यूपी चुनाव जीतने के दुसरे दिन ही लखनऊ में स्वामी रामदेव ने यूपी के नए नवेले मुख्यमंत्री 'योगी आदित्यनाथ' के साथ मंच साझा किया। योगी जी ने इस अवसर पर कहा कि 'सूर्य नमस्कार' और 'नमाज' की शारीरिक मानसिक क्रियाएं लगभग एक जैसी ही हैं । उन्होंने और ज्यादा कुछ नहीं बोला । लेकिन स्वामी रामदेव ने अपने 'योगबल' के आवेश में आकर न केवल यूपी बल्कि सारे 'अखण्ड भारत' में 'रामराज्य' का ऐलान भी कर दिया है। उन्होंने हर्षातिरेक में आकर आगामी २१ जून-२०१७ के योग कार्यक्रमों का एजेंडा प्रस्तुत किया। तदनुसार वे 'रामराज्य' की चर्चा यों कर रहे थे तो मानों अपने 'पंतजलि- साम्राज्य' का ही प्रचार कर रहे हों! यह तो वक्त ही बतायेगा कि आइंदा 'रामराज्य' आएगा या 'माहिष्मती साम्राज्य' के उस 'बाहुबली' जैसा हश्र होगा,जिसे उसके ही वफादार सेवक 'कटप्पा' ने धोखे से मार दिया था । बहरहाल इस तरह के मंचों के आयोजन से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की दिनों दिन बढ़ती जाती व्यक्तिगत ख्याति और उनकी संविधानेतर पलटन के तेवरों से मोदीजी को नयी चुनौती तैयार हो रही है। इससे वे लोग ज्यादा शशँकित हैं जो धर्मनिरपेक्ष हैं। इसके अलावा 'एंटी रोमियो स्काड' और बूचड़खाने नियंत्रित करने के बहाने यूपी के रोजनदारी मजदूर-कर्मचारी,छोटे कारोबारी,सीमान्त किसान,दलित और अल्पसंख्यक का जीवन संकट में आ चुका है। वे लोग भी चिंतित हैं जो किसी तरह का साम्प्रदायिक फसाद नहीं चाहते !
भाजपा के चुनावी एजेंडे में अथवा 'संघ नेतत्व' के जेहन में 'रामराज्य' की आकांक्षा कोई नयी बात नहीं है। आजादी से पूर्व 'हिन्दू महासभा'और 'संघपरिवार' ने आजादी के उपरान्त अपने इन्ही उद्देश्यों के निमित्त 'जनसंघ' का निर्माण किया था। जिसके सिद्धांतों में 'हिन्दू अस्मिता' और 'रामराज्य' को प्रमुखता से तस्दीक किया जाता रहा है। ई.सन १९८० के मुम्बई स्थापना अधिवेशन में 'भाजपा'ने अपने घोषणापत्र में 'गांधीवादी समाजवाद' का बहुत गुणगान किया। रामराज्य को गांधीवादी रास्ते से लाने का संकल्प भी लिया गया। गाहे बगाहे उसका प्रचार प्रसार भी किया जाता रहा है। गलतफहमी या बदकिस्मती से उनके इस रामराज्य अभियान को अल्पसंख्यकों ने अपने खिलाफ मान लिया। परिणामस्वरूप उन्होंने अपनी सुरक्षाके लिए धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की चुनावी राजनीति में साम्प्रदायिक ध्रुबीकरण करते हुए 'टेक्टिकल वोटिंग' का खतरनाक रास्ता चुना । धर्मनिरपेक्ष पूँजीवादी दलों और अल्पसंख्यक नेताओं ने इस वर्ग का खूब भयादोहन किया। इमाम बुखारी से लेकर लालू,मुलायम, माया ,ममता और कांग्रेस ने भी इसे सालों तक खूब भुनाया है । चूँकि हिन्दू समाज तो जातियों और भाषाई खेमों में बुरी तरह बँटा हुआ है,इसलिए जब गैरभाजपा राजनीतिक शक्तियोंने ने दलित -अल्पसंख्यक एवम पिछड़े वर्ग को एकजुट कर नकली धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की खिचड़ी पकाई, तो बहुसंख्यक वर्ग के साम्प्रदायिक नुमाइंदों को सत्ता में आने का मौका मिल गया। मंडल आयोग की रिपोर्ट का अमल यदि क्रिया था तो 'कमण्डलवाद' उसकी प्रतिक्रिया रहा और कमण्डल की प्रतिक्रिया स्वरूप संघ का 'कमलदल' अब शिद्दत से खिल रहा है !लेकिन रामलला अभी भी बेघर हैं !
विगत यूपीए -दो के मनमोहन राज में जब उच्च वर्ण के गरीब मजदूरों, बेरोजगार युवाओं को लगा कि आजादी के ७० साल भी उनका किसी पार्टी के राज में कोई उत्थान नहीं हुआ तो वे अन्ना हजारे- स्वामी रामदेव के बहकावे में आ गए। उनसे कहा गया कि यदि कांग्रेसको हरा दोगे तो कालाधन वापिस सफेद हो जाएगा। यदि भाजपाको जिताओगे तो रामराज आ जाएगा। अच्छे दिन आयँगे। चूँकि मनमोहन सरकार के कुछ मंत्रियों और नेताओं ने भृष्ट-आचरण को बढ़ावा दिया था। और बहुतेरे आरक्षित वर्ग के परिवारों का नाम भी मलाईदार सूची में शामिल हो चुका था, इसलिए सवर्ण -दलित -पिछड़े वर्ग के लोगों ने भाजपा और मोदीजी को सत्ता सौंप दी! लेकिन बहुसंख्यक समाज ने 'संघ' की शरण में जाकर मोदी और योगी पर जो यकीन किया है ,उसका निर्णय आगामी इतिहास करेगा ,कि उनका यह जनादेश सही था या गलत ! मोदी इफेक्ट की बदौलत बिहार यूपी के अधिकांस युवाओं ने बहरहाल जातिय आरक्षण के मंडल अवतार पर कमण्डल को तवज्जो देना शुरूं कर दिया है । इससे आइंदा भाजपा को शेष राज्यों में भी बढ़त मिलेगी और आगामी २०१९ के आम चुनाव में भी मोदी जी को ही विजय मिल सकती है। भारत विकास का यह मोदी मॉडल रुपी 'बेड़ा'आइंदा 'मंदिर-मस्जिद विवाद' के भंवर से दूर रहता है,साम्प्रदायिक सद्भाव कायम रखता है तो निसन्देह भारत भी विकास की लंबी छलांग लगा सकता है। लेकिन इसके लिए हिन्दू -मुस्लिम दोनों पक्षों को बहुत सब्र से काम लेना होगा।
सुब्रमण्यम स्वामी ,स्वामी रामदेव और यूपी के विजयी उत्साहीलाल भले ही योगीजी और मोदीजीको मंदिर निर्माण के लिए उकसाने की फिराकमें हों किन्तु ये दोनों दिग्गज नेता 'सबका साथ सबका विकास' छोड़कर साम्प्रदायिक दंगों के गटर में अब शायद ही डुबकी लगाने को तैयार हों। भारतीय आशा की किरण वह गंगा-जमुनी तहजीव है जो हर संकटमें राष्ट्रीय एकता की राह दिखाती रहती है। अयोध्या का मंदिर -मस्जिद विवाद इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सुप्रीम कोर्ट में है। सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया है कि दोनों पक्ष इस मामले को अदालत के बाहर द्वीपक्षीय समझौते से हल करने का प्रयास करें। कोर्ट की इस अपील के बाद कमोवेश दोनों पक्षों की संतुलित प्रतिक्रिया रही है। हिन्दू -मुस्लिम पक्षके चन्द अगम्भीर कट्टरपंथी भलेही अल्ल -बल्ल बकते रहते हैं ,किन्तु दोनों ओर के कुछ जिम्मेदार लोग बहुत सावधानी बरत रहे हैं। यह आशाजनक और सौभाग्यसूचक है। अधिकान्स मुस्लिम उलेमाओं और बाबरी मस्जिद के पक्षकारों का कहना है कि अदालत जो भी फैसला देगी हम उसे तहेदिल से मान लेंगे। उधर मुख्यमंत्री योगीजी और अन्य हिन्दू धर्मगुरु भी अब संविधान के दायरे में हल निकालने की बात कर रहे हैं। लेकिन फिर विवाद के सुलझने में अड़चन क्या है ? इस सवाल का जबाब आसान नहीं है। यह इतिहास का वह काला पन्ना है जिसे फाड़ा नहीं जा सकता।
अयोध्या मंदिर -मस्जिद विवाद पर आर्केलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के निवृत्तमान सहनिर्देशक श्री केके मोहम्मद के अनुसार विवादित स्थल की खुदाई में जो अवशेष मिले हैं वे सावित करते हैं कि पहले वहाँ मंदिर अवश्य था। कायदे से श्री केके मोहम्मद साहिब के बयान और खुदाईमें प्राप्त तत्सम्बन्धी मृदभाण्डों और सबूतों के आधार पर यह उम्मीद बनती है कि फैसला मंदिर के पक्ष में होना चाहिए। लेकिन ब्रिटिश संविधान प्रेरित आधुनिक भारतीय न्याय व्यवस्था को इतना साक्ष्य पर्याप्त नहीं है। उसे लिखित प्रमाण चाहिए। शायद इस कमजोरी को दोनों पक्ष के विद्वान समझते हैं। इसीलिये स्वर्गीय अशोक सिंघल और आडवाणी जैसे लोग इस विवाद को कानून से परे,आस्था का मुद्दा मानते रहे हैं। इसी नवागन्तुक ब्रिटिश कानून की बिना पर बाबरी मस्जिद के पक्षकार मौलाना हाजी साहबका कहना है कि खुदाई में 'राम के ज़माने की कोई चीज 'नहीं मिली। गनीमत है कि उन्होंने ये नहीं कहा कि 'राम तो मिथ हैं '! वैसे भगवान श्रीराम को 'मिथ' बताने वाले नामवरसिंह और रामचन्द गुहा अब मोदीभक्त हो गए हैं। प्रोफेसर हबीब इरफ़ान शायद मस्जिद मोह के कारण 'श्रीराम' को 'मिथ' बताने में जुटे हैं। यदि वे आर्केलॉजिकल सर्वे के रिपोर्ट पढ़ेंगे तो मंदिर के पक्ष में भी हो सकते हैं। वैसे हाजी साहब की बात में दम है.उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि खुदाई में वेशक बहुत कुछ मिला है लेकिन 'श्रीराम के समय का कोई चिन्ह नहीं मिला' !उनके इस तर्कका जबाब मेरे पास है। हालाँकि मैं न तो हिंदुत्ववादी हूँ और न बाबरी मस्जिद का समर्थक!किन्तु हाजी साहब और तमाम मित्रों के समक्ष एक सच्चा उदाहरण पेश करता हूँ !
मेरे पितामह का जन्म पुरानी 'धामोनी' रियासत में हुआ था। हैजा फैलने पर वे १९वीं शताब्दी के अंत में सपत्नीक पास के ही गांव पिड़रुवा आ वसे थे ! जब हमारी पीढी के जिज्ञासु वंशजों ने वहां की खोज खबर ली तो पता चला कि जिस जगह हमारे पूर्वजों का छोटा सा पत्थरों का मकान था,वहां अब खण्डहर भी नहीं बचा जो बताए कि 'इमारत बुलन्द' थी! ज्ञातव्य हो कि १६वीं सदी के बादसे धामोनी स्टेटपर मुगलों के किसी अदने से सूवेदार का कब्जा रहा है उन्होंने धीरे-धीरे हमारे पूर्वजों को वहाँ से खदेड़ना जारी रखा !धामोनी में ब्राह्मण और जैन समाज के अलावा गौड़ आदिवासी और लोधी ठाकुर बहुतायत में थे। चूँकि जैन और ब्राह्मण वर्ग शुद्ध शाकाहारी थे अतएव आक्रांताओं के मांसाहारी कल्चर और युद्ध जैसे निरंतर रक्तपात से उतपन्न महामारी के कारण घबराकर धामोनी छोड़ गए। उनके खेत खलिहान मकान,दूकान सब कुछ मुस्लिम परिवारों को दे दिए गए । मेरे पूर्वजों के मकानके पत्थरों से किसी मुस्लिमने मकान बना लिया। जिस जगह पूर्वजों का मकान था वहाँ उन्होंने किसी मरहूम को दफ़्न कर दिया ,और जहाँ मंदिर था वहां उन्होंने मस्जिद बनाली। अब यदि सुप्रीम कोर्टके आदेश पर मेरे पूर्वजों की जन्मभूमि पर खुदाई की जाये तो वहाँ किसी मरहूम मुस्लिम स्त्री या पुरुष के नरकंकाल ही शेष मिलेंगे ! और हमारे पूर्वजों ने समझदारी दिखाई कि 'ठाकुरबाबा' और अन्य देवताओं को बाइज्जत साथ लेते आये ,जो आज भी पिड़रुवा ग्राम में आबाद हैं। वर्ना वे सभी देवी देवता किसी कुआँ बाउड़ी में फेंक दिए गए होते या धसान नदी में बहा दिए गए होते। अथवा किसी मस्जिद के द्वार पर जमींदोज कर दिए गए होते !अब प्रोफेसर हबीब इरफ़ान या रोमिला थापर कहे कि आपके पूर्वज तो मिथ हैं ,आपके पूर्वजों के खेत ,खलिहान ,मंदिर और देवी देवता मिथ हैं ,तो इससे बड़ा महाझूंठ और पाखंड क्या होगा ?
धामोनी रियासत पर मुगलों के आक्रमणों और महामारियों से उसके उजड़ने से पूर्व,अधिकांश निर्वासित हिन्दू आसपास के गाँवों - पिड़रुवा,सेसई मालथोन या सागर नगर जा वसे !लेकिन वे किस तारीख को उधर से इधर हुए और मूर्तियों के विस्थापन की कोई तारीख किसी सरकारी गजट में दर्ज नहीं है। वे किस जगह से उखाड़ी गइं ? कौन लाया ? कैसे लाया यह विवरण भी कहीं लिखित में उपलब्ध नहीं है। लेकिन वे मूर्तियां आज भी उपलब्ध हैं। हमारे पूर्वजों के खेतों पर जिनका कब्जा है वे भी उपलब्ध हैं। और वे भी मानते हैं कि 'यह सब तुम्हारे पूर्वजों का ही है लेकिन लिखित में अब सब कुछ हमारा है।' कोई भी ईमानदार और समझदार इंसान बखूबी सोच सकता है कि जब इस छोटी सी घटना का एक सभ्य सुशिक्षित हिन्दू ब्राह्मण परिवार के पास पूर्वजों की थाती का कोई सबूत नही है, तो पुरातन अयोध्या नगरी उर्फ़ साकेत उर्फ़ अवध के ५ हजार साल पूर्व की किसी राजसी वैभवपूर्ण की सभ्यता के अवशेषों को,लकड़ी मिट्टी,पत्त्थर के भवनों को २१वीं शतब्दी की अयोध्या में खोजने की मशक्कत कितनी बेमानी है? सोचने की बात है कि इन हालात में कोई भी न्यायालय क्या निर्णय दे सकता है ? वैसे भी अयोध्या का इतिहास सिर्फ मुगल आक्रमण का बर्बर ही इतिहास नहीं है,बल्कि उनसे पूर्व तुर्कों,अफगानों,शक ,हूण ,कुषाणों और तोरमाणों ने भी उसे बर्बाद किया है। इसके अलावा भारत के ही अनेक रक्तपिपासु राजाओं ने भी उसे लूटा होगा! जब सारी दुनिया में कुदरती उथल पुथल निरन्तर मचती रहती है तो विगत ५-६ हजार सालमें इस अयोध्याकी कितनी दुर्गति न हुई होगी ?इतनी शतब्दियों में कितने प्राकृतिक झंझावत नहीं आये होंगे ? इसलिए 'राम जन्म' भूमि का सबूत मांगने वालों से निवेदन है, कि भगवान् श्रीरामचंद्र जी के ज़माने के अवशेष खोजने की बात करके 'सत्य' का उपहास न करें !
वेशक आप धर्म -मजहब वाले हों या विधर्मी हों किन्तु मजहब -धर्म की राजनीति न करें !और धर्म -मजहब को राजनीती में न घसींटे !विगत लोक सभा चुनाव में अल्पसंख्यक टेक्टिकल वोटिंग से प्रभावित होकर ,विराट संख्या में हिन्दू समाज के निम्न मध्यमवर्ग के युवाओं ने भी एकजुट होकर मध्यप्रदेश, छग राजस्थान ,झारखण्ड और अब यूपी में खूब ताकत हासिल कर ली है । हालांकि उन्होंने पहले भी इन प्रान्तों में भाजपा को ही थोक में वोट दे दिए हैं । लेकिन अब तो मुस्लिम महिलाओं ने भी भाजपा का समर्थन करना शुरूं कर दिया है ,यह बात जुदा है कि कुछ लोग इसे अभी मान नहीं रहे हैं। लेकिन यूपी की जीत और वोटों का गणित स्पष्ट बता रह है कि कुछ तो अवश्य हुआ है। वेशक मोदीजी और योगीजी वाली आक्रामकता धर्मनिरपेक्ष दलों में नहीं है किन्तु उनके समर्थक भी रामभक्त हो सकते हैं । इसीलिये भले ही अभी कांग्रेस की जगह भाजपा ने लेली है ,लेकिन भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप बनाए रखते हुए न केवल मंदिर -मस्जिद विवाद हल करना है बल्कि आम सहमति से रामलला का मंदिर भी बन जाये तो कोई बुराई नहीं। यदि कुछ दूरी पर मस्जिद भी हो तो सोने में सुहागा !
बहुसंख्यक सवर्णोंको एकजुट करने में साईं लालकृष्ण आडवाणी,मुरलीमनोहर जोशी और सुश्री उमा भारती का विशेष हाथ रहा है। उनके अरमानों को तब पंख लग गए जब गोधरा में कुछ मुस्लिम आतंकियों ने रेल में कारसेवकों को जिन्दा जला दिया। इस जघन्य घटनाके बाद जब मुम्बई बम बिस्फोट नरसंहार हुआ तो 'हिंदुत्ववादी' नेताओं को 'रामराज्य' का इल्हाम होने लगा । इसके निमित्त वे फिर से 'रामलला' की ओर मुखातिब हुए । और तब अयोध्या का मंदिर मस्जिद विवाद तेज होता चला गया ! जिसकी बदौलत मोदीजी सुर्खुरू होते चले गए ! उसी के प्रसाद पर्यन्त अब तमाम हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा का परचम लहरा रहा है। 'रामलला'की असीम अनुकम्पा से एनडीए की अटल बिहारी सरकार भी ६ सालतक सत्ताका स्वाद चख चुकी है।लेकिन वह सरकार 'शाइनिंग इण्डिया' एवम 'फील गुड' महसूस करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गयी थी ! परिणामस्वरूप २००४ से २०१४ तक मनमोहनसिंह के नेतत्व में यूपीए की गठबंधन सरकार सत्ता में रही। चूँकि कांग्रेस अल्पमत में थी ,इसलिए डॉ मनमोहनसिंहको अनेक बार झुकना पड़ा और गलत समझौते करने पड़े। वे भ्र्ष्टाचार को रोक नहीं सके तो जनता ने फिर से एनडीए को याने भाजपा को याने मोदी सरकार को सत्ता सौंप दी। इस बार यूपीमें मोदीजी की बाचालता रंग लायी और चुनाव में बम्फर जीत हुई इसीलिये अब उनके अलावा योगीजी भी उनके सहयात्री हो गए हैं। इन हालात में मंदिर वाली बात उठना स्वाभाविक है।
मंदिर निर्माण विषयक योगी जी और संघ परिवार की समझ बिलकुल स्पस्ट है। लेकिन अदालत के निर्णय को जस का तस मानेंगे या संविधान संशोधन करते हुए रामलला को टाट से निकालकर 'भव्य मंदिर' में उचित सम्मान दिलाएंगे ये दोनों ऑप्शन उनके सामने विद्यमान हैं।क्योंकि भारी जनादेश केवल विकास के लिए या केवल किसान कर्जमाफी के लिए नहीं दिया गया है। ,,,,,,,,,
दुनिया भर में इस्लामिक आतंकवाद ने जो कहर बरपाया है और चेरिटी के नाम पर ईसाई मिशनरीज ने विगत ३०० सालमें इस भारत भूमिपर जोकुछ भी किया है ,उसका इतिहास हिंदुओं ने कभी नहीं लिखा। वास्तविक हिंदुत्ववाद में क्षमा,दया, करुणा,परोपकार और विनम्र शरणागति वाले मूल्योंको अधिक महत्व दिया जाता रहा है।किन्तु इस दौर का राजनैतिक ' हिंदुत्ववाद' और उसका काल्पनिक 'रामराज्य' केवल छलना मात्र है। उसके आभासी दुष्प्रचार मात्रसे भारत के केंद्र में मई -२०१४ से मोदी सरकार सत्ता में है,२० मार्च -२०१७ से यूपी स्टेट में योगी सरकार अपने प्रचण्ड बहुमत के साथ सत्ता में है। लेकिन रामलला अभी भी टाट में हैं और भाजपाई ठाठ में हैं। इसके अलावा आतंकवाद ,आर्थिक विकास ,शैक्षणिक- सामाजिकउत्थान ,वैदेशिक नीति में सकारात्मक सुधार, महँगाई- भृष्टाचार के मामले में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि दृष्टव्य नहीं है। इतने लंबे अरसे बाद देश में कहीं भी 'रामराज्य' का कोई नामोनिशान नहीं है। शायद इसीलिए अब अपराधबोध से पीड़ित लोग 'रामराज्य' की चर्चा फिर करने लगे हैं। स्वामी,बाबा और योगीजन तो इस प्रयोजन में 'निमित्तमात्रम च भवसव्यसाचिन' हैं।
रामराज्य बनाम पूँजीवादी लोकतंत्र के विमर्श में बहुसंख्यक हिन्दू युवाओं को मोदीजी का अनगढ़ 'विकासवाद' खूब पसन्द आ रहा है !आम तौर पर आधुनिक युवाओं को सोशल मीडिया पर 'हर हर मोदी' कहते सुना जा सकता है। इन वेरोजगार युवाओं को पूँजीवाद के घृणित शोषण -उत्पीड़न से कोई शिकायत नहीं। अपने जीवन के निमित्त कोई आर्थिक सामाजिक चेतना और समझ कायम करने के बजाय वे 'मन्दिर मस्जिद विवाद' पर अधिक चर्चा करते हुए देखे जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जब इस मसले को बातचीत से सुलझाने की बात की तो युवा वर्ग ने तत्काल रूचि दिखाई किन्तु जबलपुर के खमरिया डिफेंस फेक्ट्री में दो हजार करोड़ का असलाह जल जाने से उन्हें कोई सरोकार नहीं है। देश का अधिकांस मिल्ट्री इंतजाम ढुलमुल है पर किसी को कोई चिंता नहीं। अधिकान्स सत्तारूढ नेताओं को सिर्फ वोट की फ़िक्र है। इसीलिये वे हिन्दू मुस्लिम दोनों पक्षों को साधनेकी दिशामें प्रयत्नशील हैं। इसके लिए उन्हें स्वामी रामदेव ,श्रीश्री रविशंकर और मोहन भागवत जी की सेवायें उपलब्ध हैं। वे सभी इस जुगाड़ में हैं कि राज्यसभा में बहुमत होने के बाद संविधान में कुछ बड़े संशोधन कर दिए जायें !इसके वावजूद यह अकाट्य सत्य है कि जबतक मोदीजी पीएम हैं ,वे पूँजीवादी विकासवाद का दामन नहीं छोडेगे। 'सबका साथ -सबका विकास'केअनुसार मोदी जी वास्तविक धर्मनिरपेक्षता को स्थापित करने के पक्ष में रहेंगे क्योंकि गुजराती वणिक संस्कार यही सीख देते हैं। मोदी जी ने मुख्यमंत्री के रूप में अतीत में भी 'हिन्दुत्वाद' और 'रामराज्य' से ऊपर बाजारबाद को ही तरजीह दी थी। दरअसल हिंदुत्व और रामराज्य तो केवल वोट कबाड़ने का मंतव्य मात्र है।
यद्द्पि 'रामराज्य' को गोस्वामी तुलसीदास जी ने खूब सराहा है। सभी जानते हैं कि 'हरि व्यापक सर्वत्र समाना' की तरह ही भृष्टाचार और अनैतिकता भी सर्वव्यापी है!और सभी जन यह भी जानते हैं कि जिस 'रामराज्य' के लिए 'संघ परिवार' वाले लालायित हैं वह भी परफेक्ट नहीं था। उसमें भी सैकड़ों विसंगतियां और हजारों असहमतियां थीं ! कैकेयी जैसी विमाता से आधुनिक महिलाओं को क्या सीखना चाहिए ? जिसने खुद तीन-तीन शादियाँ कीं हों ,जिसने शिकार के लालच में एक निर्दोष श्रवणकुमार को मार डाला हो ,उस नरेश आधुनिक युग के पिताओं को क्या सीखना चाहिए ?से क्या सीखना चाहिए धोबी जैसा कृतघ्न आलोचक था और लक्ष्मण जैसे कठोर हृदय देवर भी थे जो केवल बड़े भाई की आज्ञा के सामने हमेशा नतमस्तक रहते और उन्ही की आज्ञा से अपनी माँ समान गर्भवती भावी को वियावान जंगल में अकेला छोड़ने को तैयार हो गए। रामायण यदि बाकई इतिहास हैए तो 'शम्बूक बध' भी मिथ नहीं हो सकता। उसे भी स्वीकार करना होगा।
भाजपा के चुनावी एजेंडे में अथवा 'संघ नेतत्व' के जेहन में 'रामराज्य' की आकांक्षा कोई नयी बात नहीं है। आजादी से पूर्व 'हिन्दू महासभा'और 'संघपरिवार' ने आजादी के उपरान्त अपने इन्ही उद्देश्यों के निमित्त 'जनसंघ' का निर्माण किया था। जिसके सिद्धांतों में 'हिन्दू अस्मिता' और 'रामराज्य' को प्रमुखता से तस्दीक किया जाता रहा है। ई.सन १९८० के मुम्बई स्थापना अधिवेशन में 'भाजपा'ने अपने घोषणापत्र में 'गांधीवादी समाजवाद' का बहुत गुणगान किया। रामराज्य को गांधीवादी रास्ते से लाने का संकल्प भी लिया गया। गाहे बगाहे उसका प्रचार प्रसार भी किया जाता रहा है। गलतफहमी या बदकिस्मती से उनके इस रामराज्य अभियान को अल्पसंख्यकों ने अपने खिलाफ मान लिया। परिणामस्वरूप उन्होंने अपनी सुरक्षाके लिए धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की चुनावी राजनीति में साम्प्रदायिक ध्रुबीकरण करते हुए 'टेक्टिकल वोटिंग' का खतरनाक रास्ता चुना । धर्मनिरपेक्ष पूँजीवादी दलों और अल्पसंख्यक नेताओं ने इस वर्ग का खूब भयादोहन किया। इमाम बुखारी से लेकर लालू,मुलायम, माया ,ममता और कांग्रेस ने भी इसे सालों तक खूब भुनाया है । चूँकि हिन्दू समाज तो जातियों और भाषाई खेमों में बुरी तरह बँटा हुआ है,इसलिए जब गैरभाजपा राजनीतिक शक्तियोंने ने दलित -अल्पसंख्यक एवम पिछड़े वर्ग को एकजुट कर नकली धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की खिचड़ी पकाई, तो बहुसंख्यक वर्ग के साम्प्रदायिक नुमाइंदों को सत्ता में आने का मौका मिल गया। मंडल आयोग की रिपोर्ट का अमल यदि क्रिया था तो 'कमण्डलवाद' उसकी प्रतिक्रिया रहा और कमण्डल की प्रतिक्रिया स्वरूप संघ का 'कमलदल' अब शिद्दत से खिल रहा है !लेकिन रामलला अभी भी बेघर हैं !
विगत यूपीए -दो के मनमोहन राज में जब उच्च वर्ण के गरीब मजदूरों, बेरोजगार युवाओं को लगा कि आजादी के ७० साल भी उनका किसी पार्टी के राज में कोई उत्थान नहीं हुआ तो वे अन्ना हजारे- स्वामी रामदेव के बहकावे में आ गए। उनसे कहा गया कि यदि कांग्रेसको हरा दोगे तो कालाधन वापिस सफेद हो जाएगा। यदि भाजपाको जिताओगे तो रामराज आ जाएगा। अच्छे दिन आयँगे। चूँकि मनमोहन सरकार के कुछ मंत्रियों और नेताओं ने भृष्ट-आचरण को बढ़ावा दिया था। और बहुतेरे आरक्षित वर्ग के परिवारों का नाम भी मलाईदार सूची में शामिल हो चुका था, इसलिए सवर्ण -दलित -पिछड़े वर्ग के लोगों ने भाजपा और मोदीजी को सत्ता सौंप दी! लेकिन बहुसंख्यक समाज ने 'संघ' की शरण में जाकर मोदी और योगी पर जो यकीन किया है ,उसका निर्णय आगामी इतिहास करेगा ,कि उनका यह जनादेश सही था या गलत ! मोदी इफेक्ट की बदौलत बिहार यूपी के अधिकांस युवाओं ने बहरहाल जातिय आरक्षण के मंडल अवतार पर कमण्डल को तवज्जो देना शुरूं कर दिया है । इससे आइंदा भाजपा को शेष राज्यों में भी बढ़त मिलेगी और आगामी २०१९ के आम चुनाव में भी मोदी जी को ही विजय मिल सकती है। भारत विकास का यह मोदी मॉडल रुपी 'बेड़ा'आइंदा 'मंदिर-मस्जिद विवाद' के भंवर से दूर रहता है,साम्प्रदायिक सद्भाव कायम रखता है तो निसन्देह भारत भी विकास की लंबी छलांग लगा सकता है। लेकिन इसके लिए हिन्दू -मुस्लिम दोनों पक्षों को बहुत सब्र से काम लेना होगा।
सुब्रमण्यम स्वामी ,स्वामी रामदेव और यूपी के विजयी उत्साहीलाल भले ही योगीजी और मोदीजीको मंदिर निर्माण के लिए उकसाने की फिराकमें हों किन्तु ये दोनों दिग्गज नेता 'सबका साथ सबका विकास' छोड़कर साम्प्रदायिक दंगों के गटर में अब शायद ही डुबकी लगाने को तैयार हों। भारतीय आशा की किरण वह गंगा-जमुनी तहजीव है जो हर संकटमें राष्ट्रीय एकता की राह दिखाती रहती है। अयोध्या का मंदिर -मस्जिद विवाद इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सुप्रीम कोर्ट में है। सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया है कि दोनों पक्ष इस मामले को अदालत के बाहर द्वीपक्षीय समझौते से हल करने का प्रयास करें। कोर्ट की इस अपील के बाद कमोवेश दोनों पक्षों की संतुलित प्रतिक्रिया रही है। हिन्दू -मुस्लिम पक्षके चन्द अगम्भीर कट्टरपंथी भलेही अल्ल -बल्ल बकते रहते हैं ,किन्तु दोनों ओर के कुछ जिम्मेदार लोग बहुत सावधानी बरत रहे हैं। यह आशाजनक और सौभाग्यसूचक है। अधिकान्स मुस्लिम उलेमाओं और बाबरी मस्जिद के पक्षकारों का कहना है कि अदालत जो भी फैसला देगी हम उसे तहेदिल से मान लेंगे। उधर मुख्यमंत्री योगीजी और अन्य हिन्दू धर्मगुरु भी अब संविधान के दायरे में हल निकालने की बात कर रहे हैं। लेकिन फिर विवाद के सुलझने में अड़चन क्या है ? इस सवाल का जबाब आसान नहीं है। यह इतिहास का वह काला पन्ना है जिसे फाड़ा नहीं जा सकता।
अयोध्या मंदिर -मस्जिद विवाद पर आर्केलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के निवृत्तमान सहनिर्देशक श्री केके मोहम्मद के अनुसार विवादित स्थल की खुदाई में जो अवशेष मिले हैं वे सावित करते हैं कि पहले वहाँ मंदिर अवश्य था। कायदे से श्री केके मोहम्मद साहिब के बयान और खुदाईमें प्राप्त तत्सम्बन्धी मृदभाण्डों और सबूतों के आधार पर यह उम्मीद बनती है कि फैसला मंदिर के पक्ष में होना चाहिए। लेकिन ब्रिटिश संविधान प्रेरित आधुनिक भारतीय न्याय व्यवस्था को इतना साक्ष्य पर्याप्त नहीं है। उसे लिखित प्रमाण चाहिए। शायद इस कमजोरी को दोनों पक्ष के विद्वान समझते हैं। इसीलिये स्वर्गीय अशोक सिंघल और आडवाणी जैसे लोग इस विवाद को कानून से परे,आस्था का मुद्दा मानते रहे हैं। इसी नवागन्तुक ब्रिटिश कानून की बिना पर बाबरी मस्जिद के पक्षकार मौलाना हाजी साहबका कहना है कि खुदाई में 'राम के ज़माने की कोई चीज 'नहीं मिली। गनीमत है कि उन्होंने ये नहीं कहा कि 'राम तो मिथ हैं '! वैसे भगवान श्रीराम को 'मिथ' बताने वाले नामवरसिंह और रामचन्द गुहा अब मोदीभक्त हो गए हैं। प्रोफेसर हबीब इरफ़ान शायद मस्जिद मोह के कारण 'श्रीराम' को 'मिथ' बताने में जुटे हैं। यदि वे आर्केलॉजिकल सर्वे के रिपोर्ट पढ़ेंगे तो मंदिर के पक्ष में भी हो सकते हैं। वैसे हाजी साहब की बात में दम है.उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि खुदाई में वेशक बहुत कुछ मिला है लेकिन 'श्रीराम के समय का कोई चिन्ह नहीं मिला' !उनके इस तर्कका जबाब मेरे पास है। हालाँकि मैं न तो हिंदुत्ववादी हूँ और न बाबरी मस्जिद का समर्थक!किन्तु हाजी साहब और तमाम मित्रों के समक्ष एक सच्चा उदाहरण पेश करता हूँ !
मेरे पितामह का जन्म पुरानी 'धामोनी' रियासत में हुआ था। हैजा फैलने पर वे १९वीं शताब्दी के अंत में सपत्नीक पास के ही गांव पिड़रुवा आ वसे थे ! जब हमारी पीढी के जिज्ञासु वंशजों ने वहां की खोज खबर ली तो पता चला कि जिस जगह हमारे पूर्वजों का छोटा सा पत्थरों का मकान था,वहां अब खण्डहर भी नहीं बचा जो बताए कि 'इमारत बुलन्द' थी! ज्ञातव्य हो कि १६वीं सदी के बादसे धामोनी स्टेटपर मुगलों के किसी अदने से सूवेदार का कब्जा रहा है उन्होंने धीरे-धीरे हमारे पूर्वजों को वहाँ से खदेड़ना जारी रखा !धामोनी में ब्राह्मण और जैन समाज के अलावा गौड़ आदिवासी और लोधी ठाकुर बहुतायत में थे। चूँकि जैन और ब्राह्मण वर्ग शुद्ध शाकाहारी थे अतएव आक्रांताओं के मांसाहारी कल्चर और युद्ध जैसे निरंतर रक्तपात से उतपन्न महामारी के कारण घबराकर धामोनी छोड़ गए। उनके खेत खलिहान मकान,दूकान सब कुछ मुस्लिम परिवारों को दे दिए गए । मेरे पूर्वजों के मकानके पत्थरों से किसी मुस्लिमने मकान बना लिया। जिस जगह पूर्वजों का मकान था वहाँ उन्होंने किसी मरहूम को दफ़्न कर दिया ,और जहाँ मंदिर था वहां उन्होंने मस्जिद बनाली। अब यदि सुप्रीम कोर्टके आदेश पर मेरे पूर्वजों की जन्मभूमि पर खुदाई की जाये तो वहाँ किसी मरहूम मुस्लिम स्त्री या पुरुष के नरकंकाल ही शेष मिलेंगे ! और हमारे पूर्वजों ने समझदारी दिखाई कि 'ठाकुरबाबा' और अन्य देवताओं को बाइज्जत साथ लेते आये ,जो आज भी पिड़रुवा ग्राम में आबाद हैं। वर्ना वे सभी देवी देवता किसी कुआँ बाउड़ी में फेंक दिए गए होते या धसान नदी में बहा दिए गए होते। अथवा किसी मस्जिद के द्वार पर जमींदोज कर दिए गए होते !अब प्रोफेसर हबीब इरफ़ान या रोमिला थापर कहे कि आपके पूर्वज तो मिथ हैं ,आपके पूर्वजों के खेत ,खलिहान ,मंदिर और देवी देवता मिथ हैं ,तो इससे बड़ा महाझूंठ और पाखंड क्या होगा ?
धामोनी रियासत पर मुगलों के आक्रमणों और महामारियों से उसके उजड़ने से पूर्व,अधिकांश निर्वासित हिन्दू आसपास के गाँवों - पिड़रुवा,सेसई मालथोन या सागर नगर जा वसे !लेकिन वे किस तारीख को उधर से इधर हुए और मूर्तियों के विस्थापन की कोई तारीख किसी सरकारी गजट में दर्ज नहीं है। वे किस जगह से उखाड़ी गइं ? कौन लाया ? कैसे लाया यह विवरण भी कहीं लिखित में उपलब्ध नहीं है। लेकिन वे मूर्तियां आज भी उपलब्ध हैं। हमारे पूर्वजों के खेतों पर जिनका कब्जा है वे भी उपलब्ध हैं। और वे भी मानते हैं कि 'यह सब तुम्हारे पूर्वजों का ही है लेकिन लिखित में अब सब कुछ हमारा है।' कोई भी ईमानदार और समझदार इंसान बखूबी सोच सकता है कि जब इस छोटी सी घटना का एक सभ्य सुशिक्षित हिन्दू ब्राह्मण परिवार के पास पूर्वजों की थाती का कोई सबूत नही है, तो पुरातन अयोध्या नगरी उर्फ़ साकेत उर्फ़ अवध के ५ हजार साल पूर्व की किसी राजसी वैभवपूर्ण की सभ्यता के अवशेषों को,लकड़ी मिट्टी,पत्त्थर के भवनों को २१वीं शतब्दी की अयोध्या में खोजने की मशक्कत कितनी बेमानी है? सोचने की बात है कि इन हालात में कोई भी न्यायालय क्या निर्णय दे सकता है ? वैसे भी अयोध्या का इतिहास सिर्फ मुगल आक्रमण का बर्बर ही इतिहास नहीं है,बल्कि उनसे पूर्व तुर्कों,अफगानों,शक ,हूण ,कुषाणों और तोरमाणों ने भी उसे बर्बाद किया है। इसके अलावा भारत के ही अनेक रक्तपिपासु राजाओं ने भी उसे लूटा होगा! जब सारी दुनिया में कुदरती उथल पुथल निरन्तर मचती रहती है तो विगत ५-६ हजार सालमें इस अयोध्याकी कितनी दुर्गति न हुई होगी ?इतनी शतब्दियों में कितने प्राकृतिक झंझावत नहीं आये होंगे ? इसलिए 'राम जन्म' भूमि का सबूत मांगने वालों से निवेदन है, कि भगवान् श्रीरामचंद्र जी के ज़माने के अवशेष खोजने की बात करके 'सत्य' का उपहास न करें !
वेशक आप धर्म -मजहब वाले हों या विधर्मी हों किन्तु मजहब -धर्म की राजनीति न करें !और धर्म -मजहब को राजनीती में न घसींटे !विगत लोक सभा चुनाव में अल्पसंख्यक टेक्टिकल वोटिंग से प्रभावित होकर ,विराट संख्या में हिन्दू समाज के निम्न मध्यमवर्ग के युवाओं ने भी एकजुट होकर मध्यप्रदेश, छग राजस्थान ,झारखण्ड और अब यूपी में खूब ताकत हासिल कर ली है । हालांकि उन्होंने पहले भी इन प्रान्तों में भाजपा को ही थोक में वोट दे दिए हैं । लेकिन अब तो मुस्लिम महिलाओं ने भी भाजपा का समर्थन करना शुरूं कर दिया है ,यह बात जुदा है कि कुछ लोग इसे अभी मान नहीं रहे हैं। लेकिन यूपी की जीत और वोटों का गणित स्पष्ट बता रह है कि कुछ तो अवश्य हुआ है। वेशक मोदीजी और योगीजी वाली आक्रामकता धर्मनिरपेक्ष दलों में नहीं है किन्तु उनके समर्थक भी रामभक्त हो सकते हैं । इसीलिये भले ही अभी कांग्रेस की जगह भाजपा ने लेली है ,लेकिन भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप बनाए रखते हुए न केवल मंदिर -मस्जिद विवाद हल करना है बल्कि आम सहमति से रामलला का मंदिर भी बन जाये तो कोई बुराई नहीं। यदि कुछ दूरी पर मस्जिद भी हो तो सोने में सुहागा !
बहुसंख्यक सवर्णोंको एकजुट करने में साईं लालकृष्ण आडवाणी,मुरलीमनोहर जोशी और सुश्री उमा भारती का विशेष हाथ रहा है। उनके अरमानों को तब पंख लग गए जब गोधरा में कुछ मुस्लिम आतंकियों ने रेल में कारसेवकों को जिन्दा जला दिया। इस जघन्य घटनाके बाद जब मुम्बई बम बिस्फोट नरसंहार हुआ तो 'हिंदुत्ववादी' नेताओं को 'रामराज्य' का इल्हाम होने लगा । इसके निमित्त वे फिर से 'रामलला' की ओर मुखातिब हुए । और तब अयोध्या का मंदिर मस्जिद विवाद तेज होता चला गया ! जिसकी बदौलत मोदीजी सुर्खुरू होते चले गए ! उसी के प्रसाद पर्यन्त अब तमाम हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा का परचम लहरा रहा है। 'रामलला'की असीम अनुकम्पा से एनडीए की अटल बिहारी सरकार भी ६ सालतक सत्ताका स्वाद चख चुकी है।लेकिन वह सरकार 'शाइनिंग इण्डिया' एवम 'फील गुड' महसूस करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गयी थी ! परिणामस्वरूप २००४ से २०१४ तक मनमोहनसिंह के नेतत्व में यूपीए की गठबंधन सरकार सत्ता में रही। चूँकि कांग्रेस अल्पमत में थी ,इसलिए डॉ मनमोहनसिंहको अनेक बार झुकना पड़ा और गलत समझौते करने पड़े। वे भ्र्ष्टाचार को रोक नहीं सके तो जनता ने फिर से एनडीए को याने भाजपा को याने मोदी सरकार को सत्ता सौंप दी। इस बार यूपीमें मोदीजी की बाचालता रंग लायी और चुनाव में बम्फर जीत हुई इसीलिये अब उनके अलावा योगीजी भी उनके सहयात्री हो गए हैं। इन हालात में मंदिर वाली बात उठना स्वाभाविक है।
मंदिर निर्माण विषयक योगी जी और संघ परिवार की समझ बिलकुल स्पस्ट है। लेकिन अदालत के निर्णय को जस का तस मानेंगे या संविधान संशोधन करते हुए रामलला को टाट से निकालकर 'भव्य मंदिर' में उचित सम्मान दिलाएंगे ये दोनों ऑप्शन उनके सामने विद्यमान हैं।क्योंकि भारी जनादेश केवल विकास के लिए या केवल किसान कर्जमाफी के लिए नहीं दिया गया है। ,,,,,,,,,
दुनिया भर में इस्लामिक आतंकवाद ने जो कहर बरपाया है और चेरिटी के नाम पर ईसाई मिशनरीज ने विगत ३०० सालमें इस भारत भूमिपर जोकुछ भी किया है ,उसका इतिहास हिंदुओं ने कभी नहीं लिखा। वास्तविक हिंदुत्ववाद में क्षमा,दया, करुणा,परोपकार और विनम्र शरणागति वाले मूल्योंको अधिक महत्व दिया जाता रहा है।किन्तु इस दौर का राजनैतिक ' हिंदुत्ववाद' और उसका काल्पनिक 'रामराज्य' केवल छलना मात्र है। उसके आभासी दुष्प्रचार मात्रसे भारत के केंद्र में मई -२०१४ से मोदी सरकार सत्ता में है,२० मार्च -२०१७ से यूपी स्टेट में योगी सरकार अपने प्रचण्ड बहुमत के साथ सत्ता में है। लेकिन रामलला अभी भी टाट में हैं और भाजपाई ठाठ में हैं। इसके अलावा आतंकवाद ,आर्थिक विकास ,शैक्षणिक- सामाजिकउत्थान ,वैदेशिक नीति में सकारात्मक सुधार, महँगाई- भृष्टाचार के मामले में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि दृष्टव्य नहीं है। इतने लंबे अरसे बाद देश में कहीं भी 'रामराज्य' का कोई नामोनिशान नहीं है। शायद इसीलिए अब अपराधबोध से पीड़ित लोग 'रामराज्य' की चर्चा फिर करने लगे हैं। स्वामी,बाबा और योगीजन तो इस प्रयोजन में 'निमित्तमात्रम च भवसव्यसाचिन' हैं।
रामराज्य बनाम पूँजीवादी लोकतंत्र के विमर्श में बहुसंख्यक हिन्दू युवाओं को मोदीजी का अनगढ़ 'विकासवाद' खूब पसन्द आ रहा है !आम तौर पर आधुनिक युवाओं को सोशल मीडिया पर 'हर हर मोदी' कहते सुना जा सकता है। इन वेरोजगार युवाओं को पूँजीवाद के घृणित शोषण -उत्पीड़न से कोई शिकायत नहीं। अपने जीवन के निमित्त कोई आर्थिक सामाजिक चेतना और समझ कायम करने के बजाय वे 'मन्दिर मस्जिद विवाद' पर अधिक चर्चा करते हुए देखे जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जब इस मसले को बातचीत से सुलझाने की बात की तो युवा वर्ग ने तत्काल रूचि दिखाई किन्तु जबलपुर के खमरिया डिफेंस फेक्ट्री में दो हजार करोड़ का असलाह जल जाने से उन्हें कोई सरोकार नहीं है। देश का अधिकांस मिल्ट्री इंतजाम ढुलमुल है पर किसी को कोई चिंता नहीं। अधिकान्स सत्तारूढ नेताओं को सिर्फ वोट की फ़िक्र है। इसीलिये वे हिन्दू मुस्लिम दोनों पक्षों को साधनेकी दिशामें प्रयत्नशील हैं। इसके लिए उन्हें स्वामी रामदेव ,श्रीश्री रविशंकर और मोहन भागवत जी की सेवायें उपलब्ध हैं। वे सभी इस जुगाड़ में हैं कि राज्यसभा में बहुमत होने के बाद संविधान में कुछ बड़े संशोधन कर दिए जायें !इसके वावजूद यह अकाट्य सत्य है कि जबतक मोदीजी पीएम हैं ,वे पूँजीवादी विकासवाद का दामन नहीं छोडेगे। 'सबका साथ -सबका विकास'केअनुसार मोदी जी वास्तविक धर्मनिरपेक्षता को स्थापित करने के पक्ष में रहेंगे क्योंकि गुजराती वणिक संस्कार यही सीख देते हैं। मोदी जी ने मुख्यमंत्री के रूप में अतीत में भी 'हिन्दुत्वाद' और 'रामराज्य' से ऊपर बाजारबाद को ही तरजीह दी थी। दरअसल हिंदुत्व और रामराज्य तो केवल वोट कबाड़ने का मंतव्य मात्र है।
यद्द्पि 'रामराज्य' को गोस्वामी तुलसीदास जी ने खूब सराहा है। सभी जानते हैं कि 'हरि व्यापक सर्वत्र समाना' की तरह ही भृष्टाचार और अनैतिकता भी सर्वव्यापी है!और सभी जन यह भी जानते हैं कि जिस 'रामराज्य' के लिए 'संघ परिवार' वाले लालायित हैं वह भी परफेक्ट नहीं था। उसमें भी सैकड़ों विसंगतियां और हजारों असहमतियां थीं ! कैकेयी जैसी विमाता से आधुनिक महिलाओं को क्या सीखना चाहिए ? जिसने खुद तीन-तीन शादियाँ कीं हों ,जिसने शिकार के लालच में एक निर्दोष श्रवणकुमार को मार डाला हो ,उस नरेश आधुनिक युग के पिताओं को क्या सीखना चाहिए ?से क्या सीखना चाहिए धोबी जैसा कृतघ्न आलोचक था और लक्ष्मण जैसे कठोर हृदय देवर भी थे जो केवल बड़े भाई की आज्ञा के सामने हमेशा नतमस्तक रहते और उन्ही की आज्ञा से अपनी माँ समान गर्भवती भावी को वियावान जंगल में अकेला छोड़ने को तैयार हो गए। रामायण यदि बाकई इतिहास हैए तो 'शम्बूक बध' भी मिथ नहीं हो सकता। उसे भी स्वीकार करना होगा।