बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

पूँजीवादी बजट की साम्यवादी आलोचना !

आलोच्य बजट इस अर्थ में नकारात्मक है कि मोदी सरकार ने विगत ढाई सालों में जनता का कचमूर निकालकर पूँजीपतियों की मुनाफाखोर-जठराग्नि को शांत किया है !लेकिन जब उन्हें लगा कि न केवल प्रस्तुत पांच राज्यों के चुनावों में,अपितु आगामी २०१९ के लोकसभा  चुनाव में वोट तो 'भाइयो -बहिनों' से  ही लेना हैं। अतः दिखावे का   'जनकल्याणवाद' परोसा जा रहा है। इस संदर्भमें सीपीएम जनरल सेक्रेटरी कामरेड सीताराम येचुरीका यह कथन सही है कि ''आर्थिक सर्वेमें सुझाये गए मांग बढ़ाने वाले उपाय इस बजटमें नदारद हैं ,यह केवल आर्थिक संकुचन का बजट है ''! वेशक प्रस्तुत बजट में शिक्षित/अशिक्षित युवा वेरोजगारोँ का और खेतिहर मजदूर के हितार्थ कोई  उल्लेख नहीं  है ! वेशक यह बजट क्रांतिकारी नहीं है, किन्तु यह  पहले के तीन बजटों से कुछ तो बेहतर है!

जिस देश में पूंजीवादी व्यवस्था हो और जनता ने  लोकतान्त्रिक सरकार चुनी हो तो उस लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गई पूँजीवादी सरकार द्वारा प्रस्तुत बजट किसी साम्यवादी दल की नीतियों और कार्यक्रम के अनुरूप क्यों होना चाहिए ? जब कांग्रेस जैसी धर्मनिरपेक्ष और मिश्रित अर्थव्यवस्था की पैरोकार पार्टी की सरकारोंने अतीतमें कभी लेफ्ट की नीतियों -कार्यक्रमों पर आधारित 'साम्यवादी' -समाजवादी बजट पेश नहीं किये। तो अब भाजपा जैसी कट्टर पूँजीवादी -दक्षिणपंथी पार्टी से जनकल्याण कारी बजट की उम्मीद क्यों की जा रही है ?मोदी सरकार किसी दीगर पार्टी के प्रति नहीं बल्कि जनता के प्रति जबाबदेह है। यदि यह सरकार जन विरोधी नीतियोंपरअमल करती है तो इसे ही भुगतना होगा। जैसे कि मनमोहनसिंह की यूपीए-२ की सरकार के समय हुआ,कि कांग्रेस की दिग्भर्मित नीतियों के भृष्ट मोह जाल में आकण्ठ डूबी डॉ मनमोहनसिंह की यूपीए -दो की सरकारने कांग्रेसको ही डुबवा दिया।क्या एक महान अर्थशास्त्रीको प्रधानमंत्री बनाकर सोनियाजी ने गंभीर और ऐतिहासिक भूलकी थी ?

आधुनिक सामाजिक -आर्थिक जीवन उस दिशा में अग्रसर हो रहा है ,जिसकी सैद्धान्तिक भविष्यवाणियां मार्क्स-एंगेल्स ने कीं थीं। वैज्ञानिक-टेक्नॉलाजिकल और उन्नत सूचना संचार प्रौद्दोगिकी के चरम की ओर बढ़ते इंसान के कदम ,किसी मजबूत आधार पर नहीं टिके हैं।वेशक विज्ञान और टेक्नॉलॉजी ने विकास की असीम सम्भावनाएँ प्रकट कीं हैं। परन्तु विकसित पूँजीवादी देशों में बेतहाशा बेरोजगारी बढ़ चुकी है। भारत जैसे विकासशील देश में बेरोजगारों की स्थिति सबसे भयानक है और बेहद उलझी हुई है। केवल अशिक्षित अथवा अर्ध शिक्षित युवाओंको ही नहीं बल्कि उच्च शिक्षित तकनीकी ज्ञान से समृद्ध युवा बेरोजगारों को जबरन निजी क्षेत्रकी गुलामी करनी पड़ रही है। भुखमरी दूसरी सबसे बड़ी समस्या है ,तीसरी समस्या 'बेघर'लोगों की है जो अपना सम्पूर्ण जीवन अभावों में गुजारने को बाध्य हैं। यह स्थिति केवल आधुनिक भारत की ही नहीं ,बल्कि विकसित पूँजीवादी दुनिया की भी है। इतनी घोर आपात स्थिति के वावजूद आधुनिक युवाओं को 'वैज्ञानिक कम्युनिज्म' के सिद्धांतों की रंचमात्र भी जानकारी नहीं है। जब आधुनिक एमबीए,एमसीए और तमाम उच्च डिग्रीधारी युवाओं को नहीं मालूम कि कार्ल - मार्क्स ने अपनी पुस्तक 'डास केपिटल' में इन्ही समस्यायों के बरक्स वैज्ञानिक हल खोजेहैं,तो अपढ़ गंवार युवाओं से क्या उम्मीद करें कि वे इंकलाब की मशाल अपने हाथों में थामेंगे। साम्प्रदायिक और पूँजीवादी नेताओं से क्या उम्मीद करें कि वे 'जनकल्याणकारी'बजट लाकर देशके 'वास्तविक गरीब'आदमी को उसका हक प्रदान करेंगे ?आधुनिक और भविष्य की दुनिया के लिए यही सबसे तकलीफदेह स्थिति है। आधुनिक युवाओं को इन मुद्दों पर एकजुट संघर्ष करना चाहिए। जिनके घर में आग लगी  वे  निश्चिन्त होकर सोते रहें और पडोसी आग बुझाते रहें यह क्राँतिकारी चरित्र नहीं है।

डॉ मनमोहनसिंह की यूपीए -दो सरकारने कांग्रेस पार्टी के खिलाफ किये गए दुष्प्रचार के षड्यन्त्र का कोई तोड़ नहीं निकाला। तब सोनियाजी ने भी अन्ना हजारे ,किरण वेदी ,केजरीवाल और अन्य आंदोलनकारियों को कमतर आँका। ये तमाम एक्टिविस्ट आरएसएस प्रायोजित मंचों पर हीरो बनते चले गए। क्षेत्रीय और वाम दलों से कांग्रेस की दूरी के कारण जब लोक सभा चुनाव हुए तो डॉ मनमोहनसिंह दो सांसद भी नहीं जितवा पाए। जितने कांग्रेसी जीते वे अपने दम पर ही जीते। मनमोहनसिंह राजनैतिक पृष्ठभूमि से नहीं थे अतएव अमेरिकासे अटॉमिक करार और एफडीआई के मसले पर वे वामपंथ को साधने में असफल रहे। यही वजह रही की मई २०१४ के लोकसभा चुनावों में बिखरे हुए गैर भाजपाई विपक्ष को वोट तो ६९% मिले किन्तु सीटें महज १५० ही मिलीं। जबकि भाजपा और उसके अलायन्स एनडीए को महज ३१% वोट हासिल हुए किन्तु ३५० से अधिक सीटों पर जीत हासिल हुई।

यदि ६९% वोट पाने के वावजूद कांग्रेस और वामपंथ की यह दुर्दशा है, तो  जिम्मेदार कौन है?वेशक कांग्रेस के लिए तो खुद कांग्रेसी ही जिम्मेदार हैं। लेकिन भारतीय वामपन्थ  ने इन घटनाओं से क्या सीखा ? इतिहास से सही सबक सीखते हुए वास्तविक,यथार्थवादी और प्रगतिशील भूमिका अदा करनेमें क्या अड़चन है ? केवल पूँजीवादी बजट पर आलोचनात्मकता ही क्यों ? जन सन्देश के रूप में -अपना वैकल्पिक बजट जनता के बीच प्रस्तुत क्यों नहीं करते ?वामपंथ को अन्य विपक्षी पार्टियों अथवा दक्षिणपंथी सत्ता धारी पार्टी की तरह का सैद्दांतिक व्यवहार उचित नहीं है। वामपंथ और सम्पूर्ण संयुक्त विपक्ष को मोदी सरकार के बजट की आलोचना से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। इसलिए वैज्ञानिक सोच समझ वाले प्रगतिशील लोगों को लकीर का फ़कीर नहीं होना चाहिए !

