शनिवार, 6 जुलाई 2013

uttrakhand prakrut aapdaa se kya sabak seekha ... hamne...?

     कुदरत  का कहर कुछ सन्देश भी देता है   ..!  क्या भारत के नेता और जनता सबक  सीखने  को तैयार  हैं  ?

   उत्तराखंड   की सद्द्जनित  प्राकृत आपदा   के दो हफ्ते बाद    भूंखे- प्यासे, डरे-सहमे , और बचे -खुचे जीवित लोग जब   अपनी घोर ह्रदय विदारक  आपबीती सूना रहे हों ,  जब इस खंड-प्रलय  जैसे  कुदरती  कहर    में मारे गए लगभग 1 0  हजार मानवों  की  दारुण व्यथा ,  देश और दुनिया  को मीडिया के मार्फ़त  दिखाई  जा रही हो ,  तो समाज और देश को  क्या करना चाहिए ? क्या  जीवित लोटे  बंधू-बांधवों को बधाई और दिवंगतों को शोक संवेदना  व्यक्त कर  देना ही कर्तब्य परायणता है ? सिर्फ इतने मात्र से  अपने हिस्से की जिम्मेदारी पूरी कर ,जिन्दगी के 'भारतीय ढर्रे 'पर पुनः  चलने को तो  हम भारतीय  अभिशप्त   नहीं हैं ?. यदि   हमें अपने हिस्से की जमीन ,अपने हिस्से का  आसमान , अपने हिस्से का सूरज ,अपने हिस्से का स्वाभिमान ,अपने हिस्से की आजादी  और अपने हिस्से का जीवन चाहिए तो, अपने हिस्से की कुर्बानी न सही , अपने हिस्से का योगदान  देने की मंसा तो हमारे मनोमश्तिस्क में होनी ही  चाहिए! चाहे विदेशी आक्रमण हो ,प्राकृत आपदा हो ,वैज्ञानिक  अधुनातन विकाश हो  या देश और दुनिया  में   हो रहे प्राकृतिक , मानवीय , तकनीकी -आर्थिक - सांस्कृतिक  सामाजिक  ,नीतिगत और राजनैतिक परिवर्तन हों , भारत  के  जागरूक जन- गण  को चाहिए कि  इन  सभी  सरोकारों को सदैव  अद्द्य्तन करते रहें।
                    .हमें न केवल  उत्तराखंड की प्रस्तुत प्राकृत आपदा से बल्कि  हर उस घटना से  सबक सीखना होगा जो हमारे देश को ,समाज को या अपरोक्ष रूप से  हमारे व्यक्तिगत  या सामूहिक हितों को  प्रभावित करती हो। जिस तरह  रूस ने चेर्नोबिल से सबक सीखा ,जापान ने भूकंप -सुनामी और हिरोशिमा-नागाशाकी पर हुए परमाण्विक हमले से सबक  सीखा .अमेरिका ने 9 -1 1  के आतंकी हमले से सीखा ,चीन ने  अपने अतीत  की विपन्नता ,भय ,भूंख ,भृष्टाचार को मिटाने वाली 'लाल-क्रांति' से सीखा . दुनिया  के  हरेक जागरूक व्यक्ति -समाज और राष्ट्र ने  अपने अतीत के अनुभवों से वर्तमान को सुखद बनाया और भविष्य  को  निरापद बनाने का भरसक प्रयास किया है . भारत में भी  व्यक्तिगत  स्वार्थों  को पूरा करने में माहिर नर-नारियों  की कोई  कमी नहीं है . किन्तु भारत की जनता ने एक 'राष्ट्र 'के रूप में ,समग्रता के रूप में सामूहिक हितों   को कोई खास तवज्जो नहीं दी। इसीलिये इतिहास में कई मर्तबा इसे  ठोकर  खानी पडी .चाहे विदेशी आक्रमण हो , साम्प्रदायिक वैमनस्य हो ,क्षेत्रीयतावाद हो , अलगाववाद हो ,प्राक्रतिक आपदा हो  या  राजनैतिक -सामाजिक  नकारात्मकता हो - हम भारतीयों ने किसी भी संकटापन्न   स्थिती  से सबक सीखने की कोई खास   कोशिश  नहीं  की .