बुधवार, 15 फ़रवरी 2017

नस्लवाद और साम्प्रदायिकता - देश के दुश्मन!

भारतीय उपमहाद्वीप में 'राष्ट्रवाद' का सृजन प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान १८५७ में ही प्रारम्भ हो चुका था। मंगल पांडे ,तात्या टोपे ,स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनका आर्य समाज ,स्वामी विवेकानंद और उनका पवित्र रामकृष्ण मिशन ,चाफेकर बंधू,शचीन्द्रनाथ सान्याल,बंकिमचन्द्र ,भारतेंदु हरिश्चंद्र जैसे अनेक हुतात्माओं के चिंतन में 'राष्ट्रवाद' समाया हुआ था। लेकिन जब अंग्रेजों द्वारा 'बंग भंग' आंदोलन जैसे क्षेत्रीय -भाषाई -मजहबी उन्माद पैदा किये गए  और 'फूट डालो राज करो' की कूट नीति अमल में लायी गयी तो परिणामस्वरूप मुस्लिम और हिन्दू एक दूसरे को संदेह से देखने लगे। साम्प्रदायिक प्रर्तिस्पर्धा अंगड़ाई लेने लगी। पंद्रह अगस्त -१९४७ से पूर्व ही इस धरती का भारतीय उपमहाद्वीप का सामाजिक ताना बाना उलझ गया। ईसवीं सन १८८५ से कांग्रेस की स्थापना के बाद स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व वास्तविक 'राष्ट्रवादी' था जो गंगा जमुनी तहज़ीब को पुष्ट करता हुआ आगे बढ़ रहा था। लेकिंन भारतीय भविष्य की नियति को शायद यह मंजूर न था। स्वतन्त्रता संग्रामके संघर्षको कमजोर करनेके लिए एवं कांग्रेसके तत्कालीन धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व को कमजोर करने के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने मुस्लिम लीग तथा आरएसएस जैसे साम्प्रदायिक संगठन पैदा करने में महती भूमिका अदा की!अंग्रेजों ने दलित,पिछड़े एवं तमिल भाषी अलगाववादी नेताओं को तथा देशी राजे रजवाड़ों को पूरी छूट दी थी कि जहाँ चाहो वहाँ शामिल हो जाओ !भारत निर्माण के इन गतिअवरोधकों की वजह से भारत विभाजन हुआ था। जो लोग स्वाधीनता संग्राम के संघर्षशील नेतत्व पर देश विभाजन का आरोप लगाते हैं ,उन्हें बहुत गलत जानकारी दी गयी है।

अतीत में मुस्लिम लीग ,हिन्दू महासभा,आरएसएस ,हिन्दू मुन्नानी ,सनातन सभा तथा आनंदमार्ग जैसे साम्प्रदायिक संगठन किसी धार्मिक या मजहबी आस्था के निमित्त नहीं बनाये गए ,अपितु वे भविष्य के प्रति 'अविश्वास' और भय की पैदाइश माने जा सकते हैं । यह कटुसत्य है कि 'डिवाइडेड एंड रूल' के तहत ही अंग्रेजों की प्रेरणा से ही ये साम्प्रदायिक संगठन हमेशा दंगा फसाद आयोजित करने में जुटे रहे। अंग्रेजी हुकूमत और उनके देशी पिठ्ठुओं द्वारा गुलामी के दिनोंमें किया गया साम्प्रदायिक बीजारोपण अब दक्षिण एशिया का स्थाई सिर दर्द बन गया है। उधर मुस्लिम कट्टरवाद की आग में पूरा पाकिस्तान धधक रहा है, इधर भारत में जहाँ -जहाँ साम्प्रदयिक तत्व संगठित हैं,वहाँ -वहाँ की जनता का अमन -चेन छिन गया है। पश्चिमी उत्तरप्रदेश ,बंगाल,हैदराबाद और कश्मीर में कटटर पंथी मुसलमान हिंसा पर उतारू हैं तो भाजपा शासित राज्योंमें जहाँ कटटरपंथी हिन्दू संगठन हैं वहां हिन्दू आक्रामक हो रहे हैं। गनीमत है कि फिर भी भारतराष्ट्र अपने संविधानके सारतत्व -धर्मनिरेपक्षता और लोकतान्त्रिक समाजवादी गणतंत्र की अवधारणा पर मजबूती से खड़ा है। यह पक्की बातहै कि भारतमें लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को डिगाने वाले खत्म हो जायेंगे। लेकिन भारत राष्ट्र की गंगा जमुनी संस्कृति अखंड ज्योति बनकर निरंतर जलती रहेगी। नस्लवाद और साम्प्रदायिकता की राह पर यह देश कभी नहीं चल सकेगा ।

'अंधराष्ट्रवादी' और साम्प्रदायिक संगठन के लोग अक्सर लेफ्ट को और धर्मनिरपेक्ष लोगो को 'देशद्रोही' बताते हैं।जबकि वामपंथी हमेशा ही सभी धर्मजाति और सम्प्रदायों से ऊपर उठकर सभी शोषितों के पक्ष में मजबूती से संघर्ष के लिए अडिग रहते हैं। वामपंथी दल और उनके समर्थक पूंजीवादी लोकतंत्र की चुनाव प्रक्रिया में भले ही पिछड़ जाया करते हैं ,किन्तु वे अपने एकजुट संघर्षों से वर्गीय एकता कायम करते हुए ,परोक्ष रूप से अपने राष्ट्र की एकता में योगदान भी करते हैं। जबकि वास्तव में जो अपने आपको 'देशभक्त' कहते हैं , वे नस्लवादी और साम्प्रदायिक लोग असल 'देशद्रोही' होते हैं! जो जितनी अधिक देशभक्ति दिखाने का नाटक करता है ,वह उतना ही अधिक'देशद्रोही' हुआ करता है। देश के नौजवानों को इन नकली देशभक्तों के झांसे में नहीं आना चाहिए।
  
द्वतीय विश्वयुद्ध उपरान्त ब्रिटिश जनता ने साम्राज्यवादी दक्षिणपंथी कंजरवेटिव पार्टी को हराकर वामपंथी लेबर पार्टी को सत्ता सौंप दी। चूँकि उन दिनों भारत का स्वाधीनता संग्राम चरम पर था ,कांग्रेस 'अहिंसा'के रास्ते संघर्ष कर रही थी। लोकमान्य तिलक,लाला लाजपत राय,सचीन्द्रनाथ सान्याल ,विपिन चन्द पाल ,मुजफ्फर अहमद, रामप्रसाद बिस्मिल,अशफाक उल्लाखां,भगतसिंह ,राजगुरु और चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों के नेतत्व में भारत के मजदूर -किसान संगठित होकर वोल्शेविक क्रांति की ओर बढ़ रहे थे। ब्रिटेन में जनता द्वारा विराट जनादेश मिलने पर नवनिर्वाचित लेबरपार्टी की सरकार ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को ही आजाद कर दिया। इस इलाके के जिन राजाओं ने ब्रिटेन से आजादी नहीं मांगी उन्हें भी ब्रिटश ऐटली सरकार ने आजाद कर दिया। किन्तु भारत में उस समय लार्डमाउंटवेटन वायसराय थे,वे महारानी एलिजावेथ के निकट रिस्तेदार थे ,इसलिए उन्होंने पुराने कंजरवेटिव एजेंडे के अनुसार भारत के तीन-चार टुकड़े कर दिए। भारत,पाकिस्तान,नेपाल,कश्मीर और सिक्कम को ही नहीं बल्कि उन्होंने ५६० देशी राजाओं को भी खुली छूट दे दी कि जहाँ चाहो रहो या आपस में लड़ते -मरते रहो। आजादी मिलने पर पूरे उपमहाद्वीप में अविस्वाश आधारित साम्प्रदायिकऔर जातीय संघर्ष छिड़ गया। कांग्रेस नेताओं और गाँधी जी से जितना बना उन्होंने हिंसा को रोका। लेकिन एक आस्तीन के सांप ने गाँधी जी को मार डाला। उसी हत्यारे के वंशज इन दिनों 'राष्ट्र्वादी' कहलाते हैं।

आजादी के बाद पाकिस्तान के मदरसों में बहावी धारा के इस्लामिक राष्ट्रवाद  का प्रचलन बढ़ने से शिया-सुन्नी झगड़े बढे और साथ ही भारत के विरुद्ध विषवमन भी बढ़ता गया। प्रतिक्रियास्वरूप भारत में भी 'हिन्दूराष्ट्रवाद' का गुणगान होने लगा। असल राष्ट्रवाद पीछे छूटता चला गया और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की जगह दोनों ही मुल्कों में हिटलर -मुसोलनी वाले 'राष्ट्रवाद' का गुणगान होने लगा है । १९७१ में जब 'सोवियतसंघ' के सहयोग से भारत ने पाकिस्तान के दो टुकड़े  करते हुए बांग्ला देश बनाया ,तब इस नस्लवादी राष्ट्रवाद की फसल परही इंदिराजी ने चुनाव जीत लिया था। उस युद्ध के बाद भारत और पाकिस्तान की जनता ने बड़ी शिद्दत से 'राष्ट्रवाद' का अनुभव किया है। आजादी के ७० साल बाद भारतीय उपमहाद्वीप  में बारूदी धुंआँ बढ़ता जा रहा है। लोकतंत्र,समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता हासिये पर जा चुके हैं। पाकिस्तान की हुकूमत तो  नाम मात्र की जम्हूरियत पर टिकी है। उधर इस्लामिक तत्ववादी -कट्टरपंथी आतंकवादी हावी हैं।भारत के शासन-प्रशासन पर भी अब 'अनुदार'हिदुत्ववादी काबिज हैं ! चूँकि पाकिस्तान आजादी के तुरन्त बाद से ही फौजी चंगुल में फंसगया था और पाकिस्तानी राष्ट्रवाद का जिम्मा आईएसआई एवम कठमुल्लों ने ले लिया । जबकि भारत में पंडित नेहरू ,शास्त्री और इंदिरा गाँधी ने  धर्मनिरपेक्षता को ही सींचा। इसीलिये भारत में पाकिस्तान के स्थाई कट्टरवाद-आतंकवाद की प्रतिक्रिया होना स्वभाविक था । हालाँकि भारत में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हैं और संविधान बहुत ताकतवर हैं किन्तु अशांत राष्ट्रके लिए चूनौतियाँ भी काम नहीं हैं। सबसे बड़ी चुनौती साम्प्रदयिक उन्माद जातीयतावाद और आतंकवाद हैं !

वीपी सिंह के दौर में जब मंडल-कमंडल की राजनीती का द्वंद प्रारम्भ हुआ तो उस द्वंद ने 'संघ परिवार' को ताकतवर बनाया, धीरे-धीरे यह 'हिंदुत्ववादी परिवार' सत्ता के नजदीक पहुँचने के काबिल होता चला गया। संघ परिवार ने 'विश्व हिन्दू' परिषद के मार्फ़त कई संतों ,महात्माओं ,महामण्डलेश्वरों ,शंकराचार्यों  स्वामियों, बाबाओं, बाबियों को प्रोजेक्ट किया। हिन्दू धर्म का एक सनातन  सद्गुण यह रहा है कि जब भी कोई शासक बदमाशी करता था तो ऋषि-मुनि या राजगुरु उन्हें सही राह दिखाते थे। आजकल का फैशन है कि प्राचीन उदाहरण तो मिथ  माने जाते हैं, किन्तु शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास ,पेशवाओं के गुरु रामशास्त्री के उदाहरण तो इतिहास के जीवन्त प्रमाण हैं, कि धर्मगुरु चाहें तो क्रूर शासक को भी न्याय पूर्ण शासन के लिए बाध्य कर सकते हैं।

अतीत के भारत ने बहुत धोखे खाये हैं। और चूँकि दूध का जला छाँछ भी फूंक -फूंक कर पीता है। इसलिए भारत में 'राष्ट्रवाद' की अनुगूंज स्वाभाविक है। लेकिन इस कूपमण्डूक 'राष्ट्रवाद' से श्रेष्ठ वह अन्तर्राष्टीयतावाद है जो हिन्दू धर्म के ग्रन्थों में बहुत पहले से ही उल्लेखित है कि 'वसुधैव कुटुम्बकम '!मार्क्स -एंगेल्स, लेनिन ने तो इसे धो-माँज कर वैश्विक ही किया है। यह बात अलहदा है कि पढ़े-लिखे लोग भी इस अन्तराष्टीयतावाद को समझ नहीं पाए हैं।
भारत में वीएचपी के बंधु -बांधवों ने राष्ट्रवाद का यह 'पवित्र' कार्य शायद  पाकिस्तानी,ईरानी कठमुल्लों से सीखा है। इसीलिये आधुनिक कथा वाचक 'संत' लोग  कीर्तन करते हुए 'राष्ट्रवाद' पर भी प्रवचन देने लगेहैं । श्री,श्री,योग गुरु स्वामी रामदेव  सन्त आसाराम,और अन्य अधिकान्स मठाधीश इस महायान,के हीनयान में जुटे हैं।जबसे इन  महान गुरु घंटालों ने 'देशभक्ति' का मोर्चा संभाला है, तबसे भारत में रायसीना हिल से लेकर झुमरी तलैय्या तक 'राष्ट्रवाद'का उद्घोष सुनाई पड़ रहा है। और दिल्ली सल्तनत पर अब 'रामभक्त'विराजित हैं !जय राम जी की !

वेशक प्रगतिशील और धर्मनिपेक्ष लोग भीकिसी से कम देशभक्त नही हैं ,किन्तु उनकी राष्ट्रवादी परिभाषा में देश के साथ साथ गरीब 'इंसान'की चिंता महत्वपूर्ण है। जबकि दक्षिणपंथी संगठनों के तेवर कुछ इस तरह के हैं कि वे गाय ढोरोंके मरने को भी 'राष्ट्रवाद'से जोड़ दिया करते हैं। यदि किसीने अफवाह उड़ादी कि अमुक के पास 'बीफ' है तो 'अंध राष्ट्रवाद' की बिजलियाँ किसी बेगुनाह 'अखलाख' पर गिरना अवश्यम्भावी है।इस अंधराष्ट्रवाद के उभार में सिर्फ आरएसएस या 'हिंदुत्ववादियों 'का ही हाथ नहीं है बल्कि इसमें पाकिस्तान,आईएसआईएस की भी बहुत बड़ी भूमिका है। इसके अलावा भारत में भी आस्तीन के सांप पल रहे हैं। उन सपोलों का भी 'हिंदुत्ववाद'को और अंधराष्ट्रवाद को हरा करने में बड़ा हाथ है। भारत में ऐंसे लोग बहुत हैं जो  इस थाली में खाते हैं और इसी में छेद भी करते हैं। इन दोनों दक्षिण पंथी धड़ों के द्वंद में भारत पीस रहा है। हरेक प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति का यह दायित्व है कि किसी एक साम्प्रदाय का पक्षधर न बने और  इस द्वंद का हिस्सा भी न बने। बल्कि सही राह बताये। यह तभी सम्भव है जब अतीत का सही अध्यन हो और वैज्ञानिक दृष्टि से 'राष्ट्र' को देखने समझने का विजन हो।

इन दिनों अखवारों ,टेलीविजन और सोशल मीडिया की भाषा में राष्ट्रवाद,देशद्रोह ,गद्दार ,राष्ट्रस्वाभिमान और विदेशी जैसे शब्दों का काफी चलन है। यह अचानक या अप्रत्याशित नहीं है। बल्कि बाकई आजादी के ७० साल बाद भी भारत की सीमाएं कहीं से भी सुरक्षित नहीं हैं। दुनिया की चौथी सबसे बड़ी सैन्य शक्ति होते हुए भी भारत अंदर -बाहर दोनों ओर से असुरक्षित है। अचरज की बात यह है कि  जिन कारणों से यह  प्राचीन राष्ट्र बार-बार गुलाम हुआ वे कारण आज भी यथावत हैं.इन कारणों की ऐतिहासिक पड़ताल पड़ताल किये जाने की जरूरत है।यदि उन कारणों का निदान किया जाए तो 'भारत राष्ट्र' और उसकी जनताको साम्प्रदायिकता से, जातिवाद से और आसन्न गुलामी के भय से मुक्त किया जा सकता है।मेरे इस आलेख की विषयवस्तु का मुख्य उद्देश्य यही है।

पुरातत्व और इतिहास का साङ्गोपाङ्ग अध्यन करने पर हम पाते हैं कि ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से ही भारतीय उपमहाद्वीप में 'राष्ट्रों' के मानचित्र बनते-बिगड़ते रहे हैं। वैसे तो इस उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिम में सांस्कृतिक , सामाजिक रूप से समृद्ध और सैन्य शक्ति के रूप में सबसे ताकतवर 'आर्य' लोगों ने बहुत आध्यात्मिक उन्नति कर ली थी। उन्होंने अपने वैदिक मन्त्रदृष्टा ऋषियों के श्रीमुख से अहिंसा,अस्तेय,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की महिमा सुन रखी थी,वेदों ,उपनिषदों और आरण्यकों में इसका उल्लेख बार-बार आया है ,किन्तु कालांतर में जब उन्हें गलत फहमी हुई कि दुनिया सिर्फ उतनी है है जितनी उनके शास्त्रों में बतायी गयी है तो वे बाह्य आक्रमणों के प्रति लापरवाह होते चले गए और 'अहिंसा परमोधर्म' इस  भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे लोकप्रिय मन्त्र हो गया।जब राजा-प्रजा सब केसब यहाँ 'बुद्धम शरणम गच्छामि'उच्चरित कर रहे थे तब पश्चिम एशिया और अरब कबीले आपस की लड़ाई खत्म कर इस महाद्वीप पर चढ़ दौड़े।

साम्राज्य्वादी ताकतों ने १५ अगस्त १९४७ से पहले ही भारतीय उपमहाद्वीप का भविष्य लिख दिया था।विभाजन से बहुत पहलेही इस उपमहाद्वीप का अधिकांस इतिहास लेखन यूरोपियन साहित्यकारों और अंग्रेज 'प्रभु' वर्ग के कर कमलों द्वारा  होता रहा है। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और पोप के नुमाइंदों ने इस बात का पूरा ख्याल रखा कि इस गुलाम धरती की संस्कृति,सभ्यता,भाषा और एकता को कहीं से भी आक्सीजन न मिल पाये। प्रथम विश्व युध्द के बाद ,आजादी मिलने के पूर्व  मुहम्मद अली जिन्ना ने जब 'दो राष्ट्र' का सिद्धान्त पेश किया,तब 'अविभाजित इंडिया' के इतिहास लेखन में  हिन्दू-मुस्लिम धड़ेबंदी शुरू हो चुकी थी। चूँकि अंग्रेजों से पहले भारत के अधिकांस सूबों की राजभाषा फ़ारसी  हुआ करती थी,इसलिए अधिकांस इतिहास और साहित्य लेखन भी साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ता गया।चूँकि संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं में इतिहास लेखन की कोई परम्परा नहीं थी,इन भाषाओँ में जो कुछ लिखा जाता रहा वह या तो राजाओं-सामन्तों की चमचागिरी थी या विशुद्ध आध्यात्मिक दर्शन ही था।इस भक्ति काव्य और लालित्यपूर्ण लेखन में कुछ धीरोदात्त चरित्र के नायक-नायिकाओं को 'भगवान्' होने का गौरव भी प्राप्त हुआ। लेकिन शोषण -दमन के प्रतिकार का,विदेशी हमलों से निपटने का कोई चिंतन मनन नहीं था।

केवल साम्यवाद ही भारत को एकजुट रख सकता है।

कुछ बदमाश लेखक इतिहासकार सिर्फ अंग्रेजों की गुलामी को ही भारतीय गुलामी मानते हैं ,वे मुहम्मद बिन कासिम,गजनी,गौरी,बाबर ,दुर्रानी,अब्दाली,मालिक काफूर,चंगेज खान ,हलाकू,तैमूर लंग इत्यादि लुटेरे-हत्यारे जंगखोरों को विदेशी नहीं मानते। कुछ लोगों ने प्रगतिशीलता के नाम पर इतना अंधेर मचा रखा है कि वे 'सत्य' को भी कंजरवेटिव और पोंगापंथ मानने लगे हैं। जिन्हें इस्लामिक कबीलों का बर्बर आक्रमण देशभक्तिपूर्ण जचता है वास्तव में यह इतिहास उन्हें सपने में डराता है। वेशक आरएसएस वाले और हिंदुत्ववादी लोग भी गलत धारणा लिए हुए हैं कि उनके मार्ग के गतिअवरोधक -इस्लाम,ईसाई और कम्युनिस्ट है। किन्तु वे आत्मालोचना के लिए जरा भी तैयार नहीं हैं। वे यह नहीं जानना चाहते कि  संस्कृत वांग्मय में और अन्य भाषाओँ के पौराणिक लेखन में आम जनता को केवल 'दासत्व' बोध ही सिखाया जाता रहा है।और 'मुहम्मद बिन कासिम' मारकाट मचाता हुआ -लूटपाट करता हुआ जब सिंध -गुजरात को मसलकर सोमनाथ मंदिर ध्वस्त कर रहा था,तब भारत में 'अहिंसा परमोधर्म:' का उद्घोष कौन कर रहा था ?

हिंदुत्वादी और धर्मनिरपेक्ष  दोनों ही तरफ के इतिहासकर यह भूल जाते हैं कि जब सम्राट हर्षवर्धन बौद्ध भिक्षु हो गया ,जब उसका सम्राज्य  खण्ड -खण्ड  हो गया ,जब भारतीय महाद्वीप पूरी तरह असुरक्षित हो गया तब किसी विदेशी खूँखार दरिंदे के लिए ,किसी बर्बर कबीलों के लिए यह देश चरागाह क्यों नहीं बन गया होगा ? भारत में 'गुलाम' शब्द के आगमन का असल इतिहास यही है। लेकिंन जब कोई इतिहासकार इस सच को छुपाकर  विदेशी हमलावरों की डायरी के पन्नों को उद्धृत करते हुए कुछ मनघडंत कहानी पेश करता है तब उस बेईमानी का पर्दाफास किया जाना जरुरी है। इसी तरह जब कोई पोंगा पंडित धर्म ग्रन्थों को इतिहास बताता है तब देख सुनकर बड़ी कोफ़्त होती है।

हिंदुत्ववादी इतिहासकार रामायण -महाभारत के नजरिये से इतिहास लिखने बैठता है तो वह भी घोर अनर्थ कर बैठता है।हिंदुत्ववादी इतिहासकार यदि लिखता है कि भगवान श्रीराम अपने पिता की आज्ञा पालन करते हुए १४ साल वन में रहे। उनकी पत्नी का पंचवटी में हरण हुआ। उन्होंने वानरों की मदद से लंका पर आक्रमण किया और सपत्नीक वापिस अयोध्या लौटे। कोई माने या न माने किन्तु इसमें कुछभी मिथ नहीं है. यह विशुद्ध इतिहास है।लेकिन जब कोई  'हिंदुत्ववादी' इतिहासकार लिखता है कि श्रीराम ने  अपने बाण से समुद्र को  झुलस दिया ,उनके नामलिखे  पत्थर तैरने लगे ,उन्होंने अहिल्या की पाषाण प्रतिमा पर पैर रखा तो वह अनिन्द्य सुंदरी प्रकट होकर उनकी स्तुति करने लगी, भगवान् श्रीराम ने दस हजार सालतक अयोध्या पर राज किया इत्यादि इत्यादि, तब यह इतिहास नहीं बल्कि आस्था बोल रही होती है। प्रगतिशील इतिहासकारों-लेखकों का यह दायित्व था कि वे इस गलत -सलत इतिहास को दुरुस्त करते। किन्तु उन्होंने इस लेखन को दुरुस्त करने के बजाय उसका उपहास किया और स्याह अतीत के फ़ारसी और धूर्त अंग्रेजी लेखकों का ही अनुकरण किया।हालाँकि उनका मन्तव्य गलत नहीं था, उन्होंने सामाजिक-समरसता-एकता के निमित्त यह सिद्धांत लिया था। किन्तु वैज्ञानिक अन्वेषण और साक्ष्य-सम्मत यथार्थ इतिहास को नजरअंदाज कर वे घूम फिरकर उन्ही दो सन्देहास्पद 'साक्ष्यों' के आश्रित होते चले गए जो विदेशी बर्बर हमलावरों -विजेताओं ने पूर्व में प्रस्तुत किये हैं।अधिकांस वामपंथी साथी अभी भी उस कड़वे सच का सामना करने को तैयार नहीं है। वे अभी भी अंग्रेजी,फ़ारसी और उर्दू में लिखे गए मध्ययुगीन इतिहास पर यकीन करते हैं.वे संस्कृत ,पाली,अपभ्रंस साहित्य को पढ़ने की जरूरत ही नहीं समझते। इसी तरह कट्टर हिंदुत्ववादी लेखक और इस्लामिक विद्वान भी आत्मालोचना करने को तैयार नहीं हैं। वे एक दूसरे की खामियों ढूंढने में जिंदगी गुजार देंगे, किन्तु एक दूजे के सद्गुणों पर गौर फरमाने को तैयार नहीं हैं।

रामचन्द्र गुहा ,रोमिला थापर,प्रोफेसर इरफ़ान हबीब जैसे वामपंथी इतिहासकारों को भारतीय संस्कृत वांग्मय के बारे में शायद समुचित ज्ञान नहीं रहा होगा,उन्होंने  बाबरनामा ,अकबरनामा जहांगीरनामा,आइन -ए -अकबरी के लेखन को आधार बनाया अथवा अंग्रेज ,जर्मन, चीनी ,मध्य एशियाई  यायावर लेखकों को ऐतिहासिक साक्ष्य मान लिया। उन लोगों ने क्या गलत लिखा है यह पड़ताल करने की कोशिश नहीं की। इसी तरह कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी भी आत्मालोचना के लिए तैयार नहीं हैं। खैर कट्टरपंथी हिन्दू-मुस्लिम ,सिख -ईसाई तो आस्था या श्रद्धा के वशीभूत हैं ,किन्तु  प्रगतिशीलऔर वामपंथी भी केवल वही गलत-सलत खटराग क्यों बजाये जा रहे हैं ?जो अंग्रेजों या अन्य विदेशी हमलावरों ने भारत के बारे में फरमाया है।अभी तक तो सभी अपनी-अपनी सोच के अनुरूप ही इतिहास लेखन करते आये हैं।असल इतिहास लिखा जाना बाकी है। और वह तब तक नहीं लिखा जासकता जब तक उसे धर्म-मजहब के नजरिये से मुक्त नहीं किया जाता ।

यद्द्पि वैज्ञानिक साम्यवाद और कार्ल मार्क्स की शिक्षाओं पर मुझे कोई सन्देह नहीं है। किन्तु भारतकी जटिलतम समाज व्यवस्था के मद्देनजर ,कभी -कभी मेरे मन में एक मुश्किल सवाल उठता है। प्रश्न यह है कि जिन देशों की पुरातन सांस्कृतिक विरासत एक है ,राष्टीयता एक है,धर्म -मजहब एक है,जाति भी कमोवेश एक ही है, भाषा एक है,जब उन देशों में क्रांति के लिए 'वर्ग संघर्ष' सफल नहीं हो पाया,तो भारत जैसे बहुसांस्कृतिक,बहुभाषाई,बहुधर्मी
बहुजातीय,बहुमजहबी और क्षेत्रीय 'बहुलतावादी' समाज में किसी एकनिष्ठ क्रांति की सम्भावनाऐं कितनी हैं ?यहाँ आशाकी एकमात्र किरण यही है कि भारतका विखण्डित 'सर्वहारावर्ग' अपने बीच मौजूद तमाम वर्गभेदों से ऊपर उठकर एकजुट हो जाए। शोषित-पीड़ित जनता, 'मजदूर-किसान,छात्र- युवावर्ग 'में व्यापक एकता कायम हो और एक संगठित  'शोषित वर्ग' की नई पृथक पहचान स्थापित हो। यदि यह संगठित जनशक्ति अपने 'शोषक वर्ग' के विरुद्ध  'वर्ग संघर्ष' का शँखनाद कर दे,तो इस अर्धसामंती-अर्धपूँजीवादी भृष्ट सिस्टम से भारत को भी मुक्ति मिल सकतीहै। अन्यथा जातीय,धर्म-मजहब,खाप,क्षेत्र,भाषा,सामाजिक-सांस्कृतिक अलगाव की क्रूर जंजीरों में बँधा यह शोषित पीड़ित भारतीय समाज रहती दुनिया तक शोषण का शिकार होता रहेगा ।

मुझे नहीं मालूम कि मानव सभ्यता के विकास क्रम की किस मंजिल पर भारत में वर्ण व्यवस्था कायम हुई और वह जातीयता में कब कैसे रूपांतरित होती चली गई ? अब इन प्रश्नों के उत्तर उतने महत्वपूर्ण नहीं ,जितना यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि इस जातीय विभाजन का सर्वमान्य हल क्या हो ?वर्णाश्रम धर्म, वर्ण व्यवस्था के उदभव एवम विकास क्रम में उसका उल्लेख तो भारतीय संस्कृत वाङ्ग्मय में  मिलता है किन्तु तत्सम्बन्धी सामाजिक दुराव या विभाजन उतना उन्मादी नहीं था,जितना भारत में विदेशी हमलों के बाद हो गया और अब इस दौर में हिंसक तथा उन्मादी हो चला है। अपने उद्भवकाल में  वर्णाश्रम व्यवस्था विकास क्रम की आवश्यकता के अनुरूप सभी को सहज स्वीकार्य थी ,किन्तु जब बाहरी बर्बर कबीलाई समाजके भारत पर आक्रमण हुए तब उन हिंसक विजेताओं ने  जानबूझकर आर्य बनाम स्थानीय आदिम जनजातियों और द्रविड़ सभ्यता के महीन भेद को बिकराल रूप देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।

उपमहाद्वीपीय सभ्यता के उत्थान-पतनके उपलब्ध अवशेष इंगित करते हैं कि आर्य बनाम आदिवासी और आर्य बनाम और द्रविड़ सभ्यता के आपसी द्वंद से इस धरती की नैसर्गिक सभ्यता का उत्थान-पतन होता रहा है।लेकिन बाह्य आक्रमण कारियों ने इस द्वंद की आगको हवा देकर जो गुनाह किया वह कुदरती झंझावतों से ज्यादा दुखद और भयावह रहा है। विदेशी हमलों और प्राकृतिक दुर्घटनाओं ने मिलकर भारतीय सभ्यता - संस्कृति के विकास मार्ग को सतत अवरुद्ध किया है। विकासक्रम में जो कुछ भी सामाजिक विभाजन हुआ उसमें आर्य बनाम 'अनार्य' के द्वंद ने भी खासी भूमिका अदा की है। धुर दक्षिण और धुरउत्तर भारत अवश्य अपनी नैसर्गिक सभ्यता-संस्कृति के केंद्र बने रहे ,किन्तु 'आर्य' सभ्यता के और अन्य सभ्यताओं के भारत आगमन के बाद उपमहाद्वीप के हर कोने में सामाजिक बदलाव दरपेश हुए। भारतीय क्षत्रिय वर्ण के सामन्तों के आपसी वैमनस्य से बाह्य हमले सफल हुए। क्षत्रियों के राजनैतिक पतन के बाद आर्य ऋषियों ने शक,हूणों,कुषाणों,तोर्माणों  के वंशजों को 'राजपुत्र' मानकर तत्कालीन नई सामाजिक मांगके अनुरूप एक नई जातीय,सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्था की संरचना को पुनः आकार दिया। तदुपरान्त नए वर्ण जातीय समाज ने और भौगोलिक क्षेत्रीय भाषाई विभाजन ने जम्बुदीपे भरतख्ण्डे में सैकड़ों जातियों और 'राष्ट्रों'की नींव डाली।

भारत में वैदिक -सनातनी वर्णव्यवस्था लगभग १० हजार साल से चली आ रही है। महाभारत और रामायण काल से भी हजारों साल पूर्व अयोध्या के राजा 'हरिश्चन्द्र' की ख्याति सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में चर्चित रही है। कहा जाता है कि विश्वामित्र ने उन्हें 'सत्य की परीक्षा'के बहाने दर -दर की ठोकरें खानेपर मजबूर किया और अनैतिक तरीके से हरिश्चंद्र का राज्य छीन लिया गया। उनकी पत्नी तारामती और पुत्र रोहित दास बना लिए गए थे। हरिश्चंद्र के वृतांत में तीन बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं। एक तो यह कि तत्कालीन समाज में दासप्रथा थी और आम आदमी से लेकर 'राजा रानी ' भी खरीदे -बेचे जाते रहे। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि तब  जाति प्रथा तो थी किन्तु कोई भी काम निम्न नहीं था। तीसरी बात यह कि राज्य,स्त्री,पुत्र और खुद की जान से भी ज्यादा कीमती चीज कोई और थी। जिसका नाम 'सत्य' हुआ करता था। जो इस सत्यवादी विचारधारा के थे वे 'आर्य'कहलाये और जो इस सत्य की विचारधारा को नही मानते थे वे 'अनार्य' कहलाये। तत्कालीन जातीय समाज मेंआर्थिक केमेस्ट्री कुछ ऐंसी थी कि एक 'डोम' की  कृयशक्ति भी इतनी थी कि वह 'चक्रवर्ती सम्राट'को खरीदकर अपना गुलाम बना सकता था।

हरिश्चंद्र की कहानी 'मिथ' हो या इतिहास दोनोंही रूपसे यह सत्यापित किया जा सकताहै कि पुरातन वैदिक अथवा आर्य समाजमें जाति व्यवस्था थी। किन्तु  छुआछूत अथवा आर्थिक असमानता केवल सतह पर ही थी। यदि कोई कहे कि हरिश्चंद्र कथा तो 'मिथ' है ,तो इसका जबाब यह है कि तब तो काशी के 'डोमराजा'भी मिथ हैं। जो आज भी अपनी विरासत कोसंभाले हुए हैं। यदि काशी के वर्तमान डोमराजा एक सच्चाई हैं, तो हरिश्चंद्र भी एक ऐतिहासिक सच्चाई हैं। वेशक पौराणिक कथाओंको रोचक बनाने के लिए कुछ नाटकीयता,कुछ साहित्यिक किस्म की मशक्कत की जाती रही है। किन्तु भूसे का ढेर ही सही हरेक धर्म-मजहब के पुरातन वांग्मय में कोई न कोई मणिरत्न मिल ही जाता है। इस सकारात्मक सोच के अनुसार भारतीय संस्कृत वांग्मय ,पाली साहित्य और अपभृन्स का कोई भी शब्द बेकार नहीं है।न केवल भारत अथवा वैदिक वांग्मय के बरक्स बल्कि इस संसार के बरक्स कोई भी कल्पित वस्तु अथवा विचार सापेक्ष रूप से 'असत्य' नहीं हो सकता। क्योंकि हर देश ,हर कौम और हर सभ्यता का वर्तमान स्वरूप और अस्तित्व अतीत के सत्य का ही निरूपण है। ब्रह्मांड में हर उस चीज का अस्तित्व है ,जिसकी कल्पना विवेकशील मनुष्य द्वारा की गई है !जिस विचार ,वस्तु अथवा गुण को मानव बुद्धि ने अभी तक ग्रहण नहीं किया और यदि उसका अस्तित्व है तो वह भी मानव स्मृति और विवेक की मुखापेक्षी है !  

मेरा जिनियस - ज़र्नलिस्ट बेटा डॉ प्रवीण तिवारी एक दिन अचानक दिल्ली से इंदौर आया। वह मुझसे और अपनी माँ से मिला। माता-पिता से मिलकर वह 'कुछ देर में आता हूँ' कहकर,कुंवर पुष्पेन्द्रसिंह के साथ किसी कार्यक्रम में शामिल होने चला गया। दो -तीन घण्टे बाद वह घर वापिस आया और आनन-फानन दिल्ली लौट गया। उसके दिल्ली जाने के दूसरे रोज स्थानीय अखवारों में पढ़ा और फेस बुक पर भी देखा कि मेरे सुपुत्र डॉ प्रवीण तिवारी को 'सर्व ब्राह्मण समाज 'ने  सम्मानित किया है। तत्सम्बन्धी खबरें और तद्विषयक स्मृति चिन्ह - प्रमाणपत्र इत्यादि पढ़ सुनकर अत्यंत सुखानुभूति हुई। बेटे की प्रसिद्धि पर गौरवान्वित होने का नसीब हर किसी को नहीं मिलता। चूँकि मेरा बेटा काबिल है ,विद्वान है ,मिलनसार है ,बेहतरीन मीडिया पर्सनालिटी है ,इसलिए उसे सम्मान मिलना कोई अचरज की बात नहीं। लेकिन मुझे इस सात्विक ख़ुशी में भी एक फांस सी चुभ गयी। मन में सवाल उठा कि काबिलियत का मान केवल जात -समाज विशेष तक ही सीमित क्यों है ?

इस दौर में परिपाटी सी बन गई है कि हर समाज-जाति वर्ण को केवल अपने ही विकास की फ़िक्र है। अधिकांस जातीय और मजहबी समाज,इस इक्कीसवीं शताब्दी में भी,उस सामन्तकालीन कबीलाई मानसिकता से ग्रस्त हैं, जिसमें सिर्फ अपने'कबीले' की हिफाजत का मकसद हुआ करता था। गनीमत है कि हमारे प्रतिभाशाली बेटे को 'सर्व ब्राह्मण समाज'ने सम्मानित किया है। वरना दयनीय स्थिति यह है कि ब्राह्मणों में भी सैकड़ों विभाजन हैं। यदि कोई विशेष धड़ा यह आयोजन करता है तो बहुत कोफ़्त होती । भारत में जातीय विभाजन का नासूर केवल निम्न-उच्च -सवर्ण ,दलित,पिछड़े तक ही सीमित नहीं है बल्कि बंगाली, तमिल, मलयाली,नंबूदिरी चितपावन ,कोंकणस्थ राजस्थानी,कश्मीरी पहाड़ी और मैथिल जैसे स्थानिक विभाजन भी हैं। यह भेद तो स्वाभाविक और वास्तविक है किन्तु सरयूपारीण ,कान्यकुब्ज,जिजौतिया,सनाढ्य का विभाजन और पहले से ही तीन-तेरह ,और नौ ग्यारह के भेद हैं।  कुल,गोत्र,बिस्वा बैक ,पठा इत्यादि का विभाजन अलग से है। अग्रवाल समाज,जैन समाज ,सिख समाज, ब्राह्मण समाज ,क्षत्रिय समाज,के लोग सिर्फ अपने ही समाज के लिए ही फिक्रमंद रहा करते हैं। इसलिए तो सभी समाजों के अपने-अपने पृथक संगठन हैं।

काश इसी तरह सर्व भारत समाज का भी कोई संगठन होता !और उसके द्वारा  मेरे बेटे का सम्मान होता तब मुझे वास्तविक ख़ुशी मिलती,न केवल मेरे बेटे का सम्मान, बल्कि हर जाति -वर्ण के काबिल युवाओं का  सम्मान होता!जो देश और कौम के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखता है ! काश ऐंसा ही होता ! भारत में 'वर्ग संघर्ष' की राह का सबसे घातक गत्यावरोध है।

इस दौरमें यह एक परिपाटी सी बन चुकी है कि हर समाज और जाति वालों को केवल अपनेही सजातीय योग्य प्रतिभाओं के सम्मान की फ़िक्र है। पचास साठ साल पहले भारत में इतना जातीय विग्रह अथवा जातीय मनमुटाव नहीं था।  बचपन की अनेक खट्टी-मीठी ,देशज गाँव गँवारू यादों से लेकर उच्चतर सांस्कृतिक ,सामाजिक और लोक व्यवहार की अनेक घटनायें और स्मृतियाँ मेरे मानस पटल पर अब भी ताजा हैं। मेरे पिता पंडित तुलसीराम तिवारी एक  शुध्द सात्विक सनातनी विद्वान ब्राह्मण थे।लेकिन गाँव के उम्रदराज आदिवासी 'कुदऊँसौंर' [रावत]को सम्मान से दाऊ कहकर बुलाते थे। मेरे नाना जी मेरे जन्म से  पहले ही स्वर्ग सिधार चुके थे.जब कभी किसी बाल सखा के नाना गाँव आते तो  मुझे भी लगता कि काश मेरे भी नाना होते !अतः एक अदद नाना की तलाश में मैंने बचपन में ही नाते-रिस्ते जोड़ना सीख लिया। गाँव के एक लोधी ठाकुर नरसिंहपुरमें नौकरी करते थे ,उनका कोई लड़का नहीं था। उनकी इकलौती बेटी मेरी माँ को जीजी कहती थी ,इस नाते हम उन्हें मौसी कहने लगे और जब उनके पिता गाँव आते तो मैं 'नाना आ गए -नाना आ गए ' कहकर उनके पैर छू लेता। मेरे बुजुर्ग दत्तक नाना मुझे गोद में उठाकर प्यार से डांटते कि आप हमारे पैर मत पड़ा करो। जब मैं सवाल करता कि क्यों सब बच्चेतो अपने नाना के पैर पड़ते हैं तो वे कहते की वो तो ठीक है किन्तु आप महाराज [ब्राह्मण] हो ,और मैं लोधी ,मुझे पाप लगेगा। इसलिए मैं आपके पैर पडूंगा। मेरे ये दत्तक 'नाना ' बहुत साल जिए और मेरी माँ को अपनी बेटी से ज्यादा मानते थे। कहने का तातपर्य यह है कि हिन्दू समाज के बिखंडन का कारण भारतीय जातीय व्यवस्था या वर्णाश्रम परम्परा कदापि नहीं है। बल्कि  भारतीय समाज को बांटने और स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई को भौंथरा करने की अंग्रेजी चला थी। जो लोग अंग्रेजों के जाल में उलझे उन्होंने ने 'ब्राह्मणवाद' और 'मनुवाद'का काल्पनिक मिथ रच डाला। काश आजादी के बाद भारत में जातीय उन्माद और साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने के बजाय चीन जैसी 'साम्यवादी' क्रांति का सूत्रपात हो जाता ,तब यह जातीय बिखंडन और साम्प्रदायिक उन्माद इतना वीभत्स न होता।  चीन में सैकड़ों क्षेत्रीयताएँ और हजारों जातियाँ होने के बाद भी सभी 'चीनी'ही हैं। भारतमें दलित हैं,पिछड़े हैं ,अगड़े हैं ,हिन्दू हैं ,मुसलमान हैं ,सिख हैं ,ईसाई -पारसी हैं ,क्रश्चियन हैं ,किन्तु भारतीय बहुत कम हैं।
काश यह सब न होकर चीन जैसा समाज भारत का भी होता।

सांस्कृतिक परम्परा के सौजन्य से मुझे  में दो चीजें बचपन में ही मिल गईं थीं। स्क़ूल में दाखिल होने से पहले ही मुझे भली भाँति मालूम हो गया कि गरीबी,अभाव और जातिवाद क्या बला है ? इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण चीज मुझे विरासत में मिली कि स्कूल जाने से पहले मुझे रामचरितमानस,गीता, आल्हा,गरुड़पुराण ,भागवतपुराण का अधिकांस भाग कण्ठस्थ हो चुका था। हनुमान चालीसा,बजरंगबाण इत्यादि तो लगता है कि माँ के पेट में ही याद हो गए थे। स्कूल जाने से पहले ही मुझे कबीर,तुलसी,रैदास,मलूकदास और रहीम के सैकड़ों दोहे याद थे। सवैये,कवित्त ,मत्तगयन्द छंद,लोकगीत ,राई ,ख्याल' और भजन मुझे खूब याद थे।

स्कूल में जब कभी हिंदी या संस्कृत के शिक्षक महोदय पाठ्यपुस्तक हाथ में लेकर हमें स्कूल में पढ़ाते ,तब मैं अपनी इस अतिरिक्त योग्यता से फूला न समाता। कक्षामें अक्सर अनुशासन भंग करते हुए बीच-बीच  में टोका टाकी करते हुए अक्सर कहता था कि मासाब ! 'आगे की लाइन मैं बताऊँ!' चूँकि उस दौर के मासाब 'शिक्षक]अंग्रेजों के ज़माने में भर्ती हुए थे इसलिए वे शिक्षक कम 'तानाशाह' ज्यादा हुआ करते थे। लेकिन उनकी वह तानशाही उस दौर के छात्रों के लिए वरदान सावित हुई कि कहावत चल पढ़ी थी -तनिक पढ़े तो हर से गए ,अधिक पढ़े तो घर से गए '!

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