'संघ परिवार' और उनकी छात्र इकाई 'एबीवीपी' अक्सर कानून को अपने हाथों में लेने को तैयार रहा करते हैं। उनके इस दुष्कृत्य को ही फासिज्म कहते हैं। वे यदि वास्तव में सच्चे देशभक्त -राष्ट्रवादी होते तो हर बार कानून को ठेंगा नहीं दिखाते। यदि वे सच्चे देशभक्त होते तो उन्हें मालूम होता कि देशभक्त नागरिक अपने संविधान के अनुरूप ही आचरण करते हैं। वे सिर्फ जेएनयू -डीयू में ही नहीं बल्कि देशके किसीभी शिक्षण संसथान में बेवजह हंगामा खड़ा करते रहने के आदि हैं। हर छात्र द्वंद मामले में पुलिस ,कानून और न्याय को धता बताकर वे अपनी मर्जी से तथाकथित 'देशद्रोहियों' पर लट्ठ लेकर टूट पड़ते हैं ! यदि पुलिस का काम 'संघ परिवार' को ही करना है तो संविधान संशोधन क्यों नहीं कर देते कि आइंदा पुलिस और कोर्ट कचहरी का काम सिर्फ वेतन -भत्ते लेना और रिश्वत लेना ही है!और बाकी का काम 'संघ' के सभी फ्रेंचाइजी ही करेंगे !
जब कभी भी साम्प्रदायिक और संविधानेतर संस्थाओं के अलोकतांत्रिक कारनामों की मुखर आलोचना होती है , तो वे अपनी गलती स्वीकार करने के बजाय ,पुराने गढ़े मुर्दे उखाड़कर अपने फासिस्ट चरित्रको जस्टीफाई करने लगते हैं। उनके अंध समर्थक भी सोशल मीडिया पर इस अराजकता का नैतिक विरोध करने के बजाय खुद ही उस साम्प्रदायिक गंदगी में मुँह मारने लगते हैं। धर्मनिपेक्षता और प्रगतिशीलता तो उन्हें फांस की तरह चुभती है।
वेशक जेएनयू तथा डीयू के तथाकथित उपद्रव में केवल एबीवीपी ही कसूरवार नहीं है ,हालांकि वे इसी तरह गलतियां करते रहे तो उनका विनाश सुनिश्चित है। किन्तु वामपंथी छात्र संगठनों को भी अपनी कतिपय गंभीर भूलोंको नजरअंदाज नहीं करना चाहिए!उन्हें मार्क्स एंगेल्स की शिक्षाओंका यह अत्यंत आवश्यक नियम हमेशा याद रखना चाहिए कि क्रांतिकारी व्यक्ति या संगठन बिना 'आत्मालोचना' के एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते!अव्वल तो यह मान लेना ही गंभीर भूल होगी कि किसी छात्र संघर्ष का कारण सिर्फ 'संघ परिवार' या एबीवीपी ही है। क्योंकि देश में सैकड़ों विश्वविद्यालय और शिक्षा संसथान हैं, जहाँ एबीवीपी,एसएफआई,भाराछासं इत्यादि संघ और एक साथ संगठन चला रहे हैं। आपस में स्वाभाविक मतभेद के वावजूद कमोवेश संवाद हरजगह कायम है। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि शिमला विश्वविद्यालय में वामपंथी छात्र संघ 'एसएफआई' की जो इज्जत है, जो सम्मान हासिल है उससे एनएसयूआई ,एबीवीपी वाले भी ईर्ष्या करते हैं। किन्तु जेएनयूके तथाकथित वामपंथी छात्र संगठन किस सिद्धांत को लेकर चल रहे हैं ,यह मेरी समझ में कभी नहीं आया। गैर जरुरी और विवादास्पद मुद्दे उठाकर 'वामपंथ 'का नाम बदनाम कर रहे हैं।सवाल किया जाना चाहिए कि जेएनयू के वामपंथी छात्र संघोंने देश और दुनिया के सर्वहारा वर्ग,किसान,मजदूर, शोषित वर्ग के लिए अब तक क्या किया ?उन्होंने कभी अफजल गुरु और कभी कश्मीर के अलगाववादियों को पनाह देकर कौनसा क्रांतिकारी काम किया है ?उनके द्वारा दूसरे विश्वविद्यालय के मामले में दखल देने और अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने फोकट की भाषणबाजी करनेसे प्रश्न उठता है कि उनमें और दक्षिणपंथी छात्र संगठनों में अंतर क्या है ? क्या यह आचरण देश की मेहनतकश आवाम को पसन्द है ? इस तरह के अराजक और उदण्ड व्यवहार से देश में क्रांति नहीं होने वाली है । वे सृजनात्मक क्या कर रहे नहीं ? केवल अभिव्यक्ति की 'आजादी' और हकों के पक्ष में नारे लगाना ही क्रांतिकारी का अभीष्ट नहीं है, अपितु वामपंथी क्रांतिकारी व्यक्ति और संगठन जो कुछ भी करता है वह सारे राष्ट्र और समाज को दिशा देता है।
श्रीराम तिवारी
जब कभी भी साम्प्रदायिक और संविधानेतर संस्थाओं के अलोकतांत्रिक कारनामों की मुखर आलोचना होती है , तो वे अपनी गलती स्वीकार करने के बजाय ,पुराने गढ़े मुर्दे उखाड़कर अपने फासिस्ट चरित्रको जस्टीफाई करने लगते हैं। उनके अंध समर्थक भी सोशल मीडिया पर इस अराजकता का नैतिक विरोध करने के बजाय खुद ही उस साम्प्रदायिक गंदगी में मुँह मारने लगते हैं। धर्मनिपेक्षता और प्रगतिशीलता तो उन्हें फांस की तरह चुभती है।
वेशक जेएनयू तथा डीयू के तथाकथित उपद्रव में केवल एबीवीपी ही कसूरवार नहीं है ,हालांकि वे इसी तरह गलतियां करते रहे तो उनका विनाश सुनिश्चित है। किन्तु वामपंथी छात्र संगठनों को भी अपनी कतिपय गंभीर भूलोंको नजरअंदाज नहीं करना चाहिए!उन्हें मार्क्स एंगेल्स की शिक्षाओंका यह अत्यंत आवश्यक नियम हमेशा याद रखना चाहिए कि क्रांतिकारी व्यक्ति या संगठन बिना 'आत्मालोचना' के एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते!अव्वल तो यह मान लेना ही गंभीर भूल होगी कि किसी छात्र संघर्ष का कारण सिर्फ 'संघ परिवार' या एबीवीपी ही है। क्योंकि देश में सैकड़ों विश्वविद्यालय और शिक्षा संसथान हैं, जहाँ एबीवीपी,एसएफआई,भाराछासं इत्यादि संघ और एक साथ संगठन चला रहे हैं। आपस में स्वाभाविक मतभेद के वावजूद कमोवेश संवाद हरजगह कायम है। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि शिमला विश्वविद्यालय में वामपंथी छात्र संघ 'एसएफआई' की जो इज्जत है, जो सम्मान हासिल है उससे एनएसयूआई ,एबीवीपी वाले भी ईर्ष्या करते हैं। किन्तु जेएनयूके तथाकथित वामपंथी छात्र संगठन किस सिद्धांत को लेकर चल रहे हैं ,यह मेरी समझ में कभी नहीं आया। गैर जरुरी और विवादास्पद मुद्दे उठाकर 'वामपंथ 'का नाम बदनाम कर रहे हैं।सवाल किया जाना चाहिए कि जेएनयू के वामपंथी छात्र संघोंने देश और दुनिया के सर्वहारा वर्ग,किसान,मजदूर, शोषित वर्ग के लिए अब तक क्या किया ?उन्होंने कभी अफजल गुरु और कभी कश्मीर के अलगाववादियों को पनाह देकर कौनसा क्रांतिकारी काम किया है ?उनके द्वारा दूसरे विश्वविद्यालय के मामले में दखल देने और अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने फोकट की भाषणबाजी करनेसे प्रश्न उठता है कि उनमें और दक्षिणपंथी छात्र संगठनों में अंतर क्या है ? क्या यह आचरण देश की मेहनतकश आवाम को पसन्द है ? इस तरह के अराजक और उदण्ड व्यवहार से देश में क्रांति नहीं होने वाली है । वे सृजनात्मक क्या कर रहे नहीं ? केवल अभिव्यक्ति की 'आजादी' और हकों के पक्ष में नारे लगाना ही क्रांतिकारी का अभीष्ट नहीं है, अपितु वामपंथी क्रांतिकारी व्यक्ति और संगठन जो कुछ भी करता है वह सारे राष्ट्र और समाज को दिशा देता है।
श्रीराम तिवारी
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