गुरुवार, 19 जनवरी 2017

आस्तिक -नास्तिक कथा अनंता -भाग -2

 ई. हूफर -नामक विद्वान ने कहा था  “जब पहाड़ों को खिसकाने के लिये आवश्यक तकनीकी कौशल हो तो उस आस्था की आवश्यकता ही नहीं  जो पहाड़ खिसकाती है।” यह पाश्चात्य सिद्धांत वैदिक 'विशिष्ठाद्वैत' और स्याद्वाद सिद्धांत से काफी मेल खाता है। अर्थात आस्थावान हो तो बने रहो ,कोई फर्क नहीं पड़ता !किन्तु पहाड़ खिसकाने के लिए खुद तुम्हे ही माथापच्ची करनी होगी। साइंस और टेक्नालाजी की शरण में जाना होगा।मनुष्य का परिश्रम, साइंस और टेक्नालाजी -आस्था या स्तुति की मोहताज नहीं। उसका तो सन्धान ही काफी है। पूजा- पाठ या स्तुति से नतीजे आएंगे इसकी गारन्टी कोई नहीं देगा ,किन्तु परिश्रम और बुध्दि कौशलसे अपने आप हाजिर हो जायेंगे।

तमिलनाडु के कुछ लोग एक बाहियात,ऊलजलूल हिंसक बैलों के खेल जल्लीकट्टू के लिए हलकान हो रहे हैं !वे कोर्ट का अनादर कर रहे हैं ,इन हालात में राजनैतिक दलों को इस बकवास का समर्थन नहीं करना चाहिए। कम से कम प्रगतिशील और वामपंथी मित्रों को तो इससे दूर ही रहना चाहिए। एक तरफ तमिलनाडु के लोग हर चीज मुफ्तमें चाहते हैं, पहले दाल चावल सस्ता खाया ,अब  उनकी दाढ़ को मुफ्त का खून लग चुका है। इसलिए अम्मा समर्थकों को अब वर्तन भांडे और खाना भी मुफ्त में चाहिए। करूणानिधिका खेमा भी कुछ कम नहीं है।इस तरह लाखों मुफ्तखोर जिस प्रदेश में हों ,उसे कामधाम की क्या जरूरत ?उसे तो हंगामा करने का बहाना चाहिए ,फिर चाहे वह जल्लीकट्टू ही क्यों न हो ! यदि यह उधमबाजी ही आस्था -आस्तिकताका सबब है तो इसे दूरसे नमस्ते !
   
गोकि आस्था या आस्तिकता बुरी चीज नहीं ,यदि आप आस्तिक हैं तो जिंदगी भर दुखों के पहाड़ खिसकाने के लिए 'ईश्वर'का आह्वान करते रहिये। लेकिन आपकी आस्तिकता से पहाड़ खिसक जाएगा ,इस पर तो गोस्वामी तुलसीदासजीको भी संदेह है। उन्होंने अपने महानतम महाकाव्य रामचरितमानस में जोरदार शब्दों में लिखाहै :-
सकल पदारथ हैं जग माहीं। कर्महीन नर पावत नाहीं।। अर्थात जो कुछ होगा 'कर्म' से ही होगा। कर्म के बिना ,  सिर्फ आस्था के भरोसे ,दुखों का पहाड़ तो क्या, रेत का एक कण भी नहीं खिसकेगा !अस्तु श्रमेव जयते !

हर शास्त्र ,हर मजहब -धर्म कहता है कि कर्म करो ,फल की इच्छा मत करो। श्रीकृष्ण ने कर्म की पैरवी यों ही  नहीं की !उन्होंने 'इंद्रपूजा' या यज्ञके चोंचले  में न पड़कर ,गोकुल गाँव के ग्वालों को गोवर्धन पर्वत के नीचे छुपा कर बाढ़ से बचाया। 'श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाया' यह केवल एक रूपक है। दरअसल श्रीकृष्ण ने लोगों को समझाया कि बाढ आये तो आस्था और पूजा के भरोसे न रहें। इंद्र का नहीं गोवर्धन पर्वत का सहारा लिया जाना ही उचित है। श्रीकृष्ण द्वारा इंद्र की पूजा और यज्ञ का विरोध एक पौराणिक मिथ है। लोगों ने उनके सन्देश को समझने के बजाय उनकी भी पूजा शुरूं कर दी। उन्हें पूर्णब्रह्म परमात्मा घोषित कर दिया। वास्तविकता यह है कि द्वारका के विनाश और  'यादवी कुल कलह' से परेशान होकर  श्रीकृष्ण जब द्वारका छोड़ हस्तिनापुर जा रहे थे तब रास्ते में भीलों ने गोपिकाओं को लूट लिया और श्रीकृष्ण को मार डाला! अर्जुन साथ में थे किन्तु कुछ नहीं कर सके। भीलों ने उनका गाण्डीव तोड़ डाला। किसी ने इस घटना का वर्णन यों किया है :-

पुरुष बली न होत है ,समय होत  बलवान।

भिल्लन लूटीं गोपिका ,वहि अर्जुन वहि बाण।।

 हजारों साल बाद जो श्रीकृष्ण हमारे सामने पेश किये जा रहे हैं ,उसमें सूरदास का अंधत्व ,मीरा का वैधव्य और वल्लभाचार्य का प्रेमासक्त भाव निहित है। आस्था -विश्वास के अनेक रूपक हैं जो पुराणकारों के अतिशयोक्ति लेखन और कथावाचकों द्वारा  बोले गए  लगातार झूँठ को सच में बदलते रहे।तोता मैना ,अलिफ़ लैला की तरह  हर घटना की और महापुरुष की एक काल्पनिक छवि का निर्माण किया जाता रहा है। पौराणिक आख्यान  में यह छवि परम 'सत्य' कहलाती है। जो इस सत्य को मानताहै उसे आस्तिक कहते हैं ,जो वैज्ञानिक व ऐतिहासिक नजर से खोजबीन करता है ,उसे नास्तिक कहते हैं। कहने को तो दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं।लेकिन सच यही है कि उस 'परम सत्य'को महाकाव्यों में इस तरह गूँथा गयाहै जैसे आटे में नमक अथवा भूसे के ढेर में सुई।

यदि पूजा -आस्था से पहाड़ खिसक गया होता तब तो 'ईश्वर'के अस्तित्व पर संदेह की गुंजाइस ही नहीं रह जाती। किन्तु आस्था -प्रार्थना से कभी कोई पहाड़ नहीं खिसका। शास्त्र का कहनाहै कि जो 'ईश्वर' में विस्वास करता है ,  उसका  फायदा हो या न हो किन्तु नुकसान नहीं  होगा ! पैर में कांटा चुभने पर ,दाँतों में फ़ांस चुभने पर ,अंगुली कट जाने पर और रक्त बहने पर,दुनिया का कोई आस्तिक ईश्वर के भरोसे नहीं रहता। तुरन्त उपचार की सोचता है। यही सही  है। यदि आप आस्तिक हैं और 'कर्मसिद्धांत' का आचरण करते हैं तो वैज्ञानिक दॄष्टि से इस संसार को देखिये ,आपको दूध का दूध और पानी-का पानी नजर आएगा। आपकी आस्तिकता से किसीको कोई खतरा नहीं ,यदि आप  इस सन्सारके विकास में विज्ञान के योगदान को और मनुष्य की सृजनशीलता को सम्मान देते हैं।

गोयबल्स ने कहा था 'यदि किसी झूँठ को सौ बार बोला जाए तो वह सच हो जाता है' यह कथन 'भावजगत' अथवा अध्यात्म क्षेत्र में जमकर लागू होता है। विज्ञान बुद्धि वाला नास्तिक मनुष्य  भी यदि आस्था रुपी काल्पनिक भाव में रहताहै तो उसेभी वही परिणाम मिलेगा ,जो सहज स्वभाव वाले आस्तिक और आस्थावान को मिलेगा। फर्क सिर्फ इतनाहै कि 'आस्तिक' व्यक्तिको बड़ी आसानीसे अंधश्रद्धा और साम्प्रदायिकता का शिकार बनाया जा सकता है , जबकि 'नास्तिक' व्यक्ति को दुनिया की कोई भी ताकत भ्रमित नहीं कर सकती।धार्मिक जगत में आम धारणा है कि 'नास्तिक' बुरे होते हैं ,वे भगवान् ,ईश्वर और धर्म-मर्यादा को नहीं मानते। लेकिन आस्तिक और नास्तिक के भावों,विचारों,मूल्यों और चरित्रों को जानने वाला ,इन्हें एक ही सिक्के के दो पहलु मानने को बाध्य होगा! वैसे भी निरपेक्ष रूप से इस जगत में कोई आस्तिक नहीं हैऔर कोई नास्तिक नहीं है।  

समय ,स्पेस ,स्थिति ,चेतना और जिजीविषा का भाव -इन पांच 'तत्वों' के बिना मनुष्य के अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं। क्रमिक विकास की अनवरत धारा में मानवीय मेधा शक्ति द्वारा संकल्पित विचार सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। मनुष्य के बौद्धिक एवम श्रमसाध्य कौशल द्वारा रचित सभ्यता ,संस्कृति, भौतिक संसाधन और आध्यात्मिक चेतना के विकास को यदि धरती से माइनस कर दें, तो इस लौकिक संसार के होने या न होने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा! यदि मनुष्य की चेतना का अस्तित्व नहीं तब किसी पारलौकिक तत्व अर्थात 'ईश्वर'के अस्तित्व का तो प्रश्न ही नहीं उठता ! इसका मतलब 'ईश्वर' अथवा किसी अलौकिक पारलौकिक शक्ति के होने -न होने की पहली शर्त यह है कि ब्रह्मांड में मनुष्य या उसके जैसा सचेतन प्राणी अवश्य हो !

यदि सचेतन मनुष्य और यह दृश्य जगत किसी 'कर्ता' का कार्य हैऔर यदि कर्ता 'सर्वशक्तिमान' है तो जगतका व्यवहार उस 'कर्ता' याने ईश्वर के नियंत्रण में ही होगा। तब पाप-पुण्य ,कर्म-अकर्म,उत्पत्ति -प्रलय ,जन्म-मृत्यु , स्वर्ग-नरक,सुख-दुःख ,हानि -लाभ , ज्ञान-अज्ञान के लिए मनुष्य अथवा देश -काल -परिस्थितियाँ नहीं अपितु वह 'सर्वशक्तिमान' ईश्वर ही जिम्मेदार होगा !इसका तात्पर्य यह है कि उस ईश्वर को -जो पूर्ण है ,सक्षम है ,सर्वव्यापी है सर्वशक्तिमान है उसेही अपने 'सृजन' की त्रुटियोंके लिए खुद ही जिम्मेदार होना चाहिए। कोई जन्मना धनाड्य है , कोई जन्मना निर्धन है ,कोई जन्मना स्वस्थ और मेधावी है ,कोई जन्मना रोगग्रस्त और मंदबुद्धि है ,इन हालात में प्रारब्ध या काम्यकर्म का बहाना किसी जीव पर थोप जाना न्यायसंगत नहीं है। 'जीव'की 'स्वतन्त्र इच्छा' का यदि कोई अस्तित्व है तो 'कर्ता' अर्थात ईश्वर का उसपर पूर्ण नियन्त्रण होना चाहिए। याने  कर्म-अकर्म और भले-बुरे के लिए ईश्वर की जगह मनुष्य रुपी 'कार्य'को जिम्मेदार क्यों होना चाहिए ! इस प्रश्न का उत्तर देने के बजाय हर धर्म-मजहब में यह कॉमन फेक्टर है कि 'सवाल मत करो ! ईश्वर के अस्तित्व पर और उसके न्याय पर यकीन करो!जो यकीन नहीं करता जो सवाल करता है ,तर्क करता है उसे भारतीय वैदिक वाङ्गमय में नास्तिक कहा गया है। जो आँख मीचकर वेद,शास्त्र,गुरु और ईश्वर में आस्था-श्रद्धा -विश्वाश रखता है उसे 'आस्तिक' कहते हैं।

दरसल इस दुनिया में परफेक्ट आस्तिक और परफेक्ट नास्तिक कोई नहीं है। मैं आस्तिक-नास्तिक की बहस को अंजाम तक ले जाना चाहता हूँ ,ताकि जिसे गलतफहमी है कि वह आस्तिक है वह ,और जिसे गलत फहमी है कि वह नास्तिक है वह ,अपनी गलतफहमी दूर कर ले !इसमें यदि मैं कुछ भी योगदान कर सकूँ तो मानवता के लिए मेरी यह कृतज्ञता होगी ! पाठकों से निवेदन है कि प्रस्तुत आलेख में प्रयुक्त शब्द 'ईश्वर' को वैश्विक आस्था केंद्र के व्यापक अर्थ में अर्थात 'सर्वशक्तिमान' के अर्थ में ही पढ़ा जाए।इस 'ईश्वर' शब्द में खुदा,अल्लाह,गॉड,एकओंकार र्ब्रह्म-परमेश्वर, भगवान तीर्थंकर इत्यादि सभी 'शब्द ब्रह्म' में समाहित हैं ।

दुनियाभर के विज्ञान बुद्धि वाले विद्वान् सदियों से मानते रहे हैं, कि धरती पर मनुष्य का उदभव पहले हुआ और 'ईश्वर'  बाद में 'अनुभूत'हुआ । दरसल जब तक 'मनुष्य' नामक प्राणी को अन्य सभी प्राणियों पर बौद्धिक बढ़त हासिल नहीं हुई थी ,तब तक ईश्वरकी अवधारणा तो बहुत दूर की बात 'लोक देवता' भी स्थापित नहीं हुए थे।  इस कथन को यों भी कहा जा सकता है कि मनुष्य का पूर्वज 'वनमानुष' के रूप में धरती पर मौजूद तो था किन्तु जब तक उसने अपने चारों और के दृश्य जगत और कतिपय अदृश्य शक्ति केंद्रों से 'टकराव'महसूस नहीं किया तब तक उसे 'देवताओं' की जरूरत ही नहीं पडी।कालांतर में जब मनुष्य को एहसास हुआ कि आग,पानी,हवा,आसमान,धरती,सूरज और चाँद तारे उससे बहुत शक्तिशाली हैं ,तो उसने इन शक्तियों के आगे भयमिश्रित कृतज्ञता व्यक्त कीहोगी । धरती पर  'मेंटेरियलिस्ट' देवताओं की स्थापना पहले हुई। भारती भूभाग के 'आर्यावर्त'में ऋग्वेद का प्रारंभ 'अग्नि' शब्द से ही हुआहै। पहला मन्त्र अग्निदेव को ही समर्पितहै।

पूर्व वैदिककाल में 'ईश्वर'नहीं था। ऋग्वेद,सामवेद,यजुर्वेद के दीर्घ रचना काल में इंद्र,मित्र ,वरुण,अग्नि,अहुरमज्द,
और इनके साथ -साथ मरुत,असुर,दानव ,यक्ष,नाग,रूद्र इत्यादि का वर्ण मिलता है। उत्तर वैदिककाल के ऋषियों ने इन अलग-अलग देवताओं को एक ही 'शक्ति' का प्रतीक माना। उपनिषद का ऋषि कहता है ''एकम सद विप्र
बहुधावदन्ति''! इस तरह यह 'एकम सद' ही 'यज्ञपुरुष' के रूपमें धरतीपर 'ईश्वर'का प्रथम साकर रूप प्रकटहुआ।
उपनिषद -आरण्यक के मन्त्रदृष्टा ऋषियों ने पृथ्वीकी भौतिक शक्तियों अर्थात 'मेटेरियलिस्ट'देवताओं के उत्प्रेरक कारण स्वरूप 'परब्रह्म' की परिकल्पना की, जो कभी देवता [वामन,विष्णु] के रूप में ,कभी अर्ध मानव अर्ध पशु [नरसिंह'] के रूपमें और कभी मनुष्य - परशुराम,राम,कृष्ण बुद्धके रूप में अवतरित होने लगा। यहाँ मैंने अपनी सीमित समझ एवम अल्पज्ञान के कारण केवल वैष्णव परंपरा में 'ईश्वर'के क्रमिक विकास और अवतारवाद काही उल्लेख किया है। शैव,शाक्त,गाणपत्य,नास्तिक,जैन,बौद्ध इत्यादि पंथ दर्शनमें 'ईश्वर'अथवा ब्रह्म का निषेध है तथा भारत के बाहर उद्भूत 'रिलीजन्स' के बारे में मुझे कोई खास जानकारी नहीं है। किन्तु यदि प्रत्येक मानव सभ्यता के क्रमिक विकास का विज्ञानसम्मत निष्पक्ष  विवेचन करें तो कमोवेश सभी धर्म-मजहब में एक रोचक समानता दिखेगी। यह सावित किया जा सकता है कि मनुष्य ने धरतीपर सर्वप्रथम 'मेटेरियलिस्ट पॉवर' को ही नमन किया था। मानवीय बुद्धि -विवेक से जो कुछ भी परे है, उसे ही आदिम मनुष्य ने कृतज्ञतावश 'अल्लाह,गॉड ईश्वर और सर्वशक्तिमान परमेश्वर मान लिया।  

जहाँ-जहाँ 'बुद्धि विवेक'का विकास नहीं हुआ ,बौद्धिक क्षमता का विकास नहीं हुआ वहाँ -वहाँ धर्म-मजहब बहुत बाद में पैदा हुए। तदनुसार वहाँ 'ईश्वर' अल्लाह,और गॉड भी बहुत बाद में जन्में। भारतीय भूभाग पर ईश्वर तभी अस्तित्व में आ गया था ,जब उसने आग की खोज की थी। ऋग्वेद का ऋषि उस आग को ही ब्रह्मस्वरूप  घोषित कर देता है। वैदिक ऋषि 'अग्निदेव'को कृतज्ञता स्वरूप 'हवि ' अर्पित करता है। इस 'हवि' को वह जिस हवनकुंड में स्वाहा करता है उसको भी उस ऋषि ने यज्ञपुरुष अर्थात 'ब्रह्म' ही कहा है।वैदिक ऋषि सिर्फ यहीं नहीं रुकता, वह हवि अर्पण करने वाले मनुष्य को भी ब्रह्म ही कहता है। शायद उपनिषद के मन्त्रदृष्टा ऋषि को 'अहंब्रह्मास्मि' और 'तत्त्वमसि' वाला अनुभव तभी हुआ होगा ।शायद इसी तरह अग्नि पूजक जरथ्रुस्त को ,हजरत मूसा और ईसा मसीह को, हजरत इब्राहीम और मुहम्मद पैगम्बर साहब को भी इसी तरह खुदा,अल्लाह का इल्हाम हुआ होगा ।

 आवश्यकता आविष्कार की जननी है ,धरती पर 'मनुष्य' नामक प्राणीको 'ईश्वर'की जरूरत महसूस हुई,उसने उसे खोज लिया। हालाँकि जब कभी किसी तर्क बुद्धि और विज्ञानवेत्ता ने प्रश्न किया तो उसके समक्ष श्रद्धा -विश्वाश रुपी प्रतिप्रश्न खड़ा कर दिया। कहा गया कि श्रद्धा -विश्वाश के बिना दुनिया में 'ईश्वर' का कोई अस्तित्व नहीं। याने ईश्वर पराश्रित है ,वह 'सतचित-आनंदघन ' नहीं है। नास्तिक फिर सवाल कर सकता है कि जो खुद ही पराश्रित है वह 'सर्वशक्तिमान' ईश्वर कैसे हुआ ?जो श्रद्धा -विश्वाश पर आश्रित है, जो दूसरे पर आश्रित है वह उसकी मर्जी के बिना 'कर्मफल' कैसे दे सकता है ?  अर्थात ईश्वर का अस्तित्व आस्था- श्रद्धा और विश्वाश पर तिलक हुआ है। यदि यह सच है तो कहा पड़ेगा कि आस्तिक-नास्तिक और ज्ञानी-अज्ञानी सब बराबर हैं।इसलिए यह कहावत चल पड़ी कि मान लो  तो पत्थर भी देवता है वरना वह पत्थर ही है ।

मानव इतिहास के हर दौर में ईश्वर के अस्तित्व पर दलीलें दीं जातीं रहीं हैं और सवाल भी खूब उठाये जाते रहे हैं। धर्मभीरु और भयभीत मनुष्य ने जब कभी -जहाँ कहीं  'ईश्वर' को स्वीकार किया है तो तत्काल उसके विरोध में भी आवाज उठी है । 'अस्ति' का विरोध एवम 'नास्ति' की स्वीकारोक्ति भी दुनिया के प्रत्येक  सभ्य समाज और हर युग में सुनाई देती रही है। भारत,पर्शिया ,यूनान,चीन ,इजरायल जैसे कुछ देशों की सभ्यताओं के शुरुआती दौर में ही भाषा के आविष्कारने  धर्म-मजहब से निर्धारित जीवन शैलीके विधान रचेहैं। भारतीय उपमहाद्वीप में संस्कृत और अन्य भाषाओँ के उद्भव -विकास ने आस्तिक-नास्तिक,जीवात्मा-परमात्मा, माया -जगत  इत्यादि अनगिनत शब्दों का अद्भुत पिटारा रचने में मानव समाज की मदद की है ।

भारतीय अद्वैत वेदान्त ने हजारों साल पहले शिद्दत से माना था कि जो-जो 'अस्ति,भाति,प्रियम 'है वह निर्गुण 'ब्रह्म' है अर्थात जो सदा से सर्वत्र है ,जो स्वयम की ज्योति से प्रकाशित है और जो सहज ही प्रिय है वही निर्गुण निराकार 'परमब्रह्म' है। नाम,रूप  माया है। यह माया याने नाम -रूप जब अस्ति ,भाति ,प्रियम के साथ  संयोजित होते हैं तो सगुण साकार ईश्वर'अवतरित' हो जाता है।जो व्यक्ति वेदों में और वेदान्त सिद्धांत में आस्था श्रद्धा रखता है उसे ही आस्तिक कहते हैं। जो इसे नहीं मानता उसे नास्तिक कहते हैं। ब्रह्म,जीव,माया जगत ,आस्तिक,नास्तिक इत्यादि शब्द वेदान्त दर्शनकी देन हैं। नास्तिक -आस्तिक शब्द  केवल वैदिक मत या वैदिक धर्मकी उपज हैं , वैदिकधर्म से बाहर के अन्य धर्म-मजहब के लिए समक्षक समीचीन शब्द क्या हैं यह मुझे नहीं मालूम ! इस्लाम का काफिर शब्द संस्कृत के नास्तिक का पर्यायवाची नहीं हो सकता ,क्योंकि इस्लाम में अन्य धर्म मजहब  मानने वाले को भी काफ़िर कहा गया है। जबकि वैदिकधर्म अन्य सभी धर्मों को मान्यता देता है। वैदिक ऋषि पूर्ण विश्वाश के साथ कहता है 'एकम सद विप्र :वदन्ति' ! अर्थात जिस तरह तमाम नाले नदियाँ समुद्र की ओर मुखातिब हैं ,उसी तरह संसारके सभी धर्म-मजहब उस 'एक सर्वशक्तिमान ईश्वर' की ओर  मुखातिब हैं। वैदिकधर्म में नास्तिक उसे कहा गया है जो  वैदिक परम्परा के अनुसार जीवन नहीं जीता। चूँकि वैदिक परम्परा के अनुसार जीवन जीने वाले मुठ्ठी भर ही होंगे ,भारत में हजार पांच सौ 'आस्तिक'ही होंगे। अस्ति -नास्ति के सिद्धान्तानुसार तो दुनिया के सात अरब लोग नास्तिक ही हैं।  चूँकि आलोच्य संदर्भ मेरी बौद्धिक क्षमता से बाहर है। इसलिए मैंने भारतीय और विशेषतः वैदिक परम्परा के बरक्स ही आस्तिक बनाम नास्तिक का तुलनात्मक विश्लेषण किया है ।

अधिकांस हिन्दू इस पौराणिक 'मिथ' को जानते हैं कि भृगु ऋषिने भगवान् विष्णु की छाती पर लात मारी थी।किन्तु यह बहुत कम लोग जानते हैं कि क्यों मारी थी ?यह पौराणिक मिथ केवल इसलिए नहीं गढ़ा गया कि श्रीहरि विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से भृगु ऋषि की पत्नी का सिर काट लिया था ,बल्कि यह इस बात का द्वेतक है कि ज्ञानरुपी ऋषि ने धन-समृद्धि के स्वामी 'लक्ष्मीपति'को अपने पदतल से रौंद दिया था । अन्योक्ति को ठीकसे समझा जाए तो तात्यपर्य यह है कि 'ज्ञान'को ईश्वर पर बढ़त हासिल थी। यदि इसयुग का बुद्धिजीवी भृगु ऋषि जैसा साहस करे तो उसे'देशद्रोही'और नास्तिक कहा जाएगा। शुक्राचार्य ने हमेशा देवताओं के विरुद्ध षड्यन्त्र रचे। मुनि विश्वामित्र ने  ब्रह्मा की सृष्टि को ही चेलेंज किया और समानांतर सृष्टि भी रची।उन्होंने ब्रह्मा और उनकी रचनाओं अर्थात वेदों का अपमान भी किया।उन्होंने वशिष्ठ जैसे महान सज्जन गुरु के पुत्रों को अकारण मार डाला। उन्होंने  मेनका अप्सरा के साथ रंगरेलियां मनाई। किन्तु किसी ने उन्हें नास्तिक कहने का साहस नहीं किया। यदि वे २१वीं सदी के भारत में यह सब करते तो कलिबुर्गी ,पानसरे,और दाभोलकर की तरह मार दिए गए होते ।

दुनिया के किसी भी तथाकथित महान धर्म-मजहब की स्थापना बिना 'रक्तिम' क्रांति के सम्भव नहीं रही।केवल कुछ अपवादों को छोड़कर किसीभी धर्म-मजहब का विस्तार बिना धर्मयुद्ध या खून खराबे के सम्भव नहीं रहा।  ईसा मसीह को  सूली पर चढ़ना पड़ा। मुहम्मद साहब को मक्का से मदीना 'हिजरत' करनी पड़ी,अपनी प्राणरक्षा के लिए उन्हें खुद हिंसक होना पड़ा। हुसेन-हसन को कर्बलाके रेगिस्तान में शहादत देनी पडी। कुरुक्षेत्र ,कलिंग का रक्तरंजित इतिहास कोई 'मिथ' नहीं है बल्कि  सर्वमान्य और सर्वज्ञात है। भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म -अधर्म के नाम का जितना भी बर्बर खूनी इतिहास मौजूद है उसके मूल में अन्याय ,अत्याचार और शोषण -उत्पीड़न का प्रतिकार बहुत कम लेकिन 'जर-जोरू-जमीन' और राज्यसत्ता पिपासा का फंडा ख़ास रहा है। धर्म सिर्फ वीरगति प्राप्त होने पर स्वर्गिक आनंद का काल्पनिक बहाना रहा हैअर्थात 'चढ़ जा बेटा सूली पर राम भली करेंगे' ।

देवासुर संग्राम में सिर्फ अमृतकलश का झगड़ा नहीं था बल्कि समुद्र मंथन से निकली लक्ष्मी और समस्त सम्पदा के बटवारे का द्वंद था। चाहे परशुराम द्वारा क्रूर सामंतवाद का नाश हो,चाहे राम -रावण का युद्ध हो ,चाहे कौरव-पांडव के बीच महाभारत का अठारह दिवसीय महायुद्ध हो ,सभी में एक 'नारी' विशेष की भूमिका अवश्य रही है। कृष्ण और कंस के संघर्ष में , बिम्बिसार से लेकर चण्डअशोक की रक्तपिपासा में , बृहद्रथ और पुष्यमित्र शुंग के द्वंद में, जड़ भरत बनाम बाहुबली संघर्ष में 'शक्तिशाली ही राज्य भोग करेगा' का सिद्धांत क्रियाशील होता रहा है। मानव इतिहास के हरेक द्वंद ने सत्य-असत्य को भी परिभाषित किया है। साथ ही साथ 'धर्मसंस्थापना' के क्रमिक विकास का भी काम किया है। क्रमिक विकास की अनवरत हिंसक दीर्घ यात्रा के हर पड़ाव में आस्तिक -नास्तिक की गाथा लिखी जाती रही है। 'हरि अनंत हरि कथा अनंता' की भाँति आस्तिक-नास्तिक गाथा भी अनंतहै किन्तु मैं उस पर संछिप्त ही लिखूंगा।  'उद्धरण' या ऐतिहासिक साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनावश्यक मशक्क्त के बजाय मैं स्वअनुभूतिजन्य तथ्यान्वेषण में यकीन रखता हूँ। यह पाठक के विवेक और संचित ज्ञानकोष पर निर्भर है कि वह सिद्ध करे कि मैंने जो लिखा वह 'इस या उस' वजह से गलत है ! अन्यथा मेरे लेखन को यथावत स्वीकार करे !  

धर्म-अधर्म के सनातन विमर्श में 'सत्य' याने ईश्वर का प्रमुख स्थान रहा है। सत्यपथ पर कौन है ? आस्तिक अथवा नास्तिक ,इस बारे में बहस हमेशा जारी रही है।और यह बहस कभी खत्म नहीं होने वाली।क्योंकि कुछ भाववादी विद्वान हमेशा इस 'मत' पर दृढ़ रहेहैं कि अच्छा जीवन जीने या आत्मोद्धार के लिए आस्तिक होना बहुत जरुरी है ! लेकिन वे इसका जबाब नहीं दे पातेकि ईश्वर का अस्तित्व मनुष्य की चेतना पर ही आश्रित क्यों है ?  यदि सुसभ्य और विकसित मनुष्य भी पिछड़ी सभ्यताओं और अनीश्वरवादी जनजातियों की तरह सहज प्रमादी होते और वे कार्य-कारण के सिद्धांत का अन्वेषण नहीं करते तो दुनिया में ईश्वर का अस्तित्व ही नहीं होता ? मात्र अधिकांसत: आस्तिक लोग ही जेहादी क्यों बनते हैं ? धर्मांतरण और धर्म्-मजहब के आंतरिक -बाह्य संघर्ष के लिए आस्तिक  लोग ही जिम्मेदार क्यों होते हैं ? मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण में धर्म-मजहब की ताकतें शक्तिशाली शोषक वर्ग के पक्ष में क्यों खड़ी हो जातीं हैं ? सर्वधर्म समभाव के सिद्धांत में अटूट विश्वाश रखने वाला देश भारत सदियों तक विदेशी नास्तिकों के अधीन गुलाम क्यों बना रहा ?

यदि किसी को यह भ्रम है कि आस्तिकता ईश्वर का भय पैदा करती है और बुराई को रोकती है ,तो उसे इस भ्रम से तत्काल मुक्त हो जाना चाहिए !क्योंकि सारे मजहबी आतंकवादी,चोर,डकैत ,दवंग,बाहुबली,और शोषणकर्ता आस्तिक ही होते हैं। इसके विपरीत नास्तिक मनुष्य जरुरी नहीं कि सभी शहीद भगतसिंह जैसे महान क्रांतिकारी हों,किन्तु इतना तय है कि हर नास्तिक हर भ्रम से मुक्त रहता है !जबकि आस्तिक मनुष्य बहुत सारे भ्रम फैलाता है। आस्तिक कभी पत्थरकी मूर्ती को दूध पिलाता है ,कभी सुनामी ,भूकम्प ,जलजला , तूफान  इत्यादि  प्राकृतिक- घटनाओं को ईश्वर का प्रकोप बताता है। नास्तिक व्यक्ति भ्रम तोड़ता है वह ऐंसे ईश्वर में विश्वाश नहीं करता जो अपने बन्दों पर सुनामी या भूकम्प के द्वारा जुल्म करता है। नास्तिक बतलाता है कि यह जगत 'मिथ्या' नहीं है। वह पाप-पूण्य के दैवीय नियम की बनिस्पत  संसार में स्थापित मानवीय मूल्यों की कद्र करना सिखाता है, वह प्रत्येक कार्य को नैतिक-अनैतिक नियमों में आंकता है। वह अच्छाई -बुराई के मापदण्ड से मनुष्यता को मापता है। सच्चे नास्तिक को मालूम है कि मूल्यों और यथार्थ पर आधारित समाज व्यवस्था में पाखण्डवादी धर्म-मजहब की नही बल्कि 'सत्य और न्याय' और मानवता की तूती बोलती है। नास्तिक किसी का अहित नहीं चाहता बल्कि प्राणिमात्र का हित चाहता है। 'वैदिक ऋषि' नेभी सबसे पहले यही कहाथा 'नेति-नेति' अर्थात 'ईश्वर है या नहीं मैं नहीं जानता' इसके वावजूद वह कामना करता है कि 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयः '! इसलिए यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि एक सच्चा विज्ञानवादी भौतिकवादी नास्तिक भी उस वैदिक ऋषि की तरह ही सोचता है !     

सृष्टि के आदि में जब मनुष्य पशुवत जीवन जीता था तब धर्म नहीं था। मनुष्य ने सबसे पहले बोलना ,हंसना ,रोना और गाना सीखा होगा। बाद में आवश्यकतानुसार तमाम अनुसन्धान होते चले गए। आदिम मनुष्य ने कभी आग को, कभी समुद्र को, कभी सूर्यको, कभी चाँद तारोंको कौतूहल से देखा होगा। इसी विकास क्रम में उसने 'अज्ञात' शक्ति की कल्पना की होगी। कालांतर में उसका यह आविष्कार 'दंड' देने और समाज को नियंत्रित करने में काम आया। लेकिन अधिकांस धर्म-मजहब के उदभव की सदियाँ बीत चुकीं ,धर्म- मजहब खूब परवान चढ़ चुके हैं ,तो फिर ये  मजहबी पाखंड, धार्मिक उन्माद और हिंसा का नंगा नाच अभी तक क्यों बरकरार है ? जहाँ-जहाँ धर्म के, मजहब के, संगठित ठिकाने हैं ,वहाँ -वहाँ अधर्म ,अंधश्रद्धा ,अंधविश्वास और हिंसा का बिकट बोलवाला क्यों है ?

सिर्फ १९ वीं शताब्दी के दार्शनिक -रूसो ,बाल्टेयर ,हीगेल ,ओवेन अथवा मार्क्स ही नहीं बल्कि आधुनिक उन्नत तकनीकि युग के डेमोक्रेटिक राजनीतिज्ञ और सामाजिक समताकी आकांक्षा के प्रगतिशील विचारक और चिंतक भी इन सवालों की खोज में आजीवन सर धुनते रहे।उन्होंने माना कि मेहनतकश जनता को धर्म-मजहब के नाम पर ठगने वालों में 'आस्तिकों' की तादाद ही सर्वाधिक है। ऐतिहासिक द्वंदात्मक भौतिकवाद केलिए इससे  कुछ   मतलब नहीं कि आप आस्तिक हैं या नास्तिक !महत्व इस बात का है कि आपकी आस्तिकता अथवा नास्तिकता आपको किधर ले जाती है। यदि आपकी आस्तिकता आपको अच्छा मनुष्य बनाने में मदद करती है ,शोषणविहीन समाज बनाने में मदद करती है तो ऐंसी आस्तिकता का स्वागत है। यदि आपकी आस्तिकता से धर्मान्धता बढ़ रही है ,आतंकवाद बढ़ रहा है ,निर्धन मजदूर-किसान लूट-पिट रहा है ,देश कायरता एवम गुलामी के दलदल में धस रहा है तो ऐसी आस्तिकता को दूरसे ही नमस्कार!यह आस्तिकता तो सीधे सरल इंसान की शत्रु है ,मनुष्य की घोर विरोधी है।

यदि आपकी नास्तिकता से धरती के इंसान को सौरमण्डल का ज्ञान हासिल होता है,यदि आपकी नास्तिकता से चेचक के टीके और का आविष्कार होता है ,यदि आपकी नास्तिकता से साम्राज्यवाद का सूर्य अस्त होता है ,यदि आपकी नास्तिकता से कोई रोता हुआ  हँसने लगे ,यदि आपके नास्तिक या अनीश्वरवादी होनेके वावजूद आपके अपने माता-पिता ,वरिष्ठजन खुशहाल हैं ,यदि आप रिश्वतखोर नहीं हैं ,यदि आप अनैतिक कार्यों से दूर हैं ,और यदि आप  अपने देश के लिए समर्पित हैं तो आपकी नास्तिकता को शत -शत नमन ! ईश्वर आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। ईश्वर यदि वास्तव में है तो भी वह अकारण किसी निर्दोष प्राणी को क्यों सताएगा ?वह सिर्फ इस बिना पर सताने की जुर्रत क्यों करेगा कि इंसान ने उसे सिजदा नहीं किया या प्रणाम नहीं किया !ईश्वर अल्लाह गॉड कोई ईर्ष्यालु हस्ती तो है नहीं कि हर उस इंसान से बदला लेता फिरे जो उसकी 'भक्ति'[चमचागिरी] न करे !

उन्नीसवीं  शताब्दी में मार्क्स -एंगेल्स के हस्तक्षेप के बाद ,आस्तिक-नास्तिक की यह बहस विज्ञान और तर्ककी कसौटी पर आधरित हो गई। अब धर्म-मजहब का आंतरिक संघर्ष सिर्फ भाववादी दर्शन तक सीमित नहीं रहा ।  इसमें साइंस और तर्कवाद भी पूरी शिद्दत के साथ के मौजूद है।जबसे विज्ञान ने चन्द्रमा को मृत पिंड सावित किया है , जबसे एलोपेथी ने मानव समेत अन्य प्राणियों के शरीरों का रिसर्च किया है ,जबसे कृतिम गर्भाधान और कृतिम वर्षाका आविष्कार हुआ है ,तबसे साइंस का पक्ष ज्यादा विश्वनीय और अकाट्य  सिद्ध हुआ है। किन्तु साइंस वाले और भौतिकवादी उस एक मुद्दे पर ढेर हो जाते है ,जब 'भावजगत' का कोई विद्वान यह तर्क देता है कि मनुष्य की क्षमता के बाहर का जो 'क्षेत्र' है उसपर साइंस भी कोई निर्णय नहीं दे सकता। उनके अनुसार जो मनुष्य के चिंतन से बाहर का क्षेत्र है वही  'ईश्वर' है। मानलो  मनुष्यकी बुद्धि और विवेकसे बाहर का क्षेत्र 'असत्य' है ! तबभी अनेक प्रश्न उठते हैं कि ज्ञान क्या है ?अज्ञान क्या है ?सृष्टि का कर्ता अथवा 'कारण' कौन है ? सूर्य और उसके सौर मंडल का 'कारण' कौन है ? ये आकाशगंगाएँ ,ये नीहारिकाएँ, ये अखिल ब्रह्मांड कहाँ से आये ? जब तलक इन प्रश्नों का प्रमाणिक और तार्किक जबाब नहीं मिल जाता ,तब तक 'गणित में मानाकि सौ पर एक' की तरह हम भी मान लेते हैं कि जिन सवालों के उत्तर मनुष्य के पास नहीं हैं वे अतीन्द्रिय और अलौकिक हैं। इसलिए 'ईश्वर'के अस्तित्व को स्वीकारने के अलावा कोई चारा नहीं है । और उनका उत्तर जिसके पास है वही 'ईश्वर' है ! इसमें आस्तिक-नास्तिक अथवा ईश्वरवादी -अनीश्वरवादी की बहस बेमतलब ही है। 

यदि किसी उच्च शिक्षित साइंटिस्ट अथवा भौतिक विज्ञानी ने वेदांत दर्शन- अध्यात्म ज्ञानके साथ -साथ द्वंदात्मक भौतिकवाद का अध्यन किया हो! यदि किसी उद्भट जिज्ञासु अध्यनशील वेदवेत्ता दर्शनशास्त्रीने यूनान,रोम, अरब, यूरोप के इतिहास और दर्शन का  अध्यन किया हो ! यदि किसी कुसल पाश्चात्य सर्जन- फिजिसियन ने अंगेरजी संस्कृत,पाली,प्राकृत,अपभ्रंस इत्यादि भारतीय पुरातन साहित्य का अध्यन किया हो ! यदि किसी वैदिक वांग्मय के ज्ञाता -स्कालर ,आचार्य ,शंकराचार्य ने 'चार्ल्स डार्विन का विकासवाद' भी पढ़ लिया  हो और न्यूटनके गतिज नियम एवम आइंस्टीन के 'सापेक्षतावाद का अध्यन भी किया हो! यदि किसी तुर्रमखां मुल्ला-मौलवी ने महापण्डित राहुल सांकृत्यायन की तरह इस्लामके अलावा बौद्ध जैन तथा वैदिक मत की भी हजारों पाण्डु लिपियाँ पढ़ डाली हों और इसके साथ -साथ उसे 'ऊर्जा की अविनष्टता' के सिद्धांत का भी ज्ञान हो !ऐंसा मनुष्य भी 'ईश्वर' के बारे में कोई भी अधिकृत स्थापना नहीं दे सकता।

 यदि समस्त भूमण्डल पर कोई ऐंसा असाधारण मनुष्य है जिसने भगवदगीता ,जिंदावेस्ता ,कुरान ,बाइबिल ,न्यू एन्ड ओल्ड टेस्टामेंट,गुरुग्रन्थसाहिब, अभिधम्मपिटक ,जैनआगम ,साइंस,दर्शनशात्र,विश्वइतिहास,विभिन्न रेनेसाँ राजनैतिक क्रांतियाँ , इनसाइक्लोपीडिया ,चार्वाक, चाणक्य ,नीत्से और  मार्क्स,के डायलेक्टिकल हिस्टोरिकल मेटेरियलिज्म का अध्येता है ऐंसा महान अतिमानव भी  'ईश्वर' विषयक प्रतिक्रया का अधिकारी नहीं हो सकता !क्योंकि 'ईश्वर' अनंत , अखण्ड,सर्वव्यापी और 'अविरल'  है ,जबकि मनुष्य की मेधा शक्ति,विवेक शक्ति और चिंतन क्षमता सीमित है।

हालाँकि वैज्ञानिक बुद्धि और प्रगतिशील दॄष्टिवाला सच्चा अध्येता  अच्छी तरह जानता है कि 'ईश्वर', धर्म-मजहब की खोज बाकई मनुष्य ने ही की है। मानवीय सभ्यताओं के इतिहास में मनुष्य द्वारा की गईं कल्पनाओं में 'ईश्वर' उसकी सर्वश्रेष्ठ कल्पना है। भारतीय उपमहाद्वीप में जब तक 'वेद' लिखे जाते रहे ,तब तक लौकिक देवता अर्थात आकाश,अग्नि,पृथ्वी,वायु, सूर्य,चन्द्र ,नक्षत्र ,गृह, नदी ,पर्वत ,गज,सर्प और 'वनस्पति' इत्यादि ही मनुष्य द्वारा पूजित थे। इसके बाद ऋग्वेद मन्त्रों और वैदिक वांग्मय में कर्म के रूपमें 'यज्ञ' प्रकट हुआ। इंद्र,अग्नि,वरुण,मित्र अहुरत, सुपर्णों ,गरुत्मान,वैश्वानर और सूर्य इत्यादि देवताओं को 'हवि ' दी जाने लगी। सरस्वती,उषा,संध्या,छाया इत्यादि देवियों को भी यज्ञ में आहुति दी जाने लगी। पुराणकाल तक आते-आते वैदिक वांग्मय में उल्लेखित मन्त्रों -सूक्तों के नए भाष्य लिखे जाने लगे। नयी व्याख्या के अनुसार अश्व, गज,सर्प ,पीपल,पर्वत,नदियां और'सत्पुरुष' के रूप में स्वयम  मनुष्य भी पूज्य हो गया। मनुष्यने ईश्वरके निमित्त 'भक्ति' और योग नामक विधाओं का भी शानदार अनुसंधान कर लिया।

वैदिक ऋषि बहुत ही मेधाशक्ति के उद्भट विद्वान हुआ करते थे। हजारों साल की वैदिक परम्परा में उत्तरोत्तर अनुगमन करते हुए वैदिक ऋषि इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ''इंद्रम मित्रम वरुणम अग्निम अहुरथो,दिव्या सा सुपर्णों गरुत्मान. एकम सद विप्र: बहुधा बदन्ति ''। उपनिषदकाल तक आते-आते  मन्त्रदृष्टा वैदिक ऋषियों ने पाँच प्रमुख घोषणायें कीं। एक -मानवीय बुद्धि और ज्ञान शक्ति सीमित है , इस वजह से हम[मनुष्यगण] 'असीमित' ईश्वर को नहीं जान सकते। दो- सृष्टि के अस्तित्व का 'कारण' ही 'ईश्वर' है जो अपनी माया के संयोग से जीवमात्र को 'शरीर'  प्रदान करता है। तीन- जीवमात्र के दुःख-कष्ट का कारण उनके काम्यकर्म ही हैं वे अपने-अपने कर्म जनित फल- प्रारब्ध के रूप में भोगने को बाध्य हैं। चार- धरती पर ईश्वर प्राप्ति अथवा 'जीवन मुक्ति' का एकमात्र साधन  मानव देह ही  है। पाँच -विनम्रता,क्षमा,दया,दान,परोपकार,अहिंसा और सत्य से ईश्वर का अनुभव किया जा सकता है।

 वैदिक ऋषियों की इन तमाम आध्यात्मिक खोजों और परिकल्पनाओं में 'आवश्यकता आविष्कार की जननी है' का सार्वभौम सिद्धांत काम करता रहा है। उपनिषद -आरण्यकों के ऋषियों के चिन्तन में पर्याप्त वैज्ञानिकता और तार्किकता मौजूद है। 'वेदांत दर्शन ' में तो कोई पाखण्ड या भृम नहीं है। बल्कि उसमें  भृम निवारण के अनेक सूत्र और सिद्धांत मौजूद हैं। यदि १९ वीं सदी के जर्मन दार्शनिकों और पश्चिम के अन्य भौतिकवादियों ने वेदांत को पढ़ा समझा होता तो वे नीत्से के उस विचार से सहमत नहीं होते जिसमें उसने कहा था ''ईश्वर मर चुका है ''!क्योंकि वेदांत वाला ईश्वर तो अजर-अमर -अविनाशी और मानवीय इन्द्रियों से परे है ,इसलिए जब मनुष्य के लिए 'ईश्वर' को जान लेना ही अशक्य है, तो वह कैसे कह सकता है कि ईश्वर का अस्तित्व ही नहीं है ? वेशक जो आँख मीचकर आस्तिक हैं और ईश्वर के होने का १००% दावा करते हैं वे भी नहीं जानते कि 'ईश्वर' क्या है ? और कैसा है ? यदि कोई दावा करताहै कि उसने ईश्वर को देखा है या उसका चमत्कार देखाहै तो यह दावा गलत हो सकता है, क्योंकि जब वैदिक मंत्रदृष्टा ऋषि ही कहते रहेकि ''नेति-नेति'अर्थात ' हम नहीं जानते-हम नहीं जानते' तो और किसकी मजालहै कि कहदे 'मैंने देखा है '? कहने का तातपर्य यह कि आस्तिक-नास्तिक शब्दों का ईश्वर से कोई सम्बन्ध नहीं !   श्रीराम तिवारी !

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