चैत्र गावें चेतुए वैशाख गावें वनियां,
जेठ गावें रोहिणी अगनी बरसावै है।
भवन सुलब जिन्हें शीतल वातानुकूल,
वृष को तरनि तेज उन्हें न सतावै है।
नंगे पैर दुपहरी में भूखा-प्यासा मजदूर,
पसीन बहाये थोरी छांव को ललावै है।
अंधड़ चलत उत झोपड़ी हुमस जात,
बंगले से धुन इत डिस्को की आवै है।
बूआई की बेला में जो देर करे मानसून,
असहाय किसान मन शोक उपजावै है।
बंगाल की खाड़ी से न आगे आवें इन्द्रदेव,
बानियां बक्काल दाम दुगने बढ़ावै है।
वक्त पै बरस जायें अषढ़ा के बादरा तो,
दादुरों की धुन पै धरनि हरषावै है।
कारी घटा घिर आये खेतों में बरस जाये,
सारंग की धुन सुन सारंग भी गावै है।
(प्रकृति श्रृगांर)
वन बाग खेत मेंढ़ चारों और हरियाली,
उद्भिज गगन अमिय झलकावै है।
पिहूं-पिहूं बोले पापी पेड़ो पै पपीहरा,
चिर बिरहन मन उमंग जगावै है।
जलधि मिलन चलीं इतराती सरितायें,
गजगामिनी मानो पिया घर जावै है।
झूम-झूम बरसें सावन सरस मेघ,
झूलने पै गोरी मेघ मल्हार गावै है।
चूल्हा नहीं सुलगत आदिवासी ललना का,
गहर-गहर तम रात गहरावै है।
गरीबी में गीला आटा सब्र का बांध टूट जावे,
ठेकेदार ‘मामा’ की मजूरी को डकारै है।
बढ़ा में बुहर गई बची-खुची आमदनी,
डूब रही बस्ती पै मौत मंडरावै है।
अभिजात्य कोठियों में परजीवी कामिनी,
भादों गोरी सेज पै सजन संग गावै है।
धूल हीन धरती गगन नीर निर्मल,
अश्विन को आयो देख भागी बरसात है।
रोजी के जुगाड़ की फिकर लागी जिनको,
उन्हें वर्षान्त की उमंग न सुहात है।
खुशी मौज मस्ती अमीरों की है मुठ्ठीबंद,
निर्धन के घर में तो भूख को निवास है।
कहां से पकायें खीर अमृत के सेवन को,
शरद को चन्द्र जिन्हें रोटी ही दिखात है।
कहां पर जलाऐं दिया अनिकेत अनगिन,
जीवन ही जिनका अमावस की रात है।
सरसों को फूला देख ललचाई तिलहन,
अलसी की कलियों पै कार्तिक को वास है।
बाजरा ज्वार की गवोट खिली हरी-भरी,
रबी की बुआई पै अगहन की आस है।
कहीं पर सिंचाई होत, कहीं पर निराई होवे,
सांझ ढले खिरका में गैया रंभात है।
पूस में गुजारी रातें गुदड़ी में जाग-जाग,
माघ संग हेमंत मचान पै बितावै है।
फागुन के संग आई गेहुओं में बालियां,
अमुआ की डार बौर अगनि लगावै है।
चंपा कचनार बेला सेमल पलाश फूले,
पतझड़ पवन पापी मदन जगावे है।
मादकता गंध भरे महुए के फूल झरें,
अलि संग कोयल बसंत को बुलावै है।
वसन धवल तन सबल मुदित मन,
रहन-सहन ऊंचो धनवान पावै है।
चांदी की चम्मच मुख धरे जन्में तो,
नियति को अभिनय उन्हें दुलरावै है।
अधरम अनीति कर एक चढ़ो शिखरे,
दूजों न्याय-न्याय की गुहार ही लगावै है।
दंगा बिना मन जाये ईद-दिवाली, होली,
कवि श्रीराम ऐंसों बारहमासा गावै है।
आत्मा और विचार को झकझोरने वाली सच्ची दास्तान, इसे कविता की संज्ञा न ही दू तो अपने आप को माफ कर पाऊंगा... पेट के लिए शहरी गिरमिटिया बन गया हूं... लेकिन क्या करूं पूरी तरह से आत्म सम्मान भी नहीं बेच पा रहा हूं... उपर से एक बार फिर आपकी ये चिंगारी तन बदन को जलाने लगी है... सोचता हूं आपकी ये संसारनल न ही पढ़ू तो अच्छा है... लेकिन मन के तार को रोक समझा नहीं पाता हूं... शायद इसी में जलकर अपने पापों का और कर्तव्य से मुक्ति पाने की कोशिश करता हूं...
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