मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

ऐतिहासिक तथ्य-अन्वेषण और आस्था...

   अयोध्या विवाद के सन्दर्भ में लखनऊ खंड पीठ द्वारा सम्बन्धित पक्षकारों को दी  गई ९० दिन की  समयावधि वीतने जा रही है ..इस विमर्श में जहाँ एक ओर   हिंदुत्व वादियों  ने अपने पुराने आस्था राग को जारी रखाऔर धर्मनिरपेक्षता पर निरंतर प्रहार जारी रखे वहीं  दूसरी ओर मुस्लिम पक्ष ने भी दवी जबान से  कभी न कभी हाँ में लखनऊ खंडपीठ के फैसले को चुनौती देने की बात की है  लगता है की निर्माणी अखाडा  भी अपने दूरगामी एकता प्रयासों में असफल होकर  किम्कर्तव्य विमूढ़  हो चुका है .इस विवाद में केंद्र की यु पी ये सरकार और यु पी  की वसपा सरकार  वेहद फूंक फूंक कर अपना -अपना पक्ष रख रहीं हैं इस दरम्यान प्रस्तुत विमर्श  में देश के कुछ चुनिन्दा बुद्धिजीवियों  ने ,स्वनामधन्य इतिहासकारों ने भी तार्किक और अन्वेषी आलेख प्रस्तुत किये हैं . इनमे दक्षिण पंथी हिंदुत्व वादिओं और वामपंथी  इतिहासकारों ने  जरुरत से ज्यादा बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया .कहीं कहीं  विषयान्तर्गत भटकाव ,तकरार और उपालम्भ  भी पढने -सुनने में आया ..
       उभय पक्ष के कट्टरता वादी तो वैसे भी धर्मनिरपेक्ष बिरादरी के लिए नव अछूत हैं किन्तु वैज्ञानिक दृष्टिकोण के पक्षधरों ने भी जिस तरह इतिहास और लोक आश्था का पृथक्करण किया वो न तो भावी भारत के निर्माण में सहायक है और न ही उस दमित शोषित अनिकेत -अकिंचन भारत का पक्ष पोषण करने में सफल हुआ जिसके लिए उसे साहित्य -इतिहास और राजनीत में पहचना जाता है .इनकी विवेचना के निम्न बिंदु द्रष्टव्य हैं
एक -अधिकांस विद्वानों ने हिन्दुओं के तमाम पुरा साहित्य  -वेद,पुराण ,निगम ,आगम ,दर्शन और और इतिहास को या तो ब्राह्मणवाद के जीवकोपार्जन का साधन माना है या फिर चारणों-भाटों द्वारा गई गई सामंतों की रासलीला- इसे इतिहास नहीं बल्कि 'मिथ "सावित करने की कोशिश की है .
दो -इन्ही विद्वानों ने पता नहीं किस आधार पर गैर हिन्दू, गैर सनातनी और विदेशी आक्रान्ताओं की मर्कट लीला को इतिहास सावित करने के लिए एडी -छोटी का जोर जगाया है  इन इतिहास कारों  को हम वामपंथी नहीं मान सकते  क्योंकि  इनके अधकचरे ज्ञान को वामपंथी कतारों में संज्ञान लिए जाने
से देश के सर्वहारा वर्ग को भारी हानि हुई है .देश के ८० करोड़ हिन्दू जो की आकंठ आश्था में डूबे हैं  और खाश तौर से राम के भरोसे हैं उनमें से लगभग ३० करोड़ सर्वहारा हैं और उनके सामने जीवन की तमाम चुनौतियों से निपटने में उन बजरंगवली का ही सहारा है जो स्वयम सर्वहारा थे और उनका ही आदेश था की 'प्रात ले जो नाम हमारा ,तेहि दिन ताहि न मिले अहारा ..."
