आज टेलीविजन, कम्प्यूटर तथा ब्रॉडबैंड इत्यादि के अत्यधिक प्रचलन से ज्ञान आधारित सूचना तंत्र सहित संपूर्ण वैश्विक उत्पादनों का भूमंडलीकरण हो चुका है। नए-नए ब्लॉगों और वेबसाइट्स पर अंधाधुंध सृजनशीलता के दुर्गम पहाड़ निर्मित किये जा रहे हैं। अधिकांश लेखन निहायत ही गैर जिम्मेदाराना, तथ्यहीन तथा अरुचिकर भी होता जा रहा है। कुछ तो अर्थ-आधारित (मुनाफामूलक) ही हो चुका है, कुछ नितान्त अर्थहीन होता जा रहा है। कहीं कुछ अभाव भी झलक रहा है। अतीत की बर्बर-दमनकारी-सामन्तयुगीन (अ)सभ्यताओं के तंबू भले ही उखाड़ दिए गए हों किंतु अतीत का वह हिस्सा अभी भी हरा भरा साबूत है, जो साहित्यिक-सांस्कृतिक एवं मानवता के कल्याणकारी सरोकारों से सराबोर है। जिसमें मानवीय उत्थान तथा उच्चतर संवेदनाओं को निरंतर प्रवाहमान करते रहने की क्षमता विद्यमान है। इसे भाषा व्याकरण के द्वारा शताब्दियों से प्रसंस्कृत किया जाता रहा है। महाकाव्यों के सृजन की शिल्पज्ञता तथा नई सभ्यताओं का उदयगान भी इसी रस-सिद्धांत तथा छंदोविधान की परंपरा के निर्वाह का परिणाम है।
सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, साहित्यिक, धार्मिक तथा राजनैतिक उपादानों को पूंजीवादी प्रजातंत्र के शक्तिशाली शासक वर्ग ने निरंतर सत्ता में बने रहने का साधन बना लिया है। इस दौर के प्रभूतासंपन्न वर्ग ने भी वैज्ञानिक उपलब्धियों पर कब्जा जमा रखा है। आज जल-जंगल-जमीन तथा राष्ट्रों की सकल संपदाओं-संस्कृति पर भी इसी वर्ग का आधिपत्य है। आजादी के पूर्व भी “सकल पदारथ” इसी शोषक-शासक वर्ग के हाथों में थे। तब देशी-विदेशी का अंतर सिर्फ राजमुकुट हथियाने के संघर्ष में सन्निहित था। प्रत्येक प्रतिगामी कठिन दौर में क्रांतियों की जन्मदात्री, अमर शहीदों की प्रियपात्र तथा श्रेष्ठ काव्यकर्मियों की रचना धर्मिता के इसी छंदोविधान ने जनमानस के मध्य क्रांतिकारी भावों का संचरण किया है। जो कि सिर्फ संस्कृत और हिन्दी में ही उपलब्ध था।
सौन्दर्यबोधगम्यता तथा सार्थक सृजनशीलता की कसौटी पर खरा उतरने की कोशिशें अनेकों ने की हैं, किंतु मानवीय संवेदनाओं का सत्व कमतर होते जाने तथा भौतिक संसाधनों पर आश्रित होते जाने के कारण साहित्य का रसास्वादन चंद लोग ही कर सके हैं। इनमें से कुछ थोड़े ही ऐसे होंगे जिन्होंने साहित्य का विधान तथा भाषा व्याकरण के रस सिद्धांत को समझ सके होंगे।
वर्तमान दौर की शिक्षा प्रणाली भी एल.पी.जी. की बाजार व्यवस्था अनुगामिनी हो चुकी है। मॉर्डन टैक्नोलॉजी, सांइस, चिकित्सा तथा अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षैत्र में भाषा के सौंदर्य शास्त्र को नहीं अपितु अंग्रेजी के ज्ञान को सफलता की गांरटी बना लिया है। संस्कृत, हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं का रसमय काव्यकोष उपरोक्त संदर्भों से काट कर केवल पूजा-अर्चना का निमित्त मात्र बना कर रख दिया गया है। जहां तक हिन्दी का प्रश्न है, वैश्विक बाजार में इसकी पकड़ बरकरार है। दक्षिण एशिया का कोई भी बाजार हिन्दी ज्ञान के बिना अधुरा है, यदि हिन्दी नहीं होती तो बॉलीवुड भी शायद इतना उन्नत नहीं होता और तब निसंदेह घर-घर में हॉलीवुड का धमाल मचा होता। ऐसी सूरत-ए-हाल में भारत की गैर-हिन्दी तस्वीर कितनी बदरंग और भयावह होती इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। सचेत भारतीय सोच सकते हैं की तब कैसा भारत होता? केवल भारत ही क्यों? पूरे दक्षिण एशिया का नक्शा कैसा होता? यदि हिन्दी नहीं होती तो संभवत: भारत आज़ाद भी नहीं हो पाता ! अत: यह स्वयं सिध्द है की इस देश की अक्षुणता हिन्दी के अस्तित्व पर ही टिकी हुई है, और न केवल भौगोलिक रूप से बल्कि एक समृद्ध सांस्कृतिक परिवेश के रूप में भी संस्कृत एवं हिन्दी भाषाओं का अवदान उल्लेखनीय रहा है और इसमें रस सिद्धांत छंदो-विधान का प्रयोग क्रांतिकारी चरित्रों एवं मानवीय संवेदनाओं के प्रवाह ने ब्रह्मास्त्र का काम किया है। यदि भारतीय वाड़गमय की काव्यधारा की निर्झरणी का अजस्त्र स्त्रोत उपलब्ध नहीं होता तो हमारी हालत वैसी ही होती जैसे की कॉमनवेल्थ- ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, अफ्रीका महाद्वीप, लेटिन अमेरिका एवं उत्तर अमेरिकी आदिवासियों की सदियों पूर्व हो चुकी है।
जहां-जहां उपनिवेशवादी आक्रांताओं ने साहित्यिक, सांस्कृतिक जड़ें जमा ली थी ; वहां वहां के स्थानीय मूल-निवासियों (आदिवासियों) की सभ्यता/संस्कृति एवं भाषा का लोप हो चुका है। भारत की भाषाई एवं सास्कृतिक विरासत दोनों जिंदा हैं। चूंकि हमारी देशज भाषाई विरासत में परिवर्तन के क्रांतिकारी तत्व काव्यात्मक रूप से मौजूद हैं अत: 21वीं सदी का भारतीय समाज शोषणमुक्त होकर रहेगा ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है। हालांकि बारत में आजादी के 62 वर्ष बाद भी हिन्दी राज संचालन की सहधार्मिणी नहीं बन सकी है। यह भी एक दुखद विडम्बना है। समाजवादी क्रांति के मार्ग में भी अंग्रेजी की दीवार सबसे बड़ी बाधा है, यह गुलामी की निशानी भी है।
भारत में क्षेत्रीय भाषाओं का विकास भी लोकतंत्र तथा हिन्दी की कीमत पर ही हुआ है। हिन्दी-संस्कृत को पददलित करते हुए अंग्रेज़ी आज भी “इण्डिया” की “विक्टोरिया” बनी हुई है। आज भी अभिजात वर्ग की भाषा अंग्रेजी ही है। इन तमाम विसंगतियों, विद्रूपताओं तथा विडम्बनाओं के बावजूद के बावजूद संस्कृत /हिन्दी का छन्द एवं सौन्दर्यशास्त्र अति समृध्द होने से आज हिन्दी का ककहरा नहीं जानने वाले भी हिन्दी की कमाई से (फिल्म-टीवी चैनल वाले) मालामाल हो रहे हैं। अनेक त्रासद परंपराओं का बोझ उठाते हुए, बदलती व्यवस्थाओं के दौर में भी मानवीय मूल्यों की अंतर्धारा सतत प्रवाहमान है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है की संस्कृत-हिन्दी का छंद एवं सौंदर्य शास्त्र बेहद सकारात्मक रचनाधर्मिता से ओत-प्रोत है। भारत की क्षेत्रीय भाषाओं को भी इसी रसमय काव्यधारा के व्याकरण का अवलंबन मिलता रहा है। मात्र आर्थिक-सामाजिक-साजवैतिक परिवर्तनों के हेतु से ऐतिहासिक-साहित्यिक विधा को विस्मृति के गर्त में धकेलकर, क्रांति का लक्ष्य प्रप्त नही किया जा सकता। प्रगतिशीलता के दंभ में कतिपय साहित्यकार-लेखक-कवि वैचारिक विभूतियां दिग्भ्रमता के बियाबान में भटक रही हैं और अपनी अज्ञानता को नई विधा बता रही हैं।
संपूर्ण भारतीय वाडंगमय की चुम्बकीय शक्ति का केन्द्र बिन्दु उसका वैचारिक सौष्ठव तथा शिल्प की अतुलनीय क्षमता है। पाण्डित्य-प्रदर्शन कहकर या वेद-पुराण-आगम-निगम की खिल्ली उड़ाकर तथा षड्दर्शन को कालातीत कहकर सरसरी तौर पर खारिज नहीं किया जा सकता। इस समृद्ध मानवीय वैश्विक धरोहर को सदा के लिए संस्कृति और धर्म के नाम पर शोषक शासक वर्ग का शस्त्र भी नहीं बनाया जा सकता। संपूर्ण पुरा-साहित्य को ईश्वर की जगह बैठाकर चंबर डुलाना भी नितान्त निंदनीय है, किन्तु लोकहितार्थ उसका उपयोग वंदनीय है। मेग्नाकार्टा, शुक्रनीतिसार, चाणक्यनीति तथा यूनानी दर्शन एवं अन्य पुरातन मूल्यों के निरन्तर परिष्करण से ही आधुनिक युग की लोकतांत्रिक तथा समाजवादी क्रांतियों को “विचार शक्ति” प्राप्त हुई है। इसे और ज्यादा न्यायपूर्ण, सुसंगत तथा निर्बलों के पक्ष में वर्ग संघर्ष की चेतना का उत्प्रेरक बनाय जाना चाहिये। साहित्य की ऐतिहासिक यात्रा में “छन्दबद्ध” काव्यधारा के अनेक रूप दृष्टव्य हैं। भारतीय संस्कृत-हिन्दी वाडंगमय के आदियुग से लेकर वर्तमान उत्तर आधुनिक युग तक जिस रस, छन्द तथा सौन्दर्यशास्त्र का बोलबाला रहा है उसके गुणधर्म केवल स्वस्ति वाचन मात्र नहीं हैं। नेदमंत्रों के रुप मे प्रागेतिहासिक कालीन छन्दबद्ध रचनाओं का छन्दोविधान लौकिक छन्द व्यवस्था से समृध्द वैज्ञानिक अन्वेषणों तथा प्रकृतिदर्शन की अनुगूंज भी था। द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दर्शन का श्री गणेश भी था।
लौकिक-संस्कृत, पाली, अपभ्रंश तथा मध्ययुगीन भक्तिकालीन हिन्दी/काव्यधारा में जहां अनुष्टुप, इन्द्रवज्रा, शार्दुलविक्रीडित, द्रुतविलम्बित, शिखरणी, मालिनी, मन्दाक्रान्ता आदि छन्दों का पिरयोग देखने को मिलता है, वहीं दूसरी ओर वेदों, संहिताओं, षड्दर्शन तता उपनिषदों में उक्त छन्तों के अलावा गायत्री, जगती, वृहती, त्रिष्टुप, उष्णिक, भूरिक तथा प्रगाथ आदि छन्दों का प्रयोग प्रधानता से किया गया है।
पाणिनी, सायण, महीधर, जयदेव तथा तुलसी की व्याकरणीय विद्वत्ता से इतर भी लोक साहित्य की समृद्धी में नाथपंथियों, सूफियों तथा भक्तिकालीन कवियों की अनगढ़ संरचनाओं में भी ह्रदय को छकछोरने अतवा संवेदनाओं के धरातल पर मुक्तिकामी मारक क्षमता मौजूद थी। इसी काव्य परम्परा से भारत के पुनर्जागरण काल की समाज क्रांति, का उदय हुआ तथा राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम को संजीवनी मिलने से आज के स्वाधीन भारत का मानचित्र साकार हुआ है। पिंगलकृत छन्दसूत्रों में भी इस विषय का उल्लेखनीय वर्णन है। वैदिक छन्दों को सीधे पाली और प्राकृत में रुपान्तरित करते हुए, योगरूढ़ संस्कृत छन्द-शास्त्र ने हिन्दी (ब्रज-बुन्देली-अवधी-रुहेली) में अवतरणीय प्रचलन प्राप्त किया है। किसी छन्द विशेष को आसानी से पहचाना जा सकता है। सूत्रों की क्रमिक जानकारी भर होना चाहिए।
हिन्दी काव्य धारा को सर्वाधिक चर्चित कराने वाले “रासों” साहित्य में “दूहा” या दोहा का प्रयोग बहुतायत से हुआ है। इसके अलावा गीतिका, हरगीतिका, मालिनी, छप्पय, चौपाई, सौरठा, कवित्त, सवैया, ख्याल, रोला, उल्लाला तथा मत्तगयंद इत्यादि छंद-पदावली को लौकिक साहित्य के साधकों में बेहद लोकप्रियता प्राप्त होती रही है।
लगभग दो हज़ार वर्षों की काव्य-यात्रा में भौगोलिक, सामाजिक तथा आर्थिक कारकों ने यदि एक छोर पर राजनैतिक छलांगे लगई हैं, तो दूसरी ओर सहित्यिक छलांगों ने भी मानवीय संवेदनाओं- करुणा, अहिंसा, सत्य प्रेम तथा सौंदर्य को परिष्कृत करते हुे छंद शास्त्र का शानदार प्रवर्तन किया है, बेहतरीन धरोहरों से मानवता को नवाज़ा भी है।
राष्ट्र भाषा तथा उसकी छंदबद्ध अविरल धारा से ही भारतीय संस्कृति-सभ्यता एवं एकता-अखंडता और महान प्रजातंत्र सुरक्षित है।
उत्तर-आधुनिक छंदविहीन साहित्यिक चेष्टाओं को उसकी भाव-उद्दीपनता के कारण यत्किंचित भले ही प्रगतिशील पाया गया हो, किन्तु भारोपीय भाषा परिवार की निरंतर उत्तरजीविता के जैविक गुणों से लबालब, छंद शास्त्र से सुसज्जित हिन्दी भाषा की त्रिकालज्ञता में छंदबद्ध सृजन का स्थान सर्वोपरि रहा है।
निसंदेह संस्कृत के अर्वाचीन काव्य-सूत्रों को अधुनातन रूप प्रदान करने में हिन्दी तथा भारत की क्षेत्रीय भाषाओं की योग रूढ़ता का विशेष योगदान रहा है। लोक-गायन, लोक-वादन, तथा लोकनृत्य के उल्लेख बगैर इस साहित्यिक विधा के घटना विकास क्रम पर वैज्ञानिक ढंग से राय प्रस्तुत कर पाना संभव नहीं होगा।
संस्कृत या हिन्दी में वर्णिक अथवा मात्रिक छन्द रचना का सृजन तब तक दोषपूर्ण और निरर्थक ही रहेगा, जब तक वह छंदमुक्ति अथवा अतुकान्त काव्य की सृजनशीलता का ढोंग करता रहेगा। भावप्रवणता से ओत-प्रोत गद्य साहित्य के अपने शानदार तेवरों में वह कथा, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलेख, जीवन वृतांत तथा पत्रकारिता समेत, आर्थिक, सामाजिक एवं समूचे राजनैतिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन तो बखूबी कर ही रहा है, फिर गद्य साहित्य को मुक्त छंद या अतुकान्त कविता के नाम पर छंद में अछंदता की क्या जरुरत है? कथित व्याकरणविहीन, छंदविहीन, सौंदर्य बोध विहीन काव्य-रचना को “काव्य जगत” द्वारा मान्यता कभी नहीं मिल पायेगी।
अतएव सर्वप्रथम समस्त सुधी एवं प्रगतिशील तबक़े को छंदशास्त्र, रस-सिद्धांत एवं काव्यकोष का अध्येता होना चाहिए, तदुपरांत अपने क्रांतिकारी न्यायाधारित विचारों को जन-जन तक पहुंचाना चाहिए।
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