रविवार, 29 जून 2014

राज्य सत्ता के अंतसंबंधों पर चोट करने के लिए शंकराचार्य जी की प्रशंशा की जानी चाहिए।

 उदारीकरण ,भूमंडलीकरण,निजीकरण के इस दौर में दुनिया भले ही राजनैतिक और  आर्थिक परिदृश्य में 'आत्मसातीकरण' की चपेट में  आ गई हो अर्थात जो ताकतवर है वो कमजोर को उदरस्थ करता जा रहा हो ,  किन्तु  भारत में तो  इन दिनों 'धर्म -मजहब-अध्यात्म-दर्शन' भी बाजारीकरण की चपेट में आ गया है।ज्योतिष और द्वारिका पीठम्  के जगद्गुरु शंकराचार्य - स्वामी स्वरूपानंद जी ने शिर्डी के साईं बाबा को ईश्वर अवतार मानने से इंकार कर दिया है। वेशक  जो  सच्चे साईं भक्त हैं उनकी आस्था पर  किसी की कोई नकारात्मक   टिप्पणी से  कोई फर्क नहीं पड़ सकता। मैं  हर किस्म के धार्मिक पाखंड  से बहुत दूर हूँ किन्तु मेरे घर  की  हर  दीवार पर  साईं बाबा  अवश्य विराजमान हैं। रोज सुबह साईं की फोटो को नमन भी करता हूँ। किन्तु शंकराचार्य के वयान में मुझे कुछ  गलत नहीं लगा। क्योंकि मैं जानता हूँ कि  शंकराचार्य 'सनातन धर्म' के प्रकांड पंडित हैं और वे धर्म-दर्शन के अधिकृत वेत्ता हैं। मैं उनके सामने इस विषय में शून्य हूँ। वेशक ऐतिहासिक द्वन्दात्मक भौतिकवाद,सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद पर मैं स्वामी स्वरूपानंद जी को पछाड़ सकता हूँ किन्तु 'संतान धर्म' हिन्दू धर्म के लिए तो वे ही सर्वश्रेष्ठ हैं।  विश्व हिन्दू परिषद  या संघ परिवार से कोई धार्मिक  प्रेरणा लेने के बजाय शंकराचार्य ही इस विषय के सही मार्गदर्शक  हैं।   किन्तु जो धंधेबाज हैं ,धर्म के नाम पर राजनीति  करते हैं ,मंदिरों में आने वाले चढ़ावे पर जिनकी आजीविका टिकी है.उनके लिए तो नेता,मंत्री और ढोंगी बाबाओं से  संरक्षण चाहिए।वे  जल में रहकर मगर से बैर नहीं रख सकते।इसीलिये  वे सब  समवेत स्वर में अपने ही 'जगद्गुरु  शंकराचार्य का  मान मर्दन  करते हुए  उनको गरिया  रहे हैं। दरशल शंकराचार्य ही 'सनातन धर्म' या हिन्दू धर्म के असली सम्बाहक हैं। वे ही इसके असली प्रवक्ता हैं। यह बात  जुदा  है कि  अन्य साम्प्रदायिक मजहबी राष्ट्रों  की  तर्ज पर भारत में भी विगत दिनों  बहुसंख्यक धर्मावलंबियों को एकजुट कर राज्य सत्ता प्राप्त करने का सफल  प्रयाश किया गया है। अब शायद स्थाई भाव में यह  लक्ष्य हासिल किया जा रहा है।  राम मंदिर निर्माण  ,धारा ३७० समापन ,एक देश एक संस्कृति का समर्थन,एकचलुकानुवर्त्तित्व  और एक नेता जैसे प्रतिगामी  विचारों  की असफलता के उपरान्त विकाश और सुशासन के नाम पर ,भृष्टाचार निवारण के नाम पर मेंहगाई  कम करने के आश्वाशन पर सत्ता परिवर्तन हुआ है। लेकिन मूल एजंडा अब भी सुगबुगा रहा है। इसीलिए धार्मिक सत्ता और राज्य सत्ता की मिश्रित शक्ति  को एक साथ प्रायोजित किये जाने का घातक प्रयोग किया गया है। किन्तु  किसी एक खास  संगठन  या किसी एक खास नेता के पास सिमटते चले जाना लोकशाही और जनतंत्र के लिए शुभ नहीं है। यदि इस स्थति में  बहुसंख्यक समाज के धार्मिक नेता और खास तौर  से शंकराचार्य जी कोई सकरात्मक  हस्तक्षेप करते हैं  तो यह देशभक्तिपूर्ण कार्य है । क्योंकि  प्रकारांतर से वैश्विक संदर्भ में भारत को 'धर्मनिरपेक्ष' राष्ट्र के रूप में ही सुरक्षित,सुसंगठित और सम्पन्न बनाया जा सकता है। इसलिए यह बहुत जरुरी है कि  राजनीति  को -मजहब,जाति ,धर्म,और 'चमत्कारवाद' से दूर रखा जाए ।  यदि  किसी खास धर्म -मजहब का धर्मगुरु कोई नया सिद्धांत या फतवा जारी करता है तो यह जरूरी नहीं की उसे जबरन मनवाया जाए। किन्तु यदि वह किसी तरह के पुरातन  सिद्धांतों या मान्यताओं के संदर्भ में कोई तार्किक प्रस्तुति रखता है और वर्तमान भारतीय संविधान के अनुरूप है  तो  उसका मुँह  बंद करने के बजाय ,उस पर राजनीति  करने के बजाय 'शाश्त्रार्थ'से ही उसके पक्ष को सही या गलत ठहराया जा सकता है।   उदाहरण के लिए में भी 'शिर्डी के साईं बाबा ' को मानता हूँ।  किन्तु मुझे नहीं  लगता है कि  शंकराचार्य जी ने  मेरी आश्था  को ठेस  पहुंचाई। मैं तो  उनसे आग्रह करता कि वे अपना  यह अभियान जारी रखें। क्योंकि ईश्वर  , अवतार  ,देवता यदि इतने छुइ-मुई हैं कि  किसी की निंदा या स्तुति से ही उनका अस्तित्व  खतर में है तो वेशक उनका  नष्ट हो जाना नियति की आकांक्षा है। मानले कि  शंकराचार्य जी  ही सही  हैं और वेशक साईं बाबा कोई अवतार नहीं हैं। तो इससे किसका अनिष्ट हो रहा है। यदि वे वाकई  ईश्वर अवतार हैं तो शंकराचार्य की अनुशंषा के मुंहताज नहीं हैं। यदि  अवतार हैं तो जिनकी आस्था है वे मौज  करें। वेशक शंकराचार्य के वक्तव्य से यह कहाँ सिद्ध होता है कि सनातन धर्म के  प्रचलित सभी २४ अवतार और दुनिया के तमाम मुल्कों के,विभिन्न दीगर मजहबों के  पीर-पैगम्बर सभी अवतार ही हैं? उनका अभिप्राय तो उस 'दर्शन' से है जो 'संस्कृत' में रचा गया है ,जिसे वैदिक या सनातन धर्म  कहते हैं।  शंकराचार्य को इस विषय का विशषधिकार मिला हुआ है। चूँकि इस संस्कृत साहित्य में साईं  नदारद हैं  इसलिए बकौल उनके 'साईं ' ईश्वर अवतार नहीं  हैं। क्योंकि वे दशावतार या २४ अवतार दोनों  है। केवल शिर्डी के साईं ही नहीं बल्कि  इस आधार पर वे अभी रिजेक्ट किये जाते अं जो उस अधिकृत सूची में  नहीं  हैं । मेरा प्रतिवाद शंकराचार्य जी  से भी है कि वेशक साईं कोई अवतार नहीं  हों किन्तु वे  बिजूका  ही सही। बिजूका  यदि खेत में फसल की  सुरक्षा के काम आ सकता है,पशुओं,जानवरों और चोरों के हमले से किसान की  यदि  कुछ  मदद मिलती है  तो किसी का क्या जाता है ? उसका भी अपना  कुछ महत्व तो अवश्य ही है।  दुनिया में जब तलक हर  इंसान स्वयं  भगवान नहीं बन जाता ,महामानव नहीं   बन जाता तब तलक तो ईश्वर रुपी बिजूके को कायम रखने में  ही इस धरती की  भलाई ही है।   