शेष विश्व के सापेक्ष हम भारतीय हर मामलों के उद्भट जानकर एवम प्रकांड पंडित हैं। हम  भारत के जनगण -हर घटना की तात्कालिक प्रतिक्रिया में भी माहिर हैं। तभी तो हरेक ऐरा - गैरा नत्थूखैरा 'बजट' जैसे नीरस और दुरूह विषय पर फौरन अपनी नाक घुसेड़ देता है। बजट के समर्थन अथवा विरोध की आलोचनात्मक घंटियाँ  बजाना बुरा नहीं है। लेकिन 'विकल्प' नदारद हो तो कोई कैसे तय करे कि यह नहीं तो वह सही ?वास्तविकता यह है कि कोई भी आम बजट  सरकार का आलोच्य सत्र के लिए वित्तीय प्रस्ताव मात्र होता है। संसद चाहे तो इसे स्वीकार करे या रद्द करे अथवा संशोधित रूप में स्वीकार करे! जो लोग इस बजट का समर्थन कर रहे हैं ,जाहिर है उनका या तो लाभ सुनिश्चित है  या वे केवल सत्ता समर्थक चाटुकार हैं। लेकिन जो आलोचना कर रहे हैं और आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ नहीं हैं ,वे अनाड़ी की दोस्ती जी का जंजाल हैं। यदि वे सच्चे वित्त विशेषज्ञ हैं तो उन्हें सार्थक और तार्किक दृष्टिकोण से  विश्लेषण करना चाहिए। जैसा कि एक अर्थशास्त्री का दायित्व हुआ करता है। जनता को यदि बजट से  रंचमात्र फायदा है तो उसे बताया जाना चाहिए। लाभकारी हिस्से को स्वीकार कर बाकी के पुलंदे पर जरूर निर्मम प्रहार किया जा सकता है।किन्तु बड़े दुःख की बात है कि जिन्हें विद्वान माना जाता है वे इसे पूरा ही ख़ारिज कर चुके हैं।

मार्क्सवादी नजरिये से बजट और तत्सम्बन्धी नीतियों की आलोचना का बेहतर तरीका यह हो सकता है कि पहले हमें यह मालूम हो कि आलोच्य नीतियों के अनशीलन में देश की बहुसंख्यक आवाम को क्या नफा-नुकसान है ?किसी बाजार नीति अथवा नई योजना के बरअक्स चीन जैसे महान सफल कम्युनिस्ट देश का नजरिया क्या है ? इस संदर्भ में अतीत का अनुभव भी याद रखा जाना चाहिए। अक्सर पक्ष-विपक्ष दोनों ओर पाया गया है कि शीर्ष नेतत्व जब गलत स्टेण्ड लेता है तब भी समर्थक केडरों में केवल उसकी पक्षधरता ही सुनाई देती रहती है। यह भेड़ चाल है। जनवादी केन्द्रीयता और अंधानुकरण में बहुत फर्क है। सिर्फ मार्क्सवाद ही यह सिखाता है कि निरपेक्ष अंतिम सत्य कुछ भी नहीं होता। जो कुछ होता है वह देश काल और परिस्थितियों के सापेक्ष ही होता है। गलती अथवा  भूलचूक मानवीय निशानी है। विगत शताब्दी के उत्तरार्ध के कुछ वाकये और वर्तमान शताब्दी के शुरआत के कुछ कडुवे अनुभव भारतीय वामपंथ के लिए स्मरणीय है।

यद्द्पि 'मार्क्स -ऐंगेल्स'की कालजयी सैद्धान्तिक स्थापनाओं का सम्मान सारा शिक्षित-सभ्य संसार करता है। यह भी अकाट्य सत्य है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में  तत्कालीन कम्युनिस्ट इंटरनेशनल द्वारा स्थापित और कार्ल मार्क्स द्वारा सम्पादित 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो'का प्रत्येक शब्द किसी पवित्र गृन्थ के पावन शब्दों से कमतर नहीं है। खुद कार्ल मार्क्स भी पुनः अवतरित हो जाएँ तो वेभी इस कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो का एकभी शब्द गलत साबित नहीं कर सकते। इतिहास साक्षी है कि वैज्ञानिक साम्यवादी विचारधारा ने विश्व को बहुत उपकृत किया है। सन्सार की समस्त सभ्यताओं ने मिलकर अभी तक जो कुछ भी बेहतर हासिल किया है ,जो भी मानवोचित आविष्कार किये हैं ,जो भी मानवीय मूल्य समृद्ध किये हैं ,वे सब एक साथ मिलकर भी  'मार्क्सवादी दर्शन' के समक्ष पाषंग बराबर नहीं हैं। वशर्ते मार्क्स की शिक्षाओं को विश्वसापेक्षतावाद और आत्मालोचना के मद्देनजर परिभाषित किया जाए।
उद्दाम पूँजीवाद और साम्प्रदायिकता की लंकाको निर्ममतापूर्वक ध्वस्त करनेके लिए अपनी नीतियों का पुनः -पुनः सिंहावलोकन करते रहना चाहिए। वामपंथ के अधिवेशन ,प्लेनम जो भी कार्यक्रम और नीति तय करते हैं उसमें भारत के स्वाभिमान और गौरव का भी उदयगान होना चाहिए ,क्योंकि आधुनिक युवा पीढी को यही पसन्द है।

भले ही पूँजीवादी संसदीय लोकतंत्रकी भृष्ट चुनावी प्रतिस्पर्धा में वामपंथको वांछित चुनावी सफलता न मिल पाए  , भले ही जाति धर्म-मजहब में खंडित आवाम को अपने - अपने जातीय और साम्प्रदायिक हीरो पसन्द आते रहें , भले ही सब्सिडी ,मनरेगा इत्यादि आर्थिक सहायता के थेगड़ों से लदी -फदी लम्पट बुर्जुआ कौम में साम्यवादी - समाजवादी क्रांति की  कोई क्षीण सुगबुगाहट भी न हो ,भले ही सूर्य पश्चिम से उदित होने लगे ,भले ही धरती पर स्वर्ग उतर आये, किन्तु वैज्ञानिक सोच पर आधारित महान 'मार्क्सवादी दर्शन' की महत्ता कभी कम नहीं होगी . अतीत में मनुष्य ने इस धरती पर मानवता के पक्ष में जितने भी भौतिक और आध्यात्मिक 'दर्शन - विचार' संचित किये हैं,वे सभी अपने-अपने हिस्से की भूमिका अदा कर चुके हैं ,लेकिन यह धरती पहले से ज्यादा रक्तरंजित  , पहले से ज्यादा असुरक्षित ,पहले से ज्यादा कलहपूर्ण ,पहले से ज्यादा स्वार्थी और हिंसक मनुष्यों से भर चुकी है . धरती पर सभी धर्म-मजहब और नए-पुराने राजनैतिक सिस्टम बुरी तरह असफल हो चुके हैं. अब सिर्फ वैज्ञानिक सोच पर आधारित 'साम्यवादी' विचारधारा को अवसर दिया जाना शेष है .

वैज्ञानिक साम्यवाद केवल राजनैतिक दर्शन अथवा आर्थिक विचारधारा मात्र नहीं है .सामाजिक,आर्थिक,समानता अथवा मानवीय जीवन के विभिन्न अंगोंपर विज्ञान सम्मत नजरिया ही उसकी संचित पूँजी नहीं है .बल्कि धरती पर जो कुछभी गलत हो रहाहै ,चाहे वह कुदरती रूप से हो, चाहे वह अमानवीय लोभ-लालचके कारण पैदा हुआ हो, चाहे वह धरतीके समस्त प्राणियों की भावी पीढ़ियों के भविष्य निर्माणका सकारात्मक निर्धारण हो ,चाहे वह दृश्य- अदृश्य अप्रत्याशित जागतिक अप्रिय अनिष्ट हो ,धरती की प्रत्येक धड़कन को विवेकपूर्ण एवम क्रांतिकारी सोचसे युक्त वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखनेकी मानवीय मेधा शक्ति व सकारात्मक सृजनशीलता का नामही 'साम्यवाद है .

सर्वहारा के हरावल दस्तों के रूप में एक वामपंथी पार्टी का निर्माण,संगठन और विकास वेशक बहुत कष्टसाध्य और दुर्लभ हुआ करता है। किन्तु अपनी मूल्यवत्ता ,गुणवत्ता में वह दुनिया के किसी भी गैर साम्यवादी राजनैतिक दलसे बेहतर ही होता है। लेकिन लंबी अवधि के बाद जहाँ पूंजीवादी पार्टियों में प्रायः एक नया आकर्षण ,नयी धुन नयी रोचकता और व्यवहारिकता की नई-नई कोंपलें पुनः उगने लगतीं हैं, वहीँ तमाम वामपंथी दल अपनी 'पवित्र' विचारधारा आधारित  पुरातन सैद्धान्तिक आलोचना और शोषित -दमित सर्वहारा के अंध समर्थन की आस पर ही आश्रित रहा करते हैं। जबकि कम्युनिज्म के आधारभूत सिद्धांत 'संघर्ष के लिए एकता और एकता के लिए संघर्ष ' को जातिवादी ,सम्प्रदायवादी नेता ले उड़े हैं। इस दौरके सत्तारूढ़ पूँजीवादी नेता और उनकी 'अमीरजादी पार्टी' मेहनतकश सर्वहारा और मध्यमवर्गीय आवाम को वादों,जुमलों घोषणाओं के रेवड बांटने का ढोंग करने में जुटी हैं। यदि पूँजीवादी मारिचि और साम्प्रदायिकता का रावण 'जन क्रांति' रुपी सीताका हरण करले,तब वामपंथ को सिर्फ अरण्यरोदन नहीं करते रहना है। अपितु निर्मम पूँजीवाद और साम्प्रदायिकता की लंका को ध्वस्त करने के लिये पुनः अपनी नीतियों का सिंहावलोकन करें और कार्यक्रमों का भारतीय परिवेश में नव आह्वान करे!

१९८०-९० के दशक में जब गोर्बाचेव महाशय पेरेस्त्रोइका एवम ग्लास्तनोस्त के गुन गाने लगे ,जब 'सोवियत संघ' को सीआईए के इशारे पर  रूसके घरेलु दलालों ने जनताकी समाजवादी जनकल्याणकारी व्यवस्थाको ध्वस्त कर डाला तब भी हम [भारतीय साम्यवादी]नहीं चेते । जब चीन ने चुपके-चुपके देंगस्याओ पिंग की बाजारवादी -अर्ध साम्यवादी-पूँजीवादी नीतियाँ अपना ली,तब भी 'हम' नहीं चेते। जब क्यूबामें फ़ीडेल कास्त्रो जैसी हस्तीके होते हुए भी वहाँ की गरीबी भुखमरी की ओर से हमने आँखे मूँद लीं तब भी 'हम' नहीं चेते। जब ह्यूगो शावेज के होते हुए भी बोलीबिया अपनी क्रांति की मशाल को बुझने से नहीं रोक सका,जब ब्राजील ,तुर्की, निकारागुआ की वामपंथी शक्तियाँ श्रीहीन होतीं चलीं गईं तब भी हम नहीं चेते ! केवल बंगाल मेंअपितु पूरे देश में लाल झंडे वालों की ताकत कम हो जाने के लिए सिंगुर या ममता तो सिर्फ बहाना मात्र थे। वामपंथ के संकुचन की वजह जातिवाद और साम्प्रदायिकता यदि आठ आने रहा है तो बाकी आठ आने खुद वामपंथ का नेतत्व जिम्मेदार है। सल जैसे विकासशील देश के लिए विषम स्थिति बन चुकी थी। ततकालीन सरकार के सरपरस्त -राजीव गाँधी,नरसिंहराव,मनमोहनसिंह, सेमपित्रोदा ने निर्णय लिया कि भारतमें भी उदारीकरण ,आधुनिकीकरण की नीतियाँ तेजी से लागू कीं जायें। तब बंगाल ,केरल और त्रिपुरा में वामपंथी की सरकारें थीं। उन दिनों देश में वामपंथी ट्रेडयूनियनों का ही दबदबा था। जनता पार्टी के दौर में अवसर का फायदा उठाकर आरएसएस ने एक मजदूर विरोधी संगठन बनाया जिसे 'भारतीय मजदूर संघ' कहते हैं। इस संगठन का काम केवल पूँजीवादी भाजपा का प्रचार करना और सत्ता सुख उठाना मात्र था। जबकि वामपंथी ट्रेडयूनियन्स लगातार मजदूरों-किसानों और आवाम के सवालों पर संघर्ष कर रहीं थीं। वामपंथ समर्थक ट्रेड यूनियनों ने,मजदूरों ने संघर्षों से अपने अधिकार हासिल किये लेकिन कुर्बानियाँ भी कुछ कम नहीं दीं हैं।

