रविवार, 29 जनवरी 2017

इतिहास का तार्किक विहंगावलोकन जरुरी है

पश्चिम के भौतिकतावादी वैज्ञानिक आविष्कार,यूरोपियन रेनेसाँ ,पूँजीवादी क्रांति ,मैग्नाकार्टा का विकास ,यूरोपीय जहाजियों द्वारा 'नई दुनिया 'की खोज ,अमेरिकी गृह युध्द और क्रांति,फ्रांसीसी क्रांति ,सोवियत क्रांति,चीनी क्रांति , भारतीय स्वाधीनता संग्राम और दक्षिण अफ्रीकी मुक्ति संग्राम इत्यादि घटनाओंके उपरान्त सारे सभ्य संसारने यह जाना कि मानव सभ्यताओं के अतीत का सम्पूर्ण इतिहास बर्बर शासकोंकी अय्यासी और बर्बर कबीलाई युद्धोंका इतिहास रहा है। ताकतवर मनुष्य द्वारा मेहनतकश जनता  के उत्पीड़नों और धरती की सम्पदा को लूटनेका खूनी इतिहास रहा है। लेकिन दुनिया की उपरोक्त महान क्रांतियों ने ही सारे संसारको एक वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान की है। इस वैज्ञानिक नजरियेसे समाज,राष्ट्र और राजनीतिके अलावा इतिहास का विहंगावलोकन करने वाले अध्येता को 'मार्क्सवादी' इतिहासकार कहते हैं। जो लोग पोंगापंथी-पुराणपंथी हैं,गप्पबाज हैं,कनबतिए हैं ,अंदाजमारु कोरे लिख्खाड़ हैं ,उन्हें दक्षिणपंथी -प्रतिक्रियावादी -संकीर्णतावादी गपोड़ी कहते हैं.! 

फिल्म निर्माता संजय भंसाली की हिंदी फिल्म 'पद्मावती' के बहाने भारतीय सामंतयुग के इतिहास बनाम मिथ पर जो विवाद उठा है इससे भारत के आम आदमी को या देश के किसान-मजदूर को कुछ भी लेना -देना नहीं है। पूँजीपतियों ,नवधनाढ्यों,नशेड़ियों,अफीमचियों,मिलावटियों ,रिश्वतखोरों को भी इससे कुछ लेना देना नहीं है। सवा सौ करोड़ आबादी में से सौ-पचास कर्णी सेना वाले ,दस-बीस फिल्म एक्टर, दो-चार इतिहासकार और दस-बीस फेसबुकिये ही चोंचलेबाजी कर रहे हैं। इस अप्रिय विमर्शमें सबसे महवत्वपूर्ण तथ्य यह है कि फिल्म जगतके कुछ लालची लेखक,निर्माता और कलाकार सांस्कृतिक भयादोहन कर रुपया कमाने में जुटे हैं। वे अपने स्वार्थ के लिए इतिहास एवम मिथक के साथ अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर घालमेल कर रहे हैं। हालाँकि उनके इस कूट कदाचरण पर नियंत्रण के लिए देश में सेंसर बोर्ड है ,अदालतें हैं। किन्तु यह नितांत अशोभनीय और असंवैधानिक कृत्य है कि कभी शिवसेना ,कभी कर्णी सेना ,कभी रामसेना और कभी बजरंग सेना -देशभक्ति या संस्कृति रक्षा के बहाने कानून तोड़ने पर आमादा हो जाते हैं। यदि ये सेनाएं ही भारत भाग्य विधाता हैं ,तो भारतका संविधान , न्याय पालिका,संसद ,सरकार और देश की 'असली सेना' किस लिए है ? वैसे भी गुलामी के इतिहास पर चर्चा करना,गड़े मुर्दे उखाड़ना और समाज के घावों को कुरेदने जैसा है !

इतिहासकार नजफ़ हैदर का यह कथन उचित है कि संजय भंसाली यदि बाकई ऐतिहासिक फिल्म बना रहे हैं तो उसमें मिथक का इस्तेमाल क्यों कर रहेहैं ? और यदि वे मिथकीय फिल्म बना रहे हैं तो उसमें इतिहास क्यों घुसेड़ रहे हैं ? भारतीय समाजों के इतिहास अथवा मिथकों का अपने धंधे के लिए फिल्म वाले इस्तेमाल करेंगे तो द्वंद का होना स्वाभाविक है। जो लोग इन धंधेबाजोंके पक्षमें दलीलें दे रहेहैं वे इतिहासकार नहीं भड़भूँजे हैं। और जो लोग अस्मिता या सांस्कृतिक गौरव के नाम पर कानून को अपने हाथ में ले रहे हैं वे संकृति के रक्षक नहीं भक्षक हैं।   

जब कभी किसी गैर इस्लामिक भारतीय को लगता है कि अतीत में उनके पूर्वजों के साथ अन्याय हुआ ,उनकी सभ्यता और संस्कृति के साथ  घोर अत्याचार हुआ,उनकी धार्मिक आस्था और श्रद्धाको लतियाया गया,तो इसमें गलत क्या है ? कोई लाख इंकार करे किन्तु आठवीं शताब्दी से लेकर पंद्रह अगस्त १९४७ तक  पूरे २०० साल की असल तस्वीर यही है ! इसके प्रमाण भारत के कोने-कोने में बिखरे पड़े हैं।लेकिन यह भी कटु सत्य है कि इस्लाम के आगमन से पूर्व का भारत सिर्फ दूध घी में स्नान नही करता रहा ,बल्कि निरन्तर रक्तस्नान भी जारी रहाहै।आर्य परंपरा का अश्वमेध,नरमेध, वाजपेय,राजसूय और चक्रवर्ती सम्राट के निमित्त जो युद्ध हुए उनमें इस्लाम की कोई भूमिका नहीं रही। ये तमाम यज्ञ तभी सम्पन्न हो पातेथे जब 'आर्यपुत्र'करोड़ों को मारकर दिग्विजयी हुआ करते थे। कोई महामूर्ख ही इससे इंकार करेगा कि कुरुक्षेत्र के मैदान में 'नरसंहार'नहीं हुआ था।यह महाभारत का युद्ध तो भाई-भाई के बीच खुद 'ईश्वर'की मौजूदगी में हुआ था।जो इसे मिथ कहता है वह महामूर्ख है और जो इसे ईश्वरीय लीला कहता है, उसे यह स्वीकार करना पड़ेगा  कि इस्लामिक आक्रमण भी 'ईश्वर' याने 'अल्लाह' की लीलासे ही  सम्पन्न होते रहे हैं। अहिंसा की दीक्षा लेने से पहले शुरुआत में चण्ड अशोक जैसे बौद्धों ने वैदिकों को मारा था। शंकराचार्य के शिष्य राजाओं ने भी बौद्धों-जैनों और कापालिकों का संहार किया। कोई भी दूध का धुला नहीं है !इसीलिये अतीत की घृणास्पद यादों की दावाग्नि में धधकने से किसी को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला।   

आर्थिक,सामाजिक, राजनैतिक,सांस्कृतिक,ऐतिहासिक,धर्म-मजहब और अंतरराष्टीय सवालों पर हर देशकी हर कौम की तथा हर व्यक्ति की अपनी-अपनी अलग-अलग राय हुआ करती है। जिस तरह संगीत में अलग-अलग सुर होते हैं ,जिस तरह काव्यमें अलग-अलग रस होते हैं ,उसी तरह जन सरोकारों पर और मौजूदा सवालों पर भी भिन्न-भिन्न लोगों की राय भिन्न-भिन्न हुआ करती है। यदि किसी व्यक्ति को वेदों का ज्ञान नहीं है,यदि उसे अभिरुचि या जिज्ञासा है तो वह किसी वेदपाठी विद्वान से वैदिक ज्ञान हासिल कर लेता है। यदि किसी को कुरआन का ज्ञान चाहिए तो किसी मौलवीसे सीख सकता है। किसीको बाइबिल का ज्ञान चाहिए तो चर्च के फादरसे सीख सकताहै। इसी तरह यदि किसीको इतिहास का ज्ञान चाहिए तो वह किसी इतिहासकार से- इतिहास की प्रामाणिक पुस्तकों से  ज्ञानार्जन कर सकता है। वेदपाठी विद्वान,मौलवी,फादर, इतिहासकार का नजरिया यदि प्रगतिशील है तो सोने में सुहागा। प्रगतिशील से तात्यपर्य यथार्थ और प्रामाणिक सोच वाले और विषय में  निष्णान्त व्यक्ति से है।विद्वान लेखक -साहित्यकार को देश काल परिस्थिति के अनुसार विषय वस्तु की महत्ता का भान होना भी जरुरी है। तभी वह सही सीख दे पायेगा। वर्ना  सिखाने वाला ही यदि अधकचरा ,अपरिपक्व, पक्षपाती और गुरु घंटाल है तो वह यथार्थ ज्ञान नहीं दे पायेगा। किसी व्यक्ति , विचारधारा,धर्म-मजहब,राजनीति और इतिहास की व्याख्या के तीन नजरिये हैं। पहला  कट्टरपंथी प्रतिक्रियावादी ,दूसरा  विज्ञानवादी यथार्थवादी ,तीसरा है स्वार्थपूर्ण और पक्षपाती ।

२१वीं शताब्दी की दुनिया में कट्टरपंथी प्रतिक्रयावादी प्रायः हर तरफ हावी हैं! इस्लामिक कट्टरपंथियों से प्रभावित भारतीय युवा भी दकियानूसी मान्यताओं या काल्पनिक घटनाओं को इतिहास मान लेत हैं ,वे पुराण और इतिहास में फर्क करने की जहमत नहीं उठाते। उच्च शिक्षित और तकनीकी दक्षता प्राप्त भारतीय भी मिथ और यथार्थ का फर्क नहीं समझते !इसलिए जब कोई फिल्म निर्माता ,लेखक ,साहित्यकार या इतिहासकार कोई स्थापना प्रस्तुत करता है तो भूचाल आ जाता है। तब तिल का ताड़ हो जाता है। धजीका सांप हो जाता है। पाखका परेवा हो जाता है। संजय भंसाली की फिल्म 'अलाउद्दीन' के सेट पर  यही सब कुछ हुआ। इस मुद्दे पर मुद्दई और मुद्दालेह दोनों पक्ष की ओर से चूक हुई है।

कर्णी सेना ने बिना फिल्म देखे , सिर्फ एक सीन को देखकर  ही मान लिया लिया कि उनके गौरवशाली इतिहास के साथ खिलवाड़ हो रही है। बिना ठोस सबूत के वे हाथापाई पर उतर आये!भंसाली भी पूर्णतः निर्दोष नहीं कहे जा सकते। क्योंकि जब सेट पर धींगा मस्ती हुई तब उन्होंने यह स्पष्टीकरण नहीं दिया कि कथित फिल्म में रानी पदमिनी को अलाउद्दीन खिलजी की प्रेमिका नहीं बताया जा रहा है। यह खुलासा उसने मुम्बई जाकर घटना के दो दिन बाद किया। मतलब साफ़ है, कुछ तो गड़बड़ थी ,जिसे दुरुस्त किया गया !इतिहास के बारे में कर्णी सेना औरसंजय भंसाली दोनोंका नजरिया दोषपूर्ण है। पद्मावती फिल्मकी झूमाझटकी वाली घटनामें दोनों गलतीपर हैं।

अलाउद्दीन -पद्मावती सन्दर्भ में हम सभी हिंदी भाषियों को बचपन से सिर्फ एक ही इतिहास पढ़ाया गया है कि मेवाड़ के राणा रतनसेन की रानी पदमिनी अनिद्य सुंदरी थी। वेशक यह मिथ है कि जब वह पान का बीड़ा खाती थी तो उसके गले की लालिमा बाहर झलकती थी। यह पद्मावत के रचयिता  'जायसी' का सौंदर्य उपमान है। काव्य में रसिकता और सौंदर्य बोध ,शब्द चमत्कार कोई वर्जित तत्व नहीं है। जब अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने मेवाड़ को घेर लिया और युद्ध में राणा रतनसेन मारे गए तब रानी पद्मावती ने सैकड़ों महिलाओं के साथ 'जौहर' किया। सामंतकालीन हिंदुओं में खास तौर से ब्राह्मण और क्षत्रियों में सती प्रथा का चलन था और जौहर भी सती प्रथा का उच्चतम सोपान था।आमतौर पर यह ऐच्छिक हीथा। इसमें जलना-मरना उतना महत्वपूर्ण नहीं था ,जितनाकि यह महत्वपूर्ण था कि ''जीते जी दुश्मन के हाथ नहीं लगना है ''! जौहर की प्रथा का प्रचलन  सिर्फरनिवास तक सीमित नहीं था। यह क्षत्रिय योद्धाओं पर भी लागू था! लेकिन यह जरुरी नहीं था, कि आगमें जलकर ही मर मिटना है।

'हाड़ौती' की हाड़ी रानी की तरह अनेक क्षत्रिय युवाओं और राजकुमारियों ने उस कठिन दौर में अपने शीश खुद ही काटकर महाकाल को समर्पित किये हैं. इस अत्यंत अमानवीय और मार्मिक इतिहास को सही रूप में समझने और उसकी वजह जानने के बजाय कर्णी सेना वाले संजय भंसाली पर कुपित हो रहे हैं। जबकि भंसाली जैसे लोग रुपया कमाने की जुगाड़ में लगे हैं। जड़मति स्वयम्भू इतिहासकार सामंतयुग की  मार्मिक सच्चाईयों का वैज्ञानिक विश्लेषण करने के बजाय उस सामूहिक मौत को भी मिथ बता रहे हैं जो अटल सत्य है। इरफ़ान हबीब जैसे लोगों का वश चलेगा तो एक दिन शंकराचार्य की तरह इस जगत को ही मिथ्याघोषित कर देंगे। मलिक मुहम्मदजायसी के पद्मावत को मिथ मानने वाले सही हैं या भंसाली की पटकथा को इतिहास मानने वाले सही हैं ,इसका फैसला तूँ -तूँ मैं-मैं से नहीं हो सकता। वास्तविक और सच्चा इतिहास देश काल और सत्ता सापेक्ष होता है. इसलिए इतिहास की वैज्ञानिक नजरिये से अकादमिक पड़ताल की जानी चाहिए। संजय भंसाली को अपनी फिल्म की चिंता है। प्रो, इरफ़ान हबीबको सच्चे इतिहास की चिंता है ,कर्णी सेनाको अस्मिता की चिंता है ,इधर संघ और मोदी सरकारको अम्बानियों -अडानियों की चिंता है। देश के बदतर हालात गरीबी - भुखमरी वेकारी और जनता की फ़िक्र जिन्हें होनी चाहिए वे प्रगतिशील वामपंथी साहित्यकार मिथ,इतिहास और फिल्म वालों की चिंता में दुबले हो रहे हैं।

पार्वतीजी अपने पिता दक्ष के हवन कुंडमें जाकर सती हुईं या नहीं , सीताजी की अग्नि परीक्षा हुई या नहीं हुई ?  रानी पदमिनी थी या नहीं थी ,उसने जौहर किया या नहीं किया ,इससे सर्वहारा क्रांति का क्या लेना देना। दास केपिटल,कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ते-पढ़ते हम बूढ़े हो चले, किन्तु मार्क्स,लेनिन,स्टालिन ,ने कहीं नहीं लिखा कि उनके राष्ट्रों के अतीत के राजा-रानी के रीति रिवाज मिथ थेऔर वे कैसे मरे ?उन्होंने किसी को मिथ नहीं कहा। उन्होंने यह भी नहीं लिखा कि सर्वहारा क्रांति के लिए इतिहास के खण्डहरों में भटकते फिरो। मार्क्स का कहना तो स्पस्ट है कि जो शक्तिशाली समाज है ,जो शक्तिशाली दवंग व्यक्ति है उससे निर्बल -कमजोर का शोषण नहीं होना चाहिए।  सभी को समान न्याय और जीने का अधिकार मिलना चाहिए। कहने को तो ये सब बातें धर्म शास्त्रों में भी लिखीं हैं किन्तु मानव इतिहास में सिर्फ कार्ल मार्क्स ने दुनिया को बताया कि  इस खराब सिस्टम को

    जब कोई भी इतिहासकार कहता है कि श्रीराम ,लक्ष्मण ,हनुमान, कृष्ण बलराम अर्जुन तो मिथ हैं , १२ वीं सदी के आल्हा उदल मिथ हैं , १५वीं सदी के राजपूताने की जौहरवती रानी  पद्मावती या पदमिनी मिथ हैं ,तो इसके दो ही मायने हो सकते हैं। एक तो यह कि वह नितान्त जड़मति मूर्ख नकलपट्टी करके इतिहास का प्रोफेसर बना होगा। दूसरा कारण यह हो सकता है कि उस इतिहासकार के मन में हिन्दू प्रतीकों और हिन्दू सभ्यता संस्कृति के प्रति अगाध घृणा भरी होगी। जो व्यक्ति सच्चा प्रगतिशील -सच्चा धर्मनिरपेक्ष होगा, वह कभी भी कल्पना अथवा झूँठ का सहारा नहीं लेगा। इतिहास का ककहरा जानने वाला भी जानता है कि हर दौर में आक्रान्ताओं ने अपने पक्ष का इतिहास लिखवायाहै।जो व्यक्ति यह मानताहै कि इब्ने बतूता ,अलबरूनी ,बाबर,हुमायूँ ,अबुलफजल, जहांगीर  रोशनआरा ने जो कुछ लिखा वो सब सच है। तो उस व्यक्ति को यह भी मानना होगा कि यह सच केवल उनका था जिन्होंने लिखा है। भारत का असल इतिहास न तो अंग्रेजों को मालूम पड़ा और न अब तक तो साइंस को ही मालूम हुआ । इसलिए जिन्हें मिथ कह दिया गया है उन  किवदंतियों,लोकगाथाओं और रीती रिवाजों की पड़ताल से ही विजित याने हारे हुए गुलाम समाजों का असल इतिहास जाना जा सकता है।अभीतो ये आलमहै कि हरकोई दक्षिणपंथी -वामपंथी विद्वान इतिहास का मीठा -मीठा गप कड़वा-कडवा थू किये जा रहा है !

दुनिया के इतिहास में यही दस्तूर रहा है कि  विजेता हमलावरों ने पराजित और गुलाम समाजों के प्रतीकों को बार-बार ध्वस्त किया है। जो लोग यह भूलकर इतिहास की मनमानी व्याख्या करते हैं वे  बहुत हद तक गिर चुके हैं। हम यदि अलाउददीन खिलजीको इतिहास पुरुष और पद्मावती को उसकी प्रियतमा मान लें तो वे इसे फौरन इतिहास मानलेंगे । किन्तु जब  कहा जाएगा कि अलाउद्दीन खिलजी एक अय्यास किस्मका अहमक सुलतान था, जिसने अपने पालनहार सगे चाचा जलालुद्दीन खिलजी को धोखे से मार डाला और जिसकी नियत रानी पद्मिनी के प्रति ठीक नही थी तो तुरन्त वीटो हाजिर है कि ये तो 'मिथ' है! जो बाकई सो रहा है उसे जगाया जा सकताहै किन्तु जो सोने का बहाना कर रहा है, उसे जगाना मुश्किल है। हालांकि मैं उसे भी जगा सकता हूँ, लेकिन हिंसक होना पडेगा  याने एक जोरदार लात मारनी पड़ेगी।

यदि किसी मूर्खानंद को पद्मिनी ,आल्हा- उदल मिथ दीखते हैं तो इन मिथकों के  निकटतम रिश्तेदार पृथ्वीराज चौहान ,जयचन्द ,परिमर्दन देव भी मिथ ही मानने होंगे।तब इन्हें हराने वाले - मुहम्मद गौरी, गजनी ,इल्तुतमिश, रजिया सुलतान, कुतुबुददीन ऐबक,घोर सनकी सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक भी मिथ ही होंगे ! और तब तो जैजाक्भुक्ति के चन्देल राजाओं का समग्र इतिहास मिथ ही होगा। कालिंजर का किला , खजुराहो के विश्व विख्यात मन्दिर,चन्देरी -महोबा के किले ,ओरछा के 'रामराजा'  मिथ ही होंगे ! तब तो बुंदेला वीरसिंह देव उनका वह बेटा जुझारसिंह जिसने जहांगीर के कहने पर अबुलफजल को कुत्ते की मौत मारा था ,मिथ ही होंगे ! यदि ये सब मिथ है ,तब  जुझारसिंह के अनुज हरदौल बुंदेला भी मिथ ही होंगे। तब बुन्देलखण्ड भी मिथ ही होगा! तब छत्रसाल , कविवर भूषण,पेशवा बाजीराव और पानीपत का युद्ध ये सब मिथ ही होंगे । भारत के सच्चे इतिहास को बार-बार मिथ बताने वाला यदि अंग्रेज इतिहासकार है ,तो यह उसकी साम्राज्यवादी बाध्यता है , यदि कोई कट्टरपंथी ईसाई या मुस्लिम इतिहासकार यह मिथवाद झाड़ता है तो यह उसकी मजहबी मजबूरी हो सकती है। लेकिन यदि कोई विख्यात वामपंथी प्रगतिशील प्रोफेसर - इतिहासकार इन सबको मिथ कहता है तो मुझे कहना पडेगा कि उसके मन में चोर है। वह भारतीय गंगा जमुनी तहजीव की जड़ों में और वामपंथ की जड़ों में भी मठठा डाल रहा है। उनके इस आचरण के चलते भारत में वामपंथ का विकास बहुत कठिन है। बंगाल में भी ऐंसे ही अहमक लोगों ने वामपंथ को कमजोर किया है। जिस तरह दक्षिणपंथी कट्टरपंथी इतिहासकार घोर संकीर्णतावादसे ग्रस्त हैं उसी तरह कुछ प्रगतिशील इतिहासकार भी भारतीय अतीतको यथार्थवादी वैज्ञानिक नजरिये से नहीं देख पा रहे हैं।

यदि संजय लीला भंसाली यथार्थ पर आधारित कलात्मक फिल्म बनाता अथवा शुद्ध मनोरंजनीय फिल्म बनाता, और यदि वह पैसा कमाने की अनलिमिटेड टुच्ची भूंख से ग्रस्त नहीं होता तो कर्णी सेना के द्वारा किये गए दवंग प्रतिवाद के खिलाफ सारा देश खड़ा हो जाता।सारा प्रवुद्ध वर्ग भंसाली के अधिकारों की पैरवी करता। यदि मुझे यकीन होताकि संजय भंसालीने शाहरुख़ खान ,सलमान खानकी तरह अपनी फिल्म की स्क्रिप्ट को जानबूझकर विवादास्पद नहीं बनाया है,यदि मुझे यकीन होता कि संजय लीला भंसाली ने राजपूतों के इतिहास से रंचमात्र भी छेड़छाड़ नहीं की है ,यदि मुझे यकीन होता कि भंसालीने ,राजपूतों की कर्णी सेना को जानबूझकर नहीं उकसाया है ,यदि मुझे मालूम होता कि मार-कुटाई की यह घटना फ़िल्मी  'टोटका'नहीं है ,तो देश के तमाम कलाप्रेमियों की तरह मैं भी उसकी अभिव्यक्तिकी स्वतन्त्रता का पक्षधर होता।लेकिन मैं पूरे यकीन से कह सकता हूँ  कि कर्णी सेना तो सिर्फ कानूनी तौर पर ही गलत है,किन्तु भंसाली ने पैसा कमाने के लिए अलाउददीन को हीरो और अपनी मातृतुल्य रानी 'पद्मिनी' को उसकी रखेल सावित करने की कोशिश की है। भंसाली का यह अक्षम्य अपराध है।

आजादी के ७० वर्षों में भारतीय फिल्म इंडस्ट्रीज ने अंडर वर्ल्ड का सहारा लेकर जितना भृष्टाचार फैलाया है, जितना  सामाजिक प्रदूषण फैलाया है ,जितना उन्मुक्त सेक्स परोसा है ,जितना नारी देह का व्यापार किया है वह संसार में अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा। कई फ़िल्म निर्माताओं,वितरकों और  हीरो- हीरोइनों ने अपने देश के साथ  विश्वासघात किया है। उत्तर-आधुनिक बाजारीकरण और नव्य उदारीकरण के कुटिल दौर में दिग्गज फिल्मवाले अब नफा कमाने के लिए इतिहास को मिथ बनाने पर तुलेहैं , वे भारतीय उदात्त चरित्रों का मजाक उड़ा रहे हैं ! वेशक  फिल्म निर्माता यदि सही हैं तो उन्हें डर किस बात का ? वे न्यायालय की शरण में क्यों नहीं जाते ?वैसे भी न्यायपालिका इन दिनों  फिल्म वालों पर कुछ ज्यादा ही मेहरवान है। शायद भंसाली को सलमान खान की तरह भृष्ट व्यवस्था का फायदा उठाना नहीं आता। जिस तरह दूसरों ने अतीत में कांग्रेस,राकांपा ,भाजपा ,शिवसेना को सेलूट किया उसी तरह भंसाली भी 'कर्णी सेना' को एक ठौ सेल्यूट ठोक देते, मामला वहीं निपट जाता। बड़े गर्व की बात है कि भंसाली ने चमचागिरी का रास्ता नहीं चुना। लेकिन संजय भंसाली ने इतिहास के जिस खण्डहर में छलांग लगाईं है वहाँ फूलों की सेज नहीं बल्कि कांटे ही कांटे हैं।

कर्णी सेना को यदि कोई आपत्ति थी तो वे उसे प्रेस और मीडिया के समक्ष पेश करते, कोर्ट जाते।मानहानि का मुक़दमा दायर करते। वैसे भी भारत के तमाम स्वनामधन्य संस्कृति प्रेमियों ,भारत स्वाभिमानियों को हमेशा याद रखना चाहिए कि भारत में एक अदद सेंसर बोर्ड भी है। न केवल सेंसर बोर्ड है बल्कि उस सेंसर बोर्ड पर केंद्र की 'हिंदुत्ववादी' सरकारका सीधा नियंत्रण है। मुंबईके परम देशभक्त शिवसैनिकों की भी हमेशा तिरछी नजर बनी रहती है। वेशक कर्णी सेना को कानून हाथ में नहीं लेना चाहिए था, सेट पर धकक मुक्की नहीं करनी चाहिए थी। हालाँकि यह सच है कि जब किसी की कोई नहीं सुनता, तो अंतमें सब यही रास्ता अख्तयार करते हैं। हालांकि इस घटना के बहाने फिल्म का प्रचार-प्रसार शुरूं हो चुका हैऔर इससे फायदा भंसाली को ही होगा ! किसी भी घटना को यदि पुलिस और कानून की नजर से देखा जाए ,तो घटना-दुर्घटना से जिसे फायदा होगा ,अंगुली भी उसी तरफ उठेगी।

वैसे तो भारत में 'सूत न कपास जुलाहों में लठालठी' की कहावत सदियों से चली आ रही है। लेकिन जबसे टीवी चेनल्स और सोशल मीडिया परवान चढा है, तबसे यह कहावत  सभी के सिर पर चढ़कर बोल रही है। जब कभी जहाँ -कहीं कुछ थोड़ी सी बहसबाजी या धक्कामुक्की हुई  कि''हनूमान की पूँछ में लगन न पाई आग ,लंका सबरी जल गयी ,गए निशाचर भाग!'' वास्तव में यह घोर असहिष्णुता का दौर है। लेकिन यह असहिष्णुता एकतरफा नहीं है। केवल शासकवर्ग ,साम्प्रदायिक तत्व और जातीयतावादी ही 'असहिष्णु' नहींहैं बल्कि धर्मनिरपेक्ष- प्रगतिशील जमातों में भी घोर असहिष्णुता घुस गयी है। कुछ वामपंथी नेता और  प्रगतिशील बुद्धिजीवी और साहित्यकार ऐसे  भी हैं जिन्हें सीधे मुँह बात करना ही नहींआती।अपनी बौध्दिक जुगाली में वे यह भूल जाते हैं कि ''घर में नहीं दाने -अम्मा चली चुगाने !''औकात पार्षदका चुनाव लड़ने या जीतनेकी नहीं है ,लेकिन पीएम नरेन्द्र मोदीकी आलोचना इस तरह करेंगे मानों वे पोलिट व्यूरो के सदस्य हों अथवा पार्टी प्रवक्ता हों !

भारतमें वामपंथी पार्टियोंका इतिहास बोध सर्वथा वैज्ञानिक,तार्किक और धर्मनिरपेक्षतापूर्ण रहा है। किन्तु कभी -कभार पार्टी मुखपत्रों में और स्वयम्भू इतिहासकारों के लेखन में धर्म-इतिहास का अज्ञान परोस दिया जाता है. तब इस उजबक और अधकचरे ज्ञान से ऊबकर पढ़े लिखे सचेतन कम्युनिस्ट भी पार्टीसे तौबा कर लेते हैं। पश्चिम बंगाल में सीपीएम की निर्मम हारके लिए सिर्फ ममता बेनर्जी की नाटकबाजी ,अल्पसंख्यकों का दुराव ही प्रमुख कारण नहीं है बल्कि कम्युनिस्ट पार्टियों का भारतीय संस्कृति ,धर्म - इतिहास विषयक दिग्भृम और अज्ञानभी एक बहुत बड़ा कारण रहा है ! भारत में वामपंथ का उद्देश्य इस पतनशील शोषणकारी नव्य पूँजीवादी -अर्ध सामंती व्यवस्था को उखाड़ फेंकना है।देश में  समानता,बंधुता आधारित शोषण मुक्त एक नए समाजवादी समाज की रचना करने का क्रांतिकारी मंसूबा रहा है। भारतीय साम्यवादियों के लिए न केवल मॉर्क्स,लेनिन बल्कि शहीद - भगतसिंह ,चेग्वेरा और स्टालिन सबसे बड़े ब्राण्ड रहे हैं !

जैसा कि मैंने उपरोक्त कार्यक्रम और नीतियों का खुलासा किया कि हरेक वामपंथी ,समाजवादी,साम्यवादी का फर्ज है कि'सर्वहारा की तानाशाही' स्थापित करने ,शोषण-उत्पीड़न समाप्त करने और लूट खसोट की पूँजीवादी व्यवस्था खत्म करने के निमत्त अपना योगदान दे।और न केवल नयी व्यवस्था बल्कि नया समाज और एक नए मनुष्य के निर्माण का प्रयास करे ! लेकिन वास्तव में हो क्या रहा है ? कुछ लोग जो वामपंथी  बुद्धिजीवी और प्रगतिशील  साहित्यकार कहलाते हैं,वे इस भृष्ट सिस्टम का बाल बांका नहीं कर पा रहे हैं।वे वेरोजगारी ,भुखमरी और लूट के खिलाफ  बात नहीं करते । किन्तु धर्म-मजहब पर , फिल्म वालों की तरफदारी पर और प्रधान मंत्री की ड्रेस पर खूब लिखते बोलते हैं । उनके श्रीमुख से इंकलाब जिंदाबाद ! सर्वहारा क्रांति अमर रहे!इत्यादि नारे नहीं निकलते ! लेकिन संजय भंसाली , शाहरुख़ खान ,सलमान खान सैफ अली करीना कपूर खान और उनके लख़्ते जिगर 'तैमूर' की इज्जत आफजाई खूब हो रही है। श्रीराम तिवारी !

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