शंकराचार्य ने प्रस्तुत  बयान के जरिए हिन्दू धर्म के अंदर व्याप्त गंदगी को सतह पर भी ला दिया है। तमाशा देखें कि “गौ” माता है, नंदी बैल के ऊपर विराजे शंकर जी मंदिर में स्थापित हैं। शंकर जी के गले में लिपटा सांप भी देवता है। मत्स्यावतार है, मछली भी देवता है। नरमुंड हाथ में लिए देवी मंदिर में विराजमान है। 33 करोड़ देवता हैं जिनमें एक “वाराह” देवता भी है। जी हां, “वाराह अवतार”। उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले का तीर्थराज “सोरों” कस्बा, जहां संत गोस्वामी तुलसीदास के पैदा होने का दावा भी किया जाता है, वह “शूकर क्षेत्र” है और वहां वाराह भगवान का मंदिर भी है, लेकिन सांई बाबा देवता नहीं हो सकते ! दलित के मंदिर में प्रवेश करने पर मंदिर अपवित्र हो जाता है! इंदिरा गांधी अगर मंदिर में चली जाती हैं तो मंदिर की गंगाजल से धुलाई होती है। शंकराचार्य के एक वक्तव्य ने इस सबकी भी स्वतः पोल खोल दी है।
            जो लोग शंकराचार्य जी के वक्तब्य से  आहत  हैं उनसे निवेदन है कि  उनकी पूरी बात सुने -समझे।उन्हें पता लग जाएगा की  शंकराचार्य जी ने अनायाश ही एक देशभक्तिपूर्ण कार्य किया है।  आडम्बरवाद -नित्य -नव अवतारवाद और  धार्मिक संस्थानों में बढ़ रहे व्यभिचार को  राज्य सत्ता की सीढी  बनाने के उपक्रम पर उन्होंने  निर्मम संघात किया है। शायद यह लोक चेतना के लिए,धार्मिक शुद्धिकरण के लिए और मानवीय मूल्यों  के क्षरण को रोकने का एक तुच्छ कदम सावित हो जाए। धर्म-मजहब-आश्था  का बाजारीकरण और मठ-मंदिरों में काले धन की  नवोदित नित्य नई अकूत - आवारा पूँजी  का राज्य सत्ता के  साथ नापाक रिश्ता  इन दिनों जग जाहिर है। इस अनैतिक और कदाचार प्रवृत्ति   पर  चोट करने के लिए शंकराचार्य जी  की प्रशंशा की जानी चाहिए।

                     श्रीराम तिवारी