कि सुरेश पचौरी ,कांति  भूरिया और कमलनाथ  और अजयसिंह ने आपसी मतभेदों को भुलाकर 'करो या मरो " का नारा दे दिया है। कांग्रेस को मालूम है कि  गुजरात की तरह यदि मध्य प्रदेश में भी भाजपा की हैट्रिक बनती  है तो राहुल और कांग्रेस के लिए 'दिल्ली दूर ' होती चली  जायेगी।  इसीलिये  मध्यप्रदेश की कांग्रेस ने  अपना १० वर्षीय वनवाश त्यागकर   ,सत्तारूढ़  शिवराज सरकार को घेरना शुरू कर दिया है। हालाँकि  अब बहुत देर हो चुकी है ,कांग्रेस विगत पांच साल से हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। केवल मीडिया के माध्यम से वयान वाजी करते रही। कई बड़ी -बड़ी  चूकें  शिवराज सरकार  से हुईं  हैं । अतिवृष्टि से सोयावीन की फसल नष्ट हो चुकी है ,बिजली सडक गायब हैं। गाँवों तो क्या शहरों में पेयजल सिस्टम फ़ैल है।  केवल बरसाती पानी ही कुदरत का दिया हुआ है ,उसे भी भाजपा सरकार निजी पूंजीपतियों के हाथों बेचने की ओर अग्रसर है ,मनरेगा  का पैसा ,पेन्सन का पैसा ,बी आर टी एस का पैसा और प्रधानमंत्री सडक योजना का पैसा  ,जो केंद्र सरकार ने अरबों-खरबों दिया था वो -बिचोलिये,नेता ठेकेदार खा गए और जनता केवल वोटिंग मशीन के लिए बहलाई जा रही है।  किन्तु कांग्रेस केवल आपस की तकरार और सुविधा की राजनीती में व्यस्त रही।उसने   कोई  उचित प्रतिरोध या जन आन्दोलन खड़ा नहीं किया।
                                   दर्शल किसी ने सच ही  कहा है कि  कांग्रेस को विपक्ष की राजनीति  करना आता ही नहीं। राजनीति के  दिग्गजों  का मानना है की मध्यप्रदेश में  कांग्रेस को विपक्ष की भूमिका अदा करना नहीं आता और भाजपा को  सत्ता मिल  भी जाए तो भी  विपक्ष की भूमिका से मुक्त होकर  शासन करने का  शासक वर्गीय  रुतवा कायम रखना नहीं आता । प्रदेश के भूस्वामी और पूंजीपति वर्ग ने भाजपा और कांग्रेस दोनों को साध रखा  है।  इसीलिये  मध्यप्रदेश में तीसरे मोर्चे की संभावनाएं नहीं बन पातीं। हालाँकि  प्रदेश में वसपा,सपा और वामपंथ की मौजूदगी और के संघर्ष का असर है किन्तु वे चुनावी दौड़ में फिसड्डी हो जाते हैं। इस बार   शरद यादव ने अपने प्रभाव क्षेत्र में जदयू और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का अलान्यंस बनाया है. किन्तु शायद  ही वे खाता खोल  पायें।   भाजपा  पर एंटी इनकम्बेंसी  फेक्टर तो नहीं किन्तु ज्योति सिंधिया फेक्टर का  नकारात्मक प्रभाव जरुर है ,मोदी फेक्टर के कारण मुस्लिम मतदाता एकजुट होकर कांग्रेस की तरफ ही  जायेंगे इसमें किसी को संदेह नहीं है  ,यह भी भाजपा के लिए शुभ समाचार नहीं है।  भाजपा अपनी वर्तमान पोजीसन १४३ से नीचे आयेगी और कांग्रेस ७१ से युपर जाये अभी से सट्टा  लगाया जा रहा कि  शिवराज की हैट्रिक तो बन जायेगी किन्तु सीटें घट  जायेंगी । कुछ का अनुमान है कि  अभी तो  बराबर की टक्कर होती जा  है।
                                   राजस्थान में गहलोत सरकार के  खाते में उपलब्धियां कम और  बदनामियाँ  बहुत  सारी  रहीं  हैं.वर्तमान  राजस्थान विधान सभा में   कुल २०० सीट हैं ,जिनमें से कांग्रेस- ९६, भाजपा  - ७८  ,सीपी एम् -चार ,बसपा -५ और  अन्य - १७ हैं। एक -दिसम्बर -२०१३ को २००  विधान सभा सीटों के लिए  मतदान होने जा रहा है।  सभी दलों  का  तूफानी प्रचार -प्रसार जारी है।सत्तारूढ़ कांग्रेस को,अशोक गहलोत  को न  केवल - भाजपा ,संघ परिवार ,वसुंधरा राजे और तीसरे मोर्चे के  प्रवल  प्रतिरोध का साम ना करना पड़  रहा है। अपितु  भावरी देवी हत्या  कांड , बाबूलाल  नागर रेप  कांड ,गाजी फ़कीर तस्करी  काण्ड,अजमेर शरीफ बम ब्लास्ट  काण्ड से पिंड छूटता नहीं  दिखता ।  बदअमनी , बदनुमा मंजर ,और अपने ही संगी साथियों के विद्रोह से  पार  पाने की क्षमता शायद ही  अशोक गहलोत में बची हो।  अपनी ही  पार्टी कांग्रेस और आला कमान और यु पी ऐ सरकार के सत्ता में  रहते हुए -जाटों ,गूझरों   को साध नहीं पाए उलटे मीणाओं और सवर्णों से भी हाथ धो बैठे। वे कांग्रेस को राजस्थान में   विजय सम्मान  दिला पाएंगे इसमें बहुत लोगों को संशय है।  हालाँकि  प्रदेश भाजपा और वसुंधरा की   छवि भी उतनी उजली नहीं  है की लोग  उन्हें पलक पांवड़े विछाकर राजस्थान की सत्ता में  बिठाने को मरे जा रहे हैं , दिग्गज भाजपा नेता और वसुंधरा के प्रवल  प्रतिद्वंदी  गुलाबसिंह कटारिया को तो जांच एजंसियों ने फांस लिया है । भाजपा में अब पहले वाला दम नहीं रहा। जब अटलजी का   बोलबाला था ,भेरोसिंह जी थे तो राजस्थान में जनसंघ और बाद में भाजपा ने  हिमाचल प्रदेश और मध्यप्रदेश की तरह राजस्थान में भी  इतनी   हैसियत हासिल कर ली थी कि  कांग्रेस -भाजपा  ५-५ साल बाद अदला बदली कर   सत्ता में  आते रहते थे। अब जबकि राजस्थान भाजपा के कई शीर्ष नेताओ पर सी बी आई  इनकम टेक्स और अन्य जांच  एजेंसियों का  शिकंजा कसा जा रहा है तो विजय आसान नहीं है। हालांकि बाबा रामदेव  ,नरेन्द्र मोदी और संघ परिवार की मेराथान सभाओं तथा गहलोत की आंतरिक मुश्किलों से भाजपा को राजस्थान में सत्ता आती दिखाई पड़ रही है. फिर भी मुकाबला बराबरी का ही है। राजस्थान में  तीसरा मोर्चा भी ताकतवर है और वो  इस हालत  भी में है   कि  सत्ता का समीकरण  गठ्बंध्नीय बना  सकता है ।
                                     छत्तीश्गढ़  में सत्तासीन रमण सरकार विगत ४ साल तक तो 'फील गुड 'में एश करती रही. लेकिन जब  विगत वर्ष  दर्भा  घाटी में कांग्रेस  के काफिले पर नक्सलियों ने प्राणघातक हमला कर दिया तो रमण सिंह और भाजपा संदेह के घेरे में आ गए। कांग्रेस के इस सामूहिक नर संहार से छ ग में कांग्रेस के पक्ष में अवश्य ही एक आंतरिक मानवीय  संवेदना का संचार हुआ  है.  रमण सरकार   पर संकट के बदल मंडरा रहे हैं। अतिवर्षा से किसानों की फासले बर्बाद हो चुकीं हैं ,उद्द्योग धधों में नीतिपरक गिरावट आई है  , भृष्टाचार   , नक्सलबाद  और  बढ़ते हुए राजकोषीय  घाटे ने छ ग  को  खोखला कर दिया है। डॉ रमनसिंह ने मदद के लिए मोदी जाप भी किया है उनकी बड़ी सभाएं भी करवाई हैं.  किन्तु कांग्रेस के तूफानी  प्रचार प्रसार और नक्सलवाद के समर्थन के आरोप का वे कोई माकूल जबाब अभी तक नहीं दे पाए हैं। आदिवासी समाज के आक्रोश  ने उन्हें हतप्रभ कर दिया  है। राहुल के 'चुनाव जिताऊ सिद्धांत के  अनुसार जोगी गुप को किनारे कर  नेता   चरणदास महंत ,दिनेश पटेल और नयी  पीढी के उदीयमान कांग्रेसी बेहद उमंग और उल्लास से विधान सभा चुनाव में जुटे हैं।  शुक्ल बंधुओं और जोगी परिवार की प्रतिद्वंदिता से उभरकर छ ग  कांग्रेस  इन दिनों फील गुड में है  और राहुल    के नेतत्व में तेजी से विजय श्री की ओर अग्रसर हैं। फिर भी यदि  रमनसिंह की हैट्रिक बन जाती है तो यह राजनैतिक चमत्कार ही होगा।
                                                       मिजोरम के चुनाव में  ४० सीटों के लिए होने जा रहे मतदान  में - मिजो नेशनल फ्रंट ,मिजो नेस्नालिस्ट पार्टी  और कांग्रेस की टक्कर बराबर की है.  निर्दलीय और क्षेत्रीय्ताबादी भी सक्रीय  हैं. त्रिशंकु सरकार की सम्भावना बन सकती है।  गुजरात और तमिलनाडु की एक-एक सीट के उपचुनाव भी इसी दौरान ही रहे हैं कहना न होगा की गुजरात में भाजपा और तमिलनाडु में ऐ आई डी एम् के की ही जीत होगी  .  क्योंकि सत्तारूढ़ पार्टियाँ इतना तो मेनेज कर ही लेती हैं। फिर भी यदि  कोई उलट फेर होता है तो वह  राष्ट्रीय विवेचना का विषय बन सकता है और तब  राजनैतिक विमर्श  की दशा और दिशा दोनों बदल सकती हैं। इसीलिये कहा गया है कि  राजनीति  में कुछ भी  स्थिर और असंभव नहीं है ।

  प्रजातंत्र में अंतिम फैसला तो  जनता  ही करती  है.  जनता के  बीच ही देव और दानव भरे पड़े हैं ।  इसी जनता के बीच से उम्मीदवार खड़े होते हैं।  जनता -जनार्दन रुपी  देव-दानवों के चुनावी  समुद्रमंथन से  ही  विष और अमृत दोनों ही उत्पन्न हो जाया करते हैं। भृष्टाचार मुक्त भारत ,भयमुक्त भारत ,शत्रुविहीन भारत  और समृद्ध भारत बनाने के लिए जो प्रयाश रत हैं उन्हें चाहिए की देश के मतदाताओं को बताएं की फासिज्म क्या  चीज है ? उसके क्या खतरे हैं ?धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जरुरी क्यों है ?अनेकता और बहुलतावाद क्या है ? लोकतंत्र के किस पिल्लर  में क्या खामी है ? जन-कल्याणकारी नीतियों  को हटाकर वर्तमान शासक वर्ग -भाजपा और कांग्रेस दोनों ही निर्मम  पूंजीवाद   के मुरीद हैं तो दोनों में फर्क क्या है ?तीसरा मोर्चा कहाँ -कहाँ है ? किसी पोलिंग बूथ पर यदि सभी बदमाश और भृष्ट उम्मीदवार खड़े हैं तो क्या 'कोई नहीं ' का बटन दबाने से , याने राईट  टू रिजेक्ट का इस्तेमाल करने से  क्या  भारत या कोई प्रदेश  भृष्टाचार मुक्त  हो जाएगा ?यदि जनता के पास इन सवालों के जबाब नहीं  हैं तो  निश्चय ही  लोकतंत्र अधुरा है   और इस अधूरेपन  से निजात पाने के लिए जनता जनार्दन को  डॉ भीमराव आंबेडकर ,महात्मा गाँधी ,शहीद भगत सिंह ,पंडित नेहरु , श्यामाप्रसाद मुखर्जी डॉ राम मनोहर लोहिया   और  ज्योति वसु को  ठीक से  समझना होगा।  न केवल समझना होगा बल्कि इनके विचारों  का  'नवनीत' पीना होगा।
                                                श्रीराम तिवारी
                                        

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