सोमवार, 20 मार्च 2017

आधुनिक युवा वर्ग और शहीद भगतसिंह

आर्थिक ,सामाज़िक ,राजनैतिक हर तरह  की स्वतंत्रता की कामना केवल कोई सचेतन मन ही कर सकता है। कोई सुसुप्त मन वाला मिडिल क्लास व्यक्ति चाहे जितना खाता -कमाता हो ,भले ही उसेअभी 'अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता' या व्यवस्था परिवर्तन से कोई सरोकार न हो,लेकिन हर एक दमित ,शोषित,पीड़ित,नंगा-भूंखा इंसान  किसी किस्म की आजादी चाहने से पहले अपने तात्कलिक दुखों के निवारण की भरसक चेष्टा पहले करता है। चूँकि आधुनिक युवाओं को  शहीद भगतसिंह ,राजगुरु और सुखदेव वाले संघर्ष ,क्रांति और व्यवस्था परिवर्तन के सिद्धांत -सूत्र और साधन बहुत जटिल मालूम पड़ते हैं ,उन्हें भगतसिंह के क्रांतिकारी विचार मानों  'दूर के ढोल सुहावने' जैसे लगते हैं। इसीलिये अधिकांस आधुनिक भारतीय युवा ,खास तौर से जन्मना हिन्दू युवा मोदी-मोदी में लीन होकर भाजपाकी राजनैतिक नाव पर सवार है। मोदीजी के विकासवाद की अनजानी राह पर आगे बढ़ने का ख्वाब देख रहा है।भले ही यह मोदीयुगीन नाव कहीं भी न जाती हो, या किसी अज्ञात भंवर की ओर ली जाती हो !
इसीलिये यह बहुत जरुरी है कि आधुनिक युवावर्ग शहीद भगतसिंह को अपना आदर्श बनाये !

अफ्रिका ,यूरोप,अमेरिका,चीन रूस का तो मुझे पक्का पता नहीं,किन्तु अधिकांस छुधित-तृषित भारतीय युवा वर्ग अपने कष्ट निवारण के लिए ,सबसे उस सरल सुगम मार्ग  की ओर देखता है,जो मंदिर ,मस्जिद गुरूद्वारे अथवा चर्च की ओर जाता है। धर्म-मजहब के पारलौकिक ठिकानों पर किसी को कुछ और मिले न मिले,किन्तु अस्थायी मानसिक शांति और तसल्ली तो अवश्य मिलती है। किसी का यह लोक ही बर्बाद हो रहा हो किन्तु उसे परलोक सुधार की गारन्टी देने वाले बाबाओं, योगीयों और साम्प्रदायिक नेताओं का दामन नहीं छोड़ता । इसीलिये भारतमें इन दिनों कुछ परलोक सुधारक लोग खूब फल फूल रहे हैं। वे राजनीति में भी प्रतिष्ठित होते जा रहे हैं। आने वाला वक्त ही बताएगा कि उनके सत्ता में आगमन से देश आगे बढ़ रहाहै या अतीतके गहन अन्धकार में फिर प्रतिगामी डुबकी लगाने जा रहाहै ! भारतीय युवजन को यह ध्यान तो रखना ही होगा कि कहीं ऐंसा न हो कि 'दुविधा में दोउ गये,माया मिली न राम' ? उन्हें यह ज्ञान होना भी जरूरी है कि इस सन्दर्भ में शहीद भगतसिंह की सोच क्या थी।

हिन्दुत्वाद की लहर के प्रभाव से मंदिर -मस्जिद विवाद में देश को फिर से घसीटा जा रहा है। भारतीय युवाओं और छात्रों को सोचना चाहिए कि इस घनचक्कर में कहीं उनका भविष्य चौपट न हो जाए,या विकास धरा न रह जाए ! यदि 'सबका साथ,सबका विकास'सत्ता के हृदय की गहराई से निकला है तो वैसा आचरण भी दृष्टिगोचर होना चाहिए! वेशक मोदीजी और योगीजी अतीत में विवादास्पद रहे हैं। उन पर अतीत में बहुत से आरोप लगे हैं। जिस तरह प्रधानमंत्री बनते ही मोदीजी के ऊपर लगे तमाम आरोप खत्म हो गए ,उसी तरह योगीजी के मुख्यमंत्री बनते ही उनपर लगाईं गईं तमाम दीवानी और फौजदारी धाराएं अतिशीघ्र शून्य हो जाएंगी। यह आचरण न तो 'रामराज्य 'से मेल खाता है और न ही सत्य हरिश्चंद्र वाले 'हिंदुत्व' के उच्चतर सिद्धांत से मेल खाता है। भगतसिंह के सिद्धांतों से मेल खाने का तो सवाल ही नहीं। यदि आरोपों में दम नहीं था तो अखिलेश और मायावती की सरकार के दौरान इन 'महात्मा नेताओं' पर लगे आरोपों के लिए मानहानि का मुकद्दमा दायर होना चाहिये।

सत्तामें आनेके कारण यदि मोदी जी की तरह अब योगी जी भी 'निर्दोष' सावित हो जाते हैं ,तो वही लोग डरेंगे जो अब तक योगीजी को परेशांन करते रहे हैं या वे लोग भयभीत होंगे जो वास्तविक अपराधी हैं ! गुजरात में मोदीजी से भी वही लोग डरते रहे हैं जिन के दिल में चोर था। मोदीजी के राज में तो शेर और बकरी एक घाट पानी भले न पी सके हों किन्तु चिंदी चोर भी अब  बड़े-बड़े आर्थिक अपराधी बनकर देश और दुनिया में फल फूल रहे हैं !
युपी विधान सभा चुनाव में मोदीजी ने 'श्मशान बनाम कब्रिस्तान' वाले जुमले के अलावा विकासवाद का भी खूब   प्रचार किया था। किन्तु जब विकास वाले नेतत्व की तलाश की गयी तो ३२५ में से उन्हें एक भी नहीं मिला! अंततः आंतरिक दबाव में सत्ता सुंदरी एक योगी को सौंप दी। ऐंसा लगता है कि मोदीजी और योगी जी आइंदा दोनों नाव पर सवार होंगे। हिन्दू -मुस्लिम दोनों को खुश किया जायगा। और साथ में विकास का उपक्रम भी जारी रहेगा। यदि 'संघ' का राष्ट्रवाद असली चेहरा है, तब वे भी ऐंसा कुछ नहीं करेंगे जिससे फसाद हो। यदि अल्पसंख्यकों को विश्वास में लेकर योगीजी उत्तरप्रदेश का विकास करते हैं ,तब तो उनके 'हिंदुत्व'का सिक्का अवश्य चल जाएगा। अन्यथा अतीत में कल्याणसिंह ने जो बोया और काटा था ,वही  योगी आदित्यनाथ के दौर में भी भाजपा और संघ परिवार को काटना होगा!वे जब तक धर्मनिरपेक्षता का सम्मान नहीं करते तबतक यही बार-बार होता रहेगा ।  

यूपी चुनाव के इकतरफा परिणाम से किसी को निराश नहीं होना चाहिए। मायावती को ईवीएम मशीन में त्रुटि खोजने के बजाय मुलायम सिंह यादव ,अखिलेश यादव -पिता -पुत्र से नसीहत लेनी चाहिए। जिन्हें मोदीजी और योगी जी को साधना आता है। मुलायम परिवारतो हारने के बाद भी आश्स्वस्त है कि उन्हें  किसी से कोई खतरा नही !बहिनजी और आजमख़ाँ जैसे जातिवादी -साम्प्रदायिक नेता  कुछ ज्यादा ही शोर मचा रहे हैं। हालाँकि वे इस काबिल नहीं हैं कि मोदी या योगी  पर अंगुली उठायें ,जिन्हें प्रचण्ड जनादेश मिला है। मोदी और योगी का हिन्दू होना उसी तरह 'पाप' नहीं है,जिस तरह बहिनजी का दलित होना और आजमख़ाँ का मुसलमान होना पाप नही है ! हरेक चुनाव जीतने वाले को कुछ वक्त अवश्य मिलना चाहिये ताकि वह जनादेश की कसौटी पर टेस्ट दे सके। हारे हुए लोगों द्वारा जीते हुए दल की बेबजह आलोचना से 'संघ परिवार'के बड़बोले बयानवीरों को उपद्रव करने का मौका मिलता है। इस सूरत में देश का विकास हो न हो किन्तु आपसी कटुता का विकास अवश्य होता रहेगा। मानवता का उद्देश्य सनातन कटुता में जीना-मरना नहीं है। मौजूद जिंदगी ही वास्तविक सच्चाई है !

अभी-अभी यूपी  विधान सभा चुनाव के दरम्यान और योगी जी के मुख्य मंत्री 'मनोनीत'किये जाने को लेकर हर किस्म के मीडिया में मुख्य रूप से दो प्रकार के बोल बचन कहे सुने गए। एक तरफ हर-हर मोदी ,विकास और हिन्दुत्व का स्वर था। दूसरी ओर जातिवाद,अल्पसंख्यकवाद और परिवारवाद का शोरगुल था। किन्तु सर्वहारा वर्ग के रूप में वामपंथ का स्वर नक्कारखाने में तूती की आवाज भी नहीं था। उधर चुनाव जीतने वालों को यह गलत फहमी हो गई कि अखिलेश यादव ,राहुल गाँधी और तमाम अलायन्स वाले सबके सब वामपंथी और 'सेकुलर' हैं। और उन्हें यह गलत फहमी भी हो गई कि असली हिन्दू सिर्फ वे ही हैं जो मोदी जी [अब योगीजी]के साथ हैं। इस गलफहमी के लिए प्रगतिशील ,धर्मंनिरपेक्ष विचारों वाले लोग भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं।

माना कि सत्ताधारी सपा को उसके गुंडाराज और जातिवाद ने हराया,मायावती को उनके फूहड़ व्यक्तिवाद और अहंकार ने हराया!  यह भी जग जाहिर है कि कांग्रेस को मंडलवाद और कमण्डलवाद ने मिलकर हराया। लेकिन प्रगतिशील -वामपंथी प्रत्याशियों को जनता ने क्यों हराया ?जबकि इस धारा के प्रत्याशियों को आजादी के बाद से अब तक केंद्र में या यूपी जैसे हिंदी भाषी राज्यों में कोई अवसर ही नहीं मिला। केरल,त्रिपुरा और बंगाल में जरूर वा,पन्थ को कई अवसर मिले ,किन्तु बंगाल में ममता बनर्जी ने भृष्ट पूंजीपतियों और आतंकवादियों की मदद से न केवल राज्य की सत्ता छीन ली,अपितु किसानों,मजूरों के लिए सीपीएम ने जो कुछ किया उसको दुष्प्रचार से उसने शून्य कर डाला !भाजपा और संघ ने भी सीपीएम को टारगेट करते हुए निरन्तर बदनाम किया।लेकिन उसका फायदा ममता को ही मिला। वामपंथ का इस धर्म-मजहब वाली कट्टरता के कारण ,भारत में लोकतान्त्रिक तरीके से चुनाव जीत पाना बहुत कठिन है। क्योंकि आर्थिक और सामाजिक स्तर पर वामपंथ की समझ भले ही सही हो किन्तु धर्म-मजहब और साम्प्रदायिकता के बारे में वामपंथ की परम्परागत समझ सही नहीं है।  

धर्म-मजहब -पन्थ अब सिर्फ 'अफीम' नहीं रह गए !बल्कि बाकई स्वर्ग की सीढी बन गए हैं। जब से बाबाओं और स्वामियों ने अपने उत्पादों को  में बाजार में उतारा है ,तबसे धर्म-मजहब  सिर्फ 'अफीम ' नहीं रहे, बल्कि बाजार और राजनीति की प्रमुख ताकत हो गए हैं। यह दुहराने की जरूरत नहीं कि भारत सदियों से एक त्यौहार प्रधान देश रहा है। किन्तु लोकतान्त्रिक राजनीति और बाजारबाद ने धर्म -मजहब -पन्थ की चिन्गारी को प्रचण्ड ज्वाला में तब्दील कर डाला है। भारत के त्यौहारों से सिर्फ भारत का बाजार ही नहीं फलता-फूलता, बल्कि अब तो चीन नेपाल भी लगे हाथ कुछ न कुछ कमा लेते हैं। भारत में त्यौहार मनाने की मध्यम वर्गीय प्रतिस्पर्धा का आलम यह है कि चाहे जेब खाली हो ,घर में भुजी भांग भी न हो,चाहे कोई वेरोजगार ही क्यों न हो ,लेकिन ज्यों ही कोई तीज - त्यौहार आया कि वह भी काल्पनिक आभासी ख़ुशी की तलाश में निकल पड़ता है। नागर सभ्यता का झंडावरदार भी झाबुआ के 'भगोरिया' का भील मामा हो जाता है!जनता का यह सांस्कृतिक -धार्मिक रुझान,भाजपा और संघ परिवार के पक्ष में जाता है।

इन धार्मिक आयोजनों,तीज -त्यौहारों और मेलों-ठेलों के तामझाम से जिन लोगों के आर्थिक स्वार्थ जुड़े हैं ,वे भले ही मिलावट करते हों ,कम तोलते हों, शहद की जगह शक्कर का शीरा बेचते हों ,स्वर्ण भस्म और मोती भस्म की जगह मानव खोपड़ी का चूर्ण बेचते हों,वे भले ही धर्म का लेबल लगाकर अधर्म बेचते हों, किन्तु भारतकी धर्मप्राण जनता श्रद्धा-आस्था के वशीभूत होकर न केवल उनके घटिया उत्पाद खरीदती है, बल्कि समय आने पर इन्ही धर्म -मजहब के ठेकेदारों को वोट देकर सत्ता भी सौंप देती है। इस धार्मिक बाजारीकरण और राजनीतिकरण से ऐंसा आभास होता है कि मानों भारत भूमि पर 'सतयुग' उतर आया है। इस देश की जनता कितनी धर्मप्राण है कि जो शहर जितना बड़ा तीर्थ हैं,वह उतना ही गन्दा होगा और अपेक्षाकृत महँगा भी होगा।

भारत में सर्वाधिक वेश्यावृत्ति वहीँ होती रही है ,जहाँ पवित्रतम तीर्थस्थल हैं। अतिधर्मान्धता के वावजूद बात जुदाहै कि इस धर्मप्रधान देश में कहीं कोई अकेली दुकेली लडकी दिल्ली,मुम्बई बेंगलुरु में सफर नहीं कर सकती। नारी उत्पीड़न या निर्बलों के शोषण में कस्बों,गाँवों के हालात इससे कई गुना भयावह हैं। उत्तरप्रदेश को सपा,बसपा ने जितना बर्बाद किया उतना कांग्रेसने भी नहीं किया। उम्मीद है कि योगीजी भी उतना बुरा नहीं करेंगे जितना कभी माया और मुलायम के राज में बुरा हुआ है। तब और अब में फर्क सिर्फ इतना है कि माया और मुलायम खुद ही सुप्रीम पावर हुआ करते थे,किन्तु अब योगीजी के ऊपर मोदीजी हैं और मोदीजी के ऊपर विकास का भूत सवार है,अतः सभी को यह उम्मीद  चाहिए कि यूपी में बाकई अच्छे वाले हैं। किसानों का कर्ज शीघ्र माफ़ होने जा रहा है। गंगा यमुना स्वच्छ सुंदर होने जा रहींहैं। पहले यूपी के गाँवों कस्बों में बारदात की 'बात' वहीँ दबा दी जातीथी ! या तो रिपोर्ट नहीं लिखी जाती थी ,जो पीड़ित रिपोर्ट लिखाने का दुस्साहस करता उसे मरवा दिया जाताथा। अब जिन -यूपी में जिन्होंने आग मूती उन्हें अंजाम भुगतना ही होगा।

यूपी में विगत ३० साल से जो सिस्टम चला आ रहा है,वह भारत देश की धार्मिक और सांकृतिक विरासत नहीं है!भारत में अब तक जितने भी सच्चे समाज सुधारक और धर्मनिरपेक्ष क्रांतिकारी राजनीतिज्ञ हुए हैं वे दक्षिण भारत बंगाल अथवा महाराष्ट्र में ही अधिक हुए हैं। यही वजह है कि यूपी वाले 'भाइयो-बहिनों'धर्म-मजहब के परम्परागत मकरजाल में उलझे हैं। वे आजादी के ७० साल में भी पूँजीवादी -सामन्ती आर्थिक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अंतर्जाल को नहीं समझ पाए। यूपी के अधिकान्स स्वाधीनता सेनानी खुद ही धर्मभीरु रहे हैं, इसलिए बदलाव को नजर अंदाज करते रहे हैं। भारत में धर्मनिपेक्षता केवल संविधान की प्रस्तावना तक ही सीमित रही है। यही वजह है कि जिन राजनैतिक दलों के पास कोई जातीय -मजहबी जनाधार नहीं रहा वे केवल धर्मनिरपेक्षता का झुनझुना बजाते रहते हैं। इसीलिये धर्मोन्मादिनि हिंदीभाषी जनता रुपी 'मोहिनी', वेचारे नारद मुनि रुपी वामपंथियोंको कोई तवज्जो नहीं देती। जबकि धर्म -मजहब के ठेकेदार रुपी कलियुगी योगियों  को राजनीतिक सत्ता सुंदरी आसानी से वरण  कर रही है !

क्या विचित्र बिडम्बना है कि पूँजीवादी साम्प्रदायिक दल तो सत्ता में आने के बाद 'विकासवाद' और 'सबका साथ - सबका विकास' जप रहे हैं ? किन्तु जिन्हें अपने कार्यक्रमों पर नाज है ,नीतियों पर नाज है,अपने संघर्षोंकी परम्परा पर नाज है वे कहाँ हैं ?वे अपने जन संगठनों की साज संवार करने के बजाय ,नीतियों,योजनाओं -कार्यक्रमों का प्रचार -प्रसार करने के बजाय ,जनकल्याणकारी वैकल्पिक नीतियोंका खुलासा करने के बजाय केवल बहुसंख्यक -साम्प्रदायिकता पर फब्तियां कसते रहते हैं। उधर अल्पसंख्यक वर्ग को मुलायम,माया, ममता ,लालू,केजरीवाल और नीतीस जैसे अवसरवादियों से मतलब है। शायद यह भी एक  वजह  है कि धर्म-मजहब में खण्डित भारतीय जनता, वामपन्थ को गंभीरता से नही लेती ! वामपंथ की असली धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र को सम्मान देने के बजाय धर्मांध जनता झूंठे वादों -जुमलों को ज्यादा महत्व देती है। भारत की जनता भूल रही है कि उसके पास जो लोकतान्त्रिक अधिकार अभी तक सुरक्षित बचे हैं ,उसके लिये वाम-धर्मनिपेक्ष लोगों ने अतीत में बहुत कुर्बानियाँ दीं हैं। और अभी भी निरतंर संघर्ष जारी है। किन्तु जब भी कोई चुनाव आता है तो जनता ढपोरशंखियों की ओर देखने लगती है। यह सर्वहारा वर्ग के लिए शुभसूचक नहीं है।  श्रीराम तिवारी !  



  

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