गुरुवार, 4 जुलाई 2013

gathbandhan ke dour men koi ek vichardhaaraa ya vykti ka netrtw nahin chlegaa..

           गठबंधन  की   राजनीति   का  दौर  है  -किसी  एक व्यक्ति  या पार्टी  की विचारधारा  नहीं  चलेगी  ... !                                                                                                                                                 

  ज्यों-ज्यों आगामी लोकसभा  चुनाव के दिन  नज़दीक आने लगे हैं, भारतीय  राजनीति में सत्ता   के दलालों  के  दिल्-दिमाग कसमसाने लगे हैं .संघ परिवार और उसकी  आनुषांगिक -राजनैतिक इकाई  भाजपा  ने जब नरेन्द्र मोदी  रुपी तुरुप के पत्ते  पै  आगामी विजय अभियान का दांव लगाया तो  जदयू और भाजपा का १ ७  साल पुराना याराना खत्म हो गया . इस  अदभुत -अनमेल और विपरीत विचारधारा वाली ऐतिहासिक  यारी के ख़त्म होने पर भाजपा और जदयू दोनों ने कल  जब अपने-अपने कार्यालयों में  जश्न मनाया   तो   इनके शुभचिंतकों को  एनडी ए के अंजाम  पै  रोना आया .कल तक 'साथ  जियेंगे ...साथ मरेंगे ....का गीत गुनगुनाते थे आज बिहार में एक -दूजे का सर फोड़   रहे हैं ....!.. एक-दुसरे के पार्टी .दफ्तरों में  आग लगा रहे  हैं ....! जदयू के जो लोग फ़ासिज्म  का मतलब नहीं समझते थे वे आज  उन्हें 'बुद्धत्व ' की प्राप्ति हो गई  कि   फासिस्टों   से दोस्ती याने 'हाराकिरी'याने राम-नाम सत्य है ....सत्य बोलो ...गत्य  है ...! और नितीश को सत्ता विहीन भी होना पड़े तो समझो  सस्ते में जान छूटी। क्योंकि संघ परिवार ने  एक अदद 'फ्युह्ररर ' तो  ढूड ही  लिया है  जिसका  नाम 'नरेन्द्र मोदी है '.
                                                        विगत शताब्दी के अंतिम दशक में -  जदयू -भाजपा समेत २ २ पार्टियों को'जोड़कर  अटल-आडवाणी ने एनडीए का मज़बूत अलायन्स खडा किया था . इस  एनडीए  के निर्माण  में 'संघ  या नरेन्द्र मोदी  का रंच मात्र भी योगदान नहीं रहा . अलवत्ता जार्ज फर्नाडीज ,शरद यादव और नितीश का योगदान सुविदित है . जिनका रत्ती भर योगदान नहीं था उन्ही    विवादास्पद  महानुभाव   के कारण आज एनडीए की हालत बदतर है   , इस गठबंधन या अलायन्स में अब शिवसेना -अकाली जैसे  गिने-चुने दो-तीन छुद्र क्षेत्रीय दल ही शेष बचे हैं। शेष अधिकांस या तो यूपीए के साथ हैं या फेडरल फ्रंट के निर्माण की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं . वाम मोर्चा पहले भी एनडीए का विरोधी था और आज भी है .हालाँकि  वाम मोर्चा यूपीए  और एनडीए की आर्थिक नीतियों  में कोई फर्क नहीं मानता  और  धर्मनिरपेक्षता  तथा  साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर 'संघ  परिवार '  की सोच  को कांग्रेस की  बनिस्पत  ज्यादा घातक  मानता है .
