जिन लोगों को उम्मीद थी कि कांग्रेस के महाभ्रष्ट तथा भाजपा के सीमान्त भ्रस्ट एवं साम्प्रदायिक वीभत्स रूप से 'आप' का चेहरा कहीं ज्यादा सुन्दर -सुदर्शन ,पवित्र और सकारात्मक है उन्हें कल की उस घटना से गहरा आघात लगना स्वाभाविक है जो दिल्ली विधान सभा में और उसके बाहर सड़कों पर भी परिलक्षित हुई। कल याने १४ फरवरी -२०१४ को दिल्ली विधान सभा में जो कुछ सम्पन्न हुआ या जो कुछ भी असंसदीय या अलोकतांत्रिक और अप्रिय घटित हुआ वह भाजपा ,कांग्रेस और 'आम आदमी पार्टी' के अपने-अपने आकाओं द्वारा पूर्व नियोजित और पूर्व लिखित स्क्रिप्ट के अनुसार ही सम्पन्न हुआ है। अब इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत में भृष्टाचार की गटर गंगा को साफ़ करना मुश्किल ही नहीं असम्भव सा ही है। कांग्रेस की दिल्ली विधान सभा में करारी हार के बरक्स मात्र ८ विधायकों होने पर भी उसकी यह सीमित ताकत भी भ्रस्ट व्यवस्था के पक्ष में शानदार राजनीति करने में सफल रही. भाजपा अपनी विराट ताकत के वावजूद केवल केजरीवाल को 'अकुशल' नेता सावित करने में अपनी ऊर्जा बर्बाद करती रही।
विगत ४९ दिनों में और कल के घटनाक्रम में अरविन्द केजरीवाल समेत 'आप' के अधिकांस नेता न केवल जल्दवाज़,अपरिपक्व और घोर अराजकतावादी सिद्ध हुए हैं बल्कि कांग्रेस और भाजपा के खिलाफ उपजे नकारात्मक जनाक्रोश की अल्पकालिक परिणिति जैसे नजर आये हैं। अब से लगभग दो महीने पहले सम्पन्न विधान सभा चुनाव के उपरान्त दिल्ली राज्य की त्रिशंकु विधान सभा में भाजपा के सबसे बड़ी पार्टी[३२ विधायक] होने के वावजूद, उसके लिए सत्ता के अंगूर निरंतर खट्टे रहे हैं ।कांग्रेस के पास दिल्ली की सत्ता में खोने के लिए कुछ नहीं था फिर भी उसकी लँगोटी बच गई. देश की राजनीति में खास तौर से दिल्ली राज्य की राजनीति में 'आप' के - बतौर एक नूतन एवं अभिनव प्रयोग के -दिल्ली राज्य सत्तारोहण का अधिकांस देशभक्तों ने तहेदिल से समर्थन ही किया था। किन्तु 'अति सर्वत्र वरजयेत्' का सूक्त वाक्य 'आप' ही नहीं समझ पाये तो इसमें किसका कसूर है ?कांग्रेस तो अभी भी कह रही है कि उसका समर्थन अभी भी 'आप' को ही जारी है।
वेशक भाजपा ,कांग्रेस और 'आप' ने आगामी लोक सभा चुनावों के मद्देनजर अपनी-अपनी चालें बड़ी सावधानी से चलीं हैं। इन तीनों दलों ने न केवल भारतीय संविधान की धज्जियाँ उड़ाईं हैं बल्कि प्रजातांत्रिक कार्यप्रणाली को भी रसातल में दफन कर दिया है।जनता के सवाल तो अब केवल नारे रह गए हैं महंगाई , भ्रस्टाचार और लोकपाल इत्यादि मुहावरे तो इन पूँजीवादी दलों के सत्ता प्राप्ति संसाधन मात्र हैं। भाजपा ने सर्वाधिक सीटें [३२] मिलने के वावजूद सरकार बंनाने की कभी गम्भीर कोशिश नहीं की क्योंकि 'आप' के तथाकथित उज्जवल धवल चरित्र से भयाक्रांत -संघ का यही फ़रमान था। ऐसे भी संघ परिवार और उसके अनुषंगी राजनैतिक संगठन भाजपा का लक्ष्य २०१४ के लोक सभा चुनाव हैं। चूँकि दिल्ली की जनता ने सरसरी तौर पर गैरकांग्रेस-गैरभाजपा का जनादेश दिया था । इस खंडित जनादेश की परिणिति जनाक्रोश के रूप में प्रकट हुई थी.जिसे लोगों ने आम आदमी पार्टी के रूप में नाम व्यक्त किया था। अपने ४९ दिन के राजनैतिक जीवन में दिल्ली राज्य की 'आप' सरकार ने जो कुछ भी किया है वो भले ही सब कुछ कूड़ेदान में फेंकने लायक हो किन्तु 'आप' का यह ऐलान पूर्णतः विश्वसनीय है कि "अम्बानी ने कांग्रेस और भाजपा को एक जुट कर आप को असफल करने का हुक्म दिया दिया है " यही सच है। १९५८ में केरल की ई एम् एस नम्बूदिरीपाद के नेत्तव में वामपंथी सरकार से लेकर बंगाल की वामपंथी - वुद्धदेव सरकार को षड्यंत्रपूर्वक गिराने और पूँजीपतियों की समर्थक सरकार स्थापित करने का सिलसिला आजादी के बाद से ही भारत में चलता आ रहा है। कभी कभी तो केवल भारत के पूँजीपति ही नहीं बल्कि अमेरिका के राजदूत ,सीआईए और दुनिया भर के चोट्टे भी वामपंथ और कम्युनिस्टों के खिलाफ यही सब करते रहे हैं जो इन दिनों 'आप' के साथ हो रहा है। अब केजरीवाल की पीड़ा के मार्फ़त देश की जनता को असलियत समझने में सहूलियत होनी चाहिए।
हालांकि यह खबर उनके लिए कतई नई या आश्चर्यजनक नहीं है जो विगत ६६ साल से यही बात दुहराते आ रहे हैं। बल्कि अकेले अम्बानी के खिलाफ नहीं ,अकेले टाटा के नहीं ,अकेले बिड़लाओं के नहीं बल्कि सम्पूर्ण कार्पोरेट जगत और उसके साथ-साथ हजारों एकड़ उपजाऊ जमीनों पर काबिज भूस्वामियों के निमित्त भी देश के कुछ प्रगतिशील लड़ाकू और क्रांतिकारी तत्व अनवरत संघर्ष करते चले आ रहे हैं। मेरा अभिप्राय वाम पंथ और साम्यवादियों से है .केजरीवाल और उसके समर्थकों का ज्ञान केवल विधि के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि भारत के राजनैतिक - सामाजिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में भी नगण्य ही है। यही वजह है कि बेहतर और पवित्र उद्देश्य के वावजूद आज 'आप' के नेता संदेहास्पद स्थति में पहुँच चुके हैं। यदि वे समझते हैं कि जन-लोकपाल के बहाने सत्ता से भागकर अपनी अकर्मण्यता को छिपाकर आइंदा वेहतर राजनैतिक परफार्मेंस दे सकेंगे तो ये उनके लिए खामख्याली ही सावित होगी। मोदी के आकर्षण और 'आप' के विक्रर्षण में जनता ३२ से ३६ सीटें भाजपा को क्यों नहीं देगी?
जिस शीला दीक्षित ने १५ साल तक अनेक झंझावातों का मुकाबला कर दिल्ली को चमन बना दिया उसे और उसकी कांग्रेस को पुनः दिल्ली की जनता वापसी क्यों नहीं करा सकती ? केजरीवाल और 'आप' को समझना चाहिए कि आप' कहीं भी किसी भी मुद्दे पर शीला सरकार से बेहतर नहीं कर पाये हैं। वेशक आप मीडिया में अंगली कटाकर वीरगति को प्राप्त होते रहें किन्तु जनता 'आप' के अनुप्रयोगों का चारा नहीं बनना चाहेगी। आइंदा जो भी चुनाव होंगे जनता 'आप' से मुक्त होना चाहेगी। वैसे भी अम्बानी या अन्य पूँजीपति तय कर चुके हैं कि इस बार वे मोदी को ही मौका देंगे। ये बात अलग है कि कांग्रेस के चतुर चालाक नेता तीसरे मोर्चे की भाजी में अपने घी का तड़का मार दें और मोदी पी एम् इन वैटिंग ही रह जाएँ। जनता तो बदलाव चाहती है। सुख समृद्धि और शांति चाहती है। उसे 'आप' के अराजकता पूर्ण आन्दोलनों से नफरत सी हो चली है। वैसे भी धरना -प्रदर्शन -हड़ताल अब क्रांति के नहीं बल्कि भ्रान्ति के कारक और रचनातमक राजनीति को जनता से दूर होने के साधन बन गये हैं । आज का युवा उसी को पसंद करता है जो उसको जाब दिलवाने की बात करता है ,जो कंप्यूट्रर ,संचार क्रांति और अधुनातन वैज्ञानिक अनुसंधनों को जन-जन तक पहुँचाने की बात करता है। जो बहरत की नहीं 'इण्डिया ' की बात करता है। चूँकि केजरीवाल और आप के नेता दिल्ली राज्य की राजनीति छोड़ - देश की बड़ी राजनीति[संसद] के तलबगार हो गए हैं इसलिए उन्हें यह जानना और करना जरूरी था। 'आप' को शानदार मौका मिला था किन्तु आप जब दिल्ली राज्य की सरकार चलानमे में ही असफल रहे हैं तो सम्पूर्ण भारत याने विराट भारत की बागडोर 'आप' को कोई क्यों सौंप देगा ?
श्रीराम तिवारी
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