गुरुवार, 18 जुलाई 2013

        
                विचार विहीन खंडित और अपरिपक्व व्यक्तित्व   से क्रांतियाँ  नहीं हुआ करतीं ...!


      मैंने अन्ना हजारे को तब भी गंभीरता से नहीं लिया था जब पिछले साल  जंतर-मंतर और राम लीला मैदान में उनके बागी तेवरों से घबराकर  कांग्रेस हाई कमान ने अपने चार-चार मंत्रियों को उनकी चिरोरी के निमित्त नियुक्त किया था .देश-विदेश के मीडिया ने जब 'अन्ना 'के दिल्ली वाले अनशन से प्रभावित होकर उन्हें 'राष्ट्रीय हीरो 'का दर्ज़ा दिया था तब भी मुझे अन्ना की योग्यता पर संदेह था और मेरा संदेह सच निकला जब अन्ना   कल इंदौर पधारे  तो कोई उन्हें पलक पाँवड़े  विछाने को  तैयार नहीं था और आज  के स्थानीय अखवारों में या तो अन्ना गायब  हैं  या सिंगल कालम न्यूज़ के रूप में  तीसरे  -चौथे पेज पर उन्हें बमुश्किल चार लाइनों में निपटा दिया गया है . याने अन्ना अब हीरो नहीं जीरो हो चुके हैं . लेकिन  प्रभुता का जो  मद अन्ना को तत्कालीन विराट जन-समर्थन  से व्याप्त होना प्रारम्भ  हुआ था वह अभी उतरा नहीं है . हालाँकि   पहले-पहले   अन्ना को' संघ-  परिवार ' का  परदे  के  पीछे से पुरजोर समर्थन था  किन्तु अब अन्ना संघ से दूरी बनाने की स्वयम कोशिश करते दिखाई दे रहे हैं .
                              स्वामी रामदेव  ने भी  अन्ना के सापेक्ष  अपनी बढ़त बनाए  रखने के लिए 'संघ परिवार' का भरपूर सहयोग लिया था और  वे अब भी बेधड़क   लिए  जा रहे हैं .इसके पीछे उनका मकसद किसी  से छिपा नहीं है ,रामदेव को अपनी दस हजार करोड़ के आर्थिक साम्राज्य की चिंता है .उन्हें राजनैतिक संरक्षण के लिए 'संघ परिवार'मुफीद है .किन्तु अन्ना की समस्या केवल उनके 'अहं ' की है  जिसे कांग्रेस ने ठेस पहुंचाई और जिसे भाजपा ने सहलाया है .अन्ना टीम के कुछ  जागरूक और गंभीर किस्म के लोगों को जब लगने लगा की उनके 'आन्दोलन ' का चरित्र कांग्रेस विरोध के रूप में स्थापित होता जा रहा है  और उनके तथाकथित 'जन-लोकपाल '  को रद्दी की टोकरी में फेंकने वालों में न केवल कांग्रेस बल्कि संघ परिवार  की अनुषंगी  भाजपा भी शामिल है ,और जनता भी  कांग्रेस-भाजपा को एक सामान मानकर ,' चोर-चोर मौसेरे भाई ' का नारा लगाने लगी है  तब अरविन्द केजरीवाल के नेतत्व वाले धड़े ने   अन्ना को राजनीती में उतरने के लिए सुझाव दिया। प्रारम्भ में अन्ना मान  भी गए थे  किन्तु   इस खबर से भाजपा और संघ परिवार  के होश उड़ने लगे    उन्हें  लगा कि उनके जनाधार याने वोट बेंक पर डाका पड़ने जा रहा था . क्योंकि   जो कुछ जमावड़ा  टीम अन्ना या स्वामी रामदेव के इर्द-गिर्द देखा गया वो तो 'संघ परिवार'का ही  उधार का माल था। अन्ना या रामदेव  के पास 'संगठन ' नाम  का  वास्तव में कुछ भी नहीं था और न  हैं बल्कि उनके धुर कांग्रेस  विरोधी तेवर और 'भ्रष्टाचार -उन्मूलक 'छवि के  आभा मंडल का उपयोग करने के उद्देश्य से 'संघ परिवार ' ने ही   अपनी  'फौज '  इन लोगों को जब-तब   उपलब्ध कराई है .अन्ना टीम के इस निर्णय से कि  वे एक नया राजनैतिक दल बनाने जा रहे हैं ,संघ परिवार ' ने अन्ना टीम में शामिल अपने  शुभचिंतकों को रायता ढोलने के  काम पर लगा दिया। नतीजा सामने है .अब अन्ना और केजरीवाल की राहें जुदा-जुदा हैं .केजरीवाल प्रशांत भूषण ,मनीष सीसोदिया और अधिकांस सुशिक्षित सहयोगियों ने 'आम आदमी पार्टी ' का गठन किया है  और कांग्रेस- भाजपा  दोनों  के  भ्रष्टाचार पर आक्रामक रुख अख्त्यार किये हुए हैं .जबकि अन्ना के पास न  तो  संगठनात्मक    क्षमता   है और न कोई दर्शन या सिद्धांत है .वे केवल कांग्रेस विरोध और दो-तीन घिसे पिटे नारों से आगे कुछ भी देख सुन और समझ नहीं पा रहे हैं .जिन  मूर्खों को  अन्ना में  ' दूसरा गाँधी  दिखता  था वे स्वयम नहीं जानते कि  'गांधीवाद ' क्या है ? 'केवल शेर की खाल ओढ़ लेने से गर्दभ शेर नहीं हो  जाता' बाली कहावत  अन्ना हजारे  पर चरितार्थ हो रही है , जिन्होंने  अन्ना को कंगूरे  पर  बिठाया  वे  उन्हें  छोड़कर  सक्रिय राजनीति  के रास्ते  पर चल पड़े हैं और अन्ना का तथाकथित गैरराजनैतिक जनांदोलन का  घिसा -पिटा  खटराग  अब धीरे-धीरे जनता के कानों को भी  खटकने लगा है।  भ्रष्टाचार विरोधी  देशभक्तिपूर्ण जनांदोलन की  भ्रूण ह्त्या के लिए कांग्रेस और भाजपा  तो जिम्मेदार हैं ही लेकिन स्वयम अन्ना भी इस 'हाराकिरी' के लिए जिम्मेदार हैं .
                                         अन्ना का जन -आन्दोलन और उसकी आवाज का असर अब समाप्ति की ओर  है।ज्यादा दिन नहीं हुए जब अन्ना ने देश भर से 6  करोड़ कार्यकर्ता जुटाने का ऐलान किया था .वे कई शहरों का भ्रमण कर कल इंदौर पधारे . मंच से आवाज लगाईं 'मुझे बस आपका एक साल चाहिए ,देश से भ्रष्टाचार मिटा दूंगा , जनतंत्र लाना मेरी जिम्मेदारी  है '..... बगैरह ..बगैरह…! उनके इस आह्वान पर इस शहर से जिन 6 5  लोगों ने   रजामंदी दी उनमें से अधिकांस 'आप ' के थे .यह आश्चर्य की बात है कि  अन्ना न केवल कांग्रेस बल्कि 'आप' को भी पानी पी -पीकर कोसते रहे . कांग्रेस का कुशासन और नीतियाँ तो जग जाहिर हैं और निंदनीय भी   हो सकती हैं  किन्तु 'आप' ने अन्ना का या देश का क्या बिगाड़ा यह किसी को भी पल्ले नहीं पडा। वेशक  मुझे अन्ना  से  यही उम्मीद थी क्योंकि मेरी नज़र में अन्ना वो मित्र हैं जिनसे मित्रता करने पर 'आपको ' किसी शत्रु की  जरुरत नहीं  ऐंसे .अन्ना से कांग्रेस को  क्या खतरा हो सकता है?  और भाजपा को क्या फायदा  हो सकता है ?  जो  'बरसाती गोबर ' से ज्यादा कुछ नहीं याने न लीपने  का  और न  पाथने  का  !
                                                      अन्ना  हजारे   रालेगन सिद्धि का एक 'एन जी ओ ' कार्यकर्ता  तथाकथित  जनसेवक  जो अपने आपको दूसरा गाँधी कहलाना पसंद करता है ,  जिसे  नरेन्द्र मोदी तो  'धर्मनिरपेक्ष 'नजर आ रहे हैं .  किन्तु  उसे मध्यप्रदेश में बलात्कार ,हत्याएं ,लूट और  भ्रष्टाचार नजर नहीं आया .  उसे राघवजी जैसे भाजपाइयों पर शायद गर्व है !उनकी राजनैतिक तटस्थता की पोल खुल चुकी है और उनमें क्रांतिकारिता का दिग्दर्शन करने वालों का मोह भंग होने लगा हैं .दो साल पहले 'जन-लोकपाल 'बिल को लेकर देश में अच्छी  -खासी जागृति आती दिखाई दी थी . अन्ना टोपी तो भृष्टाचार विरोध का प्रतीक बन चुकी थी . किन्तु न तो लोकपाल  का चमत्कार काम आया और न ही कोई 'ईमानदार राजनीती' की जन-क्रांति के आसार दिखाई दिए .सब कुछ वैसा ही  चल रहा है जो इस 'व्यवस्था ' को मंजूर है।  एक बार फिर अन्ना ने शंखनाद किया है , वे जो कुछ भी अब बोल रहे हैं उसमें अब प्रभावोत्पादकता नहीं रही .जनता अब उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं करती इसीलिये  उनके इंदौर आगमन पर कुछ  गिने -चुने लोगों ने ही संज्ञान लिया ,उनमें भी 'आप' के  वही कार्यकर्ता  दिखाई दिए जो सभा स्थल पर माइक से अन्ना के श्री मुख से 'आप' और  केजरीवाल के खिलाफ 'आप्त बचन ' सुनते हुए सर धुन रहे थे . उन्हें उम्मीद थी कि  उनकी सदाशयता से अन्ना पिघल जायेंगे और शायद आगामी चुनावों में 'आप ' को समर्थन देंगे .किन्तु अन्ना को केवल आलोचना करना आता है .  उनकी योग्यता सीमित है ,उनकी समझ बूझ सीमित है और  राजनीती में तो वे   जीरो हैं। केजरीवाल के नेतत्व में  'आप ' के पवित्र उद्देश्य को संशय से देखने और राजनीती से परहेज करने का उनका नजरिया हास्यापद है .  अन्ना तो  गुड़  खाकर गुलगुलों से परहेज करने वालों से भी  गए बीते हैं  उनका राजनीती से हमेशा न-न करना और राजनीतिज्ञों   को ही कोसते जाना एक अपरिपक्व  किन्तु मह्त्वाकांक्षी व्यक्ति की मानसिकता का द्वेतक है .

        श्रीराम तिवारी
        

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