मैं लगभग 35 साल तक ट्रेड यूनियन नेता रहा . युवा अवस्था में एक विशाल -मजबूत राष्ट्रीय संगठन का 'युवातुर्क' हुआ करता था। तब पोस्टल और टेलिकॉम की संयुक्त फेडरेशन एनएफपीटीई की नौ मजबूत युनियने थीं। उनमें से एक 'एआईटीटीई' का मैं स्थानीय कार्यकर्ता था। बाद में मुझे सर्कल और आल इंडिया स्तर पर चुना गया। कुल ३६ साल तक मैंने लगातार तन-मन धन से पूरी ईमानदारी और निष्ठां से कर्मचारियों/अधिकारियों और टेलिकॉम विभाग के हितों की रक्षा के लिए नेतृत्वकारी भूमिका अदा की। किन्तु कुछ घटनाएं मुझे सबक सिखा गयीं। चाहे पे कमीशन का सवाल हो चाहे निजीकरण ,ऑटोमेशन अथवा कम्प्यूटरीकरण का सवाल हो अक्सर हम जमकर लडे . खूब हड़तालें कीं ,किन्तु हर बार लड़ाई लड़ने वाले घाटे में ही रहे . दोयम दर्जे के कर्मचारी वेचारे मैदान में लड़ते रहे और टॉप अधिकारी चुपके से अच्छा वेतनमान ले उड़े .इसीतरह हमें कहा गया कम्प्यूटर,ऑटोमेशन का विरोध करो और तमाम अधिकारी अद्दतन होते चले गए .लाखों की तादाद में लड़ रहे कर्मचारी अंत में हर बार घाटे में ही रहे,चूँकि हड़ताल कराने वाली यूनियन पर केवल सीपीएम का नियन्त्र था बाकी की यूनियनें सत्ता के साथ गुलछरे उड़ाया करतीं और उनके राजनैतिक नेता भी मजे करते ,केवल सीपीएम ने ही सही लड़ाई लड़ी और उसके केडर को भारी क़ुरबानी देनी पडी .शायद यही वजह है कि संगठित क्षेत्र के कर्मचारी अधिकारी के हाथ में तो लाल झण्डा तभी तक रहता है जब तक उसे हितों की चिंता है .किन्तु राजनैतिक चुनाव में जाने क्या हो जाता है ?  

विगत शताब्दी के उत्तरार्ध में वामपंथ द्वारा आटोमेशन और कम्प्यूट्रीकरण का विरोध मुझे आज तक समझ नहीं आया। क्योंकि इतनी कुर्बानी के वावजूद न तो आटोमेशन रुका और न ही कम्प्यूटरीकरण रुक सका और यह तो लाभदायक ही सावित हुआ। कम्प्यूट्रीकरण से करोड़ों युवाओं को काम मिला ,आधुनिक सूचना संचार तकनीकि विकसित हुई है और भारत के युवाओं में से कोई गूगल का सीईओ है,कोई व्हाइट हॉउस में ट्रम्प की टीम में है। हमारे ततकालीन विरोध का दुष्परिणाम यह जरूर रहा कि सिंगापूर,मलेशिया थाईलैंड और श्रीलंका भी भारत से आगे निकल गए।   

जब भी तत्कालीन केंद्र सरकार  कोई बजट पेश करती ,जब भी कोई नीतिगत घोषणा होती या सरकार कुछ नया करती हमें मुख्यालय से आदेश आता कि धरना,प्रदर्शन,हड़ताल करनी है। हमने कार्यालय के सामने स्थाई रूप से लाऊड स्पीकर बाँध रखा था। जब भी 'ऊपर' से विरोध का निर्देश मिलता हम फौरन नारेबाजी करने लगते। टेलिकॉम में सीडॉट आया तो हमने विरोध किया ,ऑटोमेशन हुआ तो हमने विरोध किया, कम्प्यूटरीकरण हुआ , हमने उसका भी जोरदार विरोध किया। हर बारके संगठित विरोध का कारण 'नौकरी जाने' का भयादोहन  हुआ करता था।  लेकिन सरकार ने हर बार हर योजना पर कर्मचारियों के हितों की रक्षा का वादा किया ,अधिक वेतन भत्ते दिए और अपनी योजनाओं पर अमल किया। नतीजा यह रहा कि सरकारी क्षेत्र में योजनाएं लेटलतीफ होतीं गयीं और निजी क्षेत्र ने पूरे देशमें अपनी सफलता के झंडे गाड़ दिएहैं । करोड़ों को रोजगैर भी मिलाहै । अब यदि कोई यह सवाल उठाये कि  निजी क्षेत्र में शोषण हो रहा है ,काम के घंटे बहुत ज्यादा हैं ,पेंशन बगैरह नहीं है तो इसका वैश्विक उपाय जो होगा वह भारत में लागू किया जाना चाहिए। इस बाबत उन युवाओं को एकजुट संघर्ष करना चाहिए जो हितग्राही हैं। वामपंथी ट्रेड यूनियनें ,उनकी तहेदिल से मदद करेंगीं !श्रीराम तिवारी !


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