 तीन -दक्षिण पंथी ,हिंदुत्व वादी -संघपरिवार  ,विश्व हिन्दू परिषद् ,भाजपा इत्यादि का नजरिया तो जग जाहिर है की वे अपने पूर्वाग्रही चश्में से बाहर देख पाने में अक्षम हैं सो अपनी रस्सी को सांप बताएँगे ,अतीत के वीभत्स सामंती शोषण के दौर को स्वर्णिम इतिहास बतायेगे ..वे तो खुले आम कहते  हैं की फलां देवी का फल अंग फलां जगह गिरा सो फलां शक्ति पीठ बन गया ...या कहेंगे की समुद्र इसीलिए खारा है की अगस्त ऋषि ने सातों सिन्धु अपने पेशाब से भर दिए थे ...या की कर्ण सूर्य से ,भीम पवन से ,अर्जुन इन्द्र से और युधिष्ठर धर्मराज के आह्वान से कुंती को वरदान में मिले थे या कहेंगे की धरती शेषनाग पर टिकी है या कहेंगे की श्री हरि विष्णु जी क्षीरसागर में लक्ष्मी संग शेषनाग पर विराजे हैं ,या कहेंगे की -जिमी वासव वश अमरपुर ,शची जयंत समेत ...वगेरह ...वगेरह ..
चार -वामपंथी बुद्धिजीवी के लिए भगवद गीता में एक शानदार युक्ति है ..न बुद्धिभेदं ..जनयेद ज्ञानं कर्म संगिनाम..जोषयेत सर्व कर्माणि विद्वान् युक्त समाचरेत ...अर्थात वास्तविक ज्ञानियों {वैज्ञनिक दृष्टिकोण वाले }को चाहिए की वे अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम युत्पन्न  न करें ..जब तक की वो आपके जैसा समझदार न हो जाये  तब तक उसे इसी हिसाब से चलने दे .बल्कि उसके साथ उसकी भाषा में उसी के प्रतीकों और बिम्बों से संबाद स्थापित करे .अब यदि देश के करोड़ों गरीब हिन्दू अभी संघ परिवार के ह्मसोच  जैसे हैं तो इसके मायने ये थोड़े ही है की वे सब भाजपाई या संघी हो चुके हैं .यदि ऐसा होता तो वैकल्पिक प्रधानमंत्री जी संन्यास की ओर अग्रसर क्यों होते ? अतेव जिस तरह यह माना जाता है की हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं होता .उसी तरह यह भी तो सच है की हर हिन्दू साम्पदायिक नहीं होता ,भले ही वो शंकराचार्य ही क्यों न हो ?स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती  क्या साम्प्रदायिक हैं ?नहीं लेकिन वो संघीय दृष्टिकोण से हिंदुत्व को नहीं देखते .वे रात दिन पूजा पथ और कर्मकांड में निरत होने के वावजूद हिन्दू मुस्लिम ईसाई ओए सभी धर्मों के साहचर्य की तरफदारी करते हैं .लेकिन जब कोई सूरजभान ,इरफ़ान हबीब ये कहता है की राम ,अयोध्या या राम मंदिर सब कोरी लफ्फाजी है ,इतिहास नहीं मिथ है तो स्वरूपानंद जी जैसों की हालत दयनीय होती है ..उधर मजूरों किसानों में काम करने बाले वाम काडरों को जन सरोकारों से जूझने के लिए जन सहयोग इस आधार पर कम होता जा रहा है की "तुम क्म्मुनिस्ट तो नास्तिक हो "बंगाल में तो लगभग आज यही स्थिति है .क्योंकि फलां वाम इतिहासकार का कहना है की राम तो कोरी कल्पना है ,बाबर के सेनापति मीर बाकी ने कोई मंदिर नहीं तोडा ,वहाँ मंदिर था ही नहीं .रामायण तो मिथक वृतांत है ..इस तरह की बात करने वाले यदि वामपंथ के समर्थन में खड़े हैं तो वाम पंथ को किसी और दुश्मन की या वर्ग शत्रु की आवश्यकता नहीं .
पांच -हिंदुत्व और इस्लामिक आतंकवाद दोनों बराबर ....यह बार बार दुहराया जा रहा है ... आतंक का कोई मज़हब नहीं होता ...यह अक्सर वाम पंथ की ओर से और धर्म निरपेक्षता की कतारों से आवाज  आती है किन्तु वास्तविक प्रमाण तो जग जाहिर हैं  फिर विश्वशनीयता को दाव पर लगाना क्या हाराकिरी नहीं है ?
छे ;-बाइबिल .कुरान ए शरीफ .और दीगर धर्म ग्रुन्थ पर किसी भी वाम चिन्तक या इतिहाश्कार ने कब और कहाँ नकारात्मक टिप्पणी की ?यदि भूले से भी कहीं कोई एक अल्फाज या कोई कार्टून बना तो उसकी दुर्गति जग जाहिर है .राम इतिहास पुरुष नहीं .वेद ,पुराण आरण्यक ,उपनिषद .गीता रामायण और अयोध्या सब झूंठे ...ऐसा कहने वाले लिखने वाले सेकड़ों लोग सलामत हैं क्योंकि अधिकांस हिन्दू अहिंसक ,विश्व कल्यान्वादी ,सहिष्णु और धर्मभीरु हुआ करता है .यही वजह है की उसके पूजा स्थल तोड़े जाते रहे .उसकी आश्था लातियाई जाती रही उसका शोषण -दमन किया जाता रहा किन्तु वह सनातन से ही तथा कथित धरम -मर्यादा में आबद्ध  होने से अपने ऐहिक सुख को शक्तिशाली वर्ग के चरणों में समर्पित करता रहा और बदले में परलोक  या अगला जन्म सुधरने की कामना लेकर असमय ही काल कवलित होता रहा .
                अधिकांस आलेखों के लिए शोधार्थी अपने आलेख के अंत में विभिन्न ग्रन्थों और पूर्व वर्ती इतिहास कारों  के सन्दर्भों को इसलिए उद्धृत करते हैं कि  वे प्रमाणित हों ,सत्यापित हों .यह नितांत निंदनीय है और बचकानी हरकत भी कि जिस पुरातन साहित्य को गप्प या अतीत का कूड़ा करकट कहो उसी में से प्रमाणिकता का सहारा ...धिक्कार है ..पूर्व वर्ती इतिहास कार भी इंसान थे ..उन्होंने भी अपने से ज्यादा पुराने और कार्बन वादियों ,घोर हिन्दू बिरोधी इतिहासकारों कि नजर में तो वे और ज्यादा रूढ़ एवं अवैज्ञानिक  अतार्किक होने चाहिए .
       अयोध्या विवाद पर निर्मोही अखाडा ,राम लला विराजमान और हाकिम अंसारी जी और उनके संगी साथी आइन्दा क्या करेंगे ये तो नहीं मालूम ..संघ परिवार क्या करेगा नहीं मालूम ...सर्वोच्च अदालत का फैसला क्या होगा नहीं मालूम .लेकिन ये हमें मालूम है कि अयोध्या में राम लला का मंदिर अवश्य बनेगा .और इसका श्रेय अकेले संघ परिवार को नहीं बल्कि देश कि तमाम जनता को -हिदुओं ,मुस्लिमो और दीगर धर्मावलम्बियों को और वाम पंथियों को क्यों नहीं मिलना चाहिए ?क्या राम से लड़कर भारत में साम्यवाद लाया जा सकता है ? एक बार मंदिर बन जाने दें .उसके बाद देश कि शोषित पीड़ित  अवाम  को एकजुट कर वर्गीय चेतना से लेश कर, शोषण कि पूंजीवादी सामंती और साम्प्रदायिक नापाक ताकतों को आसानी से  बेनकाब  कर साम्यवादी क्रांति का शंखनाद किया जा सकता है .हिन्दुओं कि सहज आस्था से किसी भी तरह का टकराव सर्व हारा क्रांति में बाधा कड़ी कर सकता है अतः स्वनाम धन्य बुद्धिजीवियों और उत्साहिलालों से निवेदन है कि अयोध्या विवाद में न्यायिक समीक्षा के नाम पर अपनी विद्वत्ता  का प्रदर्शन करने से बाज आयें ...
          

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