बुधवार, 30 दिसंबर 2009

शहीदों का स्थायी पता

शस्य श्यामल धरा पर
पुलकित द्रुमदल झूमते देवदार
दहकते सूरज की तपन से
जहां होती हो आक्रांत
कोमल नवजात कोंपले
धूल धूसरित धरतीपुत्रों का लहू
अम्रततुल्य आषाढ़ के मेघ
की नाईं रिमझिम बरसता हो जिन वादियों में
और सुनाई दे
रणभेरी जहां पर अन्याय के प्रतिकार की
आ जाना मैं वहीं मिलूंगा

नवागन्तुक वैश्विक चुनौतियां
दुश्चिंतायें, चाहतें नई-नई
नये नक्शे, नये नाम, नई सरहदें
नई तलाश-तलब-तरंगे
काल के गर्भ में धधकती युध्दाग्नि
डूब जाये-मानवता उत्तंगश्रृंग
हो जाये मानव निपट निरीह नितांत
रक्ताम्भरा विवर्ण मुख वसुन्धरा
करुणामयी आस लिये शांति के कपोतों को
निहारती हो जहां अपलक नेत्रों से
आ जाना मैं वहीं मिलूंगा।

देखो जहां भीषण नरसंहार
सुनाई दे जहां पर जलियांवाला बाग का
मर्मान्तक चीत्कार
और शहीदों के सहोदर
चूमते हों फांसी के तख्ते को
प्रत्याशा में आज़ादी की
सूर्य चंद्र ज्योति फीकी हो गई हो
जिनके तेजोमय प्रदीप्त ललाट के समक्ष
करते हों नमन वंदीजन खग वृंद
देते धरा पर मातृभूमि को अर्ध्य
और नित्य होता बेणीसंहार
निर्मम जहां पर
कारगिल-द्रास और बटालिक की उन पहाड़ियों में
आ जाना मैं वहीं मिलूंगा।

सप्तसिंधू तटबंध तोड़कर
प्रशांत से मिला दे, हिंद महासागर को
सरितायें उद्वेलित हों धरा पर
दूषित लहू और निस्तेज शिरायें
करती हों नेतृत्व राष्ट्र का, विश्व का
महाद्वीप प्रलयगत प्रतिपल
पक्षी नीड़ में
मनुज भीड़ में
हो आतप-संताप दोष दुखदारुन
नैतिकता पतित पाताल गत
मानव मति, गति, क्षतविक्षतहत
हो मत्स्यावतार, बल पौरुण विस्तार
करे जगत जहां जय-जयकार
आ जाना मैं वहीं मिलूंगा।

आल्पस से हिमालय तक
वोल्गा से गंगा तक
समरकंद से सिंधु के मुहाने तक
हड़प्पा और मोहन जोदड़ो
विजित कर ज़मींदोज़ संपूर्ण युग
कालखंड एक स्वर्णिम सभ्यता का
रावी तट पर निहारता
क्रूरकाल नरभक्षी यायावर
सभ्यताओं का सनातन शत्रू
चले आना दाहिर की चिता पर
आनंदपुर साहिब-अमृतसर
की पावन माटी में
जहां दिखे शक्ति अखण्ड तेज
आ जाना मैं वहीं मिलूंगा।
चले आना पानीपत
वाया कुरूक्षेत्र
सूंघते हुए लहलहाते खेतों की
लाल माटी को- चूम लेना
चले आना मथुरा से पाटिलपुत्र
श्रावस्ती राजगृह
वाया कन्नौज
प्रयाग-ग्वालियर कालिंजर
पहुंचना हस्तिनापुर
देखो जहां पर गड़ा हुआ
सप्तधातू का जय स्तंभ
पुराने बरगद की छांव तले
घोड़े की नंगी पीठ पर
अधलेटा दिखे धनुर्धर घायल कोई
शांति की तलाश में
आ जाना मैं वहीं मिलूंगा।

चले आना तक्षशिला से
विक्रमशिला वाया नालंदा
फेंकना एक-एक पत्थर
पुराने कुओं-बावड़ियों में
सुनाई देगी तलहटी से
खनकती चीखें इतिहास की
जौहरवती ललनाओं की
करुण क्रन्दन करती चिर उदात्त आहें
मध्ययुगीन बर्बर सामंतों द्वारा
पददलित विचार अभिव्यक्ति
पानी हवा प्रकाश-हताश दिखे
सुनाई दे बोधि-वृक्ष तले
महास्थिरबोधिसत्व तथागत की
करुणामयी पुकार
आ जाना मैं वहीं मिलूंगा।

दब जाओ पाप के बोझ तले जब
चुक जायें तुम्हारे भौतिक संसाधन
अमानवीय जीवन के
आतंक-हिंसा-छल-छद्म-स्वार्थ
डूबे आकंठ पाप पंक में
सुनना अपनी आत्मा की
चीख-युगान्तकारी कराह
लगे जब देवत्व की प्यास
प्रेम की भूख चले आना
स्वाभिमान की हवा में
देखना आज़ादी का प्रकाश
उतार फेंकना जुआ शोषण का
मिले करुणा की छांव जहां
आ जाना मैं वहीं मिलूंगा।

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

बीएसएनएल पर संकट – एकजुट हो जाइये

प्रतिगामी आर्थिक दिवालियापन के बरअक्स क्रांतिकारी मज़दूर संगठनों को चौतरफा संघर्ष करना पड़ रहा है। संगठनों को अपने-अपने उपक्रम या निगम को बचाने के लिए जूझना पड़ रहा है। एक्ज़ीक्यूटिव के सापेक्ष ग्रुप सी एण्ड डी कर्मचारियों को अपने वेतन भत्तों के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। प्रतिस्पर्धा में इन सबको निजी क्षैत्र से भी संघर्ष करना पड़ रहा है। अतीत में निरंतर संघर्षों से प्राप्त पेंशन, ग्रैच्यूटी तथा अन्य सुविधाओं को बचाने के लिए भी निरंतर संघर्ष करना पड़ रहा है। संगठित मज़दूर वर्ग को अपने ही बीच में जयचंदों-मीरजाफ़रों, बदमाशों-मक्कारों से संघर्ष करना पड़ रहा है। सरकारी कंपनियों को देश की जनता अर्थात ग्राहकों को अपने साथ जोड़े रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। शासक वर्ग की मज़दूर-कर्मचारी एवं संपूर्ण श्रमिक वर्ग विरोधी नीतियों के खिलाफ भी अनवरत संघर्ष करना पड़ रहा है।

