अकेले चलना भी सीखना ही होता है, जो हमें, वही सिखा सकता है, जो वास्तविक रूप में अकेले चल रहा हो।
तथाकथित रूप से, अकेले चलने की बात तो सिर्फ भ्रमपूर्ण है, क्योंकि, उस चलने में न जाग्रति है, न श्रद्धा, न भक्ति, न आनंद है, न शांति, न प्रेम, न मस्ती, न करुणा है, सिर्फ और सिर्फ फिजूल के दुखों से भरा, कांटों से भरा, थकाऊ और उबाऊ और उदास, तथाकथित जीवन ही है।
हम साधारण जीवन की बात करें, तो, जीवन में आते हैं, तो, अपने शरीर को अकेले के दम पर खड़ा या चला नहीं पाते, जो चलना जानते हैं, वे ही हमें चलना और जीना सिखाते हैं, तो,
अति जीवन या ऊर्ध्वगामी जीवन में हम कैसे अकेले चल सकते हैं!!!!!!!
फिर कह रहा हूं, कि, बात आपकी 100% सही है, लेकिन, अकेले चलना सीख लेने के बाद, समाधि के बाद, उससे पहले नहीं।
यदि समाधि से पहले अकेले चलना सही होता, तो, बुद्ध संघ का निर्माण नहीं करते।
आपकी पोस्ट के विचारानुसार तो, मैं कहूंगा, कि, वे सारे लोग, जो पूरा जीवन, जीवित सतगुरु के संपर्क में नहीं आ पाते हैं, सानिध्य और सत्संग का लाभ प्राप्त नहीं कर पाते हैं, वे अकेले ही चल रहे हैं, तो क्या आपको लगता है कि बुद्ध के साथ चलने वालों से अधिक ठीक थे, वे लोग, जो बुद्ध या महावीर के साथ नहीं चले!!!!!!!!!!!!!!!
अकेले चलना सबसे अच्छी बात है, लेकिन, पहले, हमें एक्सपर्ट के साथ चलकर, अकेले चलना सीखना होगा।
समाधि ही समाधान है, सुलझाव है, उसके पहले तो सिर्फ उलझाव ही उलझाव है। पहले, हमें चलना ही होगा किसी न किसी उपलब्ध जीवित बुद्ध के साथ। तभी अर्थ है अन्यथा सब व्यर्थ है।
उपलब्ध या एनलाइटैंड आदमी की पहचान आसान नहीं है और गलत हो सकती है। गुरु को खोजने की जल्दबाजी की जगह साधक को जहां कहीं से भी ज्ञान की किरण मिले उसे ग्रहण कर आगे बढ़ना चाहिए अपने सीमित विवेक पर श्रद्धा रखते हुए।
- Like
- Reply
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें