आगामी लोकसभा चुनाव ज्यों-ज्यों नजदीक आते जा रहे हैं,त्यों-त्यों लगातार मीडिया प्रायोजित सर्वे में भावी प्रधान मंत्री हेतु - नरेंद्र मोदी अव्वल , अरविन्द केजरीवाल दूसरे और राहुल गांधी तीसरे नंबर पर आम जनता की पसंद बताये जा रहे हैं. कहीं-कहीं कभी-कभार लाल कृष्ण आडवाणी ,शिवराजसिंह, नीतीश ,मुलायम, शरद पंवार ,नंदन निलेकणि या किसी अन्य व्यक्ति विशेष को भी इन तथाकथित सर्वे में भारत के भावी प्रधानमंत्री पद का सपना देखने को उकसाया जा रहा है।डॉ मनमोहनसिंह की , सोनिया गांधी की या किसी अन्य कांग्रेसी की नेत्त्व कारी भूमिका की अब कोई चर्चा नहीं करता। आगामी लोक सभा चुनाव उपरान्त केंद्र सरकार के गठन और उसके मुखिया याने प्रधानमन्त्री के चयन में जिस तीसरे मोर्चे की सबसे अहम भूमिका होगी उसकी - या जो वास्तव में २०१४ के संसदीय चुनाव उपरान्त भारत का प्रधान मंत्री बनेगा-उसकी चर्चा अभी तक तो बहुत कम ही हो रही है।
अपवाद स्वरुप सिर्फ वाम मोर्चा ही है जो व्यक्तिवादी सोच से परे विशुद्ध प्रजातांत्रिक तौर -तरीके से सभी गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई पार्टियों को एकजुट करने का सतत प्रयाश करता रहा है। विगत दो दशक से निरंतर वाम मोर्चे ने तीसरे मोर्चे को न केवल 'रूप -आकार' देने में - एकजुट करते हुए बल्कि 'सार रूप' में भी हमेशा नीतियों के बदलाव की भी बात की है । वाम मोर्चे की अगुआई में ही दिल्ली में सम्पन्न ११ दलों का सम्मेलन- केवल आगामी लोक सभा चुनाव में अपनी संसदीय ताकत को बढ़ाने तक ही सीमित नहीं है बल्कि देश को सही नेत्तव देने -महँगाई -भृष्टाचार पर अंकुश लगाने ,अमीर-गरीब के बीच बढ़ रही खाई को कुछ कम करने ,साम्प्रदायिक उन्माद पर रोक लगाने , वैशविक परिप्रेक्ष्य में भारत की गरिमा पूर्ण उपस्थिति हेतु प्रयास करने के साथ-साथ अन्य और भी महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किये हैं। वाम दलों -सीपीआई [एम्] , सीपीआई ,सपा,जदयू,जदएस ,एआईडीएमके, बीजद असम गण परिषद् , आरएसपी ,फॉर बर्ड ब्लाक तथा झारखंड विकाश मोर्चा इत्यादि दलों ने अपनी बैठक में निर्णय लिया है कि वर्तमान चालू सत्र में यूपीए सरकार द्वारा प्रस्तुत बिलों को देश हित में ही पारित कराएंगे। संसद को सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी दल भाजपा का ' चुनावी लांचिंग पैड ' नहीं बनने देंगे। कोई भी बिल बिना चर्चा के हो-हल्ले या अँधेरे में पारित नहीं होने दिया जाएगा तीसरे मोर्चे में मायावती ,ममता इत्यादि भी शामिल होना चाहते हैं किन्तु मायावती सपा से और ममता को माकपा से परेशानी है इसलिए उन्हें अभी तो इस अलायंस में आमंत्रित ही नहीं किया गया।
भाजपा के पीएम इन वेटिंग - नरेंद्र मोदी , 'आप' के अरविन्द केजरीवाल और कांग्रेस के राहुल गांधी - ये तीनों ही शख्स सकारात्मक सोच में या शैक्षणिक योग्यता में जब सीधे सादे - डॉ मनमोहनसिंह के घुटनों तक भी नहीं आते तो वाम मोर्चे के क्रांतिकारी सोच वाले,ईमानदार छवि वाले ,दिग्गज कामरेडों के समक्ष या नीतीशकुमार ,शरद यादव ,नवीन पटनायक , मुलायम सिंह या जय ललिथा जैसे खुर्राट नेताओं के सामने ये क्या खाक टिक पाएंगे। राजनीती से बाहर देश के सभ्य समाज में तो सैकड़ों नहीं हजारों ऐंसे हैं जो इन अधकचरे - अपरिपक्व नेताओं याने मोदी ,केजरीवाल और राहुल से कई गुना बेहतर राजनैतिक सूझ- बूझ और नीतिगत समझ रखते हैं।लेकिन भारत का जन-मानस खंडित होने से एकजुट नहीं हो पाता। इसी- लिए जनादेश भी खंडित मिलने की पूरी सम्भावनाएं निरंतर मौजूद हैं। भारत का आम आदमी - वर्तमान व्यवस्था से इतना उकता चूका है कि वर्तमान विनाशकारी नीतियों को नहीं बदल पाने की कुंठा में केवल एक - दो नेताओं को ही बदलते रहने के सनातन विमर्श में फिर से उलझ गया है। यही वजह है कि विभिन्न सर्वे में नीतियों -कार्यक्रमों ,मूल्यों या सिद्धांतों पर नहीं व्यक्ति विशेष या नेता विशेष पर मीडिया का फोकस जारी है.
सर्वे में उभारे जा रहे इन तीन नामों -मोदी ,अरविन्द और राहुल से तो डॉ मनमोहनसिंह ही बेहतर हैं। वेशक यूपीए -१ के समय चूँकि वामपंथ का बाहर से समर्थन था इसलिए घोर पूँजीवादी -सुधारवादी मनमोहनसिंह को भी तब 'वाम मोर्चे ' के दवाव में ही सही मनरेगा ,आरटीआई ,खद्यान्न सब्सिडी इत्यादि लोकोपकारी निर्णय लेने पड़े। लेकिन यूपीए -२ का कार्यकाल वेहद निराशाजनक ही रहा है. केवल भ्रष्टाचार , मॅंहगाई और रेप ही देश को कलंकित नहीं कर रहे बल्कि और भी गम हैं जमाने में इनके सिवा। जनता ने यूपीए को विगत दिनों सम्पन्न विधान सभा चुनावों में अच्छी नसीहत दी और तब कांग्रेस और उसके नेता नंबर -दो राहुल गांधी ने कमान अपने हाथ में ले ली। यही वजह है कि विगत दो सप्ताह में यूपीए सरकार ने अनेक लोक -लुभावन और वोट-पटाऊ निर्णय लिए हैं। सब्सिडी वाले एलपीजी गेस सिलेंडरों की संख्या - पहले ६ फिर ९ और अब १२ करने ,सीएनजी पीएनजी के दाम घटाने ,सब्जियों का प्याज का निर्यात रोकने और रिजर्व बेंक के मार्फ़त मौद्रिक नीतियों में साहस पूर्ण बदलाव करने से निसंदेह महँगाई कुछ कम हुई सी लगती है। विगत दो सप्ताह से मध्यप्रदेश के मालवा और खास तौर से इंदौर मण्डी में २ रुपया किलो टमाटर और ४ रुपया किलो आलू -प्याज के लेवाल नहीं मिल रहे। इंदौर की चोइथराम मंडी से अधिकांस सब्जियां १० रुपया किलो से कम में बिक रहीं हैं। किराना खेरची भाव तो कम नहीं हुए किन्तु थोक में शक्कर ,तेल तुअर दाल , चना ,गेंहूं, मूंग,मोटा अनाज , सोयाबीन और अन्य खाद्द्यान्न के भाव या तो स्थिर हैं या कम हुए हैं।