देश की जनता इन संघर्षों में शामिल हो, इसके लिए ये ज़रुरी है कि हम सरकारी-सार्वजनिक उपक्रमों के कर्मचारी-अधिकारी साबित करें; कि हमारी (सरकारी) सेवाएं निजी क्षैत्र के सापेक्ष बेहतर हैं। न केवल सेवाएं अपितु उसकी गुणवत्ता एवं तात्कालिक उपलब्धता भी नितांत ज़रुरी है। बीएसएनएल मैनेजमेंट को भी समझना चाहिए की सरकार निर्देशित उन नीतियों का, जिससे बीएसएनएल का बेहद नुकसान होने जा रहा हो उन नीतियों को पलटने के लिए अपनी लालफीताशाही का कुछ कमाल दिखाएं। सरकार के समक्ष हमारे टॉप मैनेजर्स कह सकते हैं, कि सरकारी कंपनियों (ख़ासतौर से बीएसएनएल) के साथ अन्य PSUs के साथ समानता निर्धारित करते समय अपनाए गए मानदंडों में बेहद विसंगति है, अत: कंपनी समापन एक्ट 1956 के तहत बनाए गए PSUs और दूरसंचार अधिनियम 2000 के तहत बनाए गए PSUs के उद्देश्य एक समान नहीं हैं। 1956 में पं. जवाहर लाल नेहरु ने इन निगमों को बनाते समय कहा था कि ये “सार्वजनिक उपक्रम हमारे स्वतंत्र भारत के आधुनिक मंदिर है”। इस बात के कहे जाने के 50 साल से ज्यादा का वक़्त बीत जाने के बाद अब ये मंदिर ध्वस्त किये जा रहे हैं। ध्वस्त करने वालों को महिमा मंडित किया जा रहा है और राष्ट्र द्वारा इस भारी क़ीमत को चुकाने के बाद निजी क्षैत्र के दो चार घरानों को पुरस्कृत किया जा रहा है।

यह सर्वविदित है कि पं. नेहरु और श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा स्थापित देश के समग्र सार्वजनिक उपक्रमों की बदौलत ही वर्तमान दौर की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी से भारत लगभग सुरक्षित निकल जाने में सफल रहा है। हालांकि यूपीए की प्रथम पारी के दौरान वामपंथ के निरंतर दबाव के कारण सार्वजनिक उपक्रमों को निजी क्षैत्र में नहीं बदला जा सका और कॉमन मिनिमम प्रोग्राम, नरेगा इत्यादि की योजनाएं लागू करने के लिए वामपंथ ने जो शर्तें रखी थी उसका राजनैतिक लाभ यूपीए को अपनी दूसरी पारी में भले ही हुआ हो, लेकिन अब सरकार के तथाकथित पूंजीवाद समर्थक आर्थिक सलाहकार इन्ही दुधारु सार्वजनिक उपक्रमों को ख़त्म करने पर तुले हुए हैं। बीएसएनएल, बैंक, बीमा और अन्य सार्वजनिक उपक्रमों के बारे में नित नये-नये भ्रम फैलाए जा रहे हैं। निजीकरण की ज़हरीली गोली को तात्कालिक लाभ की चाशनी में डुबोकर परोसा जा रहा है।

बीएसएनएल सनातन से या 1956 से सार्वजनिक उपक्रम नहीं था अर्थात हम उस PSU में करते हैं जो कंपनी अधिनियम 1956 के अंतर्गत नहीं आता अत: स्पष्ट है कि प्रसार भारती की तरह बीएसएनएल के सेवारत कर्मचारियों को केंद्रिय सरकारी कर्मचारी का स्टेटस रखा जाना चाहिए। पहले से ही ये सुविधा आईटीएस अधिकारियों को प्राप्त है लेकिन ग्रुप सी एंड डी के कर्मचारियों को नज़रअंदाज़ क्यों किया जा रहा है? कुटिल प्रबंधन का प्रबल प्रतिरोध भी कर्मचारियों को झेलना पड़ रहा है, और मान्यता प्राप्त संगठन बीएसएनएलईयू तथा उसके महासचिव कॉ. वी ए एन नंबूदरी को अपमानित करने, उपेक्षा करने में सरकार को तथाकथित पालतु काग़ज़ी संगठनों का भी सहयोग मिल रहा है।

युनाईटेड फोरम तथा सीपीएसटीयू का आह्वान है कि बीएसएनएल के तीन लाख कर्मचारी-अधिकारी एकजुट होकर अपनी जायज़ आर्थिक मांगों के लिए तो संघर्ष करें ही, भयानक आर्थिक मंदी और गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में अपने उपक्रम- बीएसएनएल को बचाने के लिए भी संघर्ष की ज़रुरत है। इस बाबत कॉ. नंबूदरी ने सारे देश से सुझाव मंगाकर मैनेजमेंट के समक्ष ठोस कार्ययोजना भी प्रस्तुत की है। आशा है सभी शाखा सचिव/ज़िला सचिव/सर्कल सचिव अपने-अपने क्षैत्र में तत्संबंधी संघर्ष के लिए तैयार होंगे। क्रांतिकारी अभिवादन सहित। धन्यवाद
आपका साथी
श्रीराम तिवारी
संगठन सचिव- बीएसएनएलईयू

