इस बार की होली कुछ खास रही। यूपी उत्तराखण्ड में खाँटी भाजपाई जीते यह तो उनकी ३० साल की पुन्याई हो सकती है। जो नेता- नेत्रियाँ कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल होकर जीत गए हैं ,वे कल तक भले ही कांग्रेस रुपी 'पाप की पिटारी'में थे,किन्तु अप्रत्याशित जीत मिलने पर वे अब परम पवित्र हो चुके हैं ! लेकिन जीतने वालों को ज्यादा इतरानेकी जरूरत नहीं है ,क्योंकि जनताकी अपेक्षाओं पर खरा उतरनेके लिए इनके पास कोई वैकल्पिक नीतियां और कार्यक्रम ही नहीं हैं।
भारत का वोटर अब समझदार होता जा रहा है।इसीलिए अब वह टीवी चैनल्स को ,एग्जिट पोल वालों को और राजनैतिक पंडितों को धुल चटा सकता है। मतदाता अब चुनाव हारने वाले दलों और नेताओं का ही नहीं बल्कि जीतने वालों का भी सुख चैन छीन सकता है। क्योंकि जो चुनाव हारे हैं वे और जो जीते हैं वे दोनों ही परेशान हो रहे हैं। हारने वाले इसलिए कि अब वेरोजगार हो गए और जीतने वाले इसलिए कि सरकार बनाने में हलकान हो रहे हैं !बल्कि जीतने वाले ज्यादा मानसिक तनाव में गुजर रहे हैं। उनकी रातों की नींद हराम हो गई है। इस तरह की स्थिति के अध्येता शायर ने कहा होगा -'ये इश्क नहीं आशां इतना समझ लीजे ,इक आग का दरिया है और डूबके जाना है '
कोई जाहिर करे या न करे किन्तु यह सच है कि अपनी अप्रत्याशित जीत से भाजपा नेतत्व बहुत परेशान हैरान है। हैरान तो खुद अमित शाह और मोदी जी भी हैं, कि 'एक अनार और सौ बीमार हैं' !इसलिए यह अनार आखिर दें किसे ? उत्तराखण्ड में जिसे सीएम घोषित किया वह सिर्फ एक काबिलियत रखता है कि वह 'रावत' है। उन्हें कोई ऐंसा नजर ही नहीं आ रहा कि सारे 'कुनबे' को सम्भाल सके और संघ एवम मोदी जी के एजेंडे को पूरा कर सके !
चूँकि यूपी -उत्तराखण्ड में 'नौ कनवजिया तेरह चूल्हें' हैंऔर अधिकांस जीते हुए विधायक या तो भूतपूर्व कांग्रेसी हैं या जाति विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं ,इसलिए सर्वानुमति से मुख्यमंत्री तय कर पाना मुश्किल है। उत्तराखण्ड और यूपी की जीत भाजपा के लिए पचा पाना मुश्किल है। उनकी स्थिति बहुत जल्दी 'उगलत बने न लीलत केरी , भई गत साँप छछूंदर जैसी' होने वाली है। यूपी के नवनिर्वाचित विधायकों में से किसी में दमगुर्दे नहीं हैं कि इस बिकराल जीत का सामना कर सके। यदि राजनाथ सिंह के सिर पर यूपी के काँटों का ताज रख दें तो शायद कुछ बात बन जाए। यूपी से जनता का ध्यान हटाने के लिए भाजपा के चतुर सुजानों ने गोवा -मणिपुर में लोकतंत्र की ऐंसी तैसी कर डाली। वहाँ सत्ता के लिए उन्होंने अपवित्र कांग्रेसियों को अपनी पंगत में जिमाकर पवित्र कर दिया है। जय हो !
बड़ी विचित्र स्थिति है ,यदि किसी 'सत्ताभक्त' को 'द्वेषभक्त' कहो या मणिपुर- गोवा में सरकार बनाने की बधाई दो तो वह इसे कटाक्ष ही समझ रहा है।हालाँकि यह 'द्वेषभक्त' शब्द मैंने खुद ईजाद किया है। जिसका संधि विग्रह है- द्वेषभक्त याने द्वेष - घृणा फैलाने वाला ! यदि कोई व्यक्ति अथवा संगठन समाज में द्वेष फैलाता है तो हम उसे 'द्वेषभक्त' ही कहेंगे !अब यदि कोई अपने आपको 'द्वेषभक्त' समझता है और दूसरों को 'द्वेषद्रोही'तो इसमें मेरा क्या कसूर है ? द्वेशद्रोही याने घृणा से दूर रहने वाला याने परम संत ! हमारे शास्त्रों ने हमें 'द्वेष' अर्थात घ्रणा से दूर रहना सुखाया है। जब वामपंथी ,प्रगतिशील- बुद्धिजीवी इन शास्त्रीय मूल्यों का आदर करते हैं तो किसी 'हिंदुत्व- वादी' की यह फितरत क्यों होती है कि वह उपनिषद और गीता के सिद्धांतों को भूलकर उनकी अवमानना करे।
यूपी में यदि सपाकी जीत होती तो अब तक अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बनाये जा चुके होते। यदि वसपा की जीत होती तो बहिनजी का 'राज्यारोहण' हो चुका होता। किन्तु भाजपा की बम्फर जीतने अब मामला टेड़ा है! यूपी में विगत ४० साल से या तो कोई पिछड़ा व्यक्ति मुख्यमंत्री रहा है या दलित नेता के रूप में बहिनजी मुख्यमंत्री रहीं हैं ! लेकिन भाजपा को हरतरफ से वोट मिले हैं ,अगड़े- ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया तो उनके खास आधार हैं ही किन्तु इस चुनाव में पिछड़े ,दलित और मुस्लिम महिलाओं ने भी वोट दिए हैं ,इसलिए भाजपा को सबकी आशाओं को साधना बहुत कठिन है। एतद द्वारा भाजपा संसदीय बोर्ड को,अमित शाह को और उनके सर्वेसर्वा नरेन्द्र मोदी जी को बिन माँगे सुझाव दिया जाता है कि राजनाथसिंह को ही उत्तरप्रदेश का मुख्य मंत्री बनाया जाये ! क्योंकि वे सर्वस्वीकार हो सकते हैं और उम्मीद है कि उनके नेतत्व में लोग जातीय -साम्प्रदायिक द्वेष कतई नहीं फैलाएंगे !
भारत का वोटर अब समझदार होता जा रहा है।इसीलिए अब वह टीवी चैनल्स को ,एग्जिट पोल वालों को और राजनैतिक पंडितों को धुल चटा सकता है। मतदाता अब चुनाव हारने वाले दलों और नेताओं का ही नहीं बल्कि जीतने वालों का भी सुख चैन छीन सकता है। क्योंकि जो चुनाव हारे हैं वे और जो जीते हैं वे दोनों ही परेशान हो रहे हैं। हारने वाले इसलिए कि अब वेरोजगार हो गए और जीतने वाले इसलिए कि सरकार बनाने में हलकान हो रहे हैं !बल्कि जीतने वाले ज्यादा मानसिक तनाव में गुजर रहे हैं। उनकी रातों की नींद हराम हो गई है। इस तरह की स्थिति के अध्येता शायर ने कहा होगा -'ये इश्क नहीं आशां इतना समझ लीजे ,इक आग का दरिया है और डूबके जाना है '
कोई जाहिर करे या न करे किन्तु यह सच है कि अपनी अप्रत्याशित जीत से भाजपा नेतत्व बहुत परेशान हैरान है। हैरान तो खुद अमित शाह और मोदी जी भी हैं, कि 'एक अनार और सौ बीमार हैं' !इसलिए यह अनार आखिर दें किसे ? उत्तराखण्ड में जिसे सीएम घोषित किया वह सिर्फ एक काबिलियत रखता है कि वह 'रावत' है। उन्हें कोई ऐंसा नजर ही नहीं आ रहा कि सारे 'कुनबे' को सम्भाल सके और संघ एवम मोदी जी के एजेंडे को पूरा कर सके !
