बुधवार, 1 मार्च 2017

आमों में बौर भी नेताजी की कृपा से आये हैं।


चिकित्सा विज्ञान का यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि  किसी भी तरह की बीमारी के इलाज से पूर्व उसके कारणों की जांच पड़ताल बहुत जरुरी है। अधिकांस चिकित्सा प्रणालियों का यह मानना है कि वास्तविक कारण जाने बिना उचित इलाज सम्भव नहीं। ठीक इसी तरह वर्तमान सामाजिक द्वंद के लिए ,भौगोलिक या राजनैतिक द्वंद के लिए अथवा अचानक प्राप्त उपलब्धि के लिए ,अतीत का कर्म ,अतीत का बीजारोपण ,अतीत का कोई द्वंदात्मक संघर्ष ही  जिम्मेदार होता है। वर्तमान तो इसका भोक्ता ही होता है, इसके अलावा वर्तमान का एक और महत्वपूर्ण कार्य होता है कि वह अतीत के समग्र परिणाम को अपने उचित अनुचित विवेक के साथ आगे की पीढ़ियों को सम्प्रेषित करता है। वर्तमान को अतीत के अवदान का श्रेय नहीं लेना चाहिए। वेशक वर्तमान जब खुदभी अतीत हो जाएगा, जब  उसके अवदान का प्रतिफल प्रकट होने लगेगा ,तब उसे भी भावी पीढ़ियों की कृतज्ञता अपेक्षित रहेगी ।

इस साल आमों में बौर खूब आये हैं।दस -ग्यारह साल पहले मैंने भी आम का पेड़ लगाया था ,किन्तु जब दस साल में बौर नहीं आये तो इस साल गर्मियों में उसे कटवाने की सोच रहा था। किन्तु इस साल उसमें बौर आ गए हैं।अब यह तय होना बाकी है कि इसका श्रेय किसे दूँ? क्या मेरी इस व्यक्तिगत उपलब्धि में भी मोदी सरकारका हाथ है ? क्या केंद्र सरकार के कामकाज और नीतियों का इसमें भी कोई योगदान है ? मैंने ११ साल पहले बैंक लोन लेकर एक प्लाट खरीदा ,मकान बनवाया,गार्डन बनाया,आम का पौधा लगाया ,माली लगाया ,क्या यह सब बेकार गया ? क्यों सारा श्रेय मोदी जी को ही दूँ ? यह तो सच नहीं है कि आप सत्ता में आये तो मेरी बगिया में भी बहार आ गई !आपके चेले चपाटों को भ्रम है कि आपके सत्ता में आने से न सिर्फ मेरे बल्कि सारे मुल्क के आमों में बौर आ गए ? फिर तो यह भी मानना पडेगा कि पडोसी मुल्क में  जो आम बौराये हैं , वे भी हमारे पीएम मोदी जी की महिमा से ही बौराये हैं।इस दौर में सिर्फ आम ही नहीं बल्कि  हर चेतन भगत ,हर छी न्यूज ,हर दंभित 'पात्रा'भी बौराया हुआ है। लेकिन क्या करें? ये सब तो होना ही था। यदि आप सत्ता में नहीं होते तब भी यह होता !आपके 'महापरिवार' वाले न सही कोई और परिवार वाले यदि सत्ता में आते तो वे भी इसी तरह बौरा जाते। जैसे कि इस साल मोदीजी की कृपा से आम बौराये हुए हैं। लेकिन मेहनतकश आवाम ,किसान ,मजदूर  को श्रेय तब भी नहीं मिलता!

खबर है कि नोटबंदी के वावजूद जीडीपी सिर्फ ०.२%ही घटी है। कल यूपी विधान सभा के चुनावप्रचार में भाषण देते हुए पीएम ने गद-गद होकर 'हावर्ड और हार्डवर्क'का बढियां शब्द संयोजन किया। उन्होंने चिदम्बरम और डॉ मनमोहनसिंह के साथ प्रोफेसर अमर्त्यसेन की लंगोटी भी खींच डाली । उन्होंने फ़रमाया कि ''भाइयो -बहिनों' नोट - बन्दी से किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ। जीडीपी ज्योंकि त्यों है। आदरणीय हमने तो पहले ही मान लिया कि जीडीपी तो क्या पीडीपी भी छोडो,अब तो आमों में  बौर भी  आपकी असीम अनुकम्पा से ही आये हैं। 'नोटबन्दी' के दौरान बैंकों के द्वार पर और एटीएम के सामने कतार में जो सैकड़ों लोग मरे हैं ,वे आपकी नोटबन्दी योजना से नही बल्कि यमराज की इच्छा से स्वर्गलोक की महायात्रा पर गए हैं।

नयी पीढी के पढ़े -लिखे युवाओं को मोदी जी बहुत उम्मीदें हैं। यह एक सकारात्मक सोच है और आशावादी होना गलत नहीं है। उनके सामने एक सवाल अवश्य दरपेश होगा कि क्या हथेली पर आम उग सकता है ? उन्हें सलाह दूंगा कि वे किसी तठस्थ अर्थशास्त्री से अथवा 'बाजार के खिलाडी' से खुद पता करें कि ये जीडीपी -पीडीपी क्या बला है ? इसका आकलन कौन करता है ?और कैसे करता है ? यह भी पता करें कि सकल राष्ट्रीय उत्पादन एवम विकास दर में क्या अन्तर्सम्बन्ध है ? किसी एक खास तिमाही में व्यक्तिगत औसत आय और जीडीपी ग्रोथ रेट के परिणाम तत्काल नहीं मिलते। क्योंकि  किसी भी नीति अथवा योजना के लागू होने के उपरान्त उनके दो तरह के परिणाम होते हैं। जैसे कि 'नोटबन्दी 'का तात्कलिक परिणाम तो जनता ने तत्काल भोग लिया गया, अब तो कुछ महीनों बाद पता चलेगा कि वास्तविक दूरगामी  परिणाम क्या हैं ? मानलें कि आगामी एक वर्ष तक जीडीपी नहीं घटेगी। तो भी यह तो बताना ही होगा कि नोटबन्दी के फायदे क्या हुए ?क्योंकि कश्मीरी आतंकवाद और नक्सली हमलों में कोई फर्क नहीं आया है।इसके विपरीत नए नोट छापने में जो अतिरिक्त खर्च हुआ उसकी वसूली जनता से ही होगी।आर्थिक क्रिया की प्रतिक्रिया केवल न्यूटन के गति के नियम से संचालित नहीं होती बल्कि पुराने नासूर की तरह अंदर-अंदर धीरे-धीरे असर करती है।बनावटी आंकड़ों से जमीनी सच्चाई को छुपाया नहीं जा सकता। यह तो सभी को मालूम है कि जिस तरह आमके पौधे को पेड़ बनने में बक्त लगता है और बौर आने में भी पर्याप्त समय लगता है ,उसी तरह आर्थिक नीतियों के परिणाम भी पर्याप्त समय के बाद ही दिखाई पड़ते हैं।यह कोई गेस के सिलेंडर की मेंहगाई का आंकड़ा नहीं की कंपनियों ने दाम बढ़ाये और सरकार ने चुप्पी साध ली।वेशक
हरेक वर्तमान संकट अतीत का प्रतिफल नहीं होता। लेकिन वर्तमान की हरेक उपलब्धि में अतीत का योगदान अवश्य होता है। नोटबन्दी का दुष्परिणाम अभी भविष्य के गर्भ में है !

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'ब्राह्मणवाद बनाम मनुवाद' 

    अतीत की सामाजिक रीतियों,विधि- विधान और सामाजिक जातीय संरचना पर समाज शास्त्रियों और विभिन्न समाज सुधारकों ने निरन्तर हमले किये हैं। भारतीय लोकतंत्र का उदय ही इस विमर्श के साथ हुआ कि अतीत का तो सब कुछ गलत ही है। शायद इसी मानसिकता के कारण आजाद भारत के रहनुमाओं ने ब्रिटिश संविधान का अधिकांस हिस्सा ज्यों का त्यों भारतीय संविधान में टीप दिया। वेशक भारतीय संविधानकी प्रस्तावना बेमिसाल है। लेकिन उसमें अंग्रेजों ने जो मजदूर और शोषित वर्ग विरोधी कानून बनाये थे वे यथावत रखे गए। कुछ जातियों को अंग्रेज सरकार जरायमपेशा मानती थी,आजादी के बाद देश की सरकारों ने उन पारदी बेड़िया और बंजारा जैसी यायावर जातियों के लिए कुछ भी नहीं किया। जिन लोगों को आरक्षण नीति से कुछ मिल गया वे सिर्फ अपनों के सुर में सुर मिलाने लगे। बाबा साहिब की जय-जयकार करते हुए कुछ जातिवादी लोग कभी -कभार सत्ता में भी पहुचते रहे। 'ब्राह्मणवाद बनाम मनुवाद'  उनके लिए राजनीति में जिन्दा रहने का सबसे बड़ा सहारा है।

जैसे की सभी जानते हैं कि अतीत के वैदिक कालीन भारत में 'वर्णव्यवस्था' इसलिए बनाई गयी कि कबीले के व्यवस्थित संचालन में आसानी हो। तत्कालीन समाज चिंतकों को यह अंदेशा बिलकुल नहीं था कि  भविष्य में उनकी मातृभूमि पर अलग-अलग राष्ट्रों की सीमाओं का निर्धारण होगा, लोकतंत्र होगा या जातीय असमानता का बोलवाला होगा। उन्हें यह ध्यान भी नहीं होगा कि वे जिस 'सर्वे भवन्तु सुखिनः 'अथवा वसुधैव कुटुम्बकम' सिद्धांत पर इतराते रहे हैं, वे जिस 'अहिंसा परमोधर्म" पर गर्व करते रहे हैं,उसकी धज्जियां उड़ाते हुए 'आर्यावृत' को रौंदते हुए  बर्बर बाहरी लुटेरे गुलाम बना लेंगे ,वे सैकड़ों साल शासन करते हुए इस 'आर्यभूमि'की सभ्यता संस्कृति ध्वस्त कर देंगे और साम्प्रदायिकता-जातीयता के द्वंद में धकेल देंगे ! हर विवेकवान व्यक्ति को भूत भविष्य और वर्तमान को सत्यरूप में जानने में माहिर होना चाहिए। तभी वह प्रासंगिक विषय पर न्यायसंगत सम्मति दे सकता है।

यह स्वयम सिद्ध सिद्धांत है कि सही इतिहास का अध्यन सिर्फ गड़े मुर्दे उखाड़ना ही नहीं है। अपितु इतिहास का अध्यन किये बिना कोई भी व्यक्ति या कौम अपने वर्तमान को सत्यम शिवम सुंदरम नहीं बना सकता । उसके बिना वर्तमान चुनौतियों का निदान सम्भव भी नहीं ! यदि कुछ व्यक्ति ,समाज या राष्ट्र इस आधुनिक दौर में अतीत की कुछ परम्पराओं ,रीतियों और लोकाचार को गलत मानते हैं, तो यह अनुचित नहीं। किन्तु यह जरुरी है कि उन पुरातन परम्पराओं का ,लोकाचार का अथवा पुरातन नियम कुलरीति का सही आकलन हो। क्योंकि 'सत्य' काल सापेक्ष होता है और कुछ चीजें व सिद्धांत- विज्ञानसम्मत - सर्वकालिक भी होते हैं। यदि अतीत में वे सही थे और अब गलत हैं तो कौनसी आफत आ गयी ? हम यह न भूलें कि हम आज जो कुछ भी हैं ,जैसे भी हैं वो हमारे समग्र अतीत का एकीकृत  झांकी है ! आज जो नियम कानून हमारे लिए सही है ,कल सम्भव है किसी दौर की पीढी को नागवार गुजरे और वह घोषणा कर दे कि यह सब तो बकवास है। इसलिए अतीत के राजपथ की निंदा करने के बजाय हम अपने दौर के लोह्पथमार्ग  पर ध्यान दें तो बेहतर होगा !

धर्म-मजहब के विरुद्ध आधुनिक साइंस की सबसे प्रचण्ड रिसर्च यह है कि ब्रह्मांड में कभी कुछ भी नष्ट नहीं होता। दुनिया में वेदांत दर्शन और उपनिषदों की बड़ी धाक रही है। उनका अधिकांस चिंतन विज्ञान आधारित है। आदि शंकराचार्य की यह घोषणा है कि 'ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या' भी 'ऊर्जा की अविनष्ट्ता के सिद्धांत' से मेल खाती है। जिस तरह ऊर्जा पदार्थ में और पदार्थ ऊर्जा में रूपांतरित हो सकते हैं ,किन्तु कभी नष्ट नहीं होते,उसी तरह विशिष्ठ चैतन्य और समष्टि चैतन्य भी एकदूजे में रूपान्तरित होते रहते हैं। इस रूपान्तरण को  ही जीवन मुक्ति या मोक्ष कहते हैं। वैदिक मतानुसार कर्मफल  कभी नष्ट नहीं होते। उनके अनुसार त्रिगुणमयी माया अर्थात पृथ्वी जल आकाश वायु अग्नि इत्यादि पंचमहाभूतों के मायाविष्ट चैतन्य से सृष्टि हुई है। सभी जीव समान रूप से उस एक ही 'ब्रह्मतत्त्व' के प्रतिउत्पाद हैं। अर्थात  मनुष्य तो क्या जीव जन्तु, जलचर,थलचर, नभचर सहित तमाम जड़-चेतन ही समरूप से एकहि हैं। फिर इस समतामूलक  सिद्धांत में  गलत क्या है? 

मेरे पूर्वज लगभग डेड सौ साल पहले 'धामोनी'छोड़कर 'पिड़रुवा'आ बसे !जब धामोनी में हैजा -महामारी फैली तो न केवल मनुष्य मात्र बल्कि मवेशी भी थोक में मरने लगे! जो नर-नारी आबाल बृध्द बच गए वे प्राण बचाकर इधर-उधर भागे। चूँकि मेरे पूर्वज -पितामह पंडित गुल्लीप्रसाद तिवारी की ससुराल नजदीक के गाँव पिड़रुवा के पांडेय परिवार में थी, इसलिए लड़की -दामाद याने मेरे दादा दादी को उन्होंने 'पिड़रुवा'बुला लिया। चूँकि दादीजी का इकलौता भाई बचपन में ही खत्म हो गया था,इसलिए दादाजी को शरणार्थी और 'घर जँवाई' दोनों भूमिकाएँ एक साथ अदा करनी पड़ीं। जबकि ततकालीन कुलीन परम्परा में 'घर जंवाई' बनने का घोर निषेध था। दुनिया के हर समाज और कुटम्ब में इसी तरह के उदाहरण मिलेंगे कि नियम तो बनाये ही जाते हैं तोड़ने के लिए !'वक्त का तकाजा था' सो उन्होंने अपना पैतृक गाँव छोड़ा वर्ना यह नोबत क्यों आती ?मेरे पिताजी और काकाओं ने भी वहीँ अपने ननिहाल में ही डेरा डाला, इस तरह वंशवृक्ष आगे बढ़ते हुए इंदौर,दिल्ली,मुंबई ,बेंगलूर,भोपालमें फ़ैल गया। कहने का तात्पर्य यह कि पिताजी -दादाजी के समय जो साधन ,देशकाल, परिस्थितियां थीं उन्होंने उसके अनुसार  जीवन यापन किया। अब चूँकि देशकाल परिस्थितियां कुछ और हो गईं हैं इसलिए अब हमने कुछ और तरक्की कर ली ,किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि हमारे पिताजी ,दादाजी गलत थे या उनके रीति रिवाज गलत थे !अपने समय में वे उतने ही सही थे जितने अपने समय में हम सही हैं।चूँकि मेरे पूर्वज परम्परागत रूप से ब्राह्मण होते हुए भी विस्थापित गरीब मजदूर थे  अतः यह कहना मूर्खता होगी कि हमारे दादजी और पिताजी ने किसी का किसी तरह से शोषण किया होगा। गाँव के काछी,पटेल,तेली ,लुहार, जैन और कुछ अहिरवार भी हमारे पूर्वजों से बेहतर जीवन जीते थे। लंबरदारों की धन सम्पदा और उपजाऊ  जमीन की तो कोई सांनी ही नहीं।आज भी उस गांव में इन सब जातों -समाजों के मकान और जमीने ,हमारे बचे खुचे परिवार से कई गुना बेहतर हैं।मुझे यह कभी समझ नहीं आया कि 'ब्राह्मणवाद' और मनुवाद क्या बला है ? और उससे मुझे या मेरे पूर्वजों को क्या मिला ? खैर फिर भी मैं यही कहूंगा कि जाति -धर्म-मजहब नहीं बल्कि देश, काल, परिष्थितियाँ ही तय करती हैं कि कौन कहाँ कैसे जीवन जीता है।

परम्परा और तकनीक परिवर्तन का एक उदाहरण भवन निर्माण का भी है। पहले के ज़माने में गाँव के ग्रामीण लोग आम तौर पर  पत्थर-गारे की कच्ची दीवालों पर मजबूत लकड़ी की मियारी डालकर ,उसपर सतकठा के कुरवा डालकर ,कवेलू याने खपरों की छान डालकर मकान बनाते थे। उत्तर भारत के अधिकांस गरीबों के घर आज भी ऐंसे ही हैं ,जिनमें  दरवाजे इतने छोटे होते हैं कि सिर टकराये बिना आवागमन मुश्किल है।आधुनिक युग की सुविधाओं की तो वहाँ कल्पना ही नहीं की जा सकती। हाथमें लोटा लेकर 'दिशा मैदान' की परम्परा बाकायदा हर गाँव में हर गरीब के लिए अभी भी यथावत कायम है। मेरे पिता जी ने भी इसी तरह का खपरेल का ही मकान बनाया था ! घोर निर्धनता में अपने बच्चों की परवरिश की  लेकिन किसी भी अनुसूचित जाति अथवा जनजाति के ग्रामीण को कभी अस्पर्श्य नहीं माना।

भारत आजाद हुआ,शिक्षाका प्रचार-प्रसार हुआ,आधुनिक वैज्ञानिक अनुसन्धान ने  जीवन के हर हिस्से को गति प्रदान की। भवन निर्माण में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। चूँकि गाँव के लोग खुद कारीगर थे अतएव सभी ने नए मकान बना लिए, लेकिंन मेरे पिता बृद्ध चूँकि  रहे नहीं और पुराने मकान का ढांचायथावत खड़ा है। नई पीढी के लोगों ने शहरों में ,पास कालोनियों में सर्व सुविधा सम्पन्न भवन बनवा लिए हैं। कुछ ने तो हाई प्रोफ़ाइल सोसाइटी में फ्लेट भी खरीद लिए हैं। लेकिन मैं या कोई बंधु बांधव यदि कहे कि पूर्वजों ने कुछ नहीं किया ,या गलत किया कि वे कच्चे मकानमें रहते थे या वे तो लोटा लेकर 'दिशा मैदान'जाते थे ,तो यह उचित टिप्पणी उचित नहीं होगी । इसी तरह यदि कोई कहे कि मैंने सर्वसुविधा सम्पन्न बंगला बनवा लिया ,जबकि पूर्वज कबेलू के कच्चे मकान में ही मर खप गए तो यह सरासर कृतघ्नता होगी । मानवताके लिए जिस दौर में जिस पीढी से जो कुछ भी सम्भव था वह हमारी पूर्वर्ती पीढ़ियों ने किया है। हम उनके शुक्रगुजार हैं। लेकिन जबसे मोदीजी पीएम बने हैं वे रोज अपने पूर्वजों को गाली दे रहे हैं।

इन सब बातों के जिक्र का लुब्बो लुआब यह है कि जो कुछ अतीत में सम्भव था वह हमारे पूर्वजों ने किया।उन्हें जिस दौर में लगा कि अपराध रोकने और समाज में शांति कायम रखने के लिए किसी 'बिजुके 'की जरूरत है तो उन्होंने ईश्वर खोज लिया और धर्म -मजहब बना लिये। जिस दौर के पूर्वजों को  लगा कि 'वर्णव्यवस्था' होनी चाहिए तो उन्होंने उसे बना लिया । लेकिन इस वैज्ञानिक युग में न तो कबेलू वाले मकान  की जरूरत है,न ही उस सामंत -युगीन  व्यवस्था की जरूरत है !लेकिन अनाचार अत्याचार ,बाह्य शोषण अभी भी जिन्दा हैं इसलिए धर्म-मजहब के अकूत आडम्बर की जरूरत यथावत बनी हुई है। जब कभी किसी बेहतर व्यवस्था के निर्माणका आगाज होगा तो जाति ,मजहब,धर्म,और सामन्तकालीन परम्पराएँ अपने आप खत्म हो जायेंगीं। हर युग में इस तरह के उच्च सकारात्मक बदलाव की प्रक्रिया के लिए क्रांतिकारी मनुष्यों की भूमिका रही है। आधुनिक युग में भी कम्युनिस्ट और वैज्ञानिक क्रांतिकारी लोग जो कुछ  सम्भव है वह कर रहे हैं। हमारे बच्चे हमसे बेहतर कर रहे हैं ,उम्मीद की जा सकती है कि भावी पीढ़ियाँ उनसे बेहतर परफार्मेंस देंगी ! लेकिन शर्त यह है कि अतीत के लोगों को गरियाने या यथास्थिति बनाये रखने के बजाय संघर्षों के इतिहास से कुछ सबक सीखा जाए। पूर्वजों को धन्यवाद ज्ञापित किया जाए। साइंस के अन्वेषणों का मानवीयकरण किया जाए और सामाजिक ,आर्थिक,  राजनैतिक, असमानता  को दूर किया जाए। इसके लिए अतीत के अनुभव और इतिहास का सही मूल्यांकन अत्यंत आवश्यक है। 

वेशक अशांत राष्ट्र और समाज की मौजूदा हालत के लिए उसका नकारात्मक अतीत जिम्मेदार हुआ करता है। जिस तरह गलत-सलत जीवन शैली ,धूम्रपान जैसे बुरी आदतों और निर्धनता जनित  कुपोषण की  मार से कोई भी व्यक्ति एक निश्चित समय के बाद अपना इम्यून सिस्टम कमजोर पाता है और बीमार पड़ने लगता है,उसी तरह एक लंबे समयांतराल के बाद समाज तथा राष्ट्र भी अपने अतीत के नकारात्मक किये धरे से बीमार होनेलगता है।  इसीलिए इतिहास का अध्यन केवल गड़े मुर्दे उखाड़ना मात्र नहीं है. बल्कि अपने समय के बवण्डरों ,अपने दौर के अभावों और अपने दौर के अशांत वातावरण को शांत करने के लिए अतीत का विहंगावलोकन करना जरुरी हो जाता है। अतीत के काले हिस्से को अलग -थलग करते हुए हमें उसके सत्य,अहिंसा,समता,करुणा,और विश्व बंधुत्व वाले हिस्से को आत्मसात करना ही होगा,तभी मानव मात्र को उचित न्याय ,आदर और सुखद जीवन का हक हासिल हो सकता है। श्रीराम तिवारी     

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