मानव सभ्यता के विकास क्रम में, सामाजिक ,आर्थिक ,सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में द्वन्दात्मकता हमेशा क्रियाशील रही है। पाषणयुग से लेकर मध्ययुग के सामन्ती दौर तक इस द्वन्दात्मकता का प्रतिफल केवल शोषक- वर्ग के लिए ही सुरक्षित रहा है। यद्द्पि यूरोपीय रेनेसाँ एव विज्ञान के आविष्कार धरती पर मानवता के लिए सबसे बड़े वरदान सिद्ध हुए हैं। सभ्यता के विकास क्रम की दीर्घ यात्रा अवधि में सचेतन मनुष्य ने परिवार,बोली,भाषा और अक्षर विज्ञान का विकास करते हुए नया मुकाम हासिल किया है। यह कटु सत्य है कि आदिकाल से मध्ययुग तक हरचीज केवल शक्तिशाली वर्ग के लिए ही सुरक्षित थी। शुरआती विज्ञान के चमत्कार भी केवल 'प्रभु' वर्ग के लिए ही 'ईश्वरीय' वरदान बने रहे ,जब तक कि यूरोपियन पूँजीवादी क्रांति ने उनके 'अहम को ध्वस्त नहीं किया। अतीत के आम आदमी की इस दयनीय और नकारात्मक स्थिति के वावजूद, धर्म-मजहब और अध्यात्म क्षेत्र के विचारक,चिंतक दार्शनिक,ऋषि ,मुनि और गुरु बहुत हद तक मानवीय पक्ष के प्रवर्तक रहे हैं ।
विज्ञान के आविष्कार ,पूँजीवादी क्रांति और लोकतंत्र के उदय से पूर्व की दुनिया में धरती के सन्साधन,मानव श्रम की लूटका आनंद, केवल राजाओं,सामन्तों ,श्रेष्ठियों और जागीरदारों के लिए ही सुरक्षितथा।किन्तु उस कठिन दौर में भी हर धर्म -मजहबके संतकवि ,ऋषि,पुरोहित,धर्मध्वज अधिष्ठाता,अवतार,पीर -पैगम्बरोंने आम जनताके लिए कुछ बेहतर ही किया है। उन्होंने समाज व्यवस्था संचालन के लिए 'विधि'-निषेध का निर्माण किया। नीति -नियम , रीतियाँ,परम्पराएं और त्यौहार बनाये। कुलरीति,समाज रीति और धर्मनीति का निर्माण किया। धरती पर मनुष्य के द्वारा निर्मित अच्छा-बुरा जो कुछ भी है, उसका अधिकांस श्रेय हमारे महान पूर्वजों को जाता है। वर्तमान दौर का मनुष्य या तो सिर्फ 'भोक्ता' है या भावी पीढ़ियों के सुख-दुःख का सृजनहार है। यदि मनुष्य अपनी भावी पीढ़ियों के लिए सकारात्मक सृजन जैसा कुछ बेहतर करता है तो यह उसकी सच्ची आस्तिकता है । यदि वह शोषण की मुनाफेबाजी की वणिक वृत्ति की पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करता है ,एक बेहतर समाजवादी समाज का निर्माण करता है ,तो यह उसकी सच्ची ईश्वर भक्ति है। यही सच्ची आस्तिकता है।
कोई व्यक्ति,समाज अथवा राष्ट्र अपने निहित स्वार्थ के लिए ,यदि भावी पीढ़ियों को धर्मांधता ,साम्प्रदायिकता और जातीयता के दलदल में धकेल रहा है ,तो यह उसकी पाखण्डपूर्ण विनाशकारी आस्तिकता है। यह किसी भयावह आणविक युध्द के खौपनाक मंजर से भी बदतर है । इस भयानक धर्मांध आस्तिकता से वह तर्कवादी विज्ञानवादी नास्तिकता बेहतर है ,वह मनुष्य को केवल दुरावस्था का चित्रण ही नहीं दिखाती अपितु मौजूदा अपवित्र सिस्टम को उखाड़ फेंकने और बेहतरीन मानवीय मूल्यों पर आधारित व्यवस्था के निर्माण का विकल्प भी पेश करती है। वह सत्यनिष्ठा और वैज्ञानिक दॄष्टि देकर शोषण ,अन्याय ,उत्पीड़न से लड़ना भी सिखाती है। वह मनुष्यमात्र को समानता ,बंधुता ,स्वतन्त्रता का पाठभी पढ़ातीहै। वह जुल्मतोंका प्रतिकार करना भी सिखाती है। इस नास्तिकता का उल्लेख वेदों में और दुनिया के तमाम आध्यत्मिक ग्रन्थों में भी मिलता है। इन धर्म शास्त्रों की अच्छी बातों को छुपाकर केवल शोषणकारी सिद्धान्त -सूत्र ही दुनिया के सामने विकृतरूप में परोसे जाते रहे हैं। यह सिलसिला अब भी जारी है। फर्क सिर्फ इतना है कि अब इसमें आतंकवाद बनाम राष्ट्रवाद का विमर्श भी घुस चुका है।
सभी धर्म-मजहब के पवित्र ग्रन्थों में जो-जो परंपराएं हैं ,विश्वाश-रीतियाँ हैं ,धर्मशास्त्र के मानवीय सिद्धान्त सूत्र हैं , वे यदि मानवमात्र के हितु हैं,तो उनका सम्मान अवश्य किया जाना चाहिए।जैनधर्म का अनेकान्तवाद,स्याद्वाद, और अहिंसा- जिओ और जीनो दो ,वेदांत का 'सर्वे भवन्तु सुखिनः ' ईसाइयों की सत्यनिष्ठा,परोपकार दया क्षमा करुणा,प्रेमभाव,इस्लाम की बौद्धों और सिखों की समता सहिष्णुता और बन्धुत्व किसी भी तरह से धर्मान्धता या साम्प्रदायिकता नहीं सिखाती। प्रायः हर धर्म-मजहब में मानवता सिखाई जाती है। लेकिन 'धर्म'-मजहब' का यही मतलब है तो मैं इसका पक्षधरहूँ। इस नजरियेसे में भी आस्तिक हूँ। किन्तु धर्म-मजहबके नामपर आतंक मचाना , जेहादके नाम पर खून बहाना ,ख़ुशी मनाने के बहाने पटाखे फोड़ना,होलिका दहन या रावण दहनके बहाने पेड़ काटना , लकड़ी जलाकर वातावरण प्रदूषित करना ,पूजा आरती के नाम पर नदियों को गन्दा करना , सांस्कृतिक आस्था के नाम पर जल्लीकट्टू का उन्मादी आयोजन करना ,कुर्बानी के नाम पर हर साल करोड़ों निर्दोष बकरे हलाल करना और कृतज्ञता व्यक्त करने के बहाने खुद अपने शरीर को घायल करना ,इत्यादि क्रूर परंपराएँ यदि धर्म -मजहब हैं ,तो में इसे नहीं मानता। फिर यदि मुझे कोई नास्तिक कहता है तो उसका बहुत-बहुत शुक्रिया।
कुछ लोग जो अध्यात्म जगत में गहरे तक डूबे हैं ,वे प्रायः यह यक्ष प्रश्न उठाते रहते हैं कि कम्युनिस्ट लोग अथवा नास्तिक या अनीश्वरवादी लोग यदि किसी गॉड,ईश्वर,अल्लाह में यकीन नहीं रखते तो 'अवसाद' अथवा प्राकृतिक संकट की अवस्था में वे किस 'चेतना' के आश्रित होते हैं ? वास्तव में यह सवाल ही काल्पनिक है ,क्योंकि मनुष्य के अलावा कोई अन्य देहधारी प्राणी यह सवाल नहीं उठाता। या यों कहें कि इस तरह के उच्च आध्यात्मिक स्तर पर जाने की मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों में संभावना ही नहीं है। तब तो ईश्वर का अस्तित्व मनुष्य तक ही सीमित हो जाता है।कहने का तात्यपर्य यह है कि 'ईश्वर'का अस्तित्व एक विकसित मनुष्य की सोच या आस्था पर आश्रित है। लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं होता कि जो ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते या जिन्हें जन्मना अनीश्वरवादी योनि या सांसारिक परिवेश मिला वे सब घोर पातकी या पापी हैं। कोई गाय ईश्वर को माने या न माने यदि वह दुधारू है, तो खुद ईश्वर ही है। इसी तरह कोई 'माँ' मंदिर,मस्जिद ,गुरुद्वारा ,चर्च जाए या न जाए,लेकिन वह अपने बच्चोंका पालन पोषण अपने श्रम के पसीने से यदि करती है ,उन्हें नेकदिल ईमानदार विश्व मानव बनाती है तो उस माँ की नास्तिकता को सादर नमन ! क्योंकि तब वह केवल 'माँ' ही नहीं होती बल्कि भगवान की मूरत जैसी ही होती है।
यदि आप किसी धर्म-मजहब विशेष के 'वास्तविक' अनुयायी हैं अर्थात सच्चे आस्तिक हैं तो अच्छी बात हैं ! किन्तु दो प्रमुख शर्तें माननी होंगी !एक तो यह कि दूसरे के धर्म-मजहब में अपनी टाँग न घुसेड़ें। दूसरी शर्त यह कि धर्म - मजहब और उसके आडम्बर को राजनीति में न घुसेड़ें ! यदि आप किसी धर्म-मजहब से कोई वास्ता नहीं रखते या आप नास्तिक -अनीश्वरवादी हैं, तो आप महान हैं, आप साक्षात् भगवान् हैं, किन्तु आपको तीन शर्तों पर खरा उतरना होगा। पहली शर्त यह है कि आपको सभ्य संसार के श्रेष्ठतम मानवीय मूल्यों का पालन करना होगा। याने आपको संसार के प्रत्येक मनुष्य के साथ -विश्व बंधुत्व ,समानता का व्यवहार करना होगा और उसकी स्वतन्त्रता का भी सम्मान करना होगा। दूसरी शर्त यह है कि आप जिस देश के भी नागरिक हैं उसके संविधान का अक्षरशः पालन करना होगा। तीसरी शर्त यह है कि आपको स्वयम ईष्वरीय ऊँचाइयों को छूना होगा। यदि आप इन शर्तों को पूरा नहीं करते और फिर भी अपने आपको नास्तिक कहते हैं ,तो आपकी दो तरफ़ा धुनाई सम्भव है। एक तो यह कि आस्तिक जगत आपको जुतिया सकता है। दूसरे जिंदगी के किसी भी मोड़ पर आपका व्यक्तिगत जीवन घोर नारकीय हो सकता है।
यदि आप अल्पज्ञ और धर्मभीरु हैं तो बेधड़क किसी धर्म मजहब के आस्थावान हो जाइये। यदि आप तन-मन -धन से बलिष्ठ हैं और फ्रांसीसी क्रांति के मानवतावादी मूल्यों को ह्र्दयगम्य करने की कूबत है तो नास्तिक हो जाइये या वेदांत के ऋषि की तरह शिवोहम का अनुनाद कीजिये। सुप्रसिद्ध लेखिका मार्निया रॉबिन्सन ने उक्त सिद्धान्त को दूसरी तरह समझाया है। उन्होंने अपनी पुस्तक 'क्यूपिड्स पायजनस एरो 'में वैज्ञानिक तरीके से समझाया है कि ''आप आस्तिक -नास्तिक कुछ भी न हों तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता।लेकिन सुखी जीवन के लिए ,खुशियाँ पाने के लिए मनुष्य जो कुछ भी करता है, उसमें सहज प्राकृतिक बोध की आवश्यकता अवश्य होती है। यह मनुष्य की वैचारिक क्षमता पर निर्भर करता है कि उसे मानवीय सम्वेदनाओं के संचरण का और मानवीय सुख-दुख के भावों की अन्योंन्याश्रित स्थिति का कितना ज्ञान है ? '' मार्निया रॉबिन्सन कहतीं हैं कि ''जब आप अपनी निजी ख़ुशी के लिए कुछ करते हैं तो डोपामाइन हार्मोन निस्रत होता है ,जो एक तेज इच्छा -कामना पैदा करता है ,किन्तु संतोष नही देता। अतृप्त वासनाओं को जगाता है। लेकिन दूसरों की ख़ुशी या हित के लिए सोचने पर आक्सीटोसिन हारमोन निश्रित होता है.यह निः स्वार्थभाव, दयालुता और प्राणी मात्र के प्रति प्रेम उतपन्न करता है। यदि यह हार्मोन पर्याप्त मात्रा में न निकले तो मनुष्य अवसाद की ओर अग्रसर होता है ''इसलिए यदि आप आस्तिक/नास्तिक न होकर केवल एक बेहतरीन इंसान हैं तो आपको बारम्बार नमस्कार !
जो लोग मेरी वैचारिक प्रतिबद्धता से अनभिज्ञ हैं और मेरे पहले के आलेख जिन्होंने नहीं पढ़े वे बीच की किन्ही दो-चार पंक्तियों के आधार पर अपनी तातकालिक प्रतिक्रिया दे देने लग जाते हैं। कुछ लोग तो मुझे उस वामपंथ से नत्थी कर लेते हैं जो उन्हें 'संघियों' ने बताया है। 'बंदर क्या जाने अदरख का स्वाद ' !यद्द्पि जो खाँटी कम्युनिस्ट या वामपंथी विचारक हैं ,जो धर्म-मजहब को सिरे से नकारते हैं ,उनसे मैं सहमत नहीं हूँ। मेरा आकलन है कि 'सत्य' केवल सापेक्ष होता है । सभी धर्म-मजहब के शास्त्र और सिद्धांत सूत्र बहुत मूल्यवान और मानवीय ही हैं।उनका अध्यन किये बिना ही ,उन्हें ख़ारिज किया जाना सरासर नादानी है। इसी तरह कोई धर्मध्वज या साम्प्रदायिक नेता किसी धर्म-मजहब विशेष का तरफदार बनकर किसी दूसरे धर्म -मजहबकी आलोचना करे तो वहभी अस्वीकार्य है। इसी तरह कुछ तर्कवादी प्रगतिशील और लेफ्टिस्ट भी बिना धर्म शास्त्रों का अध्यन किये ही लठ्ठ लेकर 'धर्म-मजहब' के पीछे पड़ जाते हैं। वे उस चीज को ही सिरे से नकार देते हैं ,जिसने उन्हें इस काबिल बनाया है । यदि गीताकार कहते हैं कि''न बुद्धि भेदम जनयेद ज्ञानाम कर्म - सङ्गिनांम '' यदि बाइबिल ,कुरआन गुरुग्रन्थ साहिब में भी इसी तरह के अनेक बेहतरीन मोती माणिक्य भरे पड़ेहैं तो उनको स्वीकार करने में किसी का क्या नुक्सान है ?
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