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

मातम मना लिया

नेताजी मरणोपरांत , जब स्वर्ग को सिधारे,
शहीदों ने उनको प्रेम से, गले लगा लिया।
पूछी कुशलक्षेम जमता की, अमन की वतन की,
कहो वत्स-स्विस बैंक में कितना जमा किया।
ये आग, ये धुआं, चीत्कार करुण क्रंदन क्यों?
इन निर्धनों का झोपड़ा, किसने जला दिया।
वेदना से भीगी पलकें, शर्म से झुकी गर्दन,
अपराध बोध पीड़ित ने, सच-सच बता दिया।
वंदनीय हे! अमर शहीदों, मेरे ही अपनों ने
मेरी मौत का आतिशी, मातम मना लिया।

अपने ह्रदय के खून से सींचा, जिसे तुमने,
हमने सियासी जंग का, अखाड़ा बना दिया।
बड़ी जतन से, मेहनत से, राष्ट्र बनाया आपने,
अलगाव की चिंगारियों को, हमने जगा दिया।
गंगा-जमुनी तहज़ीब का, अमृत बनाया आपने,
नफ़रत का इसमें ज़हर, हमने मिला दिया।
सत्य-अहिंसा, प्यार-क़ुर्बानी, तुम्हारे शस्त्र थे,
हमने खिलौनों की तरह, पिस्टल थमा दिया।
वंदनीय हे! अमर शहीदों, मेरे ही अपनों ने
मेरी मौत का आतिशी, मातम मना लिया।

मैं तो था सीधा-सादा ईमानदार साधारणजन,
पता नहीं किस दुश्मन ने, नेता बना दिया।
जाने कब कैसे भूल हुई, जा अटका उस काकस में,
सत्ता स्वप्न सुन्दरी ने, अपना बना लिया।
प्रजातंत्र-धनतंत्र, समझकर, सौदों का कमीशन लेता रहा,
दिखी जिसकी शर्ट मुझसे सफ़ेद उसे कीचड़ में गिरा दिया।
अपनी उच्चवल छवि के चक्कर में हमने,
अनेक दिग्गज विरोधियों का भुर्ता बना दिया।
वंदनीय हे! अमर शहीदों, मेरे ही अपनों ने
मेरी मौत का आतिशी, मातम मना लिया।

सुनकर करतूत नेता की, दुखी मन बोले शहीद,
बेटा, हमारी शहादत का, अच्छा सिला दिया.
तुम अपने ही गुलों को पैरों, कुचलते चले गए,
हमने तो कांटा और का, माथे लगा लिया।
प्रतिशोध के संताप में तुम, तिल-तिल जला किए,
हमने तो आग को भी, चंदन बना दिया।
तुम चले थे भीड़ लेकर, आज संग कोई नहीं,
हमने तो आग को भी, चंदन बना दिया।
तुम चले थे भीड़ लेकर, आज संग कोई नहीं,
हमने गगन मंडल में, मेला लगा लिया।
सुखी रहें पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां, बने भारत महान,
इसीलिए तो हमे, खुद को मिटा दिया।

तुम अकेले ही चले थे आसमां को चूमने,
नीहारिका में अंजुमन को, हमन सजा दिया।
तुम ग़म का भार रोकर बढ़ाते चले गए,
हमने हंसी-हंसी में, ग़म को रुला दिया।
तुम गद्दों पर लोटकर भी करवटें बदला किए,
हमने ते काल कोठरी को, मंदिर बना दिया।
ताज़े फलों का जूस पीकर, तुम रहे बीमार हरदम,
फ़ांकाक़शी को हमने, सत्याग्रह बना दिया।
सुखी रहें पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां, बने भारत महान,
इसीलिए तो हमे, खुद को मिटा दिया।

असली-बारहमासा (धनाक्षरी छन्द)

चैत्र गावें चेतुए वैशाख गावें वनियां,
जेठ गावें रोहिणी अगनी बरसावै है।
भवन सुलब जिन्हें शीतल वातानुकूल,
वृष को तरनि तेज उन्हें न सतावै है।
नंगे पैर दुपहरी में भूखा-प्यासा मजदूर,
पसीन बहाये थोरी छांव को ललावै है।
अंधड़ चलत उत झोपड़ी हुमस जात,
बंगले से धुन इत डिस्को की आवै है।

बूआई की बेला में जो देर करे मानसून,
असहाय किसान मन शोक उपजावै है।
बंगाल की खाड़ी से न आगे आवें इन्द्रदेव,
बानियां बक्काल दाम दुगने बढ़ावै है।
वक्त पै बरस जायें अषढ़ा के बादरा तो,
दादुरों की धुन पै धरनि हरषावै है।
कारी घटा घिर आये खेतों में बरस जाये,
सारंग की धुन सुन सारंग भी गावै है।

(प्रकृति श्रृगांर)
वन बाग खेत मेंढ़ चारों और हरियाली,
उद्भिज गगन अमिय झलकावै है।
पिहूं-पिहूं बोले पापी पेड़ो पै पपीहरा,
चिर बिरहन मन उमंग जगावै है।
जलधि मिलन चलीं इतराती सरितायें,
गजगामिनी मानो पिया घर जावै है।
झूम-झूम बरसें सावन सरस मेघ,
झूलने पै गोरी मेघ मल्हार गावै है।

चूल्हा नहीं सुलगत आदिवासी ललना का,
गहर-गहर तम रात गहरावै है।
गरीबी में गीला आटा सब्र का बांध टूट जावे,
ठेकेदार ‘मामा’ की मजूरी को डकारै है।
बढ़ा में बुहर गई बची-खुची आमदनी,
डूब रही बस्ती पै मौत मंडरावै है।
अभिजात्य कोठियों में परजीवी कामिनी,
भादों गोरी सेज पै सजन संग गावै है।

धूल हीन धरती गगन नीर निर्मल,
अश्विन को आयो देख भागी बरसात है।
रोजी के जुगाड़ की फिकर लागी जिनको,
उन्हें वर्षान्त की उमंग न सुहात है।
खुशी मौज मस्ती अमीरों की है मुठ्ठीबंद,
निर्धन के घर में तो भूख को निवास है।
कहां से पकायें खीर अमृत के सेवन को,
शरद को चन्द्र जिन्हें रोटी ही दिखात है।

कहां पर जलाऐं दिया अनिकेत अनगिन,
जीवन ही जिनका अमावस की रात है।
सरसों को फूला देख ललचाई तिलहन,
अलसी की कलियों पै कार्तिक को वास है।
बाजरा ज्वार की गवोट खिली हरी-भरी,
रबी की बुआई पै अगहन की आस है।
कहीं पर सिंचाई होत, कहीं पर निराई होवे,
सांझ ढले खिरका में गैया रंभात है।

पूस में गुजारी रातें गुदड़ी में जाग-जाग,
माघ संग हेमंत मचान पै बितावै है।
फागुन के संग आई गेहुओं में बालियां,
अमुआ की डार बौर अगनि लगावै है।
चंपा कचनार बेला सेमल पलाश फूले,
पतझड़ पवन पापी मदन जगावे है।
मादकता गंध भरे महुए के फूल झरें,
अलि संग कोयल बसंत को बुलावै है।

वसन धवल तन सबल मुदित मन,
रहन-सहन ऊंचो धनवान पावै है।
चांदी की चम्मच मुख धरे जन्में तो,
नियति को अभिनय उन्हें दुलरावै है।
अधरम अनीति कर एक चढ़ो शिखरे,
दूजों न्याय-न्याय की गुहार ही लगावै है।
दंगा बिना मन जाये ईद-दिवाली, होली,
कवि श्रीराम ऐंसों बारहमासा गावै है।

अव्यवस्था की लंका दहन करो

युग सहस्त्र में मार्तण्ड का, रश्मि भ्रूण जब गिरा धरनि पर।
तब नर बन जाते नारायण, भू भार हरण करते हैं।।
भरते जो संक्रांति शून्य, हांकते मानवता का रथ।
सत्य न्याय के लिए समर में, विजय वरण करते हैं।।
हम उनको ही अवतार, उन्हें देव कहा करते हैं।

जो अज्ञानी बनता दीवार, क्रांति के पथ पर रावण।
उनसे इतिहासों के गंदे, कूड़ेदान भरा करते हैं।।
गर्वोन्मत सम्राटों के स्वर्ण मुकुट, गिरते जिनके श्री चरणों में।
उनके पावन स्मरण से, भय के भूत भगा करते हैं।।
हम उनको ही अवतार, उन्हें देव कहा करते है।

मर मिटकर ही होता दाना, महाविट्प तरुणाई में।
स्वारथ अंधे रंगे स्यार, न सिंह बनें बनराई में।।
जिनने बांधा सप्त सिंधु को, नर-वानर संयोजन से।
उनके भक्त मानव-मानव में, क्यों फर्क किया करते हैं।।
युध्द भूमि में नहीं थे जिनके, रथ सारथी पदत्राण तक।
हम उनको ही अवतार, उन्हें ही देव कहा करते हैं।।

पर पीड़क पर निंदक दुर्जन, दोनों लोक गंवाते जाते।
हिंसा रेगिस्तानों में न, अमन के फूल खिला करते हैं।।
विश्व विजय की जिन अशोक ने, वो न अस्त्र उठाया करते।
बिना शस्त्र के कुंभज योगी, खारा सिन्धु पिया करते हैं।।
महा सिन्धु मंथन से जिनको, चौदह रत्न मिला करते हैं।
हम उनको ही अवतार, उन्हें ही देव कहा करते हैं।।

मातृभूमि को लज्जित करती, रिश्वत की सूर्पणखा देखो।
ये तो घास फूस का नकली, भ्रष्टाचार का असली रावण देखो।।
अब तो हर गली मुहल्ले में स्वयं को सगर्व लंकेश कहा करते हैं।
इन्हें भस्म करने को युग-युग, जो श्रीराम हुआ करते हैं।।
हम उनको ही अवतार, उन्हें ही देव कहा करते हैं।

मानव जब दानव बन जाये, सुरा सुन्दरी में रम जाये।
ईमानदारी की सीता माता, सिसिक-सिसिक रोती ही जाये।।
वृद्ध जटायु सदाचार का, रावण से उपहास कराये।
मरघट की ज्वाला को पागल, दनुज किया करते हैं।।
काल चक्र के हवनकुण्ड में, स्वाहा होते वे नरपुंगव।
हम उनको ही अवतार, उन्हें ही देव कहा करते है।।

चारों ओर असुरों के झुण्ड, वतन की लूट किया करते हैं।
आतंकवाद के अहिरावण, अट्टाहास किया करते हैं।।
रक्षक हो जायें कुम्भकरण, तो गुण्डे राज किया करते हैं।
ओ! राम के अनुयायी, ये तुम किसको जला रहे।।
असली रावण तो डगर-डगर, छुट्टा सांड फिरा करते हैं।
उनका काम तमाम करैं, मर्यादा पुरुषोत्तम आकर के।।
हम उनको ही अवतार, उन्हें ही देव कहा करते हैं।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

द्वंद्व का आह्वान

चिंतन की चटनी, मनन का मुरब्बा।
दर्शन की दाल, विचारों का हौवा।।
प्रसिध्दि के मोदक, हैं जिनके पास।
प्रशंसक-प्रकाशक, पालतू हैं खास।।
कविता में कल्पना की, आनंदानुभूति।।
शोषण के श्रृगांर से, उनको सहानुभूति।।
अभिजात्य कवि, स्वयंभू ख्यातनाम।
हिन्दू को राम-राम, मुस्लिम के सलाम।।

सत्ता से जिनको, दलाली मिली धांसू।
अव्यवस्था पर बहाते, घड़ियाली आंसू।।
पीर पैगम्बरों के, नित मंत्र नव रचते।
अपने आगे किसी को, कुछ न समझते।।
मानसिक अय्याशी का इंतजाम करते।
जीवन के यथार्थ को सरेआम ढंकते।।
कला-कला के लिए, जिनका तकिया-कलाम।
हिन्दू को राम-राम, मुस्लिम के सलाम।।

वेदना की कोदों रोटी, करूणा का कांदा।
श्रमस्वेद स्नान, हारा थका मांदा।।
कृषकाय कठोर, बेडौल खुरदुरे हाथ।
उतरे साहित्य एरिना में, उत्साह के साथ।।
संघर्ष का यथार्थ बोध, देता इल्हाम।
क्रांति की मशाल, सुलगती अविराम।।
भावों के अणुबम विचारों के नेपाम।
हिन्दू को राम-राम, मुस्लिम के सलाम।।

प्रगति शील अधुनातन अर्वाचीन।
छंदेतर अतुकांत नमकीन।।
रहस्यवादी-प्रयोगवादी गोरखधंधी।
छायोवादी सुबुक-सुबुकी अक्ल की अंधी।।
खोखली म्यान का क्या कीजिए?
मोल तो तीक्ष्ण तलवार का ही कीजिए।।
द्वंद्वात्मक भौतिकवादी है जिसका नाम।
हिन्दू को राम-राम, मुस्लिम के सलाम।

मैं महामानवों की जननी मेरा प्राणान्त न होगा

उनकी संताने रक्त पिपासु, जो आर्तत्राण कहलाते थे।
वंशज उनके आतंक करें, जो धर्म ध्वजा फहराते थे।।
ये भिक्षा वैरी से माँगे, वे शरणागत वत्सल थे।
ये निरीह निर्भल को मारें, वे जिनके संरक्षक थे।।
चरम पतन कुलदीपों का, अब मुझसे सहन न होगा।
मैं महामानवों की जननी, मेरा प्राणान्त न होगा।।

कितने ही दिए बुझा दो तुम, आह! उफ न करूंगी मैं।
बुझे चिरागों को रोशन, फिर भी करती रहूंगी मैं।
जिनके बलिदानों के दम से, बंधन मुक्त हुई थी मैं।
उन भगतसिंह-आज़ादों का सृजन करती रहूंगी मैं।।
मैं महामानवों की जननी मेरा प्राणान्त न होगा।।

बहकाने पर तुम गैरों के, कितने ही कुटीर जला देना।
फूलों की क्यारी में अनगिन, कांस-बबूल उगा देना।।
सतलुज-व्यास के निर्मल नीर में, कितना ही र्कत बहा देना।
पंथ-जाति के बैर-भाव को, कितना ही सगा बना लेना।।
मैं महामानवों की जननी मेरा प्राणान्त न होगा।।

पतित पड़ोसन पापिन की, बेईमान औलादों ने।
डसा अबोध बच्चों को मेरे, आस्तीन के सांपों ने।।
भ्रमित किया है नादानों को, मुझसे जलने वालों ने।
मेरा माथा झुलसा दिया है, मज़हब के अंगारों ने।।
सत्य-अहिंसा-क्षमा-दया का, परिपूरन आनन होगा।
मैं महामानवों की जननी मेरा प्राणान्त न होगा।।

अनहद नाद के स्वर में गाया, सामगान का गीत जिन्होंने।
विश्व शांति का पाठ सिखाया, ऋषि वशिष्ठ विश्वमित्रों ने।।
राम-कृष्ण, गौतम-नानक को, मैंने ही तो जन्म दिया था.
चन्द्रगुप्त-चाणक्य, हर्ष का, स्वर्णकाल में सृजन किया था।।
वीर विक्रम चढ़ा अश्व पर, शक-हूणों का नाश किया था।
मैं अशोक की मतृभूमि हूं, फिर मुझे शोक क्यों होगा।।
मैं महामानवों की जननी, मेरा प्राणान्त न होगा।।

अग्निपूजकों जरथ्रुस्तों को, मैंने अपनी शरण लिया था।
सूफी संतों के सपनों को, मैंने ही साकार किया था।।
ईसा के वचनों को मैंने, गीता-सा सम्मान दिया था।
पूरब की धरती को जग में, अपना पावन नाम दिया था।।
सत्यं शिवं सुन्दरम् फिर से, जग का महामंत्र होगा।
मैं देवों की कामधेनु हूं, अन्न नीर अक्षय होगा।।
मैं महामानवों की जननी, मेरा प्राणान्त न होगा।

अलबरूनी सुकरात अरस्तु इब्नेबतूता बखान करें।
वे फाहयान हों हुवेनसांग, यायावर सब गुणगान करें।।
मेरा वैभव देख बसाया, गोवा पुर्तगालियों ने।
पांडिचेरी में जश्न मनाए, निर्भय फ्रांसवासियों ने।।
मैक्समूलर ने मुझको, सर्वश्रेष्ठ सम्मान दिया जब।
मीरजाफर ने मुझको, गोरे हाथों बेच दिया तब।।
टीपू के बलिदानों का, युग-युग जग वंदन होगा।
मैं महामानवों की जननी, मेरा प्राणान्त न होगा।।

जगदगुरू आदिशंकर ने, निज जननी का मान दिया था।
कवि कुल गुरू कालिदास ने, भारत-जननी नाम दिया था।।
जय-जयकार करते रहे, सदा सुब्रमण्यम भारती।
रवीन्द्र-कवीन्द्र गाते रहे, आजीवन मेरी आरती।।
मैं कबीर की, मैं खुसरो की, कर्मस्थली पुण्य धरा।
केशव सूर-तुलसी, रहीम, सबमें मैंने सत्य भरा।।
भारतेन्दु हरीशचन्द्र सरीखा, सेवक कौन मेरा होगा।
मैं महामानवों की जननी मेरा प्राणान्त न होगा।।

भौतिकता पर ज्ञान योग की, महिमा सब जग ने जानी।
पुत्र विवेकानंद जब बोले, श्रीमुख से अमृतवाणी।।
मृत्युन्जय था वीर बुंदेला, क्षत्रसाल गौरवशाली।
मेरी कोख अमर कर गई वो, थी रानी झांसी वाली।।
पूजाघरों में तुलजा माता, रण में थी तलवार भवानी।
वीर शिवा की आराध्या थी, राम-समर्थ की पावन वाणी।।
राणा प्रताप सा स्वाभिमान, क्या देवलोक में भी होगा।
मैं महामानवों की जननी मेरा प्राणान्त न होगा।।

मेरी गोद में जाने कितने, जौहर जले चिताओं में।
सत्यमेव जयते का नारा, गूंजा दसों दिशाओं में।।
मेरा पूत था लालबहादुर, जिसका असर फिजाओं में।
विश्व विजय की अभिलाषा है, मेरी अमर शिराओं में।।
मैं जननी गांधी सुभाष की, जय-जय गान जग में होगा।
मैं महामानवों की जननी मेरा प्राणान्त न होगा।।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

प्रगतिशील साहित्य सृजन में छन्दमय कोष की प्रासंगिकता

आज टेलीविजन, कम्प्यूटर तथा ब्रॉडबैंड इत्यादि के अत्यधिक प्रचलन से ज्ञान आधारित सूचना तंत्र सहित संपूर्ण वैश्विक उत्पादनों का भूमंडलीकरण हो चुका है। नए-नए ब्लॉगों और वेबसाइट्स पर अंधाधुंध सृजनशीलता के दुर्गम पहाड़ निर्मित किये जा रहे हैं। अधिकांश लेखन निहायत ही गैर जिम्मेदाराना, तथ्यहीन तथा अरुचिकर भी होता जा रहा है। कुछ तो अर्थ-आधारित (मुनाफामूलक) ही हो चुका है, कुछ नितान्त अर्थहीन होता जा रहा है। कहीं कुछ अभाव भी झलक रहा है। अतीत की बर्बर-दमनकारी-सामन्तयुगीन (अ)सभ्यताओं के तंबू भले ही उखाड़ दिए गए हों किंतु अतीत का वह हिस्सा अभी भी हरा भरा साबूत है, जो साहित्यिक-सांस्कृतिक एवं मानवता के कल्याणकारी सरोकारों से सराबोर है। जिसमें मानवीय उत्थान तथा उच्चतर संवेदनाओं को निरंतर प्रवाहमान करते रहने की क्षमता विद्यमान है। इसे भाषा व्याकरण के द्वारा शताब्दियों से प्रसंस्कृत किया जाता रहा है। महाकाव्यों के सृजन की शिल्पज्ञता तथा नई सभ्यताओं का उदयगान भी इसी रस-सिद्धांत तथा छंदोविधान की परंपरा के निर्वाह का परिणाम है।

सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, साहित्यिक, धार्मिक तथा राजनैतिक उपादानों को पूंजीवादी प्रजातंत्र के शक्तिशाली शासक वर्ग ने निरंतर सत्ता में बने रहने का साधन बना लिया है। इस दौर के प्रभूतासंपन्न वर्ग ने भी वैज्ञानिक उपलब्धियों पर कब्जा जमा रखा है। आज जल-जंगल-जमीन तथा राष्ट्रों की सकल संपदाओं-संस्कृति पर भी इसी वर्ग का आधिपत्य है। आजादी के पूर्व भी “सकल पदारथ” इसी शोषक-शासक वर्ग के हाथों में थे। तब देशी-विदेशी का अंतर सिर्फ राजमुकुट हथियाने के संघर्ष में सन्निहित था। प्रत्येक प्रतिगामी कठिन दौर में क्रांतियों की जन्मदात्री, अमर शहीदों की प्रियपात्र तथा श्रेष्ठ काव्यकर्मियों की रचना धर्मिता के इसी छंदोविधान ने जनमानस के मध्य क्रांतिकारी भावों का संचरण किया है। जो कि सिर्फ संस्कृत और हिन्दी में ही उपलब्ध था।

सौन्दर्यबोधगम्यता तथा सार्थक सृजनशीलता की कसौटी पर खरा उतरने की कोशिशें अनेकों ने की हैं, किंतु मानवीय संवेदनाओं का सत्व कमतर होते जाने तथा भौतिक संसाधनों पर आश्रित होते जाने के कारण साहित्य का रसास्वादन चंद लोग ही कर सके हैं। इनमें से कुछ थोड़े ही ऐसे होंगे जिन्होंने साहित्य का विधान तथा भाषा व्याकरण के रस सिद्धांत को समझ सके होंगे।

वर्तमान दौर की शिक्षा प्रणाली भी एल.पी.जी. की बाजार व्यवस्था अनुगामिनी हो चुकी है। मॉर्डन टैक्नोलॉजी, सांइस, चिकित्सा तथा अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षैत्र में भाषा के सौंदर्य शास्त्र को नहीं अपितु अंग्रेजी के ज्ञान को सफलता की गांरटी बना लिया है। संस्कृत, हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं का रसमय काव्यकोष उपरोक्त संदर्भों से काट कर केवल पूजा-अर्चना का निमित्त मात्र बना कर रख दिया गया है। जहां तक हिन्दी का प्रश्न है, वैश्विक बाजार में इसकी पकड़ बरकरार है। दक्षिण एशिया का कोई भी बाजार हिन्दी ज्ञान के बिना अधुरा है, यदि हिन्दी नहीं होती तो बॉलीवुड भी शायद इतना उन्नत नहीं होता और तब निसंदेह घर-घर में हॉलीवुड का धमाल मचा होता। ऐसी सूरत-ए-हाल में भारत की गैर-हिन्दी तस्वीर कितनी बदरंग और भयावह होती इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। सचेत भारतीय सोच सकते हैं की तब कैसा भारत होता? केवल भारत ही क्यों? पूरे दक्षिण एशिया का नक्शा कैसा होता? यदि हिन्दी नहीं होती तो संभवत: भारत आज़ाद भी नहीं हो पाता ! अत: यह स्वयं सिध्द है की इस देश की अक्षुणता हिन्दी के अस्तित्व पर ही टिकी हुई है, और न केवल भौगोलिक रूप से बल्कि एक समृद्ध सांस्कृतिक परिवेश के रूप में भी संस्कृत एवं हिन्दी भाषाओं का अवदान उल्लेखनीय रहा है और इसमें रस सिद्धांत छंदो-विधान का प्रयोग क्रांतिकारी चरित्रों एवं मानवीय संवेदनाओं के प्रवाह ने ब्रह्मास्त्र का काम किया है। यदि भारतीय वाड़गमय की काव्यधारा की निर्झरणी का अजस्त्र स्त्रोत उपलब्ध नहीं होता तो हमारी हालत वैसी ही होती जैसे की कॉमनवेल्थ- ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, अफ्रीका महाद्वीप, लेटिन अमेरिका एवं उत्तर अमेरिकी आदिवासियों की सदियों पूर्व हो चुकी है।

जहां-जहां उपनिवेशवादी आक्रांताओं ने साहित्यिक, सांस्कृतिक जड़ें जमा ली थी ; वहां वहां के स्थानीय मूल-निवासियों (आदिवासियों) की सभ्यता/संस्कृति एवं भाषा का लोप हो चुका है। भारत की भाषाई एवं सास्कृतिक विरासत दोनों जिंदा हैं। चूंकि हमारी देशज भाषाई विरासत में परिवर्तन के क्रांतिकारी तत्व काव्यात्मक रूप से मौजूद हैं अत: 21वीं सदी का भारतीय समाज शोषणमुक्त होकर रहेगा ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है। हालांकि बारत में आजादी के 62 वर्ष बाद भी हिन्दी राज संचालन की सहधार्मिणी नहीं बन सकी है। यह भी एक दुखद विडम्बना है। समाजवादी क्रांति के मार्ग में भी अंग्रेजी की दीवार सबसे बड़ी बाधा है, यह गुलामी की निशानी भी है।

भारत में क्षेत्रीय भाषाओं का विकास भी लोकतंत्र तथा हिन्दी की कीमत पर ही हुआ है। हिन्दी-संस्कृत को पददलित करते हुए अंग्रेज़ी आज भी “इण्डिया” की “विक्टोरिया” बनी हुई है। आज भी अभिजात वर्ग की भाषा अंग्रेजी ही है। इन तमाम विसंगतियों, विद्रूपताओं तथा विडम्बनाओं के बावजूद के बावजूद संस्कृत /हिन्दी का छन्द एवं सौन्दर्यशास्त्र अति समृध्द होने से आज हिन्दी का ककहरा नहीं जानने वाले भी हिन्दी की कमाई से (फिल्म-टीवी चैनल वाले) मालामाल हो रहे हैं। अनेक त्रासद परंपराओं का बोझ उठाते हुए, बदलती व्यवस्थाओं के दौर में भी मानवीय मूल्यों की अंतर्धारा सतत प्रवाहमान है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है की संस्कृत-हिन्दी का छंद एवं सौंदर्य शास्त्र बेहद सकारात्मक रचनाधर्मिता से ओत-प्रोत है। भारत की क्षेत्रीय भाषाओं को भी इसी रसमय काव्यधारा के व्याकरण का अवलंबन मिलता रहा है। मात्र आर्थिक-सामाजिक-साजवैतिक परिवर्तनों के हेतु से ऐतिहासिक-साहित्यिक विधा को विस्मृति के गर्त में धकेलकर, क्रांति का लक्ष्य प्रप्त नही किया जा सकता। प्रगतिशीलता के दंभ में कतिपय साहित्यकार-लेखक-कवि वैचारिक विभूतियां दिग्भ्रमता के बियाबान में भटक रही हैं और अपनी अज्ञानता को नई विधा बता रही हैं।

संपूर्ण भारतीय वाडंगमय की चुम्बकीय शक्ति का केन्द्र बिन्दु उसका वैचारिक सौष्ठव तथा शिल्प की अतुलनीय क्षमता है। पाण्डित्य-प्रदर्शन कहकर या वेद-पुराण-आगम-निगम की खिल्ली उड़ाकर तथा षड्दर्शन को कालातीत कहकर सरसरी तौर पर खारिज नहीं किया जा सकता। इस समृद्ध मानवीय वैश्विक धरोहर को सदा के लिए संस्कृति और धर्म के नाम पर शोषक शासक वर्ग का शस्त्र भी नहीं बनाया जा सकता। संपूर्ण पुरा-साहित्य को ईश्वर की जगह बैठाकर चंबर डुलाना भी नितान्त निंदनीय है, किन्तु लोकहितार्थ उसका उपयोग वंदनीय है। मेग्नाकार्टा, शुक्रनीतिसार, चाणक्यनीति तथा यूनानी दर्शन एवं अन्य पुरातन मूल्यों के निरन्तर परिष्करण से ही आधुनिक युग की लोकतांत्रिक तथा समाजवादी क्रांतियों को “विचार शक्ति” प्राप्त हुई है। इसे और ज्यादा न्यायपूर्ण, सुसंगत तथा निर्बलों के पक्ष में वर्ग संघर्ष की चेतना का उत्प्रेरक बनाय जाना चाहिये। साहित्य की ऐतिहासिक यात्रा में “छन्दबद्ध” काव्यधारा के अनेक रूप दृष्टव्य हैं। भारतीय संस्कृत-हिन्दी वाडंगमय के आदियुग से लेकर वर्तमान उत्तर आधुनिक युग तक जिस रस, छन्द तथा सौन्दर्यशास्त्र का बोलबाला रहा है उसके गुणधर्म केवल स्वस्ति वाचन मात्र नहीं हैं। नेदमंत्रों के रुप मे प्रागेतिहासिक कालीन छन्दबद्ध रचनाओं का छन्दोविधान लौकिक छन्द व्यवस्था से समृध्द वैज्ञानिक अन्वेषणों तथा प्रकृतिदर्शन की अनुगूंज भी था। द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दर्शन का श्री गणेश भी था।

लौकिक-संस्कृत, पाली, अपभ्रंश तथा मध्ययुगीन भक्तिकालीन हिन्दी/काव्यधारा में जहां अनुष्टुप, इन्द्रवज्रा, शार्दुलविक्रीडित, द्रुतविलम्बित, शिखरणी, मालिनी, मन्दाक्रान्ता आदि छन्दों का पिरयोग देखने को मिलता है, वहीं दूसरी ओर वेदों, संहिताओं, षड्दर्शन तता उपनिषदों में उक्त छन्तों के अलावा गायत्री, जगती, वृहती, त्रिष्टुप, उष्णिक, भूरिक तथा प्रगाथ आदि छन्दों का प्रयोग प्रधानता से किया गया है।

पाणिनी, सायण, महीधर, जयदेव तथा तुलसी की व्याकरणीय विद्वत्ता से इतर भी लोक साहित्य की समृद्धी में नाथपंथियों, सूफियों तथा भक्तिकालीन कवियों की अनगढ़ संरचनाओं में भी ह्रदय को छकछोरने अतवा संवेदनाओं के धरातल पर मुक्तिकामी मारक क्षमता मौजूद थी। इसी काव्य परम्परा से भारत के पुनर्जागरण काल की समाज क्रांति, का उदय हुआ तथा राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम को संजीवनी मिलने से आज के स्वाधीन भारत का मानचित्र साकार हुआ है। पिंगलकृत छन्दसूत्रों में भी इस विषय का उल्लेखनीय वर्णन है। वैदिक छन्दों को सीधे पाली और प्राकृत में रुपान्तरित करते हुए, योगरूढ़ संस्कृत छन्द-शास्त्र ने हिन्दी (ब्रज-बुन्देली-अवधी-रुहेली) में अवतरणीय प्रचलन प्राप्त किया है। किसी छन्द विशेष को आसानी से पहचाना जा सकता है। सूत्रों की क्रमिक जानकारी भर होना चाहिए।

हिन्दी काव्य धारा को सर्वाधिक चर्चित कराने वाले “रासों” साहित्य में “दूहा” या दोहा का प्रयोग बहुतायत से हुआ है। इसके अलावा गीतिका, हरगीतिका, मालिनी, छप्पय, चौपाई, सौरठा, कवित्त, सवैया, ख्याल, रोला, उल्लाला तथा मत्तगयंद इत्यादि छंद-पदावली को लौकिक साहित्य के साधकों में बेहद लोकप्रियता प्राप्त होती रही है।

लगभग दो हज़ार वर्षों की काव्य-यात्रा में भौगोलिक, सामाजिक तथा आर्थिक कारकों ने यदि एक छोर पर राजनैतिक छलांगे लगई हैं, तो दूसरी ओर सहित्यिक छलांगों ने भी मानवीय संवेदनाओं- करुणा, अहिंसा, सत्य प्रेम तथा सौंदर्य को परिष्कृत करते हुे छंद शास्त्र का शानदार प्रवर्तन किया है, बेहतरीन धरोहरों से मानवता को नवाज़ा भी है।

राष्ट्र भाषा तथा उसकी छंदबद्ध अविरल धारा से ही भारतीय संस्कृति-सभ्यता एवं एकता-अखंडता और महान प्रजातंत्र सुरक्षित है।

उत्तर-आधुनिक छंदविहीन साहित्यिक चेष्टाओं को उसकी भाव-उद्दीपनता के कारण यत्किंचित भले ही प्रगतिशील पाया गया हो, किन्तु भारोपीय भाषा परिवार की निरंतर उत्तरजीविता के जैविक गुणों से लबालब, छंद शास्त्र से सुसज्जित हिन्दी भाषा की त्रिकालज्ञता में छंदबद्ध सृजन का स्थान सर्वोपरि रहा है।

निसंदेह संस्कृत के अर्वाचीन काव्य-सूत्रों को अधुनातन रूप प्रदान करने में हिन्दी तथा भारत की क्षेत्रीय भाषाओं की योग रूढ़ता का विशेष योगदान रहा है। लोक-गायन, लोक-वादन, तथा लोकनृत्य के उल्लेख बगैर इस साहित्यिक विधा के घटना विकास क्रम पर वैज्ञानिक ढंग से राय प्रस्तुत कर पाना संभव नहीं होगा।

संस्कृत या हिन्दी में वर्णिक अथवा मात्रिक छन्द रचना का सृजन तब तक दोषपूर्ण और निरर्थक ही रहेगा, जब तक वह छंदमुक्ति अथवा अतुकान्त काव्य की सृजनशीलता का ढोंग करता रहेगा। भावप्रवणता से ओत-प्रोत गद्य साहित्य के अपने शानदार तेवरों में वह कथा, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलेख, जीवन वृतांत तथा पत्रकारिता समेत, आर्थिक, सामाजिक एवं समूचे राजनैतिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन तो बखूबी कर ही रहा है, फिर गद्य साहित्य को मुक्त छंद या अतुकान्त कविता के नाम पर छंद में अछंदता की क्या जरुरत है? कथित व्याकरणविहीन, छंदविहीन, सौंदर्य बोध विहीन काव्य-रचना को “काव्य जगत” द्वारा मान्यता कभी नहीं मिल पायेगी।

अतएव सर्वप्रथम समस्त सुधी एवं प्रगतिशील तबक़े को छंदशास्त्र, रस-सिद्धांत एवं काव्यकोष का अध्येता होना चाहिए, तदुपरांत अपने क्रांतिकारी न्यायाधारित विचारों को जन-जन तक पहुंचाना चाहिए।