                                             अटलजी के  नेत्रत्व में   जहाँ  एक ओर  भाजपा को जदयू और समता पार्टी याने -जार्ज ,शरद ,नितीश जैसे धर्मनिरपेक्ष  समाजवादियों का सशर्त समर्थन हासिल था  वहीँ   दूसरी ओर  राजनैतिक अछूतपन से  भी भाजपा को  कुछ हद तक राहत   मिल सकी  थी . इतिहास में पहली बार किसी गैर कांग्रेसी सरकार ने अपना कार्यकाल [१ ९ ९ ९ -२ ० ० ४ ] पूरा किया  था ,चूँकि एनडीए ने डॉ  मनमोहनसिंह की वि'नाशकारी और प्रतिगामी आर्थिक नीतियों को ही देश में पूरे जोर शोर से लागू किया था  अत :'शायनिंग इंडिया ' और'फील गुड '  के चक्कर में ,२  ० ० ४ के आम चुनाव में एनडीए को  शर्मनाक हार का सामना करना पडा था  और  श्री लालकृष्ण आडवानी को पी .एम् इन वेटिंग ' से मुक्ति नहीं मिल सकी .यदि २ ० ० ४ में एनडीए की जीत होती  तो  आडवानी जी देश के प्रधानमंत्री होते और तब भाजपा और संघ परिवार को अपने ही वरिष्ठों का ऐंसा 'लतमर्दन ' करने का   कुअवसर  प्राप्त  नहीं होता , जो इन दिनों भाजपा के वरिष्ठों /बुजुर्गों का हो रहा  है . नरेन्द्र मोदी आज जहां हैं शायद वहाँ नहीं होते .२  ० ० ४ की हार के लिए अटल-आडवानी जिम्मेदार नहीं थे ,बल्कि  गुजरात  के नर संहार  ने मरी हुई कांग्रेस में प्राण फूंक दिए थे . याने मोदी ही आंशिक रूप से जिम्मेदार थे . रही -सही कसर  प्रमोद महाजन ,अरुण शौरी ,यशवंत सिन्हा ,चन्द्र बाबु नायडू  जैसे आर्थिक  उदारीकरण  के  कुकर्मियों  ने पूरी कर दी थी .संघ परिवार के गले इन आर्थिक -सामाजिक  विमर्शों  का कडवा घूँट इसलिए नहीं   उतरता  की वो 'वेद -सम्मत'   है  बल्कि उनके शागिर्दों में देशी पूंजीपतियों और ऐय्याश भूस्वामियों की गुरु दक्षिणा  का असर भी प्रभावी है . देश के गरीब हिन्दू कहीं 'वर्ग संघर्ष 'की ओर न आकर्षित हों इसलिए    राष्ट्रवाद के  रहनुमा  पुनः -पुनः हिंदुत्ववादी  -बाबाओं ,स्वामियों ,बजरंगियों   का   चरणामृत पान करने के लिए उतावले हो जाया करते हैं . उनकी इस हरकत से बहुसंख्यक  हिन्दू वोट का ध्रुवीकरण उनके  पक्ष  में उसके वावजूद  भी   बहुत कम होता है .
                                       नरेन्द्र मोदी और उनके सरपरस्तों को मालूम हो  कि  बिहार का  वोटर -यादव कुर्मी ,  भूमिहार   कायस्थ    दलित - महादलित  और पिछड़ा पहले है  और हिदू बाद में,उत्तरप्रदेश के यादव  मुलायम के साथ और दलित -बहुजन समाज बसपा याने मायावती के साथ जायेंगे या  कि हिंदुत्व का अलख जगायेंगे ,इसी तरह तमिलनाडु के हिन्दू करुना निधि और जय ललिता ने बाँट रखे हैं ,कर्नाटक के हिन्दू तो भाजपा और मोदी को पहले ही ठेंगा दिखा चुके हैं . कांग्रेस के सिद्धारमैया  अब वहाँ मुख्यमंती की कुर्सी पर हैं . ये तो मात्र  हांड़ी  के दो -चार चावल हैं , पूरे देश के हिन्दू या यों कहें कि  अधिकांश हिन्दू साम्प्रदायिक आधार पर नहीं बल्कि जातीय आधार पर या  आर्थिक सामजिक नीतियों के आधार पर ही वोट करते हैं . भाजपा को स्थाई रूप से  वोट करने वाला अधिकांस हिन्दू मतदाता वो होता है जो   उसे कांग्रेस के सापेक्ष बेहतर विकल्प समझता है या कांग्रेस के कुशाशन  से तंग है . इस तरह का स्थाई मतदाता प्रकारांतर से हरेक राजनैतिक पार्टी के पास है और उसे कोई व्यक्ति या दल स्थान्नान्तार्नीय नहीं बना सकता . मोदी लाख कोशिश करें वे किसी भी पार्टी के स्थाई वोटर्स को  भाजपा की ओर धुर्वीकृत नहीं कर सकेंगे . भाजपा का प्रत्येक   मतदाता जरुरी  नहीं की  'हिन्दुत्ववादी 'हो या साम्प्रदायिक ही हो . जहां तक नरेन्द्र मोदी का सवाल है- उन्हें आगे बढ़ाना 'संघ परिवार ' की किसी दूरगामी योजना का हिस्सा  हो सकता है किन्तु यदि वह योजना तात्कालिक सत्ता  प्राप्ति है तो भाजपा,संघ परिवार और बचे खुचे एनडीए को निराशा ही हाथ लगेगी  क्योंकि जैसा वे चाहते हैं ऐंसा कोई राजनैतिक या सामाजिक ध्रुवीकरण अभी तो  इस देश में संभव नहीं .जहां तक मुस्लिम और ईसाई वोटों का प्रश्न है  उनका धुर्वीकरण भाजपा और संघ परिवार  के '' नमो 'जाप ' के कारण कांग्रेस और यूपीए के पक्ष  में और ज्यादा  तेजी से होगा। जिस वोट प्रतिशत पर धुर्वीकरण  का  दाव  लगाया जा रहा है वो यकीनी तौर  पर अहस्तान्तरानीय  बना हुआ है . याने नरेन्द्र मोदी  को जिस राह पर  चलने  को प्रेरित किया  रहा है  उससे वे  वाँछित  सीटें लोक सभा में नहीं पहुंचा पायेंगे और वे तब गुजरात के मुख्यंत्री तो  बने रह सकते हैं किन्तु भारत के प्रधानमंत्री नहीं बन पायेंगे ।
                                                वैसे भी   गुजरात की आर्थिक-सामाजिक  स्थति  को शेष भारत के सामाजिक -आर्थिक  सन्दर्भ से  तुलना करने पर नरेन्द्र मोदी को निराशा ही  हाथ लगेगी . क्योंकि  गुजरात से बाहर  उनका कहीं कोई सार्थक वैयक्तिक या संस्थागत न तो कोई योगदान है  और न ही उनका कोई स्वतंत्र जनाधार  जिसे भुनाकर वे अटलबिहारी ,विश्वनाथ प्रतापसिंह या चंद्रशेखर ही सावित हो सकें .उनके हाव-भाव से    अल्संख्यक  मतदाताओं में  जरुर   असुरक्षा की मानसिकता पैदा हो  रही  है  और  उनका यही भय कांग्रेस  या यूपीए -तृतीय को सत्ता में पुनः प्रतिष्ठित करने का कारक बनता हुआ नज़र आ रहा है . विश्व हिन्दू परिषद् ,बाबा रामदेव ,कुम्भ का संत समागम और विभिन्न शंकराचार्यों के  समवेत स्वर के प्रतिबिम्ब बनकर नरेन्द्र मोदी 'हिंदुत्व ' के झंडावरदार तो बन सकते हैं किन्तु भारत  का  प्रधानमंत्री  बनने  के लिए उन्हें 'जन-नायक  बनना  होगा ,अटल बिहारी बनना  होगा या कमसे कम  एक नेक ईमानदार और सहिष्णु व्यक्ति तो बनना  ही होगा .  भले ही कांग्रेस की आर्थिक नीतियों से परेशान होकर  अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों ही वर्गों का आम आदमी चौतरफा मुसीबतों से जूझ रहा हो किन्तु   इस आवाम को तसल्ली तो  है  कि  भारतीय लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में वे  फासिस्ज्म और  हिटलरशाही  को तो  अपने एक अदद वोट से रोक ही सकते हैं . नितीश ,शिवानन्द या शरद यादव के साथ न रहने पर  भाजपा और संघ परिवार पुनः राजनैतिक  अस्पर्श्यता     के बियाबान में धसता जा रहा है  और जाने - अनजाने ही यूपीए -३ के सत्ता सीन होने का इंतजाम  करने में मददगार बनता जा रहा है .
                                                             यह सर्वविदित है और बिडम्बना भी कही जा सकती है  कि  वैविद्ध्यपूर्ण सामाजिक -सांस्कृतिक  परिवेश जनित वैचारिक दिग्भ्रम, क्षेत्ररीय आकांक्षाओं   और आर्थिक विषमता ग्रस्त भारत में   किसी एक राजनैतिक पार्टी का शासन   बहरहाल संभव नहीं है .  न्यूनतम साझा कार्यक्रम [कामन मिनिमम प्रोग्राम] के आधार पर तथाकथित सामान विचारधारा वाले दलों का 'गठबंधन ' यदि संसदीय प्रजातंत्र के अनुरूप सत्ता सञ्चालन करता है तो वो स्वीकार्य है किन्तु नितांत विपरीत विचारधारा वाले ,सिद्धान्तहीन ,मौकापरस्त दलों का सत्ता के लिए एक हो जाना न केवल देश की जनता के  साथ धोखा  है   अपितु इन दलों के  लिए भी दूरदर्शिता  पूर्ण नहीं है . जदयू और भाजपा का ,कांग्रेस और मुलायम [सपा] का ,द्रुमुक और कांग्रेस का और ए आई डी एम् के और भाजपा  का  गठबंधन किसी भी सेद्धान्तिक बुनियाद पर
आधारित नहीं था और भविष्य में ये दल फिर से इसी रूप में या प्रकारांतर से 'गठबंधन ' बनाते हैं तो देश और देश की जनता का  भगवान् ही मालिक है .आज शिव सेना और अकाली दल के अलावा कोई भी  भाजपा के साथ नहीं है . यदि नरेन्द्र मोदी को भाजपा और संघ परिवार ने   अपने किसी खास उद्देश्य के मद्देनजर  सर्वोच्च नेत्रत्व का  बीड़ा सौंपा तो   एंडीऐ  फिर  इतिहास  के पन्ने में ही पढने को मिलेगा . यदि   आगामी आम चुनाव में  यूपी ऐ सत्ता से बाहर होता है  तो उसका स्वागत  अधिकांश प्रबुद्ध जन करेंगे  किन्तु   यदि एनडीए की टूट -फूट  से या विपक्ष की नाकामी से यूपीए पुन : तीसरी बार सत्ता में लौटता है तो इसका ठीकरा संघ परिवार और नरेन्द्र मोदी के सर फूटना तय है .
                                                             संघ परिवार और भाजपा का एक बड़ा हिस्सा यदि सोचता है  कि' 'नमो'  के जाप से आगामी लोक सभा चुनाव में एनडीए को  2 7 2  सीटें  मिल जायेंगी तो यह उनका दिवा स्वप्न है . निसंदेह यूपीए -२ की नाकामयाबियाँ सर्वविदित हैं , डॉ मनमोहनसिंह की आर्थिक नीतियों से केवल अमीरों को फायदा हुआ है . गरीबी बढ़ी है .भृष्टाचार का बोलवाला हुआ है .भारतीय मुद्रा की दुर्गति हुई है  और आर्थिक नीतियों का  प्रतिगामी असर सब ओर सभी को नज़र आ रहा है किन्तु डॉ मनमोहन सिंह जी जब  बेफिक्री से कहते हैं   कि  नरेन्द्र मोदी हमारे  लिए कोई चुनौती नहीं ,मोदी का कोई अर्थशास्त्र नहीं और भाजपा व एनडीए   तो मेरी ही नीतियों  के अलम्बर दार हैं  तथा फेडरल फ्रंट की कोई अहमियत नहीं तो बदलाव  के आकांक्षियों का और मोदी प्रेमियों का भी  दिल  डूबने  लगता है .  डॉ मनमोहनसिंह ने तो राहुल गाँधी को आगामी  प्रधानमंत्री भी घोषित कर दिया  है . लगता है वे अपने कार्यकाल के अंतिम केविनेट विस्तार में ज़रा ज्यादा ही मुखरित हो गए हैं . उन्होंने बड़ी चतुराई से  न केवल केंद्र सरकार  न केवल कांग्रेस, न केवल राहुल गाँधी  बल्कि  यूपीए को  भी मीडिया  व  जन-विमर्श के केंद्र में  खड़ा कर दिया है , जहां केवल  नरेन्द्र मोदी  बनाम आडवाणी या एनडीए बनाम जदयू ही विमर्श के केंद्र  बिंदु थे . डॉ मनमोहनसिंह  बाकई  गजब के असम्वेदनशील गैर राजनैतिक  व्यक्ति हैं जो आज भी ये दावा कर रहे हैं कि  सत्ता में कोई भी आये आर्थिक नीतियाँ तो मेरी [डॉ मनमोहनसिंह  ]  ही चलेंगी .  शायद उन्हें यकीन है कि  प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा और उसके नेत्रत्व  का क्षत-विक्षत एनडीए  कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति पेश करने में अक्षम है, क्योंकि जिस व्यक्ति को संघ परिवार और एनडीए ने अपना 'चेहरा'  बनाकर प्रस्तुत किया है वो व्यक्ति याने नरेन्द्र भाई मोदी शत-प्रतिशत उन्ही आर्थिक नीतियों के पुरोधा हैं जिन्हें  देशी-विदेशी पूंजीपतियों ने डॉ मनमोहनसिंह के मार्फ़त विगत पच्चीस सालों से थोप रखा है .
 याने डॉ मनमोहनसिंह के वैचारिक विकल्प   के रूप में ही देश का सञ्चालन होगा . फिर चाहे वो यूपीए हो या एनडीए हो . याने चाहे राहुल गाँधी हों या नरेन्द्र मोदी हों ,अर्थशास्त्र डॉ मनमोहनसिंह का याने एमएनसी / विश्व  बेंक /आई एम् ऍफ़ और सरमायेदारों का ही चलेगा . शायद इसी वजह से डॉ मनमोहनसिंह कह रहे हैं कि
- यूपीए तीसरी बार भी सत्ता में आएगा ....! अब उन्हें राहुल में अगला प्रधानमंत्री नजर आने लगा है .....! अब उन्हें नितीश  'धर्मनिरपेक्ष ' नज़र आने लगे हैं ...!  कांग्रेस के चिंतकों ने भी  जब देखा कि  देशी -विदेशी मीडिया की घड़ी का काँटा  केवल और केवल  नरेन्द्र मोदी बनाम आडवाणी ,भाजपा बनाम जदयू   के पॉइंट से आगे नहीं बढ़ रहा और कांग्रेस  तथा यूपीए को नजर अंदाज़ कर रहा है तो  उन्होंने केविनेट विस्तार के बहाने ,संगठन  को मज़बूत करने के बहाने अपने  'ताश के पत्तों' को बड़ी ही धूम-धाम से और चतुराई से  फेंटा  कि  मीडिया  ने तो संज्ञान लिया ही बल्कि अभिव्यंजना  का  परिणाम सामने है   कि  आधा   दर्जन  ' बुजर्गों '  की  केविनेट में ताजपोशी  कर कांग्रेसी नेता  शायद  साईं आडवाणी ,मुरली मनोहर जोशी  और अन्य उम्रदराज भाजपाइयों  को मानों    चिडा कर कह रहे हों  कि  भाजपा में बुजुर्गों को लतियाया जा रहा और हम कांग्रेसी   अपने केन्द्रीय मंत्री मंडल को अस्सी साल के बुजुर्गों से  शोभायमान कर रहे हैं . याने सत्ता कैसे हासिल की जाती है यह उतना महत्वपूर्ण नहीं  जितना कि  सत्ता में कैसे  पकड बनाई जाए ये कांग्रेसियों को खूब आता है . विपक्ष को और खास तौर  से  भाजपा कि  वर्तमान पीढी के नेताओं को  स्वीकारना चाहिए कि  वे अभी वैकल्पिक रूप से अधूरे हैं ....! शायद यही वजह है कि  कांग्रेस अपनी तमाम असफलताओं और बदनामियों के वावजूद  तीसरी बार यूपीए को सत्तासीन  कराने के लिए निश्चिन्त है .फिर चाहे प्रधानमंत्री उन्हें किसी को भी बनाना पड़े . क्योंकि राहुल तो तब तक  प्रधानमंत्री नहीं बनेगें जब तक कांग्रेस को स्वयम के दम पर २ ७ २ सीटें लोकसभा में नहीं मिल जातीं . यह  अभी तो संभव नही क्योंकि गठ्बंधन की राजनीती का दौर अभी   तो  सालों -साल जारी रहेगा .  फिर चाहे कोई भी तुरमखाँ  या तीसमारखां  अपने आपको भावी प्रधानमंत्री घोषित करता रहे ...!

      श्रीराम तिवारी 

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