हर साल ब्रह्मपुत्र ,गंगा और  अन्य नदियों में बाढ़ आती  ही  है सेकड़ों की जाने जाती  ही हैं ,लाखों बेघर हो जाते हैं हमारा आपदा प्रबंधन और समस्त सिस्टम क्या जानता नहीं कि  इस साल भी यही होने वाला है ? फिर  बचाव की तैयारी  या स्थाई बन्दोबस्त  क्यों नहीं किया जाता ? अधिकारी वर्ग  केवल ,वेतन भत्ते,मेडिकल क्लेम  इत्यादि निहित स्वार्थों में या सैर -सपाटों में ही  व्यस्त रहता है,  केंद्र और राज्य सरकारों  और राजनैतिक पार्टियों से उम्मीद करना  तो नितांत  मृगमारिचिका  ही है .सूखा ,ओले-तुषार और पाला पीड़ितों  का मुआवजा भी किसानों तक बहुत कमपहुँच पाता  है ,  लेकिन  इस  महा भृष्ट शाशन -प्रशासन के पेट में अधिकांश  समा  जाता है

                                                      भारत में  अमेरिकी  कम्पनी 'यूनियन कार्बाइड 'जब  भोपाल के नज़दीक  खतरनाक जहरीली गेसें उत्सर्जित करने वाला  उर्वरक  कारखाना  डाल  रही थी तब भारतीय जनता  और  खास   तौर  से भोपाल की जनता मौन व्रत  धारी  क्यों बनी रही ? यूनियन कार्बाइड या उसके मालिक एन्डरसन   का तो भोपाल के लोग कुछ नहीं उखड पाए किन्तु जब हजारों मर गए और  सेकड़ों  अपंग हो गए तो उनके नाम पर  गिद्धों की तरह' मरे हुए' का  खाने को टूट पड़े ,भोपाल  के वास्तविक   गैस  पीड़ित लोग तो कबके  मर मरा गए किन्तु  उनके नाम पर राजनीती करने वाले शोहदे और लालची  लोग अभी तक  देश  को लूट रहे हैं . गैस पीड़ितों की ओट  में  निहित स्वार्थियों -दलालों ,नेताओं और दवंगों ने सरकारी  खजाने से लगभग सौ अरब रूपये खींच कर डकार लिए। जबकि  इस दुखद  घटना से कोई सबक सीखने का प्रमाण अभी तक देश की या भोपाल की जनता ने नहीं दिया .  देश  का राजकोषीय घाटा उनका भी घाटा है ये चेतना यदि  लोगों में  होती तो सरकार के उस नीतिगत फैसले का विरोध  अवश्य करते  जिसके कारण जहरीली गेस का कारखना भोपाल में लगाया गया।  क्या अमेरिका ,यूरोप  या जापान के लोग ऐंसा होने देते ?
                                                       इन दिनों कई देशी विदेशी  कम्पनियों को भारत एक उभरता हुआ बाज़ार  नज़र आ रहा है  सो वे केंद्र-राज्य सरकारों की मेहमान नवाजी का लुत्फ़ उठाते हुए एक ओर प्रचुर प्राकृत संपदा के दोहन का लायसेंस हथिया रहे हैं दूसरी ओर पर्यावरण प्रदूषण और घातक बीमारियों   का आयात कर रहे हैं .  दूर संचार के क्षेत्र में कहने को तो 'संचार क्रांति ' हो रही है किन्तु देश की जनता को आने वाले समय में इसकी जो कीमत चुकानी होगी उसका अभी बहुत कम लोगों को अंदाज है . आर्थिक  उदारीकरण   के नाम पर विगत दस-पंद्रह सालों में सरकारी क्षेत्र की ,सार्वजनिक क्षेत्र की संपदा को न केवल ओने-पोने  दाम पर देशी -विदेशी 
पूंजीपतियों  को सौजन्यता पूर्वक परोसा जा रहा है बल्कि देश की सुरक्षा के साथ भी खिलवाड़ किया जा रहा है .
 जिन सार्वजनिक उपक्रमों को पंडित नेहरु देश के नौरत्न या नए राष्ट्रीय 'मंदिर' कहा करते थे उन्हें कांग्रेस  और  एनडीए दोनों ने  ध्वस्त कर दिया है . इस उदारीकरण की नीति के परिणामस्वरूप आज देश पर सौ लाख करोड़ डालर से अधिक  का  विदेशी क़र्ज़ चढ़  चुका  है ,भारतीय रूपये का निरंतर अवमूल्यन होता जा रहा है . भारतीय बीमा क्षेत्र ,सरकारी बैंक की  जमा पूँजी इस अवमूल्यन से स्वतः ही आर्थिक रिसन की शिकार है .इतना ही नहीं इस आर्थिक  उदारीकरण ने जबसे निजी क्षेत्र को  टेलीकॉम  सेक्टर में घुसने की छूट दी तभी से देश को न केवल सीमाओं पर, न केवल अंदरूनी नक्सल पीड़ित क्षेत्रों पर बल्कि  अखिल  भारतीय स्तर पर  एक   नई  भयानक  आपदा का सामना करने को मजबूर होने की पूरी संभावना है .सरकारी क्षेत्र में  दूर संचार के विकाश को देश की  सुरक्षा के   अनुरूप किया जाता रहा है  अब .निजी आपरेटरों  ने गलाकाट प्रत्स्पर्धा के चलते न केवल  ट्राई   द्वारा  निर्धारित नार्म्स   की  अनदेखी की  है  बल्कि देश के हर शहर गाँव-गली में उच्च फ्रिक्वेंसी के टावरों का जाल बिछा डाला है जो मानव  स्वास्थ्य ही नहीं  बल्कि प्राणिमात्र और वनस्पतियों पर  प्रतिकूल प्रभाव के लिए सारी  दुनिया में कुख्यात हो चुके हैं  .टू -जी ,थ्री -जी के बारे में जो केग की रिपोर्ट सरकारी भृष्टाचार की पोल खोलती नज़र आती है वो तो सिर्फ उस हांडी का एक चावल भर है जो निजी क्षेत्र की राष्ट्र विरोधी हांडी से निकाला गया था . जहां एक ओर  मानव स्वास्थ्य  के लिए टावरों के विकिरण कुख्यात हो रहे हैं , वहीँ दूसरी ओर  निजी आपरेटर्स द्वारा आतंकवादियों ,नक्सलवादियों से लेकर जेलों में बंद अपराधियों तक मोबाइल सिम 'घर पहुँच 'सेवा के रूप में पहुंचाई जा रही है .इसका खुलासा विकिलीक्स से लेकर भारतीय सेनाओं तक किया है  किन्तु कमीशन और रिश्वत  के भूंखे उच्च अधिकारियों  और कांग्रेस -भाजपा के  पूर्व संचार मंत्रियों ने  देश के साथ सरासर  गद्दारी की है , इस पर देश की जनता मौन क्यों क्यों है ?       
                                     आजादी के  तुरंत बाद पंडित नेहरु के   नेतत्व में   भारत  ने  दुनिया के साथ कदम ताल करते हुए  'पंचशील ' के सिद्धांतों के अनुरूप वैश्विक सम्मान अर्जित किया  था .पंडित नेहरु  एक विश्व नेता के रूप में तो उभर रहे थे किन्तु वे अपनी राष्ट्रीय और तात्कालिक आवश्यकताओं  की आपूर्ति करने में  कुछ शिथिल रहे .  खास तौर  से  देश की सीमाओं की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम और आक्रामक कूटनीति में
 वे  अपने पड़ोसियों से पिछड़ गए . सीमा के सवाल पर जब भारत -चीन सम्बन्ध कटुतापूर्ण हो गए तो  युद्ध की स्थिति बन गई . भारतीय  नेताओं की रणनैतिक  अकुशलता  के कारण भारतीय फौज को   चीनी सेनाओं  के  हाथों  शहादत देनी पड़ी .1 9 6 2  में  अंग्रेजों के जमाने  के जंग लगे हथियारों  से, लगभग भूंखे -प्यासे भारतीय सेनानियों ने उन्नीस सौ बासठ की लड़ाई में   हिमालय की बर्फीली चोटियों पर  चीन की उस   'लाल - सेना '    से युद्ध किया  जिससे अमेरिका ,रूस ,जापान और इंग्लॅण्ड भी कांपता है . चीन के हाथों लुटे -पिटे भारत ने अपने राष्ट्रीय  स्वाभिमान और राष्ट्रीय एकता-अखंडता के लिए  रूस से मित्रता की।  जिसने संयुक्त राष्ट्र में' सात बार ' भारत के पक्ष में 'वीटो' का इस्तेमाल किया . सोवियत संघ के सहयोग से  भारत  बाद में इतना शक्तिशाली बना कि  उन्नीस सौ  इकत्तर में पाकिस्तान की एक लाख सेना से न केवल हथियार डलवाए बल्कि 'बांग्ला देश ' भी बना डाला  ये सब देश की  जागरूक  जनता और बहादुर सेनाओं ने किया  एकजुट  होकर किया था फिर अब क्यों नहीं कर सकते ?  हालांकि उस समय  यह सब कराने के लिए तब देश  के   पास  अतीत की पराजय का दंश  अवश्य था ,  सेन्य  बलों  को आधुनिकतम अश्त्र -शश्त्र  से लेस किया जा चूका था , श्रीमती इंदिरा गाँधी के रूप में शानदार   नेतत्व भी  था . सिर्फ इतना ही नहीं  भारतीय विकाश गाथा के  इतिहास में  परमाणु शक्ति  सम्पन्नता-पोकरण परमणु बम विस्फोट ,श्वेत  क्रांति ,हरित क्रांति  और संचार क्रांति का श्रेय भी इसी  नेतत्व को दिया  जाता है  उन्नीस सौ इकहत्तर के बाद से  अब तक भारतीय जन- मानस ने  भले ही दुनियावी  तौर  पर  पाकिस्तान  को माफ़ कर दिया हो   किन्तु यह कटु सत्य है कि   हमारे ही कुछ आधुनिक जैचंद और  सरमायेदार उस विजय के बलिदान को भुलाकर देश को लूटने में जुटे हैं .  कुछ  नादान  नासमझ अंधराष्ट्रवाद   की आग में जल रहे हैं ,कुछ अलगाववाद की भट्टी में झुलस रहे हैं।सरकार और विपक्ष केवल वोट की राजनीति  में उलझे हुए हैं . देश की आवाम ने भी उस जज्वे को भुला दिया जो विपत्ति  के दिनों में अनुभूत हुआ था .इसलिए रहीम कवि  का दोहा  आज भी  स्मरणीय है कि -
   
     रहिमन विपदा हु भली , जो थोरे दिन होय .

     हितु - अनहितू  या जगत में , जान  परत सब कोय ..

         यदा - कदा  आपदा या विपत्ति आती भी हो तो उसका स्वागत है ,क्योंकि विपत्ति के दौरान  मालूम पडेगा  कि  कौन हितेषी है और कौन केवल छुद्र स्वार्थी ...!  इस विपदा से भविष्य में सावधानी के सबक भी मिलते ही हैं . हमें इस दौर में न केवल उत्तराखंड जैसी प्राकृत आपदाओं बल्कि अतीत की भूलों और वर्तमान  के समष्टिगत प्रमाद से न केवल सबक सीखना होगा अपितु सावधान भी रहना होगा . बाजारीकरण -उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर   में  देश  खस्ताहाल है . डालर के सामने रूपये की  दुर्गति किसी सामंत युगीन गुलाम की तरह हो  चुकी   है  रिश्वतखोरी और निम्न मानकों के  सेन्य उपकरणों   की खरीदी पर  रक्षा मंत्रालय  के नौकरशाह और उच्च सेन्य अधिकारी सदैव  संदेह के घेरे में रहे  हैं .  आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण की नीति ने देश  के पूंजीपति या  सभ्रांत वर्ग ही नहीं बल्कि  नव-धनाड्य के रूप में उच्च  मध्यम  वर्गीय देशवासियों को   स्वार्थी ,लालची और निर्लज्ज बना डाला है . आज स्थिति 1 9 6 2  जैसी है तब भी भारत के नेता अमेरिकी  नीतियों और  सिफारिशों पर  लट्टू थे और आज  का नेतत्व भी अमेरिकन साम्राज्यवाद  की आर्थिक नीतियों के  सामने घुटने  टेक कर ,एन-केन  -प्रकारेण  यूपीए द्वतीय  की जीर्ण-शीर्ण  नाव खे रहा है . विपक्ष  के   प्रमुख अलायन्स एनडीए  की  भी कोई पृथक  आर्थिक नीति नहीं है .इसके प्रमुख घटक  भाजपा  और उसके तथाकथित नए ब्रांड  नेतत्व को देश के पूंजीपतियों की ओर से पहले से ही आशीर्वाद  प्राप्त है .  वामपंथ के पास अवश्य ही ठोस आर्थिक-सामाजिक  वैकल्पिक नीतियाँ हैं किन्तु वर्तमान   संसदीय प्रजातंत्र  की कुछ खास खामियों के चलते वे सत्ता  के लिए   जन-समर्थन जुटा पाने में असमर्थ हैं . शेष  क्षेत्रीय दल केवल दल-दल ही हैं ,उन्हें देश के  विकाश का भले ही ककहरा न मालूम हो किन्तु वे अपने - अपने उल्लू सीधे करने में  कामयाब  तो अवश्य हो ही  जाते  हैं . देश पर बाहरी आक्रमण हो,आंतरिक आतंकवाद हो देश में बदअमनी  हो ,शोषण हो ,महँगाई  हो ,ह्त्या -बलात्कार हो  या प्राकृतिक आपदा हो इन सवालों पर -क्षेत्ररीय  छुद्र राजनीतिज्ञों के पास इन तमाम  चुनौतियों का कोई समाधान नहीं है . उनके पास  किसी  तात्कालिक - दूरगामी नीति या तत्सम्बन्धी दिशा निर्देशों का नितांत आभाव है . वे हतप्रभ होकर- मीडिया के समक्ष ' आएं -बाएँ  ' करने लगते हैं .  उनकी इस सूरते -हाल पे जनता 'कुछ करने ' के बजाय  सर धुनती रहती है . इन स्वनामधन्य  जन-नेताओं  और  तथाकथित 'राष्ट्रवादियों' को  इस बात की चिंता नहीं की देश  में फासिज्म  के आसन्न खतरे  क्या हैं ? वे जातीय, भाषाई ,साम्प्रदायिक आधार पर वोटों की  खेती करते रहते  हैं . अलगाववाद नक्सलवाद  ,सम्प्रदायवाद ,जाति वाद, ने राजनीती में कितना घालमेल कर रखा है ? इतना ही नहीं देश  को संचार क्रांति के नाम पर सीधे-सीधे सामूहिक कब्रगाह  बनाये जाने के  दुश-प्रयोजनों को भी  समझ पाने में देश के नेता और वुद्धिजीवी सभी असफल रहे हैं .
                                                         देश में 2 -जी ,थ्री -जी और अब फोर जी की तो बहुत चर्चा है  किन्तु इन  ग्लोबल सर्विस मोबाइल सेवाओं   के  विस्तार और सर्विस प्रोवाइडरों  की अंधाधुन्द मुनाफाखोरी के चलते देश की  आवाम को एक भयावह अंध कूप की ओर धकेला जा रहा है जिसका नाम है 'विद्दुत चुम्बकीय तरंग ' क्षेत्र .  इसके दायरे में  आने वाले प्राणिमात्र  के जीवन को खतरा है ,जो लोग  आरोप लगाते हैं कि  उत्तराखंड आपदा के आगमन की सूचना उन्हें नहीं मिली, मैं उन सभी को इस सम्पादकीय के मार्फ़त पूर्व में ही आगाह करता हूँ  कि  आप अनजाने ही दूर संचार के टावरों से उत्सर्जित घातक   विकरणों  के शिकार होते जा रहे हैं .

                                               विगत  सोलह-सत्रह जून के   दरम्यान  हिमालय की चोटियों पर विकराल  -प्रलयंकर  बादलों का फटना और एक  विशेष ग्लेशियर  के प्राकृतिक तट - बन्ध  का टूटना कोई अनोखी और अप्रत्याशित घटना नहीं है। इस पर ये शोर मचना कि  ये तो कुदरत से छेड़छाड़ का परिणाम है ,ये एक अर्ध-सत्य  हो भी  सकता है, वो भी किसी अन्य भूभाग की किसी और प्राकृतिक आपदा के सन्दर्भ में . यह ज्ञातव्य है कि  पहाड़ों पर बाँध बनाना या नदियों का रास्ता बदलने का सिलसिला भारत में तो  'भागीरथ ' के जमाने से  जारी है . सुशिक्षित इंजीनियर या भूगर्भ वेत्ता यदि  जन-हित में ,राष्ट्र हित में धरती  से   ,नदियों  से  , महासागरों   या पहाड़ों   से छेड़छाड़ नहीं करते तो पनामा-स्वेज नहरें नहीं होती ,नेपोलियन आल्पस पार नहीं कर पाता , तिब्बत हिमालय की गोद में नहीं   वसता  बिना प्रकृति से छेड़छाड़ किये   इंसान न तो चाँद पर पहुचता और न ही  मंगल पर पहुँचने की कोशिश करता .  पहाड़ों से छेड़छाड़ किये बिना  कोंकण रेलवे ,जम्मू रेलवे की कल्पना भी नहीं  की जा सकती थी . धरती को खोदे बिना  दिल्ली की मेट्रो रेल ,पंजाब का  भाखड़ा   नंगलबाँध , कोलकाता का हावड़ा ब्रिज   कैसे बन पाते  ?  चकमक पत्थर से लेकर एलपीजी  गैस के दोहन तक सभी तो प्राकृतिक दोहन के प्रमाण हैं .  कुआँ  खोदना  , नलकूप  खोदना ,खेती करना ,नदी -नालों पर बाँध बनाना   जीवन उपयोगी पानी संरक्षित करना ये सभी कार्य प्रकारांतर से प्रकृति से छेड़- छाड़  के प्रमाण हैं।किन्तु फिर भी  मानव -सभ्यता के  विकाश में इन सभी  मानवीय  चेष्टाओं  को जन-हित  की   सशर्त स्वीकृति मिलती रही है . इन शर्तों को जब किसी देश की सरकार और उसके राजनैतिक दल ही दर-किनार करते रहें तो आम जन- मानस  से क्या अपेक्षा की जा सकती है ?
                                                मिश्र के पिरामिड ,भारत के अजन्ता- एलोराऔर अनेक पर्वत कंदराओं के अन्दर मानवनिर्मित गुफाएं आज भी विद्द्य्मान हैं  इन   कार्यों से न तो धरती हिली और न आसमान में  जलजला आया और न ही पहाड़ों पर बादल फटे .! किन्तु इक्कीसवीं सदी को 'सुपर मुनाफाखोरी' का रोग लग गया है,बिना सोचे -विचारे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन केवल 'लाभ-शुभ ' के निमित्त किया जा रहा है   अतएव सार्वजनिक संकट और प्राकृतिक आपदाओं का आब्रजन अब सहज हो गया है . अतएव  अब  जन-हस्तक्षेप जरुर हो   गया है .  आधुनिकतम तकनीकी और अधुनातन   विज्ञान के आविष्कारों से  प्रश्रय प्राप्त   कतिपय  कारपोरट  घरानों और वेदेशी निवेशकों द्वारा बाजारीकरण के दौर मैं निहित  स्वार्थों  के लिए ,सुपर मुनाफों के लिए भारत जैसे  अविकसित राष्ट्रों की संपदा का निरंतर  दोहन   किया जा रहा है . न केवल धरती ,न केवल पहाड़ अपितु  महासागरों का भी  अंधाधुन्द दोहन जारी है .  वर्तमान  केंद्र सरकार की  तत - सम्बन्धी  नीतियों को प्रमुख विपक्षी दल -भाजपा और उसके सर्वोच्च नेतत्व का समर्थन प्राप्त है। वे समझते हैं कि  बढ़ती जनसंख्या  के दवाव को झेलने ,उसकी आकाँक्षाओं  को पूरा करने  और  राजकोषीय घाटा  पाटने  का और कोई शार्टकट नहीं है .    मुनाफाखोरों को   जो   प्रकृति के छेड़छाड़ का लाइसेंस दिया गया है  वो अब प्रकृति भी वर्दास्त करने को तैयार नहीं है।   उत्तराखण्ड की प्राकृतिक आपदा तो  आसन्न खात्र का सिग्नल  मात्र है .
                                                  
                                                       उत्तराखंड की प्रकृत आपदा ने देश की आवाम और  नीति -निर्माताओं को आगाह भर किया   है .इस आपदा के बहाने कुछ  ज्वलंत प्रश्न भी  देश और दुनिया के सामने  दरपेश हुए हैं .पहला प्रश्न यह  है कि-  विकाश का जो माडल मैदानों,रेगिस्तानों या समुद् तटीय क्षेत्रों में प्रयुक्त किया   गया है, क्या वह पहाड़ों पर या नदियों के  उद्गमों  पर भी प्रयुक्त   किया जा सकता है? दूसरा प्रश्न यह   है  कि -देश में जो तीर्थ स्थल हैं ,  क्या उन्हें पर्यटन केन्द्रों - सैरगाहों के सामान विकसित कर, पर्यटकों को मौज-मस्ती के लिए, वहां जमावड़े के रूप में प्रेरित किया जाना चाहए ?तीसरा प्रश्न ये है कि  यदि इस तरह के  आपातकालीन  दौर में नागरिक प्रशाशन या तथाकथित 'आपदा प्रबंधन 'अकर्मण्य या लापरवाह सिद्ध होते हैं और मुसीवत के वक्त  यदि 'सेना ' से ही मदद लेना है तो सरकारों के इस लम्बे चौड़े खर्चीले आपदा प्रबंधन,मौसम विभाग  तथा पक्ष -विपक्ष के 'गगन बिहारी ' नेताओं की खर्चीली  यात्राओं के निहितार्थ क्या हैं ? क्या  नरेन्द्र मोदी के   मगरमच्छी  आंसू और राजनैतिक   बयानबाजी सही है कि  'गुजरात के लोगों चिंता मत करो हम तुम्हारे लिए   मदद भेज रहे है ?  क्या गुजरात के अलावा शेष भारत के लाखों पीड़ित जनों और गुजरातियों में फर्क करना उस व्यक्ति के लिए शोभनीय है,जो अपने आपको भावी  प्रधानमंत्री के  रूप में प्रोजेक्ट करने के लिए  अपने ही गुरुजनों -वरिष्ठों   को भी भूलुंठित करने को तैयार है ? क्या राहुल गाँधी ,सोनिया गाँधी का 'गगनबिहारी ' होना जरुरी था ? क्या उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के परिवार को केवल   इसी समय  पहाड़ों पर हेलीकाप्टरों से सैर सपाटा करना जरुरी था ?
                                                      इसके अलावा और भी सवाल हैं!जो देश की  जनता को उनसे पूंछना चाहिए,जिन्होंने भृष्ट अफसरों और नेताओं से  साठ गाँठ कर,  अवैध रूप  से  पहाड़ों की गोद में ,नदियों के उद्गमों पर ,मंदाकिनी अलकनंदा और भागीरथी  और उनके पवित्र तीर्थ स्थलों की छाती पर तमाम  एश्गाह बना डाले?क्या मानसून के आगमन के ठीक पहले या एन वक्त पर इस तरह लाखों लोगों का इन दुर्गम और असुरक्षित क्षेत्रों में  एक साथ   टूट पड़ने के कोई सार्थक कारण हैं ? क्या इस आपदा से सरकार और जनता सबक सीखेगी ? क्या सरकार को कोसने मात्र से हजारों दिवंगतों की आत्मा को संतुष्टि मिल जाएगी ?
                                                      इस देश की बिडम्बना है कि  यह 'तदर्थवाद' नामक बीमारी का शिकार है ,जब पानी सर से ऊपर गुजरने लगता है तो तात्कालिक उपाय के रूप में जहां सुई से काम चल सकता है वहाँ तलवार लेकर टूट पड़ता है और  जहां तलवार चाहिए वहाँ शान्ति ..शान्ति ...की  रट  लगाने लगता है .हमारी आदत है कि  बरसात  गुजर जाने के बाद छप्पर ठीक करेंगे अभी तो  जहां पानी  चूं  रहा है वहाँ थाली ,कटोरा या बाल्टी लगा देते  हैं। दर्जनों  मंत्री ,सेकड़ों नौकरशाह ,हजारों एनजीओ लाखों  मंदिर -मस्जिद -गुरुद्वारे  और   अनगिनत  साधू -संत ,महात्मा ,बाबा -स्वामी  सभी  इस 'यथा स्थतिवाद'  की नियति के पोषक हैं . बड़े-बड़े तीरंदाज ,ग्यानी-ध्यानी ,तत्ववेत्ता ,मीडियाविज्ञ ,किसी भी आपदा  या घटना -दुर्घटना विशेष  का विश्लेषण  करते हुए बड़ी-बड़ी बातें  करेंगे .कुछ दिन बाद  उसे भुला दिया जाएगा और फिर किसी नए विमर्श पर बोद्धिक  जुगाली के लिए पुनः मैदान संभाल लेंगे .हम जख्म होने पर मलहम बनाने के आदि है,हम अँधेरा होने पर माचिस या टार्च  या अब मोबाइल  अँधेरे में टटोलने के आदि हैं ,हम प्यास  लगने पर कुआँ  खोदने वालों में से हैं . जापान ,अमेरिका  चीन और यूरोप के लोग शायद  भूकंप सुनामी ,भू स्खलन ,सूखा -बाढ़ ,आंधी -तूफ़ान पर नियंत्रण  का कोई उपाय खोज लें तब तक हम भारत के लोग इन आपदाओं से बचाव की कोई  स्थाई  योजना  और तत्सम्बन्धी नीति ही बना लें !  यही उन दिवंगतों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी जो चारधाम -उत्तराखंड की प्राकृत  आपदा में काल कलवित हो  गए हैं ...! उत्तराखंड प्राकृतिक आपदा में दिवंगत हुए तीर्थ यात्रियों  के प्रति शोक सम्वेदना सहित ...श्रद्धा सुमन अर्पित ...!

                                      श्रीराम तिवारी
                            
                                                    

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