चूँकि यूपी -उत्तराखण्ड में 'नौ कनवजिया तेरह चूल्हें' हैंऔर अधिकांस जीते हुए विधायक या तो भूतपूर्व कांग्रेसी हैं या जाति विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं ,इसलिए सर्वानुमति से मुख्यमंत्री तय कर पाना मुश्किल है। उत्तराखण्ड और यूपी की जीत भाजपा के लिए पचा पाना मुश्किल है। उनकी स्थिति बहुत जल्दी 'उगलत बने न लीलत केरी , भई गत साँप छछूंदर जैसी' होने वाली है। यूपी के नवनिर्वाचित विधायकों में से किसी में दमगुर्दे नहीं हैं कि इस बिकराल जीत का सामना कर सके। यदि राजनाथ सिंह के सिर पर यूपी के काँटों का ताज रख दें तो शायद कुछ बात बन जाए। यूपी से जनता का ध्यान हटाने के लिए भाजपा के चतुर सुजानों ने गोवा -मणिपुर में लोकतंत्र की ऐंसी तैसी कर डाली। वहाँ सत्ता के लिए उन्होंने अपवित्र कांग्रेसियों को अपनी पंगत में जिमाकर पवित्र कर दिया है। जय हो !
बड़ी विचित्र स्थिति है ,यदि किसी 'सत्ताभक्त' को 'द्वेषभक्त' कहो या मणिपुर- गोवा में सरकार बनाने की बधाई दो तो वह इसे कटाक्ष ही समझ रहा है।हालाँकि यह 'द्वेषभक्त' शब्द मैंने खुद ईजाद किया है। जिसका संधि विग्रह है- द्वेषभक्त याने द्वेष - घृणा फैलाने वाला ! यदि कोई व्यक्ति अथवा संगठन समाज में द्वेष फैलाता है तो हम उसे 'द्वेषभक्त' ही कहेंगे !अब यदि कोई अपने आपको 'द्वेषभक्त' समझता है और दूसरों को 'द्वेषद्रोही'तो इसमें मेरा क्या कसूर है ? द्वेशद्रोही याने घृणा से दूर रहने वाला याने परम संत ! हमारे शास्त्रों ने हमें 'द्वेष' अर्थात घ्रणा से दूर रहना सुखाया है। जब वामपंथी ,प्रगतिशील- बुद्धिजीवी इन शास्त्रीय मूल्यों का आदर करते हैं तो किसी 'हिंदुत्व- वादी' की यह फितरत क्यों होती है कि वह उपनिषद और गीता के सिद्धांतों को भूलकर उनकी अवमानना करे।
यूपी में यदि सपाकी जीत होती तो अब तक अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बनाये जा चुके होते। यदि वसपा की जीत होती तो बहिनजी का 'राज्यारोहण' हो चुका होता। किन्तु भाजपा की बम्फर जीतने अब मामला टेड़ा है! यूपी में विगत ४० साल से या तो कोई पिछड़ा व्यक्ति मुख्यमंत्री रहा है या दलित नेता के रूप में बहिनजी मुख्यमंत्री रहीं हैं ! लेकिन भाजपा को हरतरफ से वोट मिले हैं ,अगड़े- ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया तो उनके खास आधार हैं ही किन्तु इस चुनाव में पिछड़े ,दलित और मुस्लिम महिलाओं ने भी वोट दिए हैं ,इसलिए भाजपा को सबकी आशाओं को साधना बहुत कठिन है। एतद द्वारा भाजपा संसदीय बोर्ड को,अमित शाह को और उनके सर्वेसर्वा नरेन्द्र मोदी जी को बिन माँगे सुझाव दिया जाता है कि राजनाथसिंह को ही उत्तरप्रदेश का मुख्य मंत्री बनाया जाये ! क्योंकि वे सर्वस्वीकार हो सकते हैं और उम्मीद है कि उनके नेतत्व में लोग जातीय -साम्प्रदायिक द्वेष कतई नहीं फैलाएंगे !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें