सोमवार, 14 दिसंबर 2009

मातम मना लिया

नेताजी मरणोपरांत , जब स्वर्ग को सिधारे,
शहीदों ने उनको प्रेम से, गले लगा लिया।
पूछी कुशलक्षेम जमता की, अमन की वतन की,
कहो वत्स-स्विस बैंक में कितना जमा किया।
ये आग, ये धुआं, चीत्कार करुण क्रंदन क्यों?
इन निर्धनों का झोपड़ा, किसने जला दिया।
वेदना से भीगी पलकें, शर्म से झुकी गर्दन,
अपराध बोध पीड़ित ने, सच-सच बता दिया।
वंदनीय हे! अमर शहीदों, मेरे ही अपनों ने
मेरी मौत का आतिशी, मातम मना लिया।

अपने ह्रदय के खून से सींचा, जिसे तुमने,
हमने सियासी जंग का, अखाड़ा बना दिया।
बड़ी जतन से, मेहनत से, राष्ट्र बनाया आपने,
अलगाव की चिंगारियों को, हमने जगा दिया।
गंगा-जमुनी तहज़ीब का, अमृत बनाया आपने,
नफ़रत का इसमें ज़हर, हमने मिला दिया।
सत्य-अहिंसा, प्यार-क़ुर्बानी, तुम्हारे शस्त्र थे,
हमने खिलौनों की तरह, पिस्टल थमा दिया।
वंदनीय हे! अमर शहीदों, मेरे ही अपनों ने
मेरी मौत का आतिशी, मातम मना लिया।

मैं तो था सीधा-सादा ईमानदार साधारणजन,
पता नहीं किस दुश्मन ने, नेता बना दिया।
जाने कब कैसे भूल हुई, जा अटका उस काकस में,
सत्ता स्वप्न सुन्दरी ने, अपना बना लिया।
प्रजातंत्र-धनतंत्र, समझकर, सौदों का कमीशन लेता रहा,
दिखी जिसकी शर्ट मुझसे सफ़ेद उसे कीचड़ में गिरा दिया।
अपनी उच्चवल छवि के चक्कर में हमने,
अनेक दिग्गज विरोधियों का भुर्ता बना दिया।
वंदनीय हे! अमर शहीदों, मेरे ही अपनों ने
मेरी मौत का आतिशी, मातम मना लिया।

सुनकर करतूत नेता की, दुखी मन बोले शहीद,
बेटा, हमारी शहादत का, अच्छा सिला दिया.
तुम अपने ही गुलों को पैरों, कुचलते चले गए,
हमने तो कांटा और का, माथे लगा लिया।
प्रतिशोध के संताप में तुम, तिल-तिल जला किए,
हमने तो आग को भी, चंदन बना दिया।
तुम चले थे भीड़ लेकर, आज संग कोई नहीं,
हमने तो आग को भी, चंदन बना दिया।
तुम चले थे भीड़ लेकर, आज संग कोई नहीं,
हमने गगन मंडल में, मेला लगा लिया।
सुखी रहें पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां, बने भारत महान,
इसीलिए तो हमे, खुद को मिटा दिया।

तुम अकेले ही चले थे आसमां को चूमने,
नीहारिका में अंजुमन को, हमन सजा दिया।
तुम ग़म का भार रोकर बढ़ाते चले गए,
हमने हंसी-हंसी में, ग़म को रुला दिया।
तुम गद्दों पर लोटकर भी करवटें बदला किए,
हमने ते काल कोठरी को, मंदिर बना दिया।
ताज़े फलों का जूस पीकर, तुम रहे बीमार हरदम,
फ़ांकाक़शी को हमने, सत्याग्रह बना दिया।
सुखी रहें पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां, बने भारत महान,
इसीलिए तो हमे, खुद को मिटा दिया।

2 टिप्‍पणियां:

  1. यथार्थ से रूबरू करता सच्ची दास्तान... कविता के शक्ल में सफेद झकझक सच्चाई... जो शायद ईमानदारी और हाड़तोड़ मेहनत के अनुभव के बाद ही लिखी जा सकती है... समाजिक ताना बाना के क्रूर चेहरे को पानी की तरह साफ साफ लिखने के लिए आपका अंत: करण से शुक्रिया

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  2. यथार्थ से शंभू जी आपको रूबरू करवाते रहेंगे.... पढ़ते रहिये और टिप्पणियां भेजते रहिए.... ये सिर्फ ब्लॉग नहीं विचार मंच है... समान विचार मिलेंगे तो ही इंकलाब आएगा... आपका साथी

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