दूसरी ओऱ यूपीए -२ सरकार ने केंद्रीय कर्मचारियों और सार्वजनिक उपक्रमों समेत तमाम संगठित क्षेत्र के मजदूरों-कर्मचरियों को बम्फर महंगाई भत्ता का अबाध भुगतान किया है। सातवें वेतन आयोग की स्थापना भी कर दी गई है। इसके परिणाम स्वरुप निजी क्षेत्र में भी मजदूर -कर्मचारियों के वेतन -भत्तों में बृद्धि का जोर दिखने लगा है। अकेले आई टी सेक्टर में ही लगभग ४०% युवा अपने वर्तमान रोजगार को महज इसलिए छोड़ने पर आमादा हैं कि उन्हें ३० से ४० % बढे हुए वेतन की दरकार है। ये बदलाव केवल वैश्विक या युगांतकारी परिवर्तनों से ही नहीं बल्कि केंद्र सरकार की तात्कालिक सुधारात्मक क्रियाओं से भी सम्भव हुआ है। यह सच है कि विगत विधान सभा चुनाव में बुरी तरह हार का मुँह देखकर कांग्रेस के खुर्राट नेताओं ने राहुल गांधी के मार्फ़त मनमोहनसिंह पर इन जन-कल्याणकारी नीतियों के अमल का दवाव बनाया होगा । वेशक इन सकारात्मक परिवर्तनों का श्रेय राहुल गांधी को ही दिया जाएगा क्योंकि वे ही कांग्रेस की ओर से भारत के अघोषित 'भावी प्रधान मंत्री' हैं । किन्तु फिर भी देश की अधिसंख्य जनता को राहुल गांधी पर अभी उतना भरोसा तो नहीं है कि उनकी पार्टी कांग्रेस को या यूपीए को रिपीट कर सकें।
मैं सलमान खान के उस बक्तव्य का स्वागत करता हूँ जो उन्होंने मकर संक्रांति के अवसर पर अपनी फ़िल्म 'जय हो' के प्रमोशन के अवसर पर दिया था। जिसमें उन्होंने कहा था कि 'नरेंद्र मोदी गुड मेंन हैं ' किन्तु जब उनसे पूंछा गया कि मोदी प्रधान मंत्री के काबिल हैं या नहीं तो सल्लू मियाँ का जबाब था कि 'देश का प्रधान मंत्री तो 'बेस्ट' मेन ही होना चाहिए' । क्या शानदार जबाब है ! लाजबाब ! उस समय मोदी जी की सूरत जिस-किसी ने भी देखी हो बिलकुल पिटे हुए मोहरे जैसी या चल चुके कारतूश जैसी हो गई थी। सलमान खान ही नहीं हर देशभक्त और समझदार नागरिक यही चाहेगा कि देश का प्रधानमंत्री ही नहीं , राष्ट्रपति ही नहीं, मुख्य चुनाव आयुक्त ही नहीं ,लोकपाल ही नहीं ,प्रधान न्यायधीश ही नहीं , बल्कि तमाम प्रमुख पदों पर विराजमान समस्त नेता , अफसर ,न्यायविद् और सिस्टम संचालक भी 'बेस्ट' ही हों ! न केवल मोदी , राहुल और केजरीवाल बल्कि जो भी देश का नेत्तव करेगा उस को भी सिद्ध करना होगा कि वो सवसे 'बेस्ट' है.
जो नेता ,अफसर और राजनयिक देश और दुनिया का भूगोल और इतिहास ही नहीं जानते ,देश की सामाजिक -सांस्कृतिक विविधताओं के अंतरसंबंधों को ही नहीं जानते वे भले ही लोक सभा में,शाशन-प्रशासन में , सत्ता के समीकरण में अपनी पेठ बना लें किन्तु भारत जैसे विशाल राष्ट्र का नेतत्व करने की काबिलियत के लिए 'बेस्ट' होना जरूरी है। नरेंद्र मोदी ,राहुल गांधी और अरविन्द केजरीवाल - इन तीनों में ही'बेस्ट' होने का माद्दा नहीं है। साझा सरकारों या गठबंधन के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम का महत्व जाने बिना ,रोजगार के अवसरों की तलाश , बढ़ती आबादी पर नियंत्रण , पर्यावरण की समस्या ,पड़ोसी राष्ट्रों समेत विश्व की चुनौतियाँ , महँगाई पर नियंत्रण का सूत्र ,ऊर्जा संकट का निदान और मौजूदा जातीय -साम्प्रदायिक उन्माद की चुनौतियों के समाधान प्रस्तुत किये बिना ये तीनों ही अधूरे नेता हैं। केवल एक- दूसरे की लकीर को पोंछने में लगे ये तीनों नेता -मोदी ,राहुल और केजरीवाल - खास तो क्या 'आम नेता ' भी नहीं हैं।
सर्वे करने वाले और करवाने वाले याद रखें कि उनके निहित स्वार्थ और उनकी चालाकियों को भी जनता खूब समझने लगी है. जनता ने जिस तरह २००४ में ,२००८ में सर्वे फेल किया था वैसे ही २०१४ में भी भारत की जनता आगामी लोक सभा चुनाव में इन प्रायोजित पूर्वानुमानों को फेल कर देगी।नरेद्र मोदी को सिर्फ उतना ही बोलना -करना और लिखना आता है जितना वे 'संघ की शाखाओं ' में सीख पाये हैं । इसके अलावा जब भी वे बढ़चढ़कर भाषणबाजी या शाब्दिक लफ्फाजी करते हैं तो वाकई 'फेंकू' जैसे ही लगने लगते हैं। जबसे वे गुजरात के मुख्यमन्त्री बने हैं तबसे उन्हें ये इल्हाम सा हो गया है कि वे पूरे भारत को गुजरात बना देनें [गोधरा नहीं ] की क्षमता रखते हैं।आधुनिक युवाओं को लुभाने , एनआर आई को लुभाने ,कांग्रेस - राहुल और सोनिया गांधी की निरंतर आलोचना करने,मीडिया को मेनेज करने की अतिरिक्त योग्यता के होने के वावजूद मोदी अभी तक देश को ये नहीं बता पाये कि यदि वे वास्तव में ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ नेता हैं तो लोकायुक्त ,सीबीआइ , लोकपाल जैसे शब्दों से चिढ़ते क्यों हैं? वे किसी खास महिला की जासूसी क्यों करवाते फिरते हैं ? उनके मुख्य्मन्त्रित्व में -गुजरात में चोरी-चकारी , हत्याएं -लूट ,बलात्कार क्यों हो रहे हैं ? गुजरात में गरीबी क्यों बड़ी ? १७ रुपया रोज कमाने वाला नंगा -भूँखा गुजराती अमीर कैसे हो गया ? यदि उनका ये कथन मान भी लिया जाए कि गुजरात में ये गरीब तो यूपी -बिहार के हैं, तो मोदी जी इन गुजरात स्थित गरीबों का भला करने के बजाय यु-पी बिहार में वोट कबाड़ने की नौटंकी पर अरबों रूपये क्यों फूंक रहे हैं ? इतना ही नहीं जब मोदी के गुजरात में केशु भाई पटेल ,काशीराम राणा , आनंदी बेन, तथा शंकरसिंह बघेला जैसे धाकड़ नेता तथा अनेक अफसर -कर्मचारी भी डर -डर कर जी रहे हैं तो समझा जा सकता है कि अल्पसंख्यकों का हाल क्या होगा ? जसोदा बेन जोकि मोदी जी की धर्म पत्नी हैं ,मोदी जी जब उनके साथ ही न्याय नहीं कर सके तो देश के करोड़ों नर-नारियों को वे क्या न्याय दे सकेंगे ?जब गुजरात ही भय के साये में जी रहा है तो पूरे भारत को क्या पडी कि आ बैल [मोदी] मुझे मार ? स्वयं मोदी भी- कभी आडवाणी , कभी सुषमा स्वराज ,कभी शिवराजसिंह चौहान , कभी राजनाथसिंह और कभी गडकरी से सशंकित रहते हैं क्यों ? यह सर्वविदित है कि नरेद्र मोदी भारत के पूँजीपति वर्ग के सबसे पसंदीदा पी एम् इन वैटिंग ' हैं। यही उनकी सबसे बड़ी पूँजी है. प्रधानमन्त्री बनने के लिए यदि सिर्फ इसी पूँजी की दरकार होती तो आजादी के बाद नेहरू,-शास्त्री या इंदिराजी प्रधानमंत्री नहीं होती बल्कि टाटा-बिड़ला और अम्बानी या अजीम प्रेमजी जैसे लोग प्रधानमन्त्री होते। यदि केवल कट्टर हिंदुत् से प्रधानमन्त्री बनना सम्भव होता तो लाल कृष्ण आडवाणी कब के प्रधानमन्त्री बन गए होते! उन्हें तो फिर भी साम्प्रदायिकता के सवाल पर संदेह का लाभ एक बार दिया ही जा सकता था. आडवाणी से अधिक नरेद्र मोदी में ऐंसी क्या अतिरिक्त योग्यता है जिसे देखकर देशवासी उन्हें 'बेस्ट' मानकर उनकी पार्टी भाजपा को २७२ सांसद चुनकर दे देंगे ? अर्थात मोदी पी एम् इन वेटिंग ही हो सकते हैं 'बेस्ट' नहीं ! याने प्रधान मंत्री नहीं बन सकते !
राहुल गांधी को गम्भीरता से कांग्रेसी ही नहीं ले रहे हैं तो देश की जनता को क्या पड़ी कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाकर याने यूपीए को तीसरी बार देश का बेडा गर्क करने का मौका दिया जाए ! जब तक राहुल ने 'टाइम्स नाउ' के पत्रकार अर्णव गोस्वामी को इंटरव्यू नहीं दिया था। तब तक तो संदेह का लाभ देने को भारत के असंख्य नौजवान फिर भी तैयार थे किन्तु इस इंटरव्यू के बाद न केवल कुछ सिख नाराज हुए , न केवल कुछ मुसलमान निराश हुए बल्कि करोड़ों कांग्रेसी भी हताश हैं कि इस इंटरव्यू को फेस करते हुए राहुल गांधी ने सिद्ध कर दिया कि उनमें नेत्तव का माद्दा नहीं है।
केजरीवाल के बारे में कुछ भी कहना सुनना अब समय की बर्बादी है। वे गरीबों -मजदूरों और कामगारों के दुश्मन और सफ़ेद पोश मलाइदार सभ्रांत वर्ग के ज्यादा खेरखुवाह तो हैं ही साथ ही वे राष्ट्रीय राजनीती में पुराने खिलाड़ी की तरह पेश आ रहे हैं। उनके कथनी और करनी में अंतर है। उनके संगी साथी ही अधकचरे और उच्चश्रंखल हैं. अकेले योगेन्द्र यादव और आशुतोष क्या कर पाएंगे। केजरीवाल और 'आप' के साथ अराजकतावादियों का जो हुजूम था वो भी बिखर चूका है। एनआरआई सावधान हो गए हैं। केजरीवाल को रोज-रोज नई -नई मुसीबतें दरपेश हो रहीं हैं। किसी को उम्मीद नहीं कि वे दिल्ली के मुख्यमंत्री ५ साल तक बने रह सकेंगे। कुछ तो ६ माह की गारंटी भी नहीं ले रहे हैं। भारत का प्रधानमंत्री बनने अर्थात 'बेस्ट' मेन बनने की क्षमता नरेंद्र मोदी ,राहुल गांधी और अरविन्द केजरीवाल में तो नहीं है। उम्मीद है कि आगामी मई-२०१४ तक देश की जनता ही न केवल अपना 'बेस्ट मेन ' याने अगला प्रधानमंत्री [संसद के मार्फ़त] चुनेगी बल्कि उसकी नीतियां -नियत भी ठोंक बजाकर पहले देख लेगी।
श्रीराम तिवारी
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