गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

मैं महामानवों की जननी मेरा प्राणान्त न होगा

उनकी संताने रक्त पिपासु, जो आर्तत्राण कहलाते थे।
वंशज उनके आतंक करें, जो धर्म ध्वजा फहराते थे।।
ये भिक्षा वैरी से माँगे, वे शरणागत वत्सल थे।
ये निरीह निर्भल को मारें, वे जिनके संरक्षक थे।।
चरम पतन कुलदीपों का, अब मुझसे सहन न होगा।
मैं महामानवों की जननी, मेरा प्राणान्त न होगा।।

कितने ही दिए बुझा दो तुम, आह! उफ न करूंगी मैं।
बुझे चिरागों को रोशन, फिर भी करती रहूंगी मैं।
जिनके बलिदानों के दम से, बंधन मुक्त हुई थी मैं।
उन भगतसिंह-आज़ादों का सृजन करती रहूंगी मैं।।
मैं महामानवों की जननी मेरा प्राणान्त न होगा।।

बहकाने पर तुम गैरों के, कितने ही कुटीर जला देना।
फूलों की क्यारी में अनगिन, कांस-बबूल उगा देना।।
सतलुज-व्यास के निर्मल नीर में, कितना ही र्कत बहा देना।
पंथ-जाति के बैर-भाव को, कितना ही सगा बना लेना।।
मैं महामानवों की जननी मेरा प्राणान्त न होगा।।

पतित पड़ोसन पापिन की, बेईमान औलादों ने।
डसा अबोध बच्चों को मेरे, आस्तीन के सांपों ने।।
भ्रमित किया है नादानों को, मुझसे जलने वालों ने।
मेरा माथा झुलसा दिया है, मज़हब के अंगारों ने।।
सत्य-अहिंसा-क्षमा-दया का, परिपूरन आनन होगा।
मैं महामानवों की जननी मेरा प्राणान्त न होगा।।

अनहद नाद के स्वर में गाया, सामगान का गीत जिन्होंने।
विश्व शांति का पाठ सिखाया, ऋषि वशिष्ठ विश्वमित्रों ने।।
राम-कृष्ण, गौतम-नानक को, मैंने ही तो जन्म दिया था.
चन्द्रगुप्त-चाणक्य, हर्ष का, स्वर्णकाल में सृजन किया था।।
वीर विक्रम चढ़ा अश्व पर, शक-हूणों का नाश किया था।
मैं अशोक की मतृभूमि हूं, फिर मुझे शोक क्यों होगा।।
मैं महामानवों की जननी, मेरा प्राणान्त न होगा।।

अग्निपूजकों जरथ्रुस्तों को, मैंने अपनी शरण लिया था।
सूफी संतों के सपनों को, मैंने ही साकार किया था।।
ईसा के वचनों को मैंने, गीता-सा सम्मान दिया था।
पूरब की धरती को जग में, अपना पावन नाम दिया था।।
सत्यं शिवं सुन्दरम् फिर से, जग का महामंत्र होगा।
मैं देवों की कामधेनु हूं, अन्न नीर अक्षय होगा।।
मैं महामानवों की जननी, मेरा प्राणान्त न होगा।

अलबरूनी सुकरात अरस्तु इब्नेबतूता बखान करें।
वे फाहयान हों हुवेनसांग, यायावर सब गुणगान करें।।
मेरा वैभव देख बसाया, गोवा पुर्तगालियों ने।
पांडिचेरी में जश्न मनाए, निर्भय फ्रांसवासियों ने।।
मैक्समूलर ने मुझको, सर्वश्रेष्ठ सम्मान दिया जब।
मीरजाफर ने मुझको, गोरे हाथों बेच दिया तब।।
टीपू के बलिदानों का, युग-युग जग वंदन होगा।
मैं महामानवों की जननी, मेरा प्राणान्त न होगा।।

जगदगुरू आदिशंकर ने, निज जननी का मान दिया था।
कवि कुल गुरू कालिदास ने, भारत-जननी नाम दिया था।।
जय-जयकार करते रहे, सदा सुब्रमण्यम भारती।
रवीन्द्र-कवीन्द्र गाते रहे, आजीवन मेरी आरती।।
मैं कबीर की, मैं खुसरो की, कर्मस्थली पुण्य धरा।
केशव सूर-तुलसी, रहीम, सबमें मैंने सत्य भरा।।
भारतेन्दु हरीशचन्द्र सरीखा, सेवक कौन मेरा होगा।
मैं महामानवों की जननी मेरा प्राणान्त न होगा।।

भौतिकता पर ज्ञान योग की, महिमा सब जग ने जानी।
पुत्र विवेकानंद जब बोले, श्रीमुख से अमृतवाणी।।
मृत्युन्जय था वीर बुंदेला, क्षत्रसाल गौरवशाली।
मेरी कोख अमर कर गई वो, थी रानी झांसी वाली।।
पूजाघरों में तुलजा माता, रण में थी तलवार भवानी।
वीर शिवा की आराध्या थी, राम-समर्थ की पावन वाणी।।
राणा प्रताप सा स्वाभिमान, क्या देवलोक में भी होगा।
मैं महामानवों की जननी मेरा प्राणान्त न होगा।।

मेरी गोद में जाने कितने, जौहर जले चिताओं में।
सत्यमेव जयते का नारा, गूंजा दसों दिशाओं में।।
मेरा पूत था लालबहादुर, जिसका असर फिजाओं में।
विश्व विजय की अभिलाषा है, मेरी अमर शिराओं में।।
मैं जननी गांधी सुभाष की, जय-जय गान जग में होगा।
मैं महामानवों की जननी मेरा प्राणान्त न होगा।।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें