बुधवार, 18 जनवरी 2017

उसे तैमूर में कपूर नजर आ रहा है !

 सैफअली खान - करीना कपूर ने अपने नवजात शिशु  का नाम 'तैमूर' रख दिया तो उसके विरोध और समर्थन में काफी प्रतिक्रियांएँ आना स्वाभाविक है। मुझे इससे कोई लेना-देना नहीं है कि कोई हीरो-हीरोइन अपने बच्चों का नाम क्या रखता है? कुछ लोग तो ऐंसे नाम भी रख लेते हैं कि समझ ही नहीं पड़ता कि इंसान का नाम है या कुत्ते का ! लेकिन जब कोई व्यक्ति किसी दूसरी कौम की लड़की को प्यार मोहब्बत के जाल में फंसाकर शादी कर ले और औलाद का नाम अपनी वंशावली के अनुसार रखे ,तो यह बदमाशी है। यह उस महिला के पैतृक और मातृ पक्ष को ललकारने का, चिढ़ाने का सबब भी है। यद्द्पि  मैं वास्तविक धर्मनिरपेक्षता का पक्षधर हूँ, किन्तु सैफ की  स्वेच्छाचारिता का समर्थन नहीं करूँगा। सैफअली ने व्यंग कसा है कि क्या 'नामकरण'से पहले मुझे जाहिर सूचना प्रकाशित करनी चाहिए थी ,कि किसी को यदि 'तैमूर' नाम पर आपत्ति हो तो सूचित करे !यह सीनाजोरी है ,शायद सैफअली खान को नहीं मालूम कि उसके डीएनए में तैमूरलंग ,सुबुक्तगीन ,गजनवी ,गौरी,अब्दाली नहीं बल्कि उसमें उसमें राम और रहीम की भारतीयता का अंश भी है ! इस देश में इकतरफा ठेलमबाजी किसी की भी नहीं चलेगी। गंगा  जमुनी तहजीब का मतलब यह नहीं जो सैफ अली और उसके तरफदार बता रहे हैं ,बल्कि वह तो उस तहजीब से मापी जायेगी जिसमे उसकी रगों में तैमूर का नहीं 'टैगोर'का अंश है। फिर भी उसे  केवल तैमूर नजर आ रहा है तो दाल में कुछ काला है। श्रीराम तिवारी !

'तैमूर' के समर्थकों को मालूम हो कि वह एक बाहियात किस्म का लंगड़ा लुटेरा और इस्लाम का विरोधी था। तैमूर ने ऐंसा कोई पुण्य का काम नहीं किया कि उसके नाम को इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाए। ये बात जुदा है कि तैमूर की तीसरी पीढी और चंगेजखान की छठी पीढ़ी के घालमेल से अब्दुल्ला उज्वेग का जन्म हुआ था,जो बाबर का बाप था। बाबर- हुमायुँ बाप बेटे  ने जीवन भर सिर्फ  मारकाट मचाई थी। हुमायूँ का एक पुत्र अकबर जरूर इतिहास में याद रखने योग्य है। अकबर मात्र तेरह साल की उम्र में ही हथियार उठाकर युद्ध में मरने मारने के लिए निकल पड़ा था। वास्तव में अकबर की बुद्धि तब जागी जब  उसे टोडरमल,रहीम बीरबल जैसे शानदार नवरत्न मिले। बैरमखाँ ,राजा भगवानदास,राजा मानसिंह,टोडरमल ,तानसेन,बीरबल,अबुल फजल, मुल्ला दो प्यादा और अब्दुल रहीम खान-ए-खाना। ये सभी दरबारी अपने-अपने क्षेत्र के उदभट विशेषज्ञ थे।

अकबर और रहीम साहत्यानुरागी एवम काव्यरसिक भी थे। अब्दुलरहीम खान-ए -खाना अवध के सूबेदार और दस हजारी मनसबदार भी थे। उन्हें नीति साहित्य और काव्य सृजन  में विशेष अभिरुचि थी।अब्दुलरहीम के पिता बैरमखां अकबरके अभिभावक थे। बैरमखां से मनमुटाव होने पर अकबर ने उन्हें जबरन हज के लिए भेज दिया। रास्ते में किसी ने बैरमखाँ को मार डाला।बैरमखाँ -अब्दुल रहीम के पूर्वज बाबर,हुमायूँ,अकबर की तरह तैमूर-चंगेज अर्थात तुर्क-मंगोल-उज्वेग नस्ल के ही थे। रहीम की माता अवश्य एक कश्मीरी पंडित की बेटी थी। हुमायूँ के सिपहसलार बैरमखाँ ने जब कश्मीर फतह की और  लूट के माल के साथ-साथ लाहौर लौटा तो साथ में कुछ सूंदर युवतियाँ भी अपहरण करके लाया था। ये युवतियाँ  हुमायूँ के सामने पेश कीं,गईं, हुमायूँ ने बैरमखाँ की इस बहादुरी से खुश होकर, एक सूंदर कश्मीरी ब्राह्मण लड़की उसे भी बख्शीश में दी। बैरमखाँ और कश्मीरी युवती के पुत्र का नाम अब्दुल रहीम रखा गया । बैरमखाँ जैसे कट्टर सुन्नी मुसलमान ने भी अपने बेटे का नाम तैमूर नहीं रखा। बल्कि 'रहमदिल' का सूचक रहीम नाम रखा! कालान्तर में इन्ही रहीमकी बफादारी और बहादुरी से खुश होकर, काव्य रसिकता से प्रभावित होकर, अकबर ने रहीम को 'अब्दुल रहीम खान-ए खाना' का ख़िताब दिया।

रहीम ने कभी-कभी गोस्वामी तुलसीदास जी ,नरहरिदास,तानसेन और बीरबल को भी अपने स्वरचित दोहे सुनाये। जनश्रुति है कि जब रहीम और तुलसीदास दोनों चित्रकूट में थे तब एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी ने रहीम को आधा दोहा लिख भेजा। जिसका जबाब रहीम ने भी आधे दोहे में ही दिया । इस तरह तुलसी और रहीम दोनों की संयुक्त रचना -निम्नाकित दोहे के रूप में इस प्रकार है :-

दोहा :-   सुरतिय नरतिय नागतिय ,क्या चाहत सब कोय।

              गोद लिए हुलसी फिरे ,तुलसी सो सुत होय।।


  अर्थ :- दोहे की पहली वाली लाइन तुलसीदास जी की है ,वे रहीम कवि से सवाल करते हैं कि 'संसार की समस्त नारियाँ क्या चाहतीं हैं ?' दोहेकी दूसरी वाली लाइन रहीमकी है जिसमें वे तुलसीदासजीको जबाब देतेहैं कि संसार की हर नारी वही चाहती है जो आपकी माता 'हुलसी' चाहती थीं। याने कि हर 'नारी अर्थात हर माता चाहती है कि 'तुलसी' जैसा महान सन्त कवि और साहित्यकार पुत्र उनको भी प्राप्त हो !

अब्दुल रहीम खान- ए-खाना खुद पाँच  बक्त के नमाजी और कट्टर सुन्नी मुसलमान थे। किन्तु उन्होंने अकबर को धर्मान्ध नहीं होने दिया। अकबर और रहीम जितना इस्लाम को मानते थे, उतना ही हिन्दू परम्पराओं और शास्त्रों को भी मानते थे। जैन,बौद्ध और क्रिश्चयन धर्म को भी सम्मान प्राप्त था। श्रीकृष्ण के प्रति रहीम के अनन्य प्रेम की पराकाष्ठा को कौन नहीं जानता ? रहीम के  श्रीकृष्ण प्रेम की बानगी इस एक दोहे में देखिये  :-

          यों रहीम मन अपनों ,चितवत चन्द्र चकोर।

          निशि वासर लाग्यो रहे ,कृष्ण चन्द्र की ओर।।

अर्थ ;-  प्रस्तुत दोहे के माध्यम से कविवर रहीम कहते हैं कि हे श्रीकृष्ण ! मेरा मन रात-दिन सतत आप में ही डूबा रहे , जैसे कि चकोर पक्षी पूर्णचन्द्र को सतत निहारता रहता है,उसी तरह मैं भी निरन्तर श्रीकृष्णमें ही लीन रहूँ !

रहीम ने ऐसे हजारों दोहे लिखे हैं। हर एक दोहा लिखने के बाद वे सबसे पहले सम्राट अकबर को मधुर राग- रागनी के साथ फुर्सत के क्षणों में सुनाया करते थे। जनश्रुति है कि सम्राटअकबर एक बार लखनऊ पधारे। वहाँ से आगरा -फतेहपुर सीकरी लौटते वक्त अवध के सूवेदार रहीम ने उन्हें अयोध्या की यात्रा करने और सरजू स्नान का सुझाव दिया। अकबर ने यह प्रस्ताव सहज स्वीकार कर  लश्गर को फैजाबाद कूच का फरमान सुनाया।
फैजाबाद से अयोध्या की यात्रा अकबर ने घोड़े से पूरी की।वे जब अयोध्या पहुंचे तो सुसज्जित हाथी पर स्वर्णिम हौदे पर सवार होकर अकबर ने अयोध्या और सरजू का दर्शन किया। इस दौरान बादशाह के हाथी ने अपनी सूंड में रास्ते की बहुतसी धूल भरकर ऊपर उछाल दी।अधिकांस धूल हौदे पर बैठे अकबर के ऊपर गिरी।अकबरकी सूरत बदरंग हो गई। गुस्से में उन्होंने रहीम से पूँछा -ये क्या हरकत है ?हाथी ऐंसा क्यों कर रहा है ?  रहीम ने तब कोई जबाब न देकर, २१ वीं शताब्दी के सरकारी अफसर की तरह सिर्फ इतना कहा -'दिखवाता हूँ' हुजूर !

इस घटना से अब्दुल रहीम खान-ए -खाना को रात भर नींद नहीं आई। दूसरी ओर उनके विरोधियों ने अकबर के कान भरना शुरूं कर दिए कि रहीम ने जानबूझकर एक अनाड़ी हाथी के मार्फ़त 'हुजूर' को अयोध्या की ख़ाक में नहलवाया है। नमक मिर्च लगाकर  यह भी कहा गया कि अब्दुल रहीम अब इस अवध की जागीरके काबिल नहीं हैं। इधर रहीम ने अलसुबह उठकर पहले  नमाज पढ़ी, फिर भगवान् श्रीकृष्ण का पूण्य स्मरण किया और तत्काल एक दोहा लिखा :-

धूरि धरत गज शीश पर ,कहु रहीम केहिं काज।

जेहिं रज मुनि पत्नी तरी ,सोउ ढूंढ़त गजराज।।

अर्थ:- हे ! शहंशाह अकबर ,आपने पूंछा है कि  हाथी अपने सिर पर धूल क्यों फेंक रहा है ? मैंने इसकी पड़ताल कर ली है। जिस 'चरण रज' से  गौतम ऋषि की अपावन पत्नी अहिल्या का उद्धार हुआ था ,यह हाथी उसी चरण रज को खोजता फिर रहा है। याने श्रीराम जी की उस चरण रज से बादशाह अकबर आप भी कृतार्थ हो चुके हैं।

रहीम का दोहा  सम्राट अकबर को बहुत पसन्द आया। उन्होंने रहीम को बड़े-बड़े इनाम-इकराम दिये। रहीम की देखा-देखि रीतिकाल के कवियों ने भी राज्याश्रयी काव्य लिखकर अपने पाल्य राजाओं से इनाम -इकराम पाये , किन्तु रहीम और तुलसी की बराबरी  कोई नहीं कर सकता  क्योंकि रस छंद लालित्य और काव्य सौंदर्य तो सबके पास था किन्तु तुलसी जैसा समन्वयकारी विशिष्ठाद्वैत,रहीम जैसा सर्वधर्म समभाव और सहिष्णुता बाकी कवियों में नहीं थी। कविवर रहीम के इस शानदार मेटाफर को सम्राट अकबर ने बखूबी समझा,इसलिए वह 'अकबर महान' हो गये।गोस्वामी तुलसीदास ने समझा,वे 'राम से अधिक राम कर दासा ' हो गए। किन्तु सैफअलीखान ,शाहरुख़ खान ,दाऊद खान ,अबू सलेम को 'तैमूर की याद सता रही है। उधर कुछ 'रामभक्तों को गोडसे की याद सतारही है। जबकि धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु लोगों को कबीर,तुलसी अकबर ,रहीम ,दारा शिकोह,बहादुरशाह जफर की याद आती है। ग़ालिब,खुसरो और नजीर अकबरावादी को समझने के लिए भारतीय वांग्मय वेत्ता होने की जरुरत नहीं है। द्वंदात्मक -भौतिकवाद को जानने कीभी जरूरत नहीं है।सिर्फ भारतकी 'गंगा जमुनी तहजीव' ही काफी है। धर्मनिरपेक्षता की शानदार परम्परा का ज्ञान नहीं होने से कुछ लोग तैमूर,गजनी,गौरी ,बिन कासिम को याद करते हैं। जबकि यह आवश्यक है कि अकबर,रहीम,दारा शिकोह ,अमीर खुसरो, बहादुर शाह जफर ,नजीब - अकबरावादी की परम्परा ,गंगा जमुनी तहजीब और  वास्तविक धर्मनिर्पेक्षता का सम्मान हो।

बाबर से लेकर बहादुरशाह जफर तक ऐंसा कभी नहीं हुआ,जैसा आजाद भारतमें २१ वीं सदीमें हो रहाहै।वेशक मुगल परम्परा थी किउनके 'हरम' में 'हिन्दू' औरतों का बाहुल्य हो। किन्तु मुगल सल्तनत के दौर में हिन्दू औरतों को महारानी का बड़ा रुतवा भी था। सिर्फ जोधा बाई ही नहीं बल्कि जहांगीर की पहली दोनों बीबियाँ राजपूतनी ही थीं। मुगल हरम में रहकर भी उन्होंने हिंदुत्व को ख़ारिज नहीं किया। इस्लाम का विरोध भी नहीं किया। लेकिन सैफ अली खान हों ,शाहरुख़ खान हों या  दाऊद,अबू सलेम हों उनके लिए सिर्फ हिन्दू लड़कियाँ चाहिए और वे सिर्फ हवश का साधन मात्र हैं।यही वजह है कि कुछ नादान हिंदुत्ववादी धर्मनिपेक्षता पर ही प्रहार करते रहते हैं। वे यह भी प्रचारित करते रहते हैं कि हिंदुत्व को इस्लाम से खतरा है। जबकि हिंदुत्व को इस्लाम से नहीं पाखण्ड से खतरा है।  इस्लाम को हिन्दू-ईसाई ,जैन-बौद्ध से नहीं आईएसआईएस से खतरा है ।स्वामी विवेकानंद ने खुद इस्लाम को भारत का शरीर और हिंदुत्व को इसकी 'आत्मा' कहा था। प्रत्येक भारतीय के मन में प्रश्न उठ सकता है कि भारत को तैमूर चाहिए या रहीम ! सैफअली खानको तैमूर  पसन्द है। लेकिन करीना ने सैफसे शादी करके क्या पसन्द किया ?अपने अस्तित्व को खत्म कर दिया। क्या उसे तैमूर में  कपूर नजर आ रहा है? राजपूतानियों के जौहर की पैरवी मैं नहीं करता किन्तु तहजीव का इतना अवमूल्यन जोधा बाई,जगत हुसेनी और अन्य हिन्दू रानी - महांरानियों ने भी नहीं होने दिया। गुलामी के दौरमें भी यह नहीं हुआ जो इस दौर की करीना कपूर,सरोज खान  , गौरीखान ,मलाइका खान,पार्वती खान इत्यादि करती रहीं हैं। सैफ करीना का यदि यह व्यक्तिगत मामला है,तो मेरी भी व्यक्तिगत सोच  है कि मैं 'तेमूर'को  रिजेक्ट करूँ और अब्दुल रहीम -तुलसी खुसरो को पसन्द करूँ।

 धर्मनिरपेक्षता से जब रहीम कोई परेशानी नहीं रही। लेकिन आजकल के अधेड़ परस्त्रीकामियों ने धर्मनिरपेक्षता का बंटाढार कर दिया है। वे नहीं जानते कि वर्तमान संसदीय लोकतंत्र के लिए भी रहीम की 'गंगाजमुनी' तहजीब  एक बहुत बड़ा वरदान है।भारतीय संविधान निर्माताओं ने स्वाधीनता संग्राम की ज्वाला  में तपकर तैयार हुई गंगा जमुनी संस्कृति को, महान अक्टूबर क्रांति के मूल्यों को , फ्रांसीसी क्रांति के मानवीय सिद्धांतों को और दुनिया की तमाम शांतिकामी आवाम के सर्वप्रिय धर्मनिरपेक्षता सिद्धांत को अनुशंषित किया है। गांधीजी ने इसे 'अमन' की संजीवनी बूटी माना है। सुभाष बोस ,भगतसिंह,पँ.नेहरू गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबा साहिब आंबेडकर और सभी स्वाधीनता सेनानियों ने धर्मनिरपेक्षता और गंगा-जमुनी तहजीब को अंगीकृत किया है। यह विविधता में एकता ही हमारे धर्मनिपेक्षता और भारतीय संविधान की सारवस्तु है।

बहुसांस्कृतिक, बहुधर्मी,बहुजातीय और बहुभाषी भारत अतीत में सदियों तक तक गुलाम रहा है, मल्टीकल्चर राष्ट्र के लिए  'गंगा जमुनी तहजीब' एक बाध्यतामूलक कड़बी दवा है। लेकिन चुनावी राजनीति, छद्म सहिष्णुता और फिरकापरस्ती के कारण धर्मनिरपेक्ष भारत में एक आवारा किस्मकी बॉलीबुड संस्कृति परवान चढ़ रही है। वोटकी राजनीति ने धर्मनिरपेक्षता को 'गरीब की लुगाई याने सारे गाँव की भौजाई' बना डाला है। यदि कोई 'तैमूर' नामकरण करे तो 'प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष' है। और यदि किसी ने रहीम और रसखान के काव्य की चर्चा की तो उसे परम्परावादी और 'साम्प्रदायिक' करार दिया जाएगा ! यह प्रगतिशीलता नहीं सरासर पाखण्ड है।

जब आला दर्जे की अभिनेत्री करीना कपूरने दोयम दर्जे के अधेड़ फिल्म अभिनेता सैफअली खान की दूसरी या तीसरी बीबी बनना स्वीकार किया अर्थात सैफ से निकाह किया ,तब करीना के परिवार और समाज वालों ने कोई खास इतराज नहीं किया। वैसे भी कपूर परिवार ने हिन्दू-मुस्लिम में कभी भेद नहीं किया। थोथे सामाजिक सम्मान या रक्तशुद्धता का हौआ खड़ा नहीं किया। कपूर परिवार के वरिष्ठजन भी इसी तरह के गान्धर्व ,असुर , प्रतिलोम व्याह कर चुके थे। करीना कपूर की तरह अनेक हिन्दू लड़कियों ने भी अपने धर्म-समाज के बाहर मुस्लिम हीरो से निकाह किये हैं।और वे ख़ुशी-ख़ुशी गौरी खान ,पार्वती खान ,सरोज खान,मलाइका अरोड़ा खान हो गयीं ।अबु सलेम , दाऊद जैसे बदमाशों ने जिन हिन्दू लड़कियोंको बर्बाद किया उनकी लिस्ट भी बहुत लंबी है। किन्तु इस विषय पर भारत के तमाम समाज शास्त्री ,प्रगतिशील साहित्यकार चुप रहे ,किस ने 'उफ़' तक नहीं किया। क्योंकि वे डरते रहे ,कि उन्हें कहीं 'साम्प्रदायिक' घोषित न कर दिया जाए ! जबकि प्रगतिशीलता का अभिप्राय यह नहींहै कि गलत बात की अनदेखी की जाए। धर्मनिर्पेक्षताको जब -जब बहुसंख्यक वर्गसे खतरा पैदा हुआ तब-तब मैंने बहुसंख्यक वर्ग की साम्प्रदायिकता के खिलाफ आवाज बुलन्द की है ,लेकिन जब कभी अल्पसंख्यक वर्ग ने इस धर्मनिर्पेक्षता की धुलाई की तो मैं चुप रहा क्योंकि मुझे डर था कि प्रगतिशील बुद्धिजीवी क्या कहेंगे ? लेकिन यह अन्याय देखते रहना मेरे वश में नहीं है।

वेशक 'हिंदुत्ववादियों' की तरह मैं 'लव जेहाद' को नहीं मानता ,किन्तु कुछ घटनाएं ऐंसी हैं जो तार्किक हस्तक्षेप और पुनर्विचार के लिए विवश करतीं हैं । एक घटना का साक्षी तो मैं खुद हूँ। केंद्र सरकार के जिस डिपार्टमेंट में [अब पीएसयू] मैं कार्यरत था ,उसी में एक मुस्लिम एसडीओ हुआ करता था। उसे कोई खास तकनीकी ज्ञान नहीं था किन्तु पता नहीं  किस जुगाड़ से वह इंजीनियर बन गया था। ड्यूटीके दौरान उसके आफिसमें कुछ युवा 'हिन्दू' महिलाओं की आवाजाही चलती रहती थी। जबकि उनका कार्यक्षेत्र अलग बड़े हाल में था। एक दिन पता चला कि उस वन्देने आफिस की एक हिन्दू लड़की को फांसा और भगाकर उससे शादी करली है। चूँकि मैं कर्मचारी संघ का उदीयमान और युवातुर्क नेता हुआ करता था इसलिए मुझे अधिकारियों के गड़बड़झालों की खबर अपने आप मिल जाती थी । उस अधिकारी की दो-दो बीबीयाँ  पहले से थीं ,वे जब तब  फोन पर शिकायत करतीं रहतीं थीं। कि उनके शौहर गायब हैं। ऐंसे और उदाहरण भी उसी कार्यालय में थे। एक मरियल  दुबले पतले अधेड़ मुस्लिम सज्जन ने ५५  की उम्र के बाद चौथी शादी की थी ,लेकिन वह युवा लड़की सुहागरात के रोजही उन्ह लातमारकर भाग गयी थी। इसतरह के अनेक उदाहरण हर शहर और हर तबके में मिलेंगे।लेकिन कोई कुछ नहीं कर सकता क्योंकि 'निजी मामला' है और 'पर्सनल ला है ! भारत की पहचान तैमूर से नहीं दधीचि और हरिश्चंद्र से होगी ! यदि

बड़े अफशोस  की बात है कि न केवल फिल्म इंडस्ट्रीज में अपितु भारतीय समाज में भी अधिकांस उदाहरण ऐसे मिलेंगे जो सावित करते हैं कि मुस्लिम समाजकी पुरुषसत्तात्मक सोच के कारण हिन्दू लड़कियों को कुर्बानी देनी पड़ती है। जब किसी मुस्लिम हीरो, उच्चाधिकारी अथवा राज नेता को दूसरी या तीसरी शादी करनी होती है तब उसे सिर्फ हिन्दू लड़की ही दिखाई देती है।क्योंकि मुस्लिम समाज में बहु विवाह के कारण या पुरुषवादी सोचके कारण लिंग अनुपात का असन्तुलन बहुत दयनीय है.यही वजह है कि अरबी धनाड्य ,शेख ,सुलतान, दुबई-यूएई के अमीर भारत,बंगलादेश और नेपाल से लड़कियाँ खरीदकर ले जाते हैं।उनके गुनाहों की सजा भारतकी बेटियों को दी जा रही है।

नबाब पटौदी ,अजहरुद्दीन ,सलीम खान ,सैफ अली खान ,अरबाज खान,शाहरुख़ खान, आमीरखान ,मुख्तार अंसारी,शाहनवाज हुसेन जैसे हीरो या राजनेता सिर्फ हिन्दू लड़की से ही शादी करेंगे  ऐसा तो भारतीय संविधान में नहीं लिखा ! वेशक वे दो निकाह करें या तीन करें , हिन्दू लड़की से करें या मुस्लिम से निकाह करें , किन्तु उन्हें इसका हल तो बताना ही होगा कि कुँआरे हिन्दू लड़कों की शादी के लिए लड़कियां कहाँ से आएंगी? क्योंकि हिन्दू समाजमें ,हरियाण-पंजाब में  लिंगानिपात का अंतर चिंतनीय है। दूसरी ओर मुस्लिम लड़कियों का भी घोर अभाव है और यदि कहीं कोई इक्का-दुक्का हिन्दू लड़का और मुस्लिम लड़की 'प्रेमरोग'के कारण शादी करना भी चाहें तो उनका हश्र  रणबीर कपूर और कैटरीना कैफ की कहानी जैसा क्यों होता है ?

चाहे राजी -मर्जी हो या धोखाधड़ी हो या अबू सलेम -दाऊद जैसा जबरन व्यभिचार इस 'बेमेल' निकाह के चलन ने  हिन्दू समाज को चौराहे पर खड़ा कर दिया है। न केवल हिन्दू  बल्कि सम्पूर्ण भारत का सामाजिक संतुलन गड़बड़ा गया है। इसके लिए सिर्फ आधुनिक फ़िल्मी 'हीरो' या राजनेता ही कसूरवार नहीं हैं अपितु सामंतयुग के सुलतान और बादशाह भी इस वीभत्स दृश्य के सृजक रहे हैं।  हिन्दू राजकुमारियों और मुस्लिम राजाओं के व्याह -निकाह का सिलसिला सदियों से चला आ रहा है।यह तब भी इकतरफा था और अब फिल्म वालों की निकाह परम्परा में भी इकतरफा ही है। इस तरह की बेमेल शादियाँ का इतिहास याने हिन्दू लड़की और मुस्लिम लड़के के निकाहनामों से बाहर पड़ा है। लेकिन यह लोक परम्परा या राष्ट्रीय आदर्श ही बन जाए यह जरुरी तो नहीं ?तैमूर नहीं राम-रहीम भारत के नायक हैं

जब सैफ अलीखान की माँ शर्मीला टेगोर [बंगाली ब्राह्मण] क्रिकेटर नबाब पटौदी[मुस्लिम] की तीसरी बीबी बनी तो धर्मनिपेक्ष भारत की जनता ने सहज स्वीकार किया !जब करीना कपूर ने अधेड़ सैफ अली  खान की दूसरी-तीसरी बीबी बनना स्वीकार किया ,याने उससे शादी-निकाह किया तब भी भारतकी अधिसंख्य धर्मनिरपेक्ष जनता ने इस सम्बन्ध को सहज स्वीकार किया। हालाँकि इन घटनाओं पर कुछ 'हिंदुत्ववादी'अवश्य चूँ -चपड़ करते रहे. किन्तु भारत के प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष बहुसंख्यक समाज ने हर बार इन बेमेल शादियों को भी व्यक्तिगत मामला मानकर सहन किया। कौन किसके साथ शादी कर रहा है ,कौन किसके साथ रिलेशन में है ,यह मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन जब करीना -सैफ के नवजात बेटे का नाम 'तैमूर' रखा गया तब मुझे कुछ अजीब लगा। मुझे नहीं मालूम कि अकबर के पुत्र सलीम से लेकर सैफ के पुत्र 'तैमूर' तक की परम्परा में केवल एक ही वर्ग के नामों का चलन क्यों है ? इस्लामिक नाम में  भी कोई बुराई नहीं है।  किन्तु यह दयानतदारी हिन्दू नामों के लिए क्यों नहीं ? मैं कोई इस्लाम विरोधी या धर्मांध हिंदुत्ववादी नहीं हूँ ,और मेरा सवाल साम्प्रदायिकतासे प्रेरित नहीं है। यह सवाल उस मानसिकता का प्रतिकार है जो अकबर के दौर से लेकर साफ अली खान के दौर में आया है।श्रीराम